गुरुवार, 18 दिसंबर 2014



एक बूढ़े 'टेबुआइन 'का आर्तनाद -----

एक बूढा टेबुआइन  जो रोजाना मेरी राह तकता है --घर के नजदीक बने जंगलनुमा पार्क में ---वक़्त ने उसकी कमर झुका दी   वरना वो भी कभी अपनी  सीधी -ऊँची पूरी लम्बाई पर इतराता फिरता था तेज बारिश हो ,सर्द शामे हों या गर्मियों की झूमती पुरवाई पिछले आठ सालों से उसे वहीँ पार्क के एक कोने में पाती हूँ ---जहाँ उसे हर दिन छोड़कर आती हूँ ---लेकिन पिछले  एक हफ्ते से वो ज्यादा बूढा दिखाई  देने लगा है -----वैसे तो उस पर से कई मौसम गुजरते ---वो फिर भी बड़ी हिम्मत से खड़ा दिखाई देता और गर्मियां आते ना आते उसकी मुस्कराहट चौगुनी हो झरझराती --फिर सैकड़ों पीले गुच्छों में खिलना ---उन्हें खिले हुए कई कई दिनों तक अपनी जीवटता में बचाये रखना -उसका  पहला काम होता -फिर एक दिन वो भी आता जब उसके सारे  फूल एक एक कर जमीन पर झड़ते चले जाते --वो अपनी छरहरी गर्दन को थोड़ा मोड़कर असहाय हो नीचे  देखता, मानो  उसी के पैरों तले  किसी ने पीला दुशाला बिछा दिया हो 
इन दिनों उसकी नम  आँखे --आद्र पुकार मुझे खूब सुनाई -दिखाई देती है ---इसी बारिशमें अंधड़ और   तेजमार को वो सह नहीं पाया और पार्क के अंदर ही रेलिंग्स में जा धंसा ---धड़ पार्क के भीतर --और -ऊपरी सिरा सामने वाले घर की सड़क पर, उसकी ऊपरी मजबूत शाखाओं -बाहों को  नगर निगम वालों ने काट डाला कई दिनों तक शालभंजिका  की तरह वो पड़े रहने पर मजबूर रहा ---में तब भी उसके आस-पास टहलती रही -उसके हाल चाल पूछती रही फिर  कुछ दिनों बाद --उसकी कटी फटी बाहों के सिरे पर कुछ नई  कोंपल फूटी ---थोड़ा आश्वस्ति भाव -आया -सोचा जी जाएगा ---लेकिन वो तो अंदर से टूट रहा था ---देर बाद समझ आया ---बारिश बीत गई ---अब मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट खेलते ,उसकी झुकी कमर पर आसानी से चढ़ बैठते ----दिन में पचासों बार टेबुआइन दूर से आती गेंद की मार को महसूस करते  --हुए अपनी आँख को मिचमिचाता ---अंतत पीठ पर एक जोरदार मार सहता ----रोजाना की इस कवायद में उसकी पीठ सतह से किंचित चिकनी हो गई है -अपनी लम्बी सख्त यूकेलिप्टस सी नुकीली पत्तियों पर उसे गर्व है जो जायज भी है ----दो पल  उसके पास रूकती हूँ उसकी पीठ को  सहलाना सांत्वना देना --उससे सहोदरों से बिछड़ने का दुःख सुनना, दिन भर में किस गिलहरी ने उसकी लम्बी पीठ पर लहराते दौड़ते उसे कुतरा कितनी चींटियों ने जड़ तले राशन पानी इकठ्ठा किया ,किन दो औरतों ने अपने घर की दुःख- सुख को उसके नजदीक बतियाया, कितने झरते पत्तों ने उसकी दोपहर की नींद में खलल डाला-उसे सुन लेना जरूरी हो जाता है जो -बस सुबह की सैर में शामिल है 
 नगर निगम की मंजूरी के बाद -नए डेव्लपमेंट में कौन जाने ये भी कितना बच पायेगा लेकिन टेबुआइन मेरी स्मृति में हमेशा खिलता -खिलखिलाता रहेगा ---आमीन 
दुःख से भरपूर दिन तमाम हुए ---और कल की खबर किसे मालूम [फैज़ ]

गुरुवार, 5 जून 2014

मौसम के चेहरे पर इन दिनों तांबई ताप है ,एक खनक बावजूद भीतरी द्वन्द को ठेलती है विपरीत दिशाओं में इधर-उधर ,बल्कि उधर ज्यादा जहाँ कुछ छूट जाता है --चीजें इससे ज्यादा विस्तारित नहीं होती

क्या अब भी लौटा जा सकता है ,आज ये प्र्शन अपने आप  से नहीं ----अँधेरे में वो एक पसंदीदा जगह गढ़ लेती है ---कभी कभी जब सब कुछ ठोस हो जाता है ---तो किसी से सवाल करने  का मन करता है ---सवालों के टोहने से भी नहीं पिघलता --स्मृतियाँ भी तुम कौन हो कह आलोप हो जाती है और भीतर ही भीतर कोई बेखटके आवाज़ लगाता है --कोई कैसे देखे एक निर्णय अनिर्णय बैचैन करता जाता है हर  अगला क्षण मुल्तवी होता जाता है --नहीं लौटा जा सकता ,प्रश्न किसी और से  और उत्तर अपने आप को देना,आगत वक़्त की इक्षाएं धुंधलाती है --इसमें एक हैरानी है इक्षाओं के द्वीप पर अथाह रेतीला  चमकीला विस्तार गुंजाइशों  को बेठौर करता, भागती हुई लालसाओं को भारी हुई सांसों के साथ फेफड़ों को थका देता है --जो नया नहीं है ---कोई पूछे उससे --अनुपस्थित होकर उपस्थित होना क्या होता है --कई मोड़,वो छूटना वो जुड़ना वो टूटना सागौन वन में उसके पत्तों सा   खड़खड़ होना ---स्थिर पैरों से मन की परिक्रमा चकराती  है ,एक चट्टान को सीने  पे रक्खे  गोल घूमते हुए देखते रहना तकलीफ़देह है ----मौसम के चेहरे पर इन दिनों तांबई ताप  है ,एक खनक बावजूद भीतरी द्वन्द को ठेलती है विपरीत दिशाओं में इधर-उधर ,बल्कि उधर ज्यादा जहाँ कुछ छूट जाता है --चीजें इससे ज्यादा विस्तारित नहीं होती ,एक बिंदु पर जाकर सिकुड़ने लगती है तमाम प्रयास बेअसर होते हैं ---इसे किस्मत की सितमगिरी ही कहेंगे ----एक अन एक्सेप्टेड सिचुएशन को नरमी से कबूल करना --एक जादु असर  सर चढ़ बैठता है -----ये क्या तभी एक शाख से बिछुड़ा लंबा नुकीला हरा कंच पत्ता अपना हरापन खोता तेजी से सिकुड़ता जाता है बकौल खलील जिब्रान द्वन्द के उस पार होगा मन -मन के उस पार होंगे आत्मा के जगमगाते शिखर ---------कोई अपूर्व  निजता मन को घेरती है ,एक अलभ्य मुस्कान --इतनी निष्ठुरता बरतना जरूरी है दरअसल वहीँ प्रारब्ध है जहाँ- जहाँ जब-जब छूट जाते हैं वो ,एक निनाद प्रभुजी तुम चन्दन ---तर करता है तभी एक खानाबदोश हवा तेजी से गालों  को सहलाती निकल जाती  है थोड़ी सी खुमारी थोड़ी सी राहत ---फिर सोचना आखिर बेतरतीब चीजों रंगो को समेटने के लिए भी तो वक़्त और साथ की परसुकून दरकार है,-------उस दिन शाम ज्यादा ही  सर्द थी और उसकी आवाज़ भी  इत्तिफ़ाक़न दोनों के बीच शब्द भी  ना सुनाई देने वाली बिलख की तरह थे ---वो जगह ,वो सपने वो घुमड़ वो सन्देश --स्मृति घर के किसी ईशान कोण में बेहद-मूलयवान  खजाने की तरह रख देने का मन था,समय कम  था इक्षाएं मनभर अफ़सोस कितनी बातें/ चीजें छूट गई ----शहर  में पहला कदम --और बारिश ने स्वागत किया --शाम सारे ओफिशियलि---काम ख़त्म करके जनपथ से  उसने एक ट्रांसपेरेंट चाटा खरीदा ताकि बदल और बारिश एक साथ देखी  जा सके ,---लेकिन पता नहीं कैसे घंटा भर मार्किट में घूमने के बाद पसंद-आया छाता टेक्सी की सीट पर ही रह गया --दूसरे दिन विक्टोरिया  सिक्रेट का  परफ्यूम और सफेद फूलों का रजनीगंधा का गुच्छा --सरदार जी की गाडी में -और पहले दिन ही रूम के शीशों से छन कर  आती रौशनी से बचने की खातिर -अमेरिकन डायमंड वाले  हेयर क्लच को उसने सी ग्रीन पर्दों को समेट कर उसमें लगा दिया था ---अब सोचो तो हसी आती है बाकी चीजों का क्या हुआ नहीं मालूम लेकिन वो किलिप तो कूड़े के ढेर में जरूर बदस्तूर जंग खा रहा होगा ---यूं  अजीब है अपने को कभी-कभार बदत्तर और नकारात्मक सोचना जो ज्यादा देर नहीं ठहरता फिर लौटना यहीं -लौटकर हलकी आहट  के साथ नरम रौशनी में जमुनी फूलों का आँगन में निरंतर झड़ना अद्भुत दिखाई देता है जिसे अपनी आँखों से उन आँखों को दिखाना -चाहना इत्मीनान से भरी-सुलगती  - आँखों को ---फिर-सोचना-उस-आकाश-चमेली-के लम्बे  पेड़ को  जो झुका हुआ अपनी ही परछाई देखने में गुम रहता है ,सोचना ये भी की भूल जाना कितना अच्छा होता होगा एक दिन वो होगा-जब  वो सब जो सोचा है --भूल जानाहोगा  सब कुछ हमेशा के लिए अपनी चेतना में इस सोचे को सुनना और धूप छाहीं   हरियाली को आँखों में भर एक दूसरे पे उलीच देना उस दिन लगा जिंदगी इसी क्षण में सिमट गई है हम अगले क्षणों में साथ होंगे या सैकड़ों मील दूर दोनों को पता नहीं उस दिन शाम देर से आई और जल्दी लौट गई ---जैसे वो भी नाराज हो --कहना तो चाहती थी जिंदगी के सवालों का सामना करो --पर कहना आसान नहीं था ---


बीते तीन  दिनों से सूरज अपने पूरे तेवर के साथ तप रहा है जाने किसे जला-झुलसा देने की मंशा है कनेर के बोनसाई में पीले फूल शाखों पे खिलने के पहले ही   किनारों से स्याह हो झड़े जा रहे हैं --इक्षाएं उधर्वगति हो आकाश में घुल जाना चाहती है डूबता सूरज शाखों के बीच विरक्त भाव से डूबता ही जाता है --डूबता सूरज नहीं देखना चाहिए --अपनों से बिछुड़ना होता है थोड़ी देर में गाढ़े अँधेरे में पत्तों पर अभ्रक धातु सा कोई किस्सा चमकता रोशन होता जाता है दुनिया भर के शोर से अपने को बचने की खातिर एक छोटी कोशिश में एक हलकी मुस्कान चेहरे पर झुकती सी कांपती  हुई तेज दौड़ लगा जाती है एक केरेबियन गीत जोर से कानो में थर्राता है ---पता नहीं थोड़ी ही दूरी से ---उसकी धुन  शब्द अर्थ कुछ भी समझ नहीं आता -----
अब के गर तू मिले तो हम तुझसे ऐसे लिपटें तेरी काबा हो जाएँ [अहमद फ़राज़                   

बुधवार, 22 जनवरी 2014

मखमली ठंडक को छूते ही उदासी अक्सर पूछ लेती है ये क्या हाल बना लिया है तुमने अपना --मुझे आजाद करो तुम्हारे साथ सब कुछ अजनबी है ----खैर तसल्ली यही है दृश्यों में पहले सा सन्नाटा नहीं है


उसका चेहरा यकायक अब याद नहीं आता ना वो ना उसकी वो बातें और आता भी  है तो कहीं भी कभी भी फिर चाहे तालाब पर  फैलती सिकुड़ती रौशनी की  परछाई ही क्यों ना हो --उनमें भी --बस इस सोच के साथ एक अजब भाव उस पर तारी हो जाता  है  ---एक लम्बी सांस के साथ रूकना पड़ता है और देखना  तालाब की शेडेड रोशनियां कुछ नीली काली सी -- उसके ड्राइंग रूम के पर्दों की  तरह -जिन्हे रस्सी की  तरह बल देकर कभी पकडे पकडे वो उस तरफ देखती है-- कालबेल पर रखा  उसका हाथ -याद आता है  तो  लगता है कुछ था जो रोशनियों से भरा था  लेकिन क्या --सोचना पड़ता है और देर तक सुझाई नहीं देता --बल खाया पर्दा जोर से छोड़ देना पड़ता है जो खिड़की के एक हिस्से के टूटे कांच की  तिरछी दरार नुमा लकीर से होकर बेतरतीब हो फैल जाता है और पल भर को शीशों से छन कर अंदर आती रौशनी उसके चेहरे पर लहराती हुई जमीन पर फैल जाती है   अंदर की भटकन भी एक झटके के साथ कोने में जा सहम बैठ जाती है  ---मिल जाए वो शायद --सब कुछ नहीं बस उतना ही जो उसके हिस्से का था, एक निर्जन सपने में निमग्न होना और हर रात ये प्रार्थना करते हुए सो जाना हे ईश्वर आज कोई सपना मत भेजना ऐसा दुःसह --जैसा कोई नहीं एक सचेतन पूर्व ज्ञान समय की  गर्द - गुबार हटाकर स्पंदित होता है बहुत कुछ किसी रंग में ,किसी शब्द में ,किसी वक़्त में किसी मिलती जुलती शक्ल में और कभी तिनके-रेशे भर की  समानता में भी--- उसकी निगहबानी चाहे-अचाहे होती ही जाती है फैली हुई हवा 
की  शक्ल का बनना टूट जाता है -डूबते को तिनके-रेशे का सहारा वाली तरतीब भी साथ नहीं देती --एक मारक अहसास चाबूक की  तरह बे आवाज़ कुछ घटित करता है कोई ऐसा  दुःख जो ना घटता है ना हटता  है सिर्फ-एक निशान बनाता  है ----उसे एक सीधे रस्ते की दरकार थी, एक साफ उत्तर ----जहाँ कोई उलझन ना हो ----सोच की  एक लहर दिल दिमाग पर चढ़ने लगती है ----स्मृतियों का दरवाजा  बेवक़्त खुल ही जाता है एक कोलाज रास्ता रोकता है --जो मेरा था वो वक़्त दूर जाकर चिढ़ाता सा दिखाई पड़ता है तेज गति वाली किसी ट्रेन की  खिड़की से हिलते हाथ में रुमाल का धब्बे की  शक्ल में होते-होते आलोप हो जाना  ---एक क्षण के जादू का ताउम्र उसकी गिरफ्त में जीना ---देर रात तक कई बार नींद नहीं आती ---कांपती ठण्ड में नीले मखमली  कम्बल में  कुड़मुड़ाते बस पड़े रहो उस  मखमली ठंडक को छूते ही उदासी अक्सर पूछ लेती है ये क्या हाल बना लिया है तुमने अपना --मुझे आजाद करो तुम्हारे साथ सब कुछ अजनबी है ----खैर तसल्ली यही है दृश्यों में पहले सा सन्नाटा नहीं है बेडरूम से सटा हुआ बड़े बड़े भूरे लाल पत्तों वाला पेड़ खड़खड़ करता ---जागते रहो की  गुहार लगाता चेताता  रहता है, क्यों छूटता चला गया सब कुछ एक अव्यक्त भीतर ही भीतर बदलता है --अजब भाव से उन- इन चीजों को देखना अपनी पीड़ा में दूसरे की  पीड़ा को देखना उसकी --अपनी समझ की समय सीमा तय कर-लेना की  बस इससे आगे ना जानना ना समझना ---फिर भी भीतर का अकेलापन लहलहाता ही जाता  है कहीं भी जाओ ---हर कहीं साथ ----डोलता सा पीछे पीछे 
इस साल मौसम सर्द है अप्रत्याशित रूप से ज्यादा --इतने सर्द की  आदत ना हो तो क्या कीजिये ---नीले नीले अनमने दिनों में बजती हुई हवाओं के साथ पतझड़ का इन्तजार ---दुःख देता है और इन दिनों को हर साल ऐसे ही मुड़ते हुए देखना भी दुखी कर जाता  है --मन की  बैचेनी बारिश के बाद खिल आये जामुन- अमरुद के ताजे पत्तियों की  खुशबू में घुमड़ती ही जाती है तंग दिनों की  शुरुआत ---अब राहत देती है ---देखो अब हम कितना बदल गए हें --रोते नहीं--एक दूसरे तरह का हुनर अपने में विकसित कर लेना -- एक पेड़ का निर्लिप्त भाव स्मृतियों की  निरंतरता को बरकरार रखता है  अँधेरे में खड़ा अपने धड़ से कटा  पेड़ अपनी दो टहनियों के साथ विपरीत दिशाओं में फैला  एक काले  बिजूके की तरह  ठहाका लगता है --इतनी लाचारी इतनी असहायता एक प्र्शन खड़ा करती है-- लेकिन उस वक़्त वो बात ख़ास थी ---बिना तय किये ही तय की  जा चुकी शर्तें टूटती हें इतनी छोटी दुनिया में बहुत कुछ छूट जाता है स्मृतियाँ भी --अक्सर वो जुदा --दुनिया खफा --तुमने कुछ कहा शायद--मैंने कुछ सुना   हमारे अच्छे -सच्चे दिनों--का लौटना मुमकिन होगा-- कभी सोच में कभी सपनो में उम्मीद से अधिक उम्मीद आखिर क्यों --सड़क, दुकाने, आवाजें ,शहर --किसी शहर के  खूबसूरत नाम वाला वो मार्ग एक गंध कि तरह व्यक्त होता है --क्या सचमुच कोई उधर इन्तजार कर रहा है छूटा हुआ कुछ मिल जायेगा ये भी तय नहीं है बाहर कोहरा है बेहद ठण्ड है --हर वक़्त स्मृतियों की  यात्राएं बेठौर कर देती है कोई ठिकाना नहीं बचता ---एक घर बनता है जरूर लेकिन तुरंत धवस्त भी हो जाता  है और लौटना उसी टूटे फूटे में नियति बन जाती है --और  हर यात्रा को पीछे मुड़कर देखना अजीब है एक सीझा हुआ  सा  दिन, उन दिनों के पतझड़ के लिए प्रेम करने और भुलाने के लिए.मजबूर करता है  जीने के लिए आप कौन सी प्रक्रिया अपनाते हें आप पर निर्भर है और मुक्ति सम्पूर्ण जीने में शायद हो --वो जी कर ही अनुभूत की  जा सकती है ---हमारा समय कहाँ दर्ज है जिसमें किसी पत्ती  तक के गिरने की आहट  नहीं है ---तुम्हारा चेहरा कुछ कुछ याद आ चला है-तुमने फिर अपना कहा अच्छा लगा एक नदी -पहाड़ों के नीचे कछारों में - बहती हुई बढ़ती है ,गीले तिनको घास कागज सीपी शंख को ठेलते हुए उस तक, इस साल बारिश भी
ज्यादा हुई और इस मौसम में भी लगातार बारिश हो रही है --नदियों के उफान पर आने के साथ ही ----ये भी बीत जायेगा ---लेकिन कितना बचा रहेगा ये कौन जानता है -
--[होना है मेरा क़त्ल ये मालूम है मुझे --लेकिन खबर नहीं कि में किसकी नजर में हूँ ]