
शुक्रवार, 28 नवंबर 2008
आतंकवाद के भस्मासुर की चुनौतियों के सामने आख़िर हम नाकाम क्यों?

बुधवार, 26 नवंबर 2008
कोष्टक मैं बंद दिसम्बर,फ्लूट पर गीत ,कभी -कभी,,प्रेम से बड़ी होती समझ की नफरत होजाए रोने गाने और प्रेम से

सोमवार, 24 नवंबर 2008
तुम भीतर के फरिश्ते को नए पंख देते हो ,

तुम्हारा आना-तुम्हारा जाना
कहीं दूर ओट मैं खुलना -खिलखिलाना,
शनिवार, 22 नवंबर 2008
सिटीजन केन ..सफलता, यश पैसा, सत्ता और अमरता की वासनाएं किस तरह किसी का क्रमिक आध्यात्मिक स्खलन करती हैं,की अंत मैं उनके पास बाकी सिर्फ डर और उसकी छाया

भोपाल के रविन्द्र भवन मैं इन दिनों पत्रकारों ,अखबार मालिकों उनके पेशेगत कठिनाइयों ,संघर्ष से आम जन को रूबरू कराने वाली फिल्मों का पर्दर्शन किया जा रहा है ,उन्ही मैं से एक सिटीजन केन भी है ,इस फिल्म के लिए निर्देशक को धमकियां भी मिली मुकदमें ,एफ बी आई ,की जांच भी ये फिल्म ९ श्रेणियों में आस्कर के लिए नामांकित हुई किंतु महत्त्व इसका है की अकेले आर्सन वेल्स को चार श्रेणियों ,...निर्माता,निर्देशक अभिनेता व् स्क्रीन प्ले मैं नामांकित किया गया था और ये सम्मान पाने वाल वो पहला व्यक्ति था ।
समीक्षा मनोज श्रीवास्तव ,...आयुक्त जनसंपर्क,और सचिव संस्कृति विभाग MP द्वारा। (सम्पादन की दृष्टि से मैंने इसमे कुछ स्वतंत्रताएं ले ली हैं...)
शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
शेटरड ग्लास ,लेखनी सिर्फ उपकरण नही है ,एक न्यास है ,जिसका टूटना सार्वजानिक घटना है ,वो निजी हाशिये की चीज नही

समीक्षा मनोज श्रीवास्तव ,...आयुक्त जनसंपर्क,और सचिव संस्कृति विभाग द्बारा, प्रदेश में पत्रकारों के हित , और सहयोग हेतु हमेशा तत्पर रहने वाले मनोज जी ने कई पुस्तकें लिखी हैं ,स्त्री प्रसंग भी उनमें से एक है ,जिसमें एक सम्रद्ध द्रष्टि ,गंभीर और आत्मसाती किंतु नवीन संवेगों के बल पर स्त्री का एक भिन्न ओजस रूप जिया गया है ,जिसे फिर कभी ताना -बाना के जरिये पेश किया जायेगा
ऐ क्राय इन द डार्क ....इस दौर मैं जब तक सच अपने जूते के तस्मे बाँध रहा होता है,झूट पृथ्वी की परिक्रमा कर चुका होता है...

बुधवार, 19 नवंबर 2008
आधी आबादी की पढ़ी लिखी अनपढ़ बनी हिस्सा ये चमकीली औरतें,..और बेशर्म कोशिशें रिपोतार्ज कथा का शेष ...

एक महिला बॉडी मसाज करवा रही है,उम्र लगभग ५० ,आस -पास ,म्यूजिक सिस्टम पर पुराना गाना ....आवाज दे कहाँ है दुनिया मेरी जवां है ,शरीर पर चर्बी की परतें, अर्ध नग्न सी ,...तभी मसाज रूम ,जिसे पार्टीशन से बनाया गया है,मैं एक महिला आती है ,हाय,पुर्णीमा ... यू स्टुपिड रीना! - व्हेयर आर यू?... आय एम हियर... रिअली ?॥नो-नो ... तो फ़िर कहाँ थी पिछले हफ्ते?... अरे यार ऊटी चली गई थी, रेस्ट चेयर पे टाँगे फैलाकर बैठ जाती है - "तू तो ऐसे कह रही है जैसे न्यू-मार्केट चली गई थी?..." "यार बस इनका मूड बन गया, मैंने भी सोचा - जस्ट फॉर अ चेंज"... "तभी इतना फ्रेश लग रही है!" - "ओह! नो!" - नाक सिकोड़कर कहती है, "वहां भी वही मिडिल-क्लास वाली भीड़, मुझे तो कोई चेंज नहीं मिली" - तभी मोबाइल की एक लहराती 'त्रन-त्रिन-नन' - "हेलो, कौन? सोम्या!... येस!... हाँ पूर्णिमा, क्या बोल याद है न कल कृति के यहाँ किटी है... अरे? ... हाँ... पर मेरा मूड ऑफ़ है... क्या हुआ? कल शाम तक तो ठीक थी?, राकेश से फ़िर झगडा? ... नहीं... सो वाय आर यू क्रेअटिंग ड्रामा ?... ठीक है, आ जाउंगी तू लेक्चर शुरू मत करना... ओके बाय!" रीना पूर्णिमा से:- "क्यों नहीं जाना चाहती? ... नहीं,उस भुक्कड़ के यहाँ नहीं! जितना खिलाएगी सब वसूल कर लेगी, दूसरो के यहाँ तो ऐसे खायेगी जैसे जन्मों की भूखी हो और ख़ुद के यहाँ खिलाने के नाम पर दम निकलेगा!... तो?.... तो क्या? बस उसने तो यही समझना है, मेरी नई हुंडई गेट्ज से जेलस कर गई!... ओह गोड! क्या सच? कार ?हुंडई ?गेट्ज? कब खरीदी? - एक ही साँस में पूछती है, पहली महिला रीना... "किटी पार्टी तो बहाना है, सच तो ये है... क्या?... उसे तो अपनी सिंगापुर वाली भाभी को सारे जलवे दिखाना है जो आजकल छुट्टियों में उसके पास आई हुई है, पार्टी भी बंगले पर नहीं... तो?... कंट्री-वुड क्लब में... हाय! ये इतना पैसा क्यों खर्च कर रही है?... डोंट माईंड... दमयंती की वेडिंग अनिवर्सरी पर मिल गई थी, १२ को... हाय में कहाँ थी?... तू....... - याद करते हुए कहती है-तू दिल्ली गई थी... ऑफ़ व्हाइट चामुंडी शिफोन पर बीट्स और सिल्क एम्ब्रायडरी वाली साड़ी ... आह!... क्या पल्लू को लहरा लहराकर इतराती फ़िर रही थी, मानो उसी की वेडिंग अनिवर्सरी हो... तू मुझे रिपोर्ट कर रही है या जला रही है?... बेवकूफ सारा शहर जानता है दमयंती जब अपने मामा के यहाँ अमेरिका गई थी, ये वही पड़ी रहती थी, हरीश को तो इसने इतना एक्स्प्लोईट किया... वो तो दमयंती की नौकरानी लीलाबाई ने फोन पर हिंट दे दी उसे, बड़ी ईमानदार है लीला... क्या खाक ईमानदार! पहले साहब कुछ दिन उसके साथ ऐश फरमाते रहे बीच में ही यह महारानी आ टपकी... बस लीलाबाई से टोलरेट नहीं हुआ। बन गई लीलाबाई लक्ष्मीबाई, मन ही मन उठा ली तलवार! पोल खुल गई... लेकिन तुझे कैसे मालूम?... ख़ुद लीला ने बताया... लीला तुझे क्यों बताने लगी?... अरे यार! अब तुझे कौन सी किताब लिखनी है? मेरा सर्वेंट छुट्टी पर था और फ़िर उन दिनों दमयंती को मैंने ही मोरल सपोर्ट दिया था। छोड़ गई उसे मेरे पास! कोम्प्लिमेंट्री तौर पर!... अच्छा छोड़ लीलाबाई का किस्सा, थोड़ा स्टीम ले लूँ... -ब्यूटी पार्लर में मसाज - फेशिअल करने वाली कुछ कम उम्र लड़कियां आपस में मुस्कुराते हुए काम में व्यस्त हैं... "इनका समाज उन लोगों का है जिन्हें धन और ऐश दोनों प्राप्त है... एक-दुसरे को नीचा दिखाने की फ़िक्र और बेशर्म कोशिशों में यह औरतें इस कदर आत्मकेंद्रित और कुंठित होती जा रही हैं, की उनके अपने होने का एहसास ही गुम हो गया है और इस अप-संस्कृति को और अधिक विकृत करने में उन लोगों का हाथ अधिक है जिन्होंने नया-नया पैसा देखा है, जिसकी चका-चौंध में वे अंधे हो चुके हैं, सारी नैतिकता और मान-मरियादा को ताक पर रखकर हर दिन नए-नए शौक पालना जिनका शगल बन चुका हो, रुपयों पैसों की मनमानी का खेल और ज़िन्दगी का मजा ही जिनका धर्म बन चुका हो वहां क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिए (शेष और अन्तिम पोस्ट आगामी...)"
एक शब्द जो...हवा मैं रह गया,...दोस्त के नाम ...
मंगलवार, 18 नवंबर 2008
ये चमकीली औरतें,..रिपोतार्ज कथा,..पिछली पोस्ट से आगे,

चमकीली औरतें कोई किस्सा नही, हमारे समाज का सच है ,आधी आबादी का एक पढा लिखा अनपढ़ हिस्सा बनी ये औरतें अच्छे भले आदमी का दिमाग घुमाने के लिए काफ़ी है ,ये पोस्ट ज्यों की त्यों पेश है जैसा मैंने इसे सुना,...आगे सुनिए.....बुटिक मालकिन आँख मारकर,..यादव को तो पटा नही पाई ,अरे क्या पटाती ..चोरी कर के जो खाता था ,फिर तो गोविन्द तेरे यहाँ चल ही नही सकता,ग्यारंटी से कहती हूँ ,क्यों ?क्यों ,क्या जब तू ज्यादा आब्जर्व करेगी तो नौकर ने तो भागना ही है सीने पर चर्बी के पहाड़ , ,रंगीन होंटो की नकली चमक ,कटे छितराए बालो का घोंसला प्यार तो क्या देखने के भी काबिल नही जाने किन अभागों के पल्ले आती होंगी ये महिलायें ,मन ही मन सोचती हूँ ,....चल तेरी लक्ष्मी को पटा लेती हूँ ...पहली ना जी,ये मत करना तेरे लिए रोज दो मुर्गे भेज दूँगी ..ओह पर तुने खाना नही बनाना ...अरे यार कौन से पति महाराज ने गोल्ड मैडल देना है वो खाना खाता ही कब घर मैं ,कभी यहाँ ,तो कभी कोई पार्टी दुनिया भर मैं मुँह मारता फिरेगा और घर के खाने मैं नुक्स निकालेगा,मेरे बस का नही ये सब,फिर घर के खाने को खाना ही कितनो ने,फिर उसकी आँख का कोना दब जाता है ,..जबसे लक्ष्मी आई है साहब भी खुश,मैं भी अच्छा तू तो आज ही गोविन्द को बुला दे ..खाने की मुझे तो परेशानी है ,सास जो है मेरे सर ,निभाना ही है ,...खाने मैं क्या -क्या देती थी ,...क्या-क्या नही दिया बदमाश को ,साहब से पहले एक गिलास दूध ,दो उबले अंडे ,..दूसरी आँखे मटका कर...साहबसे पहले और क्या-क्या...छोड़ यार याद नादिला उसकी ..पर एक बात समझ ले ,इसके बाद भी उसे चोरी से खाते देख ले तो एक आँख बंद कर लेना ,क्यों दोनों क्यों नही ,सवाल मत कर समझ ले,उससे आँख ना मिल जाए ,तेरी जो मर्जी आए करना बेचारा सब मैं राजी तू जाने तेरा गोविन्द, आज से वो तेरा हुआ, भोंडी और निरर्थक हँसी ,..ही ..ही ..हो...चल बता कुरते कब देना है तूने-अपने भारी भरकम शरीर को समेटती हुई खड़ी होती है ,खुशनुमा और थोड़े ठंडे मौसम मैं भी कहती है ,हाय बड़ी गर्मी है शाम आजा ,..बियर का मूड है ,मजे करेंगे ,ना बाबा तेरे यहाँ क्या ख़ाक मजे करना है मैंने ,तेरा पति तो होगा नही ,हाँ ये बात तो है उसने कहाँ होना है सही शाम घर पे ,अच्छा चल कॉल करना ..तू चाहे ना आए अपना तो प्रोग्राम फिक्स है सींक कबाब बनवा लूँगी ...ओके ,कल इसी वक्त कुरते तैयार रखना ,बुटिक वाली मुझे देखती है उड़ती सी नजर से ...गेट तक छोड़ने महिला को जाते हुए ,..दोनों महिलायें अपने पेंटेड काले सुनहरे बालों के साथ थोडा गर्दन को झटका देते हुए चली जाती हैं हवा मैं देशी पसीने और विदेशी पर फ्यूम की मिली जुली एक तीखी गंध छोड़कर ....(अगली पोस्ट मैं एक ब्यूटीपार्लर मैं मिलेंगे)
ये चमकीली औरतें ...फिजूल की औरतें,...अंख देखी-कन सुनी एक रिपोतार्ज कथा

सोमवार, 17 नवंबर 2008
क्या राजनीति की अपनी मजबूरियाँ होती हैं,?भा ज पा का घोषणा पत्र
गुरुवार, 13 नवंबर 2008
देविदाफ्फ़ कॉफी,और ..उसके हिस्से की शाम...एक प्रेम की शुरुआत ..अंत से पहले.
सोमवार, 10 नवंबर 2008
तुम छोड़ जाती हो ...सतह पर

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008
कुछ दुःख भी सुखों की तरह अलौकिक होते हैं...
गुरुवार, 6 नवंबर 2008
सिहांसन किसी की बपौती नहीं... पिछले चुनाव और उमा भारती.
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बुधवार, 5 नवंबर 2008
पृथ्वी की तरह थरथराते हुए... प्रेम करते हुए...

जिन दिनों ,
अंधेरे आकाश से लड्ते हुए।
बादलों को चीर कर कभी कभार ,
दिख जाता था,एक टुकडा चाँद,
तुमने मेरे मन को,
पोथी की तरह बांच डाला था,
पृथ्वी की तरह थरथराते हुए,
तुमने किया था स्पर्श ,
कई बार जब तुम्हे प्यार करते हुए,
मुझे याद आया हमारा युद्धरत देश,
तुमने गुलाबी होंटों को,
मेरे माथे पर धर कर अभिषेक किया,
जबकि बेहद आक्रोश था मन मैं,
तुमने फूल सा हाथ,
मेरे कन्धों पे रखते हुए,
मुझे और तपने दिया।
यह खूबसूरत प्रेम-कविता सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के पौत्र - 'विवेक निराला' की है। जिसे अपनी डायरी से ...
मंगलवार, 4 नवंबर 2008
बांधो ना नाव इस ठौर बन्धु...
शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008
"कई मौसम एक साथ चलते हैं" अमृता प्रीतम की किताब - दूसरे आदम की बेटी...मैं

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008
जब गूंजता हुआ एकांत था...

रविवार, 26 अक्टूबर 2008
मनाओगे क्या तुम अपने को मेरे साथ, त्यौहारों से ज्यादा... "
