शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

आतंकवाद के भस्मासुर की चुनौतियों के सामने आख़िर हम नाकाम क्यों?


आतंकवाद के भस्मासुर की चुनौतियों के सामने आख़िर हम नाकाम क्यों हैं?हम थोडा आगे देखें लादेन को जिसने सर पर बैठाया,वो ही विश्व व्यापी सर दर्द बन गया,और जिसकी निवारक गोली कोई देश इजाद नही कर पाया,तेल के कुओं पर कब्जा करने के लिए आक्रमण के बहाने ,अफगानिस्तान को नेस्तान्बूद करने के लिए इरान को धमकाना कभी मुस्लिम तो कभी हिंदू राष्ट्रों को परेशान करना,तो कभी लोकतंत्र के नाम पर ,कभी जेविक रासायनिक हथियारों के नाम पर तो कभी परमाणु कार्यक्रम के नाम पर हमले,,,सभी जानते हैं लेकिन महा शक्ति शाली अमेरिका मैं सत्ता परिवर्तन के बाद ,जो अभी ख़ुद भी आतंकवाद की आंच की झुलसन को भूलानही होगा,भारत की मुश्किल समझ रहा है , ये जो खामियाजा हम भुगत रहें हैं ,इसके लिए हमारी अन्दुरुनी हालत भी कम जिमेवार नही?इसके केन्द्र मैं छेत्रिय अलगाव भी प्रमुख है, पंजाब मैं भिंडरावाले का उपयोग पूरे देश का सर दर्द बना...इंदिरा गांधी की ह्त्या,सिख विरोधी दंगे,--कुर्बानियां ,आतंकियों की नोक पर कश्मीर ,श्रीलंका का तमिल सिंहली विवाद और राजीव गांधी की बलिऔर कुछ ही दिनों पहले मुंबई मैं भी ठाकरे की जातीय राजनीति ऐसे और भी कारण हैं , ,,आज भी पंजाब कश्मीर पूर्वोत्तर ,श्रीलंकाके आतंक के मूल मैं संकीर्ण `छेत्रिय धार्मिक व् जातीय चेतना है तो नक्सलियों व् नेपाल के माओवादी हिंसा के मूल मैं आर्थिक विषमता,रातों -रात अमीर बनने उपभोक्ता संस्क्रती और बेरोजगारी ने भी आतंकी गतिविधियों को खूब फूलने के अवसर दिए ,रास्ट्रीय जातीय धार्मिक भावनाओं के नाम पर युवा शक्ति का दुरूपयोग अब चलन मैं है ,महात्मा गांधी के बाद इतनी कुर्बानियां -पंजाब व् कश्मीर के आतंकवाद के शिकार १९८४ के सिख विरोधी दंगे बाबरी मस्जिद ,मुंबई बोम ब्लोस्त ,गोधरा गुजरात मैं बेगुनाहों की बलि और अब फिर मुंबई मैं लगातार आतंक का तांडव निर्दोषों की कुर्बानी हमारे लिए क्या अन्तिम सबक होगा या.....?

बुधवार, 26 नवंबर 2008

कोष्टक मैं बंद दिसम्बर,फ्लूट पर गीत ,कभी -कभी,,प्रेम से बड़ी होती समझ की नफरत होजाए रोने गाने और प्रेम से


उसका स्वर हमेशा ही निर्णायक और निर्मम होता है,टाइम केलकुलेटिंग,सेल्फिश ...आधी रात को उचटी नींद के बाद उसने सोचा ,अपने आप से नाराज हो जाए ,लेकिन क्या होगा? इतना अनिश्चित कोई कैसे हो सकता है,ना किसी पत्ती की हरियाली ने उसे नम किया ना फूल ने खुश,ना गीत ने अभिभूत ,कच्चे अनार सा चटका तूरा,बेस्वाद मौसम उसके आँगन से गुजर गया,विरोध दर्ज नही हो पाया, करना भी नही ...प्रेम -विभ्रम या उस रंग मैं बुरी तरह डूब जाना क्या जरूरी था,...उन आंखों की पनीली चमक ऐसी ही की आपके अंहकार को परे कर दे,वो अंदाज ऐसा की आप सोचें की आप पर कोई दिलों जान से फिदा, लेकिन सतह से थोडा और गहरे उतरकर प्रेम से बड़ी होती समझ ने बकायदा ,उसे छोटा -पंखहीन आत्मा की तरह कर दिया,..पिछली सर्दियों मैं सावधानी से सहेजे-तह किए उनी गर्म कपड़े कभी ना मिटने वाले सलवटों के साथ पहने जाने को मजबूर होते,अफसोस पिछला सब कुछ स्पष्ट होने लगा इतने असम्प्रक्त होकर जीना की अन्दर धूनी की तरह रमे दुःख की आंच ताप महसूस ही ना हो और छोड़ देना किसी बीहड़ कोने पे और ,दोहराया गया बर्ह्मास्त्र हजारों बार,सारे सफल साधे गए अचूक निशानों के बाद विजेता तो बनना ही है ,ये कहते हुए की मुझे तुम्हारे फूलों ,गीतों ,और आंसुओं की फिक्र रहेगी उम्र भर और फिर जो नही सोचा जा सकता था वही सामने था, उबड़-खाबड़ पर घसीटते हुए स्याह अंधेरों मैं उजली सुबह का इन्तजार करते रह जाना ,ओस भीगी सुबह मैं नीले पंखो वाली चिडिया खुश तो जरूर करती है किंतु एक अज्ञात भय मन ही मन कुड-मुडाता है,कोष्टक मैं ,बंद दिसम्बर सामने है फ्लूट पर हर गीत अच्छा लगता है लेकिन खय्याम की धुन हमेशा तरोताजा ,...कभी-कभी नफरत होने लगती है इतने रोने गाने और प्रेम से आख़िर,....
सातवे आसमान में थे वे जब सितारों के गुच्छे उनकी हथेलियों में थे...

सोमवार, 24 नवंबर 2008

तुम भीतर के फरिश्ते को नए पंख देते हो ,

सभी कुछ तो है तर्क से परे,
तुम्हारा आना-तुम्हारा जाना
कहीं दूर ओट मैं खुलना -खिलखिलाना,
यका-यक गुमसुम हो जाना,
तुम्हारी प्यार की अनबुझी प्यास,
और हर एक पर गहरा अविश्वास ,
इतना खुलापन ,इतनी घबराहट ,
भीतर की उदास इतनी मिठास ,
मैं हार मान लेता हूँ,
मेरी बुद्धि से परे है।
पर मेरी बुद्धि को बार -बार तोड़कर
मुझसे तुम परे नही होते
ऐसा क्यों?
क्यो ऐसा होता है की
तुम भीतर के फरिश्ते को नए पंख देते हो
कैसी विडंबना है ,की तन-मन को उत्तेजनाये तोड़ती है
सपने सहलातें हैं,मेरा वो तन-मन मेरा नही रहता
तुम्हारे होने का सवाल नही उठता ,
पर वो ,पराया होकर भी ,
पराया नही।
अपनी डायरी से,...विद्या निवास मिश्र की प्रेम कविता से ,ये अंश सरल शब्दों किंतु कठिन भावों की बानगी मैं इतने सहज हैं की प्रेमी के सोंधे तर्कों को ,हर अगली पंक्ति पे, खुबसूरत मोड़ पे छोड़ देतें हैं.

शनिवार, 22 नवंबर 2008

सिटीजन केन ..सफलता, यश पैसा, सत्ता और अमरता की वासनाएं किस तरह किसी का क्रमिक आध्यात्मिक स्खलन करती हैं,की अंत मैं उनके पास बाकी सिर्फ डर और उसकी छाया

सिटीजन केन फिल्म का महत्व यह है की इसने सिनेमा को आर्ट फार्म की तरह इस्तमाल किया इसके डीप फोकस शॉट सब्जेक्टिव केमरों का प्रयोग अपारम्परिक रौशनी ,छायायों और अजीब कोणों का आविष्कार ,लंबे-लंबे शॉट्स फिल्म निर्माण के तकनिकी इतिहास की अमूल्य धरोहर बन गएँ हैं ,इस फिल्म ने समाचार को नैरेटिव की तरह इस्तमाल करना भी सिखाया ,...सफलता यश ,पैसा और अमरता की वासनाएं किस तरह से एक पत्रकार का क्रमिक आध्यात्मिक स्खलन करती है ,फ्लेश बेक मैं चलती जिन्दगी को किस ,तरह कहानी त्रासद तरीके से बताती है की की सब कुछ भर लेने की चाहत किस तरह आदमी को खाली कर देती है की लोग अपने किले जैसे निवास को व्यक्तिगत अभ्यारण बना लेतें हैं और अंत मैं उनके पास बाकी सिर्फ डर और उसकी छायाएं रह जाती हैं .......अखबारी दुनियाके एक सम्राट के मुँह से मरते हुए एक शब्द निकलता है रोज बढ़ इस आखरी शब्द का रहस्य क्या है ,..एक रिपोर्टर इसे ढूँढने निकलता है और उजागर होती है एक ऐसे अखबार मालिक की कहानी जिसने शुरुआत तो की थी समाज सेवा के महान आदर्शों के साथ ले किन जो अंततः निर्मम सत्ता -लिप्सा मैं परिणित हो जाती है ,...३७ अखबारों,दो सिंडिकेट ,एक रेडियो नेटवर्क का मालिक ,जिसके पास फेक्ट्रियां अपार्टमेन्ट ,पेपर मिलें जंगल भी है और जहाज भी ,....जिसे कभी फासिस्ट कहा गया जो कभी रूजवेल्ट के साथ दिखाई गया तो कभी हिटलर ,जो जनमत का महान निर्माता था ,स्वयं गवर्नर पद का प्रत्याशी भी ,संभवत जिसका अगला कदम व्हाइट हाउस ही था ,जो ना सिर्फ पेपर के ही नही बल्कि ख़ुद एकन्यूज़ के लिए जाना गया ,जो पीत पत्रकारिता का अग्रदूत था ,..वो सिटीजन केन ख़ुद प्यार के एक स्केंडल मैं फँस जाता है ,..और उसका साम्राज्य उसकी आंखों के सामने धराशायी हो जाता है ,जब थेचर उसे याद दिलाती है की उसका अखबार सालाना १०लाख डॉलर के नुक्सान को झेल रहा है ,तो केन मजाक मैं कहता ,तो इस गति से उसे अखबार ६० साल मैं बंद करना होगा ,एक ऐसा अखबार मालिक जो टेबूलायेड से प्रेरणा ग्रहण करता है जिसका मानना था की यदि हेड लाइंस बड़ी होगी तो न्यूज़ भी बड़ी होगी ,ना सुनी गई चेतावनियाँ ,...वो अपनी बेलेंस शीट की चेतावनी नही सुन पाया ,जो अपने अखबार मैं नागरिकों को इंसान समझने ,उनके अधिकारों की लडाई लड़ने की घोषणा एक बड़े बॉक्स मैं करता था वोही केन अपने प्रतिद्वंदी अखबारों को हारने की कवायद मैं एक चूहा दौड़ मैं पड़ जाता है ,आज भी संभ्रम बना हुआ है केन के अन्तिम शब्द रोज बढ़ का क्या अर्थ था ,क्या वो उसकी प्रेमिका का नाम था ,..पर उसने तो अपने सिवा किसी से प्रेम किया ही नही ,वो किसी रेस होर्स का नाम था ,लेकिन ये रेस कौन सी थी ,क्या वो एक चूहा दौड़ तो नही थी?
भोपाल के रविन्द्र भवन मैं इन दिनों पत्रकारों ,अखबार मालिकों उनके पेशेगत कठिनाइयों ,संघर्ष से आम जन को रूबरू कराने वाली फिल्मों का पर्दर्शन किया जा रहा है ,उन्ही मैं से एक सिटीजन केन भी है ,इस फिल्म के लिए निर्देशक को धमकियां भी मिली मुकदमें ,एफ बी आई ,की जांच भी ये फिल्म ९ श्रेणियों में आस्कर के लिए नामांकित हुई किंतु महत्त्व इसका है की अकेले आर्सन वेल्स को चार श्रेणियों ,...निर्माता,निर्देशक अभिनेता व् स्क्रीन प्ले मैं नामांकित किया गया था और ये सम्मान पाने वाल वो पहला व्यक्ति था ।
समीक्षा मनोज श्रीवास्तव ,...आयुक्त जनसंपर्क,और सचिव संस्कृति विभाग MP द्वारा। (सम्पादन की दृष्टि से मैंने इसमे कुछ स्वतंत्रताएं ले ली हैं...)

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

शेटरड ग्लास ,लेखनी सिर्फ उपकरण नही है ,एक न्यास है ,जिसका टूटना सार्वजानिक घटना है ,वो निजी हाशिये की चीज नही


'शेटरड ग्लास' सिर्फ एक पत्रकार की कहानी नही ,क्योंकि वो कभी भी अकेली इकाई नही होता चूँकि उसके साथ ना सिर्फ उसकी प्रतिष्ठा जुड़ी होती है बल्कि संस्थान के सहकर्मियों के सुख-दुःख भी जुड़े होतें हैं किसी पत्रकार की गलतियां उसकी विश्वनीयता को क्षति पहुंचाने के साथ साथीयों और अखबार को भी बट्टा लगाती है ...लेखनी सिर्फ एक उपकरण नही एक न्यास है उस ट्रस्ट का टूटना एक सार्वजानिक घटना है ,जो निजी हाशिये की चीज नही ...शुद्धता अन्तत अन्तकरण की चमक है और फिल्म के नायक से यहीं भूल हो जाती है की वो अपने चेहरे के अबोध लुक को ख़बरों की शुद्धता का विकल्प समझ लेता है खबरें हकीकत का आइना होती हैं,जो इस आईने को मन गढ़ंत कुहासे से ढँक देना देना चाहतें हैं उन्हें टूटे कांच की किरचें गढ़ भी सकती हैं शेटरड ग्लास १९९५ से १९९८ के बीच अमेरिकी मीडिया मैं धूमकेतु की तरह छाए स्टीफन ग्लास नामक एक पत्रकार की कथा है न्यू रिपब्लिक नामक एक पत्रिका मैं इस २० वर्षीय युवा पत्रकार ने ख़बरों को टेबिल पर गढ़ने मैं महारत हांसिल कर ली है ,इस अवधि मैं उसने ४१ आर्टिकल लिखे ,जिनमें से जैसा की बाद मैं जाकर प्रमाणित हुआ की २७ पूर्णत या अंशत झूट थे ,लकिन ग्लास को अपनी कल्पना शक्ति,युवा और अबोध दिखने के आधार पर शुरू में खूब वाहवाही मिली .....फिल्म ये स्पष्ट नही करती की ग्लास ने ऐसा क्यों किया ,?वास्तविक जीवन मैं भी ये कभी स्पष्ट नही हो पाया की ग्लास ऐसा क्यों करता था /क्या वो पेथालोजिकल झूट था ,या उसे हवाई किले बनने मैं मजा आता था ,?या इस सोच मैं की इतनी कम उम्र मैं कैसे वो बड़े लोगों और इस दुनिया को बेवकूफ बना रहा है ,या वो सिर्फ लोगों को मनोरंजन करना चाहता है ,उन्हें वैसे ही खुश देखना चाहता है जैसे वह अपने आस-पास के सहकर्मियों को साथी की लिपस्टिक की तारीफ करना और झूटी ही सही लेकिन जनता का ध्यान खीचने वाली स्टोरी कर लेता है ,दोनों ग्लास के के लिए एक जेसी बात थी खबर ट्रुथ टेलिंग है ,सच बताना, ग्लास ने स्टोरी मैं सच से ऐसी स्वतंत्रताएं ले ली मानो वो साहित्यिक स्टोरी हो किंतु अखबारी पर्तिद्वान्द्विताएं इतनी हैं की कोई ख़बर यदि तथ्यों पर आधारित नही तो ,उसका खोखलापन खुल जाता है ,...फोबर्स डॉट काम के कुछ रिपोर्टर जब ग्लास की खबरों के तथ्य चेक करतें हैं ,तो पाते हैं की वैसा कुछ घटा ही नही ,बाद मैं न्यू पब्लिक का सम्पादक स्वयं उसकी ख़बरों पर जानकारी हांसिल करता है तो ग्लास फंसता ही चला जाता है ...निर्देशक बिली रे ने नायक ग्लास को ना केवल सावधानी पूर्वक चालाक खलनायक होने से बचा लिया है ,...बल्कि उसे इतना युवा और ऊर्जा से भरा हुआ पेश किया की उसका अंत यदि त्रासद नही तो दुखद जरूर लगता है ,फिल्म कहीं ये भी स्थापित करती है की पत्रकारिता किसी तरह की सस्ती लोकप्रियता हांसिल करने का ही माध्यम नही है,युवा पत्रकारों को महत्वाकांक्षी जरूरत के साथ उससे कही ज्यादा परिश्रम की आवश्यकता की जरूरत है फिल्म की लोक प्रियता ,निर्देशक के संदेश और जनता का अनुमोदन इसी से स्पष्ट हुआ की न्यू यार्क सिटी और लोंस एंजिल्स में ही अकेले पहले सप्ताह मैं फिल्म ने ७७५४० अमेरिकी डॉलर कमाए

समीक्षा मनोज श्रीवास्तव ,...आयुक्त जनसंपर्क,और सचिव संस्कृति विभाग द्बारा, प्रदेश में पत्रकारों के हित , और सहयोग हेतु हमेशा तत्पर रहने वाले मनोज जी ने कई पुस्तकें लिखी हैं ,स्त्री प्रसंग भी उनमें से एक है ,जिसमें एक सम्रद्ध द्रष्टि ,गंभीर और आत्मसाती किंतु नवीन संवेगों के बल पर स्त्री का एक भिन्न ओजस रूप जिया गया है ,जिसे फिर कभी ताना -बाना के जरिये पेश किया जायेगा

ऐ क्राय इन द डार्क ....इस दौर मैं जब तक सच अपने जूते के तस्मे बाँध रहा होता है,झूट पृथ्वी की परिक्रमा कर चुका होता है...


मीडिया की बहुत सी फ्लेश लाईट से भी एक अँधेरा निर्मित होता है और इस अंधेरों मैं उभरी चीख को सुनने की फुरसत किसी को नही होती १९८८ मैं बनी आस्ट्रेलिया की फिल्म क्राय इन द डार्क इस अंधेरे मैं असहाय आदमी की चीख है,यह १७ अगस्त १९८० को आयर्स रॉक के पास एक केम्प ग्राउंड से ९ हफ्तों की एक छोटी सी बच्ची को एक जानवर द्बारा उठा ले जाने और उसका दोष उसी की मांपर मढ़ दिया जाने की एक सच्ची और मार्मिक कहानी है,...फिल्म की विशेषता उसके निर्देशक का संयम है उसने मीडिया या न्याय व्यवस्था पर कोई शाब्दिक टिपण्णी नही की ,फिल्म का निष्कर्ष वाक्य बस इतना ही है की मैं नही समझता की ज्यादातर लोग जानतें हैं की निर्दोष लोगों के लिए निर्दोषिता कितनी महतवपूर्ण है, निर्देशक फ्रेड शेपिसी यह कहतें हैं की हमारे समय मैं सच उतना ही पूर्ण या अपूर्ण है जितना की मीडिया उसे पेश करता है ....वे आस्ट्रेलियाई मीडिया के उस मोरल ला पर भी प्रश्नचिन्ह छोड़ जातें हैं की जो बिकता है वही अच्छा है ,..........वो निर्दोष आदमी क्या करे जो मीडिया द्बारा पैदा किए गए उन्माद के वात्या चक्र मैं फँस जाए जब मीडिया द्बारा ना केवल कोर्ट के निर्णय की बल्कि पुलिस के अनुसंधान की प्रत्येक गतिविधि की और कोर्ट की कारर्वाई की हर स्टेज की रनिंग कमेंट्री होती चले ? और तब क्या हो जब निर्णय भी जूरी के द्बारा होना हो ,जो जनमत से प्रभावित होती हो?यह खतरनाक युग है जब जन मत की मॉस मेनुफेक्च्रिंग होती है .इस दौर मई जब तक सच अपने जूते के तस्में बाँध रहा होता है ,झूट प्रथ्वी की परिक्रमा कर चुका होता है ऐसे मैं मीडिया ट्रायल अपने चक्रवात के केन्द्र मैं फंसे व्यक्ति को लगभग निहत्था कर देता है ,.....इस फिल्म मैं एक बहुत ही धार्मिक परिवार है जो कीपिंग अवकाश पर जाता है, माइकल और लिंडी चेंबर्लें का यह मामला आस्ट्रेलिया के कानूनी इतिहास का शायद सबसे फेमस मामला था ,.......जिस परिवार की नव जात बच्ची को जानवर उठा कर ले जाएँ उनके साथ इससे बढ़ा संकट और क्या होगा की मीडिया उन्हीको अपनी बच्ची की ह्त्या का गुनहगार ठहरा दे, मीडिया इम्प्रेशंस कैसे निर्मित करता है यह फिल्म इसका जोरदार चित्रण करती है मां का चेहरा सपाट है वो कोल्ड हार्टेड है ,मां पिता ने अपनी बच्ची की मौत को को इतनी आसानी से स्वीकार कैसे कर लिया?बच्ची का नाम चूँकि अजारिया था और जिसका मीडिया अर्थ लगाता है ...जंगल मैं बलि ,...हलाँकि इसका अर्थ था इश कृपा ,.जनता का मत है की किसी गुप्त धर्म-कर्मकांड के चलते मां बाप ने अपनी बेटी की बलि दे दी वे पिकनिक मनाने केंची क्यों गए ?...दो साल तक मीडिया लिंडी को हत्यारी मां ,कुरूर मां के रूप मैं पेश करता रहा ,और अंततः अदालत उन्हें ह्त्या का दोषी मानकर सजा सुना देती है ,......क्या हो जब आप अपने सच के साथ अकेले रह जाएँ,फिल्म का वो द्रश्य बहुत मार्मिक है जब सजा के बाद दोनों पति-पत्नी एक दुसरे को चूम रहें है और फिर दोनों के हाथ एक दुसरे से छुट तें हैं ,...यह फिल्म जितनी मीडिया के बारे मैं है ,उतनी ही उस आपराधिक न्याय व्यवस्था के बारे मैं जो ,कच्चे सबूतों और तगडे लोकमत के आधार पर सजा देती है ,यदि सजा के तीन साल बाद किसी टूरिस्ट को उसी कैंप ग्राउंड से मामले पर नए सिरे से रौशनी डालने वाले कुछ सबउत नही मिले होते तो लिंडी चम्बर्लें सश्रम आजीवन कारावास की सजा भुगतती ,..सच क्या है? सच क्या अभिमत है ?सच क्या जनमत है ? या इस सब से आगे सच कोइ एक सवतंत्र सत्ता है जिस पर लिंडी और माइकल जैसे इश्वर पर भरोसा करने वाले निर्दोष इंसान भरोसा करते हुए जीवन बिताते हैं ।

समाचारपत्र केवल जानकारियों ख़बरों का पुलिंदा ही नही वो हमारे जीवन को कहीं गहरे तक प्रभावित करता है ..इन दिनों भोपाल मैं अखबारों की दुनिया पर आधारित फिल्म समारओह आयोजित हो रहें है इस फिल्म की समीक्षा लेखक आयुक्त जनसंपर्क और संस्क्रति सचिव मनोज श्रीवास्तव मध्यप्रदेश भोपाल हैं ,वे एक आत्मीय रुझानके साथ चीजों को आत्मसात करतें हैं उनकी संवेदनशीलता से आगे भी तानाबाना आपको रूबरू करवाता रहेगा,इस समीक्षा के लिए मीडिया और जुडिशरी की तवज्जों चाहूंगी,......

बुधवार, 19 नवंबर 2008

आधी आबादी की पढ़ी लिखी अनपढ़ बनी हिस्सा ये चमकीली औरतें,..और बेशर्म कोशिशें रिपोतार्ज कथा का शेष ...


पिछली दो पोस्ट के बाद इस सच्ची रिपोतार्ज कथा का ये तीसरा शेष वर्णन है ...एक ब्यूटी पार्लर मैं दो बड़े अधिकरियों की संभ्रांत दिखने और कही जाने वाली औरतें हैं ,इनके पास बँगला है कारें हैं ड्राइवर है,सेल रुपया -पैसा है, और है ,बेहिसाब समय ...अपनी ही बिरादरी मैं एक दूसरे को कैसे नीचा दिखाए धन दौलत से शोहरत से सुन्दरता से या सेक्स के मामलें मैं कैसे पीछे करें बस इसी उधेड़ बुन मैं इनका दिन बीत जाता है,...


एक महिला बॉडी मसाज करवा रही है,उम्र लगभग ५० ,आस -पास ,म्यूजिक सिस्टम पर पुराना गाना ....आवाज दे कहाँ है दुनिया मेरी जवां है ,शरीर पर चर्बी की परतें, अर्ध नग्न सी ,...तभी मसाज रूम ,जिसे पार्टीशन से बनाया गया है,मैं एक महिला आती है ,हाय,पुर्णीमा ... यू स्टुपिड रीना! - व्हेयर आर यू?... आय एम हियर... रिअली ?॥नो-नो ... तो फ़िर कहाँ थी पिछले हफ्ते?... अरे यार ऊटी चली गई थी, रेस्ट चेयर पे टाँगे फैलाकर बैठ जाती है - "तू तो ऐसे कह रही है जैसे न्यू-मार्केट चली गई थी?..." "यार बस इनका मूड बन गया, मैंने भी सोचा - जस्ट फॉर अ चेंज"... "तभी इतना फ्रेश लग रही है!" - "ओह! नो!" - नाक सिकोड़कर कहती है, "वहां भी वही मिडिल-क्लास वाली भीड़, मुझे तो कोई चेंज नहीं मिली" - तभी मोबाइल की एक लहराती 'त्रन-त्रिन-नन' - "हेलो, कौन? सोम्या!... येस!... हाँ पूर्णिमा, क्या बोल याद है न कल कृति के यहाँ किटी है... अरे? ... हाँ... पर मेरा मूड ऑफ़ है... क्या हुआ? कल शाम तक तो ठीक थी?, राकेश से फ़िर झगडा? ... नहीं... सो वाय आर यू क्रेअटिंग ड्रामा ?... ठीक है, आ जाउंगी तू लेक्चर शुरू मत करना... ओके बाय!" रीना पूर्णिमा से:- "क्यों नहीं जाना चाहती? ... नहीं,उस भुक्कड़ के यहाँ नहीं! जितना खिलाएगी सब वसूल कर लेगी, दूसरो के यहाँ तो ऐसे खायेगी जैसे जन्मों की भूखी हो और ख़ुद के यहाँ खिलाने के नाम पर दम निकलेगा!... तो?.... तो क्या? बस उसने तो यही समझना है, मेरी नई हुंडई गेट्ज से जेलस कर गई!... ओह गोड! क्या सच? कार ?हुंडई ?गेट्ज? कब खरीदी? - एक ही साँस में पूछती है, पहली महिला रीना... "किटी पार्टी तो बहाना है, सच तो ये है... क्या?... उसे तो अपनी सिंगापुर वाली भाभी को सारे जलवे दिखाना है जो आजकल छुट्टियों में उसके पास आई हुई है, पार्टी भी बंगले पर नहीं... तो?... कंट्री-वुड क्लब में... हाय! ये इतना पैसा क्यों खर्च कर रही है?... डोंट माईंड... दमयंती की वेडिंग अनिवर्सरी पर मिल गई थी, १२ को... हाय में कहाँ थी?... तू....... - याद करते हुए कहती है-तू दिल्ली गई थी... ऑफ़ व्हाइट चामुंडी शिफोन पर बीट्स और सिल्क एम्ब्रायडरी वाली साड़ी ... आह!... क्या पल्लू को लहरा लहराकर इतराती फ़िर रही थी, मानो उसी की वेडिंग अनिवर्सरी हो... तू मुझे रिपोर्ट कर रही है या जला रही है?... बेवकूफ सारा शहर जानता है दमयंती जब अपने मामा के यहाँ अमेरिका गई थी, ये वही पड़ी रहती थी, हरीश को तो इसने इतना एक्स्प्लोईट किया... वो तो दमयंती की नौकरानी लीलाबाई ने फोन पर हिंट दे दी उसे, बड़ी ईमानदार है लीला... क्या खाक ईमानदार! पहले साहब कुछ दिन उसके साथ ऐश फरमाते रहे बीच में ही यह महारानी आ टपकी... बस लीलाबाई से टोलरेट नहीं हुआ। बन गई लीलाबाई लक्ष्मीबाई, मन ही मन उठा ली तलवार! पोल खुल गई... लेकिन तुझे कैसे मालूम?... ख़ुद लीला ने बताया... लीला तुझे क्यों बताने लगी?... अरे यार! अब तुझे कौन सी किताब लिखनी है? मेरा सर्वेंट छुट्टी पर था और फ़िर उन दिनों दमयंती को मैंने ही मोरल सपोर्ट दिया था। छोड़ गई उसे मेरे पास! कोम्प्लिमेंट्री तौर पर!... अच्छा छोड़ लीलाबाई का किस्सा, थोड़ा स्टीम ले लूँ... -ब्यूटी पार्लर में मसाज - फेशिअल करने वाली कुछ कम उम्र लड़कियां आपस में मुस्कुराते हुए काम में व्यस्त हैं... "इनका समाज उन लोगों का है जिन्हें धन और ऐश दोनों प्राप्त है... एक-दुसरे को नीचा दिखाने की फ़िक्र और बेशर्म कोशिशों में यह औरतें इस कदर आत्मकेंद्रित और कुंठित होती जा रही हैं, की उनके अपने होने का एहसास ही गुम हो गया है और इस अप-संस्कृति को और अधिक विकृत करने में उन लोगों का हाथ अधिक है जिन्होंने नया-नया पैसा देखा है, जिसकी चका-चौंध में वे अंधे हो चुके हैं, सारी नैतिकता और मान-मरियादा को ताक पर रखकर हर दिन नए-नए शौक पालना जिनका शगल बन चुका हो, रुपयों पैसों की मनमानी का खेल और ज़िन्दगी का मजा ही जिनका धर्म बन चुका हो वहां क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिए (शेष और अन्तिम पोस्ट आगामी...)"

एक शब्द जो...हवा मैं रह गया,...दोस्त के नाम ...

इतना लिखा,
इतना लिखा
पहाड़ भर यादें,
समुद्र भर दुःख
आसमान भर सपने,
रात भर आवाजें,
दिन भर बातें,
धरती भर प्रेम,
फिर भी, फिर भी
कितना रीता रह गया,
दोस्त के नाम लिफाफा ...
(आज सुबह बारिश होने के बाद मेरे शहर में)
यह अंश डायरी के पन्नों से - धर्मेन्द्र पारे की कविता से...


मंगलवार, 18 नवंबर 2008

ये चमकीली औरतें,..रिपोतार्ज कथा,..पिछली पोस्ट से आगे,






चमकीली औरतें कोई किस्सा नही, हमारे समाज का सच है ,आधी आबादी का एक पढा लिखा अनपढ़ हिस्सा बनी ये औरतें अच्छे भले आदमी का दिमाग घुमाने के लिए काफ़ी है ,ये पोस्ट ज्यों की त्यों पेश है जैसा मैंने इसे सुना,...आगे सुनिए.....बुटिक मालकिन आँख मारकर,..यादव को तो पटा नही पाई ,अरे क्या पटाती ..चोरी कर के जो खाता था ,फिर तो गोविन्द तेरे यहाँ चल ही नही सकता,ग्यारंटी से कहती हूँ ,क्यों ?क्यों ,क्या जब तू ज्यादा आब्जर्व करेगी तो नौकर ने तो भागना ही है सीने पर चर्बी के पहाड़ , ,रंगीन होंटो की नकली चमक ,कटे छितराए बालो का घोंसला प्यार तो क्या देखने के भी काबिल नही जाने किन अभागों के पल्ले आती होंगी ये महिलायें ,मन ही मन सोचती हूँ ,....चल तेरी लक्ष्मी को पटा लेती हूँ ...पहली ना जी,ये मत करना तेरे लिए रोज दो मुर्गे भेज दूँगी ..ओह पर तुने खाना नही बनाना ...अरे यार कौन से पति महाराज ने गोल्ड मैडल देना है वो खाना खाता ही कब घर मैं ,कभी यहाँ ,तो कभी कोई पार्टी दुनिया भर मैं मुँह मारता फिरेगा और घर के खाने मैं नुक्स निकालेगा,मेरे बस का नही ये सब,फिर घर के खाने को खाना ही कितनो ने,फिर उसकी आँख का कोना दब जाता है ,..जबसे लक्ष्मी आई है साहब भी खुश,मैं भी अच्छा तू तो आज ही गोविन्द को बुला दे ..खाने की मुझे तो परेशानी है ,सास जो है मेरे सर ,निभाना ही है ,...खाने मैं क्या -क्या देती थी ,...क्या-क्या नही दिया बदमाश को ,साहब से पहले एक गिलास दूध ,दो उबले अंडे ,..दूसरी आँखे मटका कर...साहबसे पहले और क्या-क्या...छोड़ यार याद नादिला उसकी ..पर एक बात समझ ले ,इसके बाद भी उसे चोरी से खाते देख ले तो एक आँख बंद कर लेना ,क्यों दोनों क्यों नही ,सवाल मत कर समझ ले,उससे आँख ना मिल जाए ,तेरी जो मर्जी आए करना बेचारा सब मैं राजी तू जाने तेरा गोविन्द, आज से वो तेरा हुआ, भोंडी और निरर्थक हँसी ,..ही ..ही ..हो...चल बता कुरते कब देना है तूने-अपने भारी भरकम शरीर को समेटती हुई खड़ी होती है ,खुशनुमा और थोड़े ठंडे मौसम मैं भी कहती है ,हाय बड़ी गर्मी है शाम आजा ,..बियर का मूड है ,मजे करेंगे ,ना बाबा तेरे यहाँ क्या ख़ाक मजे करना है मैंने ,तेरा पति तो होगा नही ,हाँ ये बात तो है उसने कहाँ होना है सही शाम घर पे ,अच्छा चल कॉल करना ..तू चाहे ना आए अपना तो प्रोग्राम फिक्स है सींक कबाब बनवा लूँगी ...ओके ,कल इसी वक्त कुरते तैयार रखना ,बुटिक वाली मुझे देखती है उड़ती सी नजर से ...गेट तक छोड़ने महिला को जाते हुए ,..दोनों महिलायें अपने पेंटेड काले सुनहरे बालों के साथ थोडा गर्दन को झटका देते हुए चली जाती हैं हवा मैं देशी पसीने और विदेशी पर फ्यूम की मिली जुली एक तीखी गंध छोड़कर ....(अगली पोस्ट मैं एक ब्यूटीपार्लर मैं मिलेंगे)

ये चमकीली औरतें ...फिजूल की औरतें,...अंख देखी-कन सुनी एक रिपोतार्ज कथा


आजादी के बाद औरतों ने कैसी कैसी स्वतंत्रताएं हांसिल की ,और परिवार समाज और व्यक्ति से अपने कैसे २ रिश्तें कायम किए इसका जिन्दा उदाहरण मौजूद है ये चमकीली औरतें इनकी शिक्षा ,रहन सहन खान पान सब कुछ अंग्रेजी,नकली आवरण ,जीवन शैली मैं रुपयों पैसों की चकाचोंध और गर्माहट मैं पलती इस संस्क्रती का जिस गति से विकास हुआ ...चौकाने वाला तो है ही घिनौना और कुत्सित भी इसमें पुरुष कितना दोषी है ये बात अभी यहाँ छोड़ीजा रही है ,झूटी शानो शौकत मैं गुरूर से भरी ये औरतें इतनी अलमस्त की दायें -बाएँ कहाँ कौंन इनकी कारगुजारियों को देख सुन रहा है इसकी ना इन्हे फिक्र है ना शर्म इन औरतों से सामजिक उत्थान तो क्या पारिवारिक या अन्य उम्मीद भी बेमानी है पति की कमाईपर एशो -आराम फरमाने वाली ऐसी ही औरतों की ,अंख देखी-कनसुनी बातों का सच्चा दस्तावेज है ...कभी किसी बुटीक पर तो कभी पार्टी मैं कहीं क़ल्ब मैं कार्ड्स खेलते हुए ,तो कभी वातानुकूलित कारों मैं लम्बी ड्राइव पर पेट्रोल और सिगरेट फूंकती, बर्थडे,वेडिंग एनिवेर्सरी के बहानो अथवा यूं ही ब्यूटीपार्लर मैं जबरन उम्र को पीछे धकेलने की नाकाम कोशिश मैं फिजूल की शौपिंग करती हुई इन फिजूल की औरतों को जानने की ये कोशिश है ताकि आप जान सकें की आधी आबादी का एक पढा-लिखा किंतु अनपढ़ हिस्सा बनी ये औरतें अपने परिवार और बेटियों के लिए कौनसी विरासत छोड़ कर जायेंगी ,.... ऐसी ही दो महिलाओं की बात चीत सुने जो एक वातानुकूलित बुटिक मैं है बुटिक मालकिन की भव्यता दोनों अँगुलियों मैं डायमंड दोनों औरतें किसी बड़े व्यापारी/अधिकारी की पत्नियां ...उम्र ४५-५० लगभग कोई काम नही ,नित नई`ड्रेसेस मैं बीस साल पीछे उम्र को धकेलने की नाकाम कोशिश मैं भीतर कहीं कुछ छूट जाने की एक कसमसाहट के साथ....

हाय नीतू सिल गए शलवार सूट?नही हाय रब्बा अब क्या पहनुगीं-२४ को शादी वीच? -,पिछले महीने जो सिलवाया था सुनहरी तारों वाला डाल लेना,....अरे वो ॥वो तो आउट ऑफ़ फैशन हो गया कर दूसरी महिला कहती है अच्छा कितना सिला बता तो सही,देखती है,यह क्या कर दिया .क्यों ? क्या खराबी है इसमें ,...तेरे तो नखरे ही ख़तम नही होना कभी ,नही-नही ये नही चलेगा,ये क्या बाइयों वाली पट्टी डाल दी आस्तीनों मैं ,इसे निकलवा पहले ,वो बारीक वाली किंगरी डलवा पहले बताया था ना तुझे प्रियंका चोपडा जैसा ,..नही ना अब नही हो सकता और १५ दिन लग जाने हैं ,कोई बात नही पर ऐसे नही पहन सकती ,चल ठीक है ,...फिर नाप दे ,दे मास्टर जी को बुटिक मालकिन आवाज़ लगाती है टीवी केमेराकी और जाकर उसकी नजर ठहर जाती है ,,,राजू ...पहली महिला दुपट्टा ऊपर सरकाती है नाप -३८ ४० के बीच ..पारदर्शी कुरते से कीमती ब्रेसरी झांकती है शायद ये भी स्टेटस सिम्बल है ,..सिलसिला बदलता है ,फ़ोन की बेल बजती है ,,अरे ठहर जा अभी आगे ही एक शोर मचा रही है ,नही जल्दी नही दे पाउंगी,तू एक घंटा बाद आना ,....अरे नीतू यार मैंने यादव को हटा दिया ..वो तो तेरा मुँह लगा नौकर था ....तुने ही तो शिकायत की थी बतमीजी की थी उसने तेरे साथ ...ऐं तू तो बड़ी चालाक है मेरे सर डाल दी नौकर दी परेशानी ,अच्छा बता ,पहली महिला से ,तेरे गोविन्द का क्या हुआ ,हाय नाम ना ले उस नमक हराम ,का क्यों? सीने पर हाथ रख लम्बी साँस लेती है ...हाय कुछ कुछ होता है ,भाग गया बेशरम ,दो साल लगे सिखाने मैं ..क्या काम ..मतलब अरे यार तू मतलब की बात बता ,आँख दबाकर हंसती हैकहाँ चला गया आमेर हट बित्त्त्तन मार्केट ..तू तो बडी तारीफें करती फिरती थी मेरा गोविन्द ऐसा है -वैसा है ..तो क्या कल ही पता चला वहां भी दुखी है बेचारा वापिस आना चाहता है ,...पर मेरे बच्चों ने मना करदिया ,..तेरी लत जो लग गई है ,ये बात नही थोडा गंभीर हो कर कहती है ,...काम मैं तो बड़ा सोना था पर ज़रा वीच -वीच चालाकी भी करता था, बुटिक मालकिन मेरा मन करता था ,तेरे गोविन्द को पटा लेती....( शेष अगली पोस्ट पर ),.....

सोमवार, 17 नवंबर 2008

क्या राजनीति की अपनी मजबूरियाँ होती हैं,?भा ज पा का घोषणा पत्र

मध्यप्रदेश मैं बी.जे पी ने अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया है जिसमे प्रमुखता से २००३ के घोषणा पत्र मैं किए गए वादों को पूरा करने की बात भी कही गई है.और नए वादों मैं वह गांवों मैं २४ घंटे पानी,बिजली ,प्रदेश को जैविक प्रदेश बनाने कृषि ऋण घटाने अपराध पर अंकुश,गरीब को २ रूपया गेहूं और २५पैसाकिलो नमक देने का वादा कर रही है हैरानी की बात है की औरतों के लिए बहुत कुछ करने कहने और -बखान करने वाली सरकार के एजेंडे मैं औरत नाम तक नही आया .....अनुभव बताता है की शीर्षस्थ व्यक्ति को शीर्ष पर समय तक बने रहने के लिए अन्तिम व्यक्ति को याद रखना होगाबिना भेदभाव के,ताकि एक विशिष्ट चेतना के बल पर समय समाज और राजनीति kआ,वो ठीक ठाक मूल्यांकन कर सके ,और युक्तियुक्त ढंग से भरसक क्षमता विशवास मुठ्ठीभर स्नेह उन्हें भी दे सके जिनके वे हकदार हैं......सरकारें आती हैं जाती हैं वोट बैंक बढतें हैं और वहीसबकुछहोता है जिसकी जनता को आदत हो चुकीं है,इस चरमराती राजनेतिक और सामजिक व्यवस्था मैं एक धुंधलका है,रतन्तु नेतिकता-नेतिकता करते आकंठ भ्रष्टाचार मैं डूब जातें हैं,आमजन अपनी असहायता पर सर पीटकर रह जातें हैं,बस अभी अभी लीलाधर मंडलोई की कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई ,तुमने एक बूढे के पाँव छुए ,और बटुआ टटोला,तुमने एक औरत की तारीफ़ की और उसकी देह से जा सटे,तुमने एक बच्चे को चूमा और उसे चाकलेट देना भूल गए,तुमने सितार पर बंदिश सुनी और भोजन को सराहा,तुमने शक्ति केन्द्रों पर धोक दी और आलोचकों को याद किया,यह सब करते हुए तुम पहचान लिए गए,.....इन शब्दों के नेपथ्य मैं एक सच टटोला जा सकता है जिसके सहारे आम आदमी मैं भ्रष्ट ताकतों के खिलाफ लड्ने का होंसला ईमान दारी से विकसित किया जा सके ३ साल पहले जब शिव सरकार बनी उसके सामने भी चुनौतियां ज्यादा थी कुछ घोष नाएँ की गई, नवीन महिला नीतिउसका क्रियान्वयन ,महिला हितेषी बातें,जिनमें लाडली लक्ष्मी योजना, कन्यादान, अन्नप्राशन जैसी योजनाये शामिल हैं ,ये सफल जरूर हुई,लेकिन इसी के साथ कुपोषण और मातृत्व पर्तिशत घट गया यधपि सरकार का दावा है की उसने राज्य को बीमारू राज्य की श्रेणी से उबार लिया है ,जो अब गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को, २ रुपया किलो गेहूं और २५ पैसा किलो नमक शायद आयोडीन रहित देगी ,इस पत्र मैं २४ घंटे बिजली प्रदेश के सभी गांवों और शहरों मैं देने कीभी बात है,जो थोडी थोथी किंतु लुभाती है,नए उधोग-धंधों को बढ़ावा बिजली के डिमांड और सप्लाई मैं अन्तर बिजली जर्नेट करने और नए थर्मल यूनिट लगाने और बिजली का एक समय अवधि के बाद उत्पादन होना फिलवक्त कोल का कोटा फिक्स होना जैसे तथ्य सोचने पर मजबूर करतें हैं क्या येसप्लाई सचमुच होपाएगी,....सड़कों का नेटवर्क जरूर सशक्त हुआ है,१८ से १९ पर्तिशत तक सड़कें,२००७ तक दूरदराज के गांवों मंडियों तक जोड़ी जा चुकी हैं लकिन बुनियादी इन्फ्रा स्ट्रक्चर कमजोर हुआ है ,और अभी तक इसीलिए बड़े उधमियों को म प्र मैं सरकार लाने मैं असफल रही है,...पानी कीस्थिति भोपाल शहर मैं एक दिन छोड़कर दी जारही है पानी के मामलें मैं प्रदेश अभी भी दुसरे राज्यों के मुकाबलें मैं धनी और भाग्यवान है,लेकिन पानी के अपने भौगलिक उतार चढाव हैं बस निर्भरता नेचरल पानी पर है ७० पर्तिशत जल स्त्रोत अनुपयोगी पड़े हैं पानी रोको ,जल ही जीवन जैसे स्लोगन दम तोड़ चुकें हैं वाटर हार्वेस्टिंग निल है ना यहाँ बड़े डेम बन पाये ना हमने कलटिवेतेद एरिया बढाया ना जमीनी पानी को उंचा कर पाये इसके लिए बस सरकारें और सरकारें जिम्मेदार हैं ,....इसके अलावा भूख प्यास भ्रष्टाचार नक्सली,सम्प्रदायवाद, आतंकवाद महिलाओं की सुरक्षा जैसी और भी बातें हैं ...यदि ये सरकार दुबारा सत्ता मैं लौटती है तो पिछली सरकार की तरह जनता बेहाल ना हो ,क्योंकि सत्ता मैं रहकर भ्रष्ट होना ही होता है राजनीति की अपनी मजबूरियाँ और जरूरतें होती होंगी की वे शासक को शासक नही रहने देती इसलिए याद यही रखा जाए की कभी कभी वयवस्था बनाने के लिए कुछ चीजें छोड़ना पड़ती है और कहीं मूल स्थिति को बनाय रखना होता है

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

देविदाफ्फ़ कॉफी,और ..उसके हिस्से की शाम...एक प्रेम की शुरुआत ..अंत से पहले.



वो पहचान पुरानी नही थी,थोडी बहुत सतही ..जब वो उसे जान रही थी,वो उसके शहरसे२हजार मील की दूरी पर था,जिन्दगी मैं जोखिम हार जीत ,जय पराजय,आशंका संशय,और प्रेम प्रसंग के बीच से आते हुए अनुभव की तरह उन दिनों वह अपने को वैसे भी फेलिसे बोएर से ज्यादा तवज्जो दे रही थी,और उससे भी अधिक जान और समझ रही थी,हांलांकि अब चिट्ठियों का ज़माना नही रहा,दिन मैं दो चार बार बात होजाती थी उससे,वो उसके बारे मैं सब कुछ जान लेना चाहता था....जब वो बेवजह एक दूसरे का ख्याल रख रहे थे जरूरी और गैर जरूरी चीजों के बीच सार्थक -कभी निरर्थक फिर जूनून की हद तक बहुत कुछ घटा भीतर बाहर सब कुछ ठीक-ठाक,सुखद छःमहीनो तक ...पर वो ,वोन गोंग ना बन सका ना वो उसके अदभूत चित्रों मैं ढल पाई,ना कभी वो उसकी हथेली पर जलती शमा देख पाई,अपनी अंतर्यात्राओं मैं दोनों गुम होते गए,तब तक उसकी उससे एक भी मुलाक़ात नही हो पाई थी जब हुई तो लगा निरंतर असुरक्षा की भावना डर के रूप मैं उसके अस्तित्व का हिस्सा बन गई जिसने उसे सोच-असोच के बीच अधर मैं अनिर्णायक स्थिति मैं अपने को छोड़ देने पर मजबूर कर दिया होगा शायद ...?चांस की बात थी जब वो बर्लिन मैं थी कुछ समय के लिए,वहां की अदभूत जादुई शाम मैं उसने उससे बात की, एक अतिरेक ही था तब,अपने मनोभावों का प्रक्षेपण वो उसमे ढूँढती रही ,करोड़ों मील दूर से ...कुछ भीतरी चेतावनियों के बावजूद ,और देर रात जब बर्लिन मैं दुनिया के सबसे बड़े मॉल का-डे -वे, मैं वो अपनी साथी मित्रों के साथ शोपिंग कर रही थी उसने ग्रांड कुवीस की देविदोफफ़ कॉफी का बड़ा सा जार खरीदा उसके दिमाग मैं इस खरीददारी का ख़याल इसलिए भी आया की पिछले छः माह मैं वो जान गई थी वो जबरदस्त कॉफी का शौकीन है इंडिया लौटने पर जार सुरक्षित रहा, और फिर एक दिन वो उसके शहर मैं उसके घर मैं उसके सामने था....जो कॉफी बर्लिन से सिर्फ उसी के लिए ली गई थी,आल्हाद के पल, कई रंग डूबते -उतराते रहे,उसके जेहन मैं ,एक संकोच ,एक अनिवर्चनीय सुख उनकी आसक्त हथेलियों मैं एक निरुपाय शाम थी .....उसका कॉफी पीने से इनकार शहर मैं अगले चार-पाँच दिन और ठहरने ,फिर कभी फुरसत मैं साथ -कॉफी पीने,और बिना बताये -मिले लौट जाना .....बीच का अन्तराल उलझन भरा था.....कुछ स्वाद खुशबूओं की तरह संग-साथ की चाह रखते हैं समय बीत जाता है बिना राग द्वेष के,कुछ चीजें ठौर हीन होकर रह जाती हैं ,फिर भी ...किसी मोड़ पर कोई आत्मीय मिल ही जाता है ...ऐसी ही एक शाम उसे अपने बागीचे मैं कॉफी ब्राउन फूल खिले हुए दिखे, कुछ अव्यक्त दुखों की तरह आत्मा को थपकी देते हुए, टूटे पूल से कोई संवाद उधर तक जाकर लौटने की संभावना नही थी,बर्लिन की वो शाम तब तक एक जिद्द ,एक निराशा के साथ अचाहे उसके सामने आ गई ,नाजाने कितनी संवेदनाओं के साथ खरीदी गई वो कॉफी,शिकायत ना वक्त से ना अपने से ,उसी शाम बड़ी शिद्दत से उसने एक बड़ा मग भर कर कॉफी बनाई ,सच मुच दुनिया की बेहतरीन स्वाद वाली वो कॉफी .....उसके हिस्से की भी ,अद्भूत सुगंध भरी और ये भी सच है इस दुनिया मैं सिर्फ वो ही उस स्वाद और सुगंध को महसूस कर सकता है


इस कहानी मैं इतना ही सच है की कॉफी खरीदी गई थी लेकिन अपने लिए. गर इसमे किसी लड़के/प्रेमी/या वोन गोंग जैसे व्यक्ति को सच माना जायेगा तो ..सार्थक होगा

सोमवार, 10 नवंबर 2008

तुम छोड़ जाती हो ...सतह पर


तुम छोड़ जाती हो अपने नामालूम दबाव ,शांत पोखर की सतह पर
नाम मात्र की उड़ान भरते हुए
दुबकी श्यामल हवा-जलमयूर के पंख ,प्यार तुम्हारा
मानो हवा मैं तैरते महीन जाले ,
अब सुनो हवा का मर्सिया यह सिखाने की बेला है,और तुम सिखा रही हो
बिना पीड़ा के घुलते जाना ,विचित्र बैचेनियों मैं
धरती के होटों पर गोधूली का चुम्बन है,उदासी,
तुम्हे बड़ी सुकुमारिता से सुलाने के लिए बादलों की तहें लगा कर,
तकिया नही बनाता,फिर भी अचरज है कितनी तेजी से उकस आती हो तुम
बेल सी लिपटी,जब में समेट लेता हूँ तुम्हे अपने कांटेदार सीने मैं

साहित्य के लिए नोबल पुरूस्कार से सम्मानित १९८६ मैं ,अफ्रीकी कवि वोले सोयिंका की प्रेम कविता का अंश

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

कुछ दुःख भी सुखों की तरह अलौकिक होते हैं...








जब वो चार साल की थी तभी तय हो चुका था की उसके किडनी का आपरेशन होगा ...और जब वो ९ साल की हुई उसका आपरेशन हो रहा था ,जो करीब ९ घंटों तक चला उतने समय मेरी आंखों से आंसू बहते रहे,-जाने कितनी दुश्चिंताओं के साथ की अन्दर डॉक्टर उसको चीर-फाड़ रहे होंगे। एक असहाय और निश्चित नियति में, वो समय गुज़र रहा था... मित्र,परिवार सभी लोग चारो और थे लेकिन माँ तो अकेली थी- बस बेटी और मेरे बीच एक इश्वर था... वो ज़िन्दगी का अनमोल पल था जब शाम सात बजे डॉक्टर ने आकर कहा, "आप उसे देख सकते हैं", हमारी ज़िन्दगी में कुछ दुःख भी सुखों की तरह अलौकिक होते हैं और एक ही मुहाने पर आ खड़े होते हैं, वो पल ऐसा ही था। उसे स्ट्रेचेर पर लेटे देखा, हाथ और पेट पर अनगिन पट्टियाँ-नलियाँउसे जोर से गले लगाकर, भींचने का मन हुआ... जब पैदा हुई थी एकदम रुई के गोले सी किंतु नर्म दहकते हुए टेसू के फूल की तरह और उस वक्त मुरझाई, सुस्त और पीली पड़ गई थी। वो उसका पुनर्जन्म था... माँ से बेटी का जो रागात्मक रिश्ता होता है, ताउम्र एक ही लय-ताल से बंधा होता है। वो दुःख जो नौ घंटे मैंने जिए, उन महीनो में भी जब वो मेरे शरीर में अपने नन्हे शरीर के साथ एक सुखद अनुभूति की तरह पल-बढ़ रही थी तभी उसने मुझे एकाग्र होना सिखाया था, आत्मा से एकाग्र होना और उस दुःख ने ही मुझे मांजा और सुख ने मुझे जिलाया।
इसके बाद वह लगातार एक माह तक नर्सिंग-में रही, अपने प्रतिदिन के काम करना डॉक्टर की विसिट के पहले वाली सारी मेडिसिंस खाना, उन्हें नोटबुक में लिखना अपनी यूरीन बैग पकड़े हुए टॉयलेट जाना, उसे संभालना... पूरी-पूरी रात वह मेरी बांह पर सोती, कॉमिक्स पढ़ती - ताज्जुब कोई दुःख, कोई थकान, कोई मुश्किल नहीं होती - बस वो स्वस्थ हो गई। ज़िन्दगी की सबसे बड़ी अनुपम सौगात, जब मैंने उसे बीमारी से उभरते हुए, चलते-फिरते देखा वो मेरी भूख , प्यास , नींद, सुख-दुःख का ध्यान रखती अपनी उम्र से दस साल बड़ी हो गई थी उन दिनों... और आज (आठ नवम्बर) को वो अट्ठारह साल की हो गई है। इस दुनिया की सारी खुशियाँ उसे मिलेगी, विश्वास है...

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

सिहांसन किसी की बपौती नहीं... पिछले चुनाव और उमा भारती.




कल जब ओबामा की जीत का जश्न पुरी दुनिया मना रही थी,तो मुझे मप्र के २००३ के विधानसभा चुनावोंके बाद के माहौल की बरबस याद हो आई,तब उत्तर भारत के चार प्रमुख हिन्दी भाषी राज्यों,मप्र राजस्थान देहली तथा छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए थे तब इनमे से छतीसगढ़ को छोड़कर शेष राज्यों मैं महिला नेतरतव के उदय स्थापना के साथ ही इतिहास ने मोड़ लिया,मप्र और राजस्थान मैं काबिज कांग्रेस को सत्ता से हटाने मैं बीजेपी ने वसुंधरा राजे सिंधिया और उमाभारती को मुख्यमंत्री के रूप मैं प्रोजेक्ट किया था तब तुलसी कीये पंक्तियाँ "धीरज,धर्म,मित्र अरु नारी; आपातकाल परखीं ये चारी" को उन्होंने चरितार्थ किया। उन्हें संगठन व चुनाव अभियान की जिमेदारी भी सौंपी गई थी,परिणाम मैं उन चुनावों मैं तीन चौथाई बहुमत से जीत हांसिल हुई जिसका श्रेय सिर्फ उमाभारती को जाता है ...बचपन से अलोकिक उमा चाहे राजनीति मैं राजमाता के कहने पर आई हो लकिन अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर ,अपनी सात्विक और प्रबल इक्छाशक्ति के बल पर दमदारी से जब उन्होंने चुनाव जीता था तब मप्र के राजनेतिक इतिहास मैं पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप मैं उनका आगमन थोड़े समय केलिए ही सही ,एक अति विशिष्ट घटना की तरह था, बिना लागलपेट के अपनी बात कहने वाली मुखर,कर्मठ इस साध्वी ने सिद्ध कर दिया की सिहांसन किसी की बपौती नही होते -सच्ची किंतु हठी बालसुलभ और परिपक्व भी गंभीर तो सरल साधारण भी किंतु स्त्री के असाधारण -व्यापक रूपों और अर्थों से भरी उमाभारती चुनाव पूर्व अपनी जिस अद्भूत ताकत के बल लोगों से मिलती थी,उनके यात्रा अनुभवों को एक स्त्री की दर्ष्टि ही अनुभूत कर सकती है जहाँ जहाँ वे गई लोग अति उत्साहित थे ठीक वैसे ही जैसे लोग बराक ओबामा को जीत से पहले और बाद मैं देख रहें हैं,संकल्प रथ के दौरान वो ना रुकी ना थकी ना हताश हुई ,जनता को उन्हें चुनना था ,सो चुन लिया कुछऐसे कारक तत्वों ने उनके पक्ष मैं असर किया था की सन्यासिन ने जो चाहा उसकी झोली मैं आ पडा ,अपनी धुँआधार आम सभाओं मैं वेस्त्रीऔर गरीब के पक्ष मैं बोलती, यात्राओं के दौरान जहाँ रूकती वहीँ पूजा करती ,किसी गरीब के यहाँ भोजन करने से नही हिचकती, रास्तें मैं जहाँ से उनका काफिला गुजरता कार के शीशे हल्दी कुमकुम और रोली से पट जाते,ज्यादातर महिलाएं उन्हें अयोध्या वाली बाई कह कर संबोधित करती थी,८दिसम्बर की सुबह ११ बज कर ५५ मिनट पर जब उन्होंने भगवा वस्त्रों मैं शंखनाद और वैदिक मंत्रोचार के बीच मुख्यमंत्रi पड़ की शपथ ली वो द्रश्य अद्भुत था २०-२२हजार लोंगो के बीच गेंदों और गुलाबों की खुशबू साधू-संतों का जमावाडा था ।उसी शाम अपनी पहली पत्रकार वार्ता मैं उन्होंने मेरे एक प्रशन के उत्तर उन्होंने कहा था ...महिलाओं के मान सम्मान की रक्षा करना उनके स्वाभिमान को बनाय रखने के लिए मेरी सरकार सम्पूर्ण प्रयास करेगी ...मेरा उनसे पहला परिचय ९६ मैं लोकमत के लिए एक साक्षात्कार के सन्दर्भ मैं हुआ था,ये रिश्ता एक पत्रकार से ज्यादा महिला मित्र का था और आज भी है ....बाद की कथा मैं उन्हें उनके हक से बेदखल करना और दूसरी चुनौतियां थी जिसका मुकाबला उन्होंने डट कर किया,उनके नेत्रत्व मैं पंडित दीनदयाल का एकात्म राजनीतिकवाद के रूप मैं आकर लेता तो प्रदेश की तस्वीर ही कुछ और होती ,लकिन ये सच है उमाभारती जैसीस्त्री का महत्व किसी पार्टी से नही ...इस बार जनशक्ति पार्टी का भविष्य जो हो सो हो ।आगामी वर्षों मैं उसकी सूरत बदली नजर आएगी।

बुधवार, 5 नवंबर 2008

पृथ्वी की तरह थरथराते हुए... प्रेम करते हुए...



जिन दिनों ,

अंधेरे आकाश से लड्ते हुए।

बादलों को चीर कर कभी कभार ,

दिख जाता था,एक टुकडा चाँद,

तुमने मेरे मन को,

पोथी की तरह बांच डाला था,

पृथ्वी की तरह थरथराते हुए,

तुमने किया था स्पर्श ,

कई बार जब तुम्हे प्यार करते हुए,

मुझे याद आया हमारा युद्धरत देश,

तुमने गुलाबी होंटों को,

मेरे माथे पर धर कर अभिषेक किया,

जबकि बेहद आक्रोश था मन मैं,

तुमने फूल सा हाथ,

मेरे कन्धों पे रखते हुए,

मुझे और तपने दिया।


यह खूबसूरत प्रेम-कविता सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के पौत्र - 'विवेक निराला' की है। जिसे अपनी डायरी से ...


मंगलवार, 4 नवंबर 2008

बांधो ना नाव इस ठौर बन्धु...


कई बार मुश्किलों से बचने की कवायद में, मन ही मन टोह लेना पड़ता है की सामने वाला क्या सुनना चाह रहा है। सारी सतर्कताओं के साथ कुछ कदम नियत से आगे भी देखना होता है। जब मैं जॉन स्टुअर्ट को पढ़ती हूँ "स्त्रियों की पराधीनता" पुस्तक में, और वे कहते हैं, "पुरूष केवल महिलाओं की पूरी-पूरी आज्ञाकारिता ही नहीं चाहते, वे उनकी भावनाएं भी चाहते हैं... सभी पुरूष अपनी निकटतम सबंधी महिला में एक जबरन बनाये गए दास की ही नहीं बल्कि स्वेच्छा से बने दास की इच्छा रखते हैं अतः उन्होंने महिलाओं के मस्तिष्क को दास बनाने के लिए हर चीज का इस्तेमाल किया। तो मुझे लगता है जैसा की पिछला तमाम अनुभव भी बताता है की ज़िन्दगी एक ही ढर्रे पर नहीं जी जा सकती, अनुभव हमेशा विशिष्ट होता है। ख़ुद के पक्ष और पक्षकारों के तर्कों के सहारे, समय और इतिहास से परे सोचना, बतलाना, जतलाना एक किस्म की सस्ती-बेवकूफी हो सकती है। मैं महान नहीं, ना तपस्वी फ़िर भी सचमुच कितनी तपस्या करनी होती है कुछ जोड़ने-सहेजने के लिए। इंच भर की कमी कभी-कभार मन मुताबिक ना हो तो रिश्ते पानी की लहरों की तरह इधर-उधर हो जाते हैं, क्या हमारा संघर्ष हमारे संस्कारों का ही हिस्सा नहीं बन जाते? सच मानियेगा, ज़िन्दगी जितनी बड़ी लगती है; उतनी है नहीं। अब देखिये ना, समय नहीं ठहेरता किसी के लिए। झूठ है, कहते हैं, इन्द्रधनुषी समय में रुके हुए पल, ज़िन्दगी अकस्मात एक बहुत बड़ा कैनवास बन जाती है जिसमे अधिकांश नाराज़ लोगों के चेहरे उभर आते हैं। समझ नहीं आता, समझ तो यह भी नहीं आता क्यों लोग अपने जीने, रहने और सोचने के तरीकों को अपने इष्टमित्रों पर लाद देते हैं, उसे सही साबित करना भी। पर हमेशा ऐसा नहीं होता ना? जो कहीं सही होता है, वही कहीं-कभी ग़लत भी हो जाता है, और हम उसी में से अपना सही-ग़लत चुन लेते हैं। किसी भी रिश्ते के चरम का अंदाजा लगाये बिना, एक-दुसरे की पीड़ा जाने बगैर, लौट आना वहीं जहाँ से चले थे। बीते सुखों को गोल चाँद के पीछे धकेल कर... बहुत सी हिदायतें, ये करो; वैसा करो; पुख्ता करो... हमेशा कोई कैसे सही हो सकता है? मानसिक चौकसी पाबन्दी यंत्र की तरह कैसे सम्भव है?... जब बोनसाई की देखभाल करती हूँ रसोई में दूध उफान जाता है, मनपसंद गीत-ग़ज़ल सुनते मोबाइल या फ़ोन सुनाई ही नहीं देता, जल्दबाजी में ठोकर भी लग जाती है... आप बताएं क्या में अपने बेहतरीन समय की अमुल्यता को इसी हिसाब-किताब लगाने में ख़त्म कर दूँ - की किस काम से कितना नफा नुक्सान होगा? मुझे रूककर, पीछे पलटकर या आगे बहुत दूर तक नहीं देखना चाहिए की आख़िर मैं कहाँ तक पहुँची और मुझे कहाँ तक जाना है

हमारी यादों में बचपन के भय मौजूद रहते हैं, ज़िन्दगी उदास घाटी में बेकाबू हो जाती है। पहाडों के पार से गूंजती आवाजें इस कलिकाल में किसी अपने-अपनों के अंतस में उतर जाने की आकांछा दम तोड़ देती है। रिश्ते टूटने, खोने और उन्हें बचाने की कशमकश में कुछ नायाब इच्छाएं बीच-बीच में सर उठती है। दूसरो की खुशी में अपनी खुशी हांसिल होना , पाना और हर कहे को सर- माथे पर रखना हमेशा तो नहीं हो सकता ना? फ़िर कभी ना मीठे में तब्दील होने वाली कड़वाहट! क्योंकि मैं स्त्री हूँ, क्यों नहीं मान लेते आप- मेरा स्त्री होना एक जैविक बोध ही नहीं बल्कि सामाजिक बोध भी है और मनुष्य होने के नाते, मैं भी वो सब कर सकती हूँ जो आप सब कह/कर पातें हैं...

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

"कई मौसम एक साथ चलते हैं" अमृता प्रीतम की किताब - दूसरे आदम की बेटी...मैं


अमृता प्रीतम की "दूसरे आदम की बेटी" पुस्तक २००२ में 'राजपाल एंड संस' ने समीक्षा के लिए मुझे भेजी थी। यह किताब पढ़ना शुरू करने के बाद ख़त्म किए बगैर छोड़ देना मुश्किल है, उनके लिए ही नहीं जिन्होंने गुज़रा ज़माना देखा है या जो किताबों के साथ जिए हैं, बल्कि उनके लिए भी जो इस टी.वी संस्कृति के मुरीद तो हैं साथ ही अपने वक्त की दुनिया का अपने पड़ोसियों का और दुनियाभर के अदीनो लिखने वालों का हाल जानना चाहते हैं। अमृता प्रीतम की नायाब कलम से, एक दूसरी नायाब कलम का, एक नायाब बयान है यह किताब।


तौसीफ ने कहा - "मैं कहानियो की शक्ल मैं कुछ लौटा रही हूँ, और ख्वाहिश रखती हूँ की और लिखूं ताकि दुनिया छोड़ने से पहले मेरा वजूद हल्का हो जाए..."

कौन है ये तौसीफ? अमृता प्रीतम ने लिखा वह आई थी/ शनाख्त के कागजों पर मोहरें लगवाती हुई/और सफर के लिए/ उँगलियों पर गिने जा सकने योग्य/ दिनों की मोहलत मांगकर... मुख्य बात यह नहीं है की तौसीफ कितनी ऊँची अदीन हस्ती है पाकिस्तान की बल्कि यह है की वह अमृता की रूह में जज्ब हो चुकी दोस्त भी है, और अमृता जैसी शायराना कलम जब अपनी रूह में बैठी दूसरे आदम की बेटी के लिए चलती है तो लफ्ज़ जैसे बहने लगते है। "कई मौसम एक साथ चलते हैं मजमून के" यह शब्द कभी लाहौर शहर के ऊँचे बुर्ज के नीचे से बहता दरिया बन जाते हैं और कभी पंजाब की मिटटी में खड़े दरख्त की सुर्ख-नर्म कोंपले... कभी करांची की शायरा सईदा गजदर का जलाया हुआ दीया बनते हैं तो कभी मिजोरम की जोयान पारी की जल्पई हुई आग की लपट... ।

ऐसे एक साथ कई मौसमों की ताजा बयार बहती है इसमे। तौसीफ पाकिस्तानी लेखिका है, बागी लेखिका है, सत्ताधीशों का चैन हराम करने वाली लेखिका भी जो महीनो पाकिस्तानी जेलों में बंद रही हैं। वे उस पंजाब में पैदा हुई थी जो अब भारत में है। अमृता उस लाहौर में पली-बड़ी जो अब पाकिस्तान में है। विभाजन की बेबसी, दोनों की कलम तीखी कर गई और दर्द से भर गई। तौसीफ ने अमृता जी को ख़त लिखने शुरू किए। उनका लिखा हुआ पढने के बाद - गुमनाम ख़त, जिसमे नीचे लिखा होता था - "एक बेटी पंजाब की"। किसी ख़त के नीचे कुछ और, और किसी के अंत में "एक कैदी शहजादी का ख़त" और इस कलम की शहजादी के गुमनाम खतों से हो पहचान शुरू हुई थी अमृता जी की उसी की परिणिति है दूसरे"आदम की बेटी"।

तौसीफ ने अमृता प्रीतम के लिए कहा था - "तुम खुदा के हाथ से गिरी हुई दुआ हो", और अमृता ने कहा तौसीफ को "तुम जैसी नियामत को कोई खुदा हाथों से गिरने न दे"। यह सच ही कहा था उन्होंने ।

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

जब गूंजता हुआ एकांत था...

जब गूंजता हुआ एकांत था,
और हर संकेत समुद्र सा गहरा,
हमारे समीप का कण कण वसंत था,
और उल्लास की हर बार,एक और सूर्योदय,
और तुम
की जैसे गीत की कोई एक पंक्ति, बार बार दोहराई जाती सी,
तब सब कुछ मुठ्ठी मैं था और मैं,
मुठ्ठी मैं से रिसने का अर्थ तक नही जान पाया।

आज पुरानी डायरी खोली तो इस कविता का अंश दर्ज था। जो समय, मौका, दुःख और सुख से परे है। यह कविता,भिक्खुमोग्ग्लायन की अद्भुत प्रेम कविताओं से है।

रविवार, 26 अक्टूबर 2008

मनाओगे क्या तुम अपने को मेरे साथ, त्यौहारों से ज्यादा... "


ना मिलने के मुकाबिल जो हमे मिल जाता है उसे ही हम जानते हैं. विभक्त हुए बिना का जीवन जाने बिना, सुख के बिना का पर्व, मृत्यु के बिना का जीवन और हमारा मन। कहते है संसार की तीन चीजें कभी अपनी पहचान नहीं खोती - आकाश, धरती और मन! यदि मन में राग नहीं तो जीवन का मूल तत्व निर्जीव हो जाता है। कोई इसे अपशकुन कह सकता है, राग से अनुराग होता है तभी घर में बिना दीप के भी प्रकाश होता है, बिना पर्व के उत्सवी वातावरण। यूँ देखे तो मनुष्य का जन्म ही प्रकाश की खोज के लिए हुआ है। उसकी ऑंखें गर्भ से बहार आकर खुलती है सिकुड़ती है रौशनी के लिए, वो दीपक से मिले सूर्य से या बादलों के बीच झिलमिलाते चाँद से उसे बस प्रकाश चाहिए, अपने साथी के भीतर भी वह अपना प्रकाश पाना चाहता है - उसके सहारे जीना।

पुरूष ने सूर्यास्त के पश्चात् अंधेरे के भय को दूर करने के लिए शरण-स्थली जैसे आवर्तित प्रकाश के स्वरुप में स्त्री की खोज की थी, साथ मिलकर अग्नि के प्रकाश का दहन किया था, संध्या का वंदन किया था - तब ना उसे अधो वस्त्र की जरूरत थी ना उत्तरीय (ऊपर के वस्त्र) की थी या तो मात्र मन का प्रकाश उसकी निर्मल छवि थी, मन के किसी भी प्रारूप को कभी भी तो स्थिर नहीं किया जा सका है, ना आकाश, ना धरती, ना क्षितिज में, ना उसका मापदंड बनाया जा सका है। सच है मन ही काल और कालांतरित व्यवस्था - दोनों का निरपेक्ष दृष्टा होता है। यह मन ही है जो कभी न प्राप्त होने वाले सुख की परिकल्पना को भी बेहद अपना बना छोड़ता है। इसीलिए 'भवानी प्रसाद मिश्र' की कविता की उक्त पंक्तियाँ - "मनाओगे क्या तुम अपने को मेरे साथ, त्यौहारों से ज़्यादा" - इस उत्सवी वातावरण में भी शून्य और बेनाम होते जाते रिश्तों को मूल्यवान बनने में जुट जाती है, अपनी, निहायत भोली संभावनाओं के साथ इस लचर, शुष्क, बोनी और लिजलिजी व्यवस्था में एक गहरे अविश्वास के बावजूद मन के साथ.
-दीप पर्व की शुभकामनाएं!