गुरुवार, 10 दिसंबर 2009
गीत को उसके ही माध्यम से जानना और नमित हो जाना... विरक्ति के बाद अनुरक्त होना, फिर जीवन खपाना... जहाँ से हम फिर देखना शुरू करते हैं, तसल्ली से किसी इल्ली द्वारा खाया गया टेड़ा-मेढ़ा आधा -अधुरा पत्ता पूरे जीवन की मानिंद
सोमवार, 23 नवंबर 2009
//-जो बार-बार मिलता-बिछड़ता है , -मन रूक सा जाता है.. उसका बोलना पानी के बीच घुलता जाता है.-एक नया मौसम इस मौसम के विरुद्ध हो जाता है...
रविवार, 15 नवंबर 2009
मणिपुर की लोह स्त्री शर्मीला की कहानी - शर्मीला समय की उचाइयों पर...
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
उसका खुश चेहरा,और सात तालों में कैद चुप्पी बोलती है घोलती है --बेखबर, जलतरंग की झिलमिल / / -
एक छोर से आसमान ढह गया
गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009
प्रेम से ऊर्जा ...उर्जा से क्रिया शीलता ,क्रिया शीलता से रौशनी और रौशनी से सुघड़ता ...//-
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
-एक पुरसुकून आसमान की तलाश ,मन खुश था अपने ही सवाल पर जो उसके जवाब की प्रति क्रिया से छूट गया था चलो अच्छा हुआ... एक कांट-छांट मन की सतह पर होती है ..//
मंगलवार, 1 सितंबर 2009
माँ मुझे यकीन है तुम मुझे सुन रही होगी... शब्द घुप्प अंधेरों में चले गये थे ,मां के अर्थों में शब्दों को ढूढना कितना मुश्किल ...//
शनिवार, 29 अगस्त 2009
/इच्छाओं की एक छूटी हुई अधूरी फेहरिशत में हमारे नमकअश्रु के प्रार्थनाओं के जलतीर्थ में तुम चाहो तो भी ना चाहो तो भी
सोमवार, 17 अगस्त 2009
एक तपिश थी शब्दों को जलना था,वहीँ म्रत्यु की पदचाप थी, चमत्कार था ,अनेक नामो में समाई उसकी उष्मा थी... //
मंगलवार, 4 अगस्त 2009
//कच्चे कचनार के नीचे खड़े भाई खूब याद आते हैं... उस छोटी दुनिया में बड़ी खुशियाँ हासिल थी जहाँ हमे..//
शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
कुछ चीजों के साथ समय का फेरा था /औरइतिहास के जीवाश्म मैं परिवर्तित होने से /बचा हुआ समय ही है-/ और था /हमारे पास
शनिवार, 11 जुलाई 2009
'प्रेम एक ऐसा दृढ़ निश्चय है ,जो हमारी आत्मा के साथ रहता है और जो वतमान को अतीत तथा भावी युगों से जोड़ता है ,
अभी कल ही मैं मन्दिर के द्वार पर खडा था और पास से जाने वाले सभी व्यक्तियों से प्रेम के रहस्यों और लाभों के बारे मैं पूछ रहा था ....एक अधेड़ आयु का व्यक्ति जिसकी शक्ति क्षीण हो चली थी और त्योरियां चढी हुई थी वो कहने लगा ....प्रेम एक जन्म जात दुर्बलता है,जिसे हमने आदि पुरूष से उतराधिकार मैं प्राप्त किया है ...फिर एक नवयुवक जिसका शरीर और भुजाएं सुद्रढ़ थी उसने कहा ...''प्रेम एक ऐसा दृढ़ निश्चय है ,जो हमारी आत्मा के साथ रहता है और जो वर्तमान को अतीत तथा भावी युगों से जोड़ता है ,...उसके बाद एक शौकातुर स्त्री गुजरी वो बोली प्रेम एक घातक विष है जिसे पाताल वासी भुजधर सारे लोक मैं फैलातें हें आत्मा उसके प्रभाव मैं नशे से मस्त हो बाद मैं नष्ट हो जाती है ,..एक गुलाबी चेहरे वाली सुंदर लड़की का कहना था कि.....प्रेम एक अमृत है जिसे प्रभात कि वधुएँ बलवान पुरुषों के लिए बरसाती है जिससे वे समस्त आनंद का भोग कर सकें फिर एक काले वस्त्रों मैं लम्बी दाढी वाले व्यक्ति ने कहा कि ....प्रेम एक मुर्खता है जो जवानी के प्रभात के साथ प्रगट होती है और संध्या बेला मैं विदा हो जाती है ,....उसके बाद एक तेजपूर्ण चेहरे वाले आदमी ने शांत और प्रसन्न मुख से कहा प्रेम एक दैवी ग्यान है जो हमारे अन्तरंग और बाहर कि आंखों को प्रकाश प्रदान करता है जिस से हम समस्त वस्तुओं को देवताओं के समान देखने लागतें हैं ,...बाद मैं एक अंधे आदमी ने रोते हुए कहा प्रेम एक गहरी धुंद है जो आत्मा को ढंक देती है जिसमे आदमी अपनी इक्छाओं की प्रति छाया मैं अपनी ही आवाज की प्रति ध्वनी सुनता रहता है फिर एक नवयुवक वीणा बजाते हुए आया और बोला प्रेम एक स्वर्गिक ज्योति है जो सूक्ष्म ग्राही आत्मा की तरंग से चमक कर अपने आस-पास की समस्त वस्तुओं को प्रकाशमान कर देती है ,...फिर एक बूढे ने कहा प्रेम एक दुखी शरीर की विश्रांति है ,जो उसे कब्र मैं प्राप्त होती है फिर पाँच वर्ष का एक बालक दौड़ते हुए आया और उसने कहा ..प्रेम मेरा बाप है प्रेम मेरे माँ-बाप के सिवा कोई नही जानता कि प्रेम क्या है ...
और जब शाम हो चली सभी प्रेम के विषय मैं अपने विचार प्रगट कर चुके ..सन्नाटा होगया तब मैंने मन्दिर मैं एक आवाज सुनी ..जीवन दो चीजों का नाम है -एक जमी हुई नदी और दूसरी धधकती हुई ज्वाला .और धधकती हुई ज्वाला ही प्रेम है ...और मैंने घुटने टेक इश्वर से मन से प्रार्थना की,हे प्रभु मुझे इस धधकती हुई ज्वाला का भोग बना दे और इस पवित्र अग्नि की आहुति बना......
.मैं तुम्हे जिस भी कोण से देखता हूँ ,हर कोण द्रष्टि कोण बन जाता है ...शिव मंगल सिंह सुमन
शुक्रवार, 26 जून 2009
//वक्त के पार -अव्यक्त .उस वक्त की तरह
एक बहुत उंचा-नीचा
उबड़-खाबड़,कंटीला-पथरीला
,पहाड़ गढा मेरे लिए
और कहा -जा रहो और
करो इन्तजार ताउम्र
ये आजमाने की कोशिश थी ,या
दूर बहुत दूर रहने की कवायद
नही जान पाई ...फिर एक पुल बुना मैंने ,
अपनी संवेदनाओं के छोटे बहुत छोटे टुकड़े जोड़कर,
ढलान से थोडा ऊपर ,
चट्टानी गहरी खाई के ठीक ऊपर ,
बना पुल तुम्हारे लिए था ...
जहाँ खुला आसमान था ,
और थी जंगली वन्स्पतियों की खुशबू
और एक अनगूंज ...लगातार,
तुम्हे अपना कह सकने के पहले और बाद में,
कोई नाम जैसे ....निर्विकार -नीलाभ
सूर्य ..संदल..शुभम ..या सनातन ,
आदि गौत्र सा बजता है आधी रात शिराओं में ..
.मन है की उदासी नही छोड़ता,
ना जोड़ता है ,ना जुड़ता है,कहीं ओर,
क्या कोई आंसू इस लिखे पर गिरे
ओर कोई शब्द ..वक्त की तरह
धुंदला जाए तभी यकीन करोगे.?
जबकि में
वक्त के पार -अव्यक्त .उस वक्त की तरह
इस समय के साथ
गुमशुदा देहरियाँ ..तलाशती ...
इस बारिशी मौसम के शोर में भी सुन सकती हूँ तुम्हे ,
शुक्रिया दोस्त ,
जिसकी चौखट पर हाथों से पकड़े गए ,संग सितारे ,
ओर आंखों से समेटे गये ..उजाले,
हथेलियों पर स्पर्शों में ..अब भी दर्ज है ,
जब हमारी असंभव इक्षाओं का सम्भव भविष्य लिखा गया
बेमानी सा ....
बाकी सब जो झूट है ....अपनी नई-पुरानी कविताओं के संग्रह से
मंगलवार, 23 जून 2009
//बलात्कार एक स्त्री का अवमूल्यन है,उसके मौलिक अधिकारों का उलंघन,न्यायविदों के हाथ मैं सिर्फ कलम है, कोई मिसाल, नही कोई मशाल नही जिसे बतौर पथ प्रदर्शक
दरअसल बलात्कार को कानूनन गंभीर अपराध की श्रेणी मैं रखा गया है इंडियन पेनल कोड की धारा ४९८ ऐ मैं औरतों पर हो रहे उत्पीडन को रोकने मैं ये सहायक है ...इसमें अभियुक्त को जमानत पर छोड़ने का प्रावधान भी नही है ,इस सन्दर्भ मैं न्याय मूर्ति कृष्णन अय्यर के एक एतिहासिक फैसले मैं कहा गया था की बलात्कार की शिकार महिला का बयान अभियुक्त को सजा देने के लिए काफी होगा ...लेकिन मासूम -नाबालिग़ लड़कियों के मामलें मैं ये कैसे सम्भव होगा इस बारे मैं कुछ नही कहा गया .राष्ट्रीय रिकार्ड ब्यूरो के १९९० के अनुसार १९९६ तक ८६.७९१ब्लात्कार हुए जिनमे नाबालिग़ लड़कियों -१० वर्ष से कम उमर का प्रतिशत २० हजार ११४.[२३.३] प्रतिशत था और १० से १६ वर्ष की किशोरियों के साथ .४८.९१८[५६.७] प्रतिशत औए १६ से ३० वर्ष की महिलाओं के साथ १२५११[१४.५]प्रतिशत रहा ...,इसमें भी ३० तक की आयु की महिलाएं सर्वाधिक बलात्कार की शिकार हुई ,जबकि ८० प्रतिशत मामले मैं बच्चियों की उम्र १० वर्ष से कम हें एक अनुमान तो ये भी है की बच्चों के साथ किए गये १०० से अधिक यौन कुकर्म मैं से एकाध की ही सूचना या रिपोर्ट मिलती है और जो भी जानकारी सामने आती है वो दिलदहला देने के लिए काफी है अपराध रिकार्ड ब्यूरो भी आख़िर थानों न्यायलयों, एजेंसियों के आधार पर ही तो अपराध का डेटाऔर प्रतिशत निकालता है । सपना सा लगता है क्या हम आजाद देश मैं हैं ,और क्या येवही देश है जहाँ भगत सुखदेव,राजदेव जैसे क्रान्ति कारियों ने अपना बलिदान कर हमें आजाद कराया और उस आजादी का एसा हश्र ?असल मैं हम आत्मा और मन से इतने असुरक्षित और नपुंसक हो गये हैं की दूसरो के लिए कुछ करना ही नही चाहते ...हमने अपनी मान मर्यादा दूसरो के दुःख मैं दुखी होने वाले सहज गुणों को इतने ऊपर ताक पर रख दिया है कि वो अब हमारी अपनी ही पहुँच से दूर हो गएँ है ....ऐसे मैं ,एड्स अवेयरनेस प्रोग्राम, लिंग भेद समानता जैसे नारों-वादों घोषणाओं का कोई अर्थ नही रह जाता जब तक की हम उन तमाम ताकतों को चुनौती नही दे देते जिनकी वजह से औरतों की हैसियत कमतर होती है और उनकी मान-मर्यादा को ठेस लगती है ....यूँ संवेदन हीन होकर लिखने सोचने या कार्य की परिणिति तक पहुँचने से तात्कालिक लाभ चाहे हो जाए, लेकिन दूरगामी परिणाम शून्य होंगे ---और आजाद भारत मैं औरतों के जीवन यूँ ही स्याह अंधेरों मैं तब्दील होते रहेंगे ,---हमारी न्याय व्यवस्था लचर है ..क़ानून अंधा...न्यायविदों के हाथ मैं सिर्फ कलम है ....कोई मिसाल ऐसी नही ,...कोई मशाल ऐसी नही जिसे पथ प्रदर्शक बतौर [रिफरेन्स ]बताया जा सके ....हमारे देखने सोचने ,महसूस करने और फिर लिखने से कितना फर्क पड़ता है.समाज के प्रति विशेष कर औरतों के लिए हमारी नैतिक जिममेदारी की दावेदारी अन्तत ऐसे हादसों के बाद खोखली हो कर रह जाती है ।
किसी स्त्री को सतीत्व भंग की क्षति के साथ जिस गहन भावनात्मक दुःख भय मानसिक दवाब को जीवन पर्यंत तक सहना पड़ता होगा क्या पुलिस ,प्रशासन और अपराधी या सामान्यजन इसे समझ सकतें हैं ...ऐ आई आर १९८० सुप्रीम कोर्ट ५५९ ने कहा भी की स्त्री के लिए बलात्कार म्रत्यु जनक शर्म है ,और जब पीडिता न्याय के लिए गुहार लगाती है तो न्याय[परिणाम]भी उसके हक मैं अक्सर नही आते ---होता तो यही है की अक्सर समाज और परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए बलात्कार के मामले दबा दिए जाते हें चाहे न्याय व्यवस्था कितनीही कड़ी और सच्ची क्यों ना हो ,और बलात्कार होने से अधिक बलात्कार होने का अहसास, कोर्ट मैं विरोधी वकीलों का सामना उनके सवालों के जवाब अन्तत एक बलत्कृत महिला का मनोबल गिरा देतें हैं। १९८३ मैं हुए संशोधनों के बावजूद बलात्कार के संदर्भ मैं किय गये संशोधनों के अनुसार धारा ११४[ऐ ]की उपधारा ऐ बी सी डी औए जी के अंतर्गत बलात्कार के मामले में यदि महिला अदालत मैं ये कहती की उसकी सहमती नही थी तो अदालत को यह मानना पडेगा,लेकिन ये प्रावधान सिर्फ पुलिस,सार्वजनिक सेवा, मैं रत व्यक्ति जेल प्रबंधक डॉ द्वारा बलात्कार या सामूहिक बलात्कार या महिला के गर्भवती होने की स्थिति मैं हो तो प्रभावी माना जाएगा मगर इस हालत मैं भी मर्जी या सहमती के आधार पर अपराधी के बच निकलने के रास्ते मौजूद है।
बलात्कार एक सर्वाधिक घृणास्पद कार्य है--बलात्कार वास्तव मैं एक स्त्री का अवमूल्यन है इन मामलों मैं वैसे तो दिनाक २८ जनवरी २००० मैं सुप्रीम कोर्ट ने एक एतिहासिक निर्णय मैं कहा था की किसी भी स्त्री के साथ बलात्कार ,उसके मौलिक अधिकारों का उलंघन है,सरकारी कर्मचारियों द्वारा कए गए दुष्कर्म के लिए केन्द्र सरकार को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है विशेषकर हर्जाना अदा करने के लिए .भारतीय सविंधान के अनुछेद २१ के अंतर्गत भारतीय ही नही विदेशी नागरिकों को भी जीवन और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है ...अपराध ब्यूरो द्वारा प्राप्त आंकडों की सच्चाई पर भरोसा करना ही पड़ता है यौन हिंसा का आंकडा एक आइना है जिसमें हम औरतों की मुश्किलों को गहराई से देख सकते हैं....
फिर भी महिलाओं की अस्मिता उनके सुख चैन को छीनने वाली ताकतों के खिलाफ देश ही नही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला संगठनों ने अहम् भूमिका निभाई है ,तेजी से बढ़ते सामाजिक सरोकारों अंतर्विरोधों के कारण गरीब-अमीरशिक्षित -अशिक्षित ,ग्रामीण-शहरी,महिलाओं ने अपनी अस्मिता-अस्तित्व और अधिकार की लड़ाई लड़ी है और सफल भी हुई है,अंतत संयुक्त राष्ट्र संघ को ७० का दशक अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक के रूप मैं मनाना पढा था ,इसी के बाद महिला आन्दोलन जोर पकड़ते गये कहीं यौन हिंसा मुद्दा बनकर उभरा कही भ्रूण हत्या का विरोध हुआ कही दहेज़ प्रथा जैसी समस्या के लिए मोर्चा बंदी हुई कहीं कामगार की लड़ाई, कहीं स्त्री बिरादरी ने शराब बंद मुहीम छेडी... लेकिन वो बलात्कार के मामलों पर विवश हो कर रह गई है ....दरअसल बलात्कार जैसे अपराध की व्यापकता और उसकी भरपाई क्या इतनी ही है की पीडिता को पुनर्वास और हर्जाना मिले उसके छोभ ,ग्लानी ,उसकी मानसिक स्थिति और उसे तवरित न्याय मिले इसके लिए ---कुछ अन्य मुद्दे भी तय होने चाहिए ,लेकिन सबसे बड़ा सवाल बेमानी होकर रह जाता है की असुरक्षा का जो ये वातावरण है जिसमे औरत जी रहीहै ...उसे कैसे ख़तम किया जाय और वे कारक तत्व जो औरत के सम्मान को नीचा करते हें, जिनसे अपराध को बढावा मिलता है उन पर कैसे काबू पाया जाय .......
...इस लेख के लिए संदर्भ पुस्तक न्याय क्षेत्रे -अन्याय क्षेत्रे ...लेख अरविन्द जैन,एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट,मेरे प्रिय लेखक ..स्त्री के हक मैं उनकी -पुस्तक औरत होने की सजा -एक बेबाक पुस्तक है जिसे उन्होंने लिखा ही नही, महसूस भी किया है ....