शनिवार, 22 नवंबर 2008

सिटीजन केन ..सफलता, यश पैसा, सत्ता और अमरता की वासनाएं किस तरह किसी का क्रमिक आध्यात्मिक स्खलन करती हैं,की अंत मैं उनके पास बाकी सिर्फ डर और उसकी छाया

सिटीजन केन फिल्म का महत्व यह है की इसने सिनेमा को आर्ट फार्म की तरह इस्तमाल किया इसके डीप फोकस शॉट सब्जेक्टिव केमरों का प्रयोग अपारम्परिक रौशनी ,छायायों और अजीब कोणों का आविष्कार ,लंबे-लंबे शॉट्स फिल्म निर्माण के तकनिकी इतिहास की अमूल्य धरोहर बन गएँ हैं ,इस फिल्म ने समाचार को नैरेटिव की तरह इस्तमाल करना भी सिखाया ,...सफलता यश ,पैसा और अमरता की वासनाएं किस तरह से एक पत्रकार का क्रमिक आध्यात्मिक स्खलन करती है ,फ्लेश बेक मैं चलती जिन्दगी को किस ,तरह कहानी त्रासद तरीके से बताती है की की सब कुछ भर लेने की चाहत किस तरह आदमी को खाली कर देती है की लोग अपने किले जैसे निवास को व्यक्तिगत अभ्यारण बना लेतें हैं और अंत मैं उनके पास बाकी सिर्फ डर और उसकी छायाएं रह जाती हैं .......अखबारी दुनियाके एक सम्राट के मुँह से मरते हुए एक शब्द निकलता है रोज बढ़ इस आखरी शब्द का रहस्य क्या है ,..एक रिपोर्टर इसे ढूँढने निकलता है और उजागर होती है एक ऐसे अखबार मालिक की कहानी जिसने शुरुआत तो की थी समाज सेवा के महान आदर्शों के साथ ले किन जो अंततः निर्मम सत्ता -लिप्सा मैं परिणित हो जाती है ,...३७ अखबारों,दो सिंडिकेट ,एक रेडियो नेटवर्क का मालिक ,जिसके पास फेक्ट्रियां अपार्टमेन्ट ,पेपर मिलें जंगल भी है और जहाज भी ,....जिसे कभी फासिस्ट कहा गया जो कभी रूजवेल्ट के साथ दिखाई गया तो कभी हिटलर ,जो जनमत का महान निर्माता था ,स्वयं गवर्नर पद का प्रत्याशी भी ,संभवत जिसका अगला कदम व्हाइट हाउस ही था ,जो ना सिर्फ पेपर के ही नही बल्कि ख़ुद एकन्यूज़ के लिए जाना गया ,जो पीत पत्रकारिता का अग्रदूत था ,..वो सिटीजन केन ख़ुद प्यार के एक स्केंडल मैं फँस जाता है ,..और उसका साम्राज्य उसकी आंखों के सामने धराशायी हो जाता है ,जब थेचर उसे याद दिलाती है की उसका अखबार सालाना १०लाख डॉलर के नुक्सान को झेल रहा है ,तो केन मजाक मैं कहता ,तो इस गति से उसे अखबार ६० साल मैं बंद करना होगा ,एक ऐसा अखबार मालिक जो टेबूलायेड से प्रेरणा ग्रहण करता है जिसका मानना था की यदि हेड लाइंस बड़ी होगी तो न्यूज़ भी बड़ी होगी ,ना सुनी गई चेतावनियाँ ,...वो अपनी बेलेंस शीट की चेतावनी नही सुन पाया ,जो अपने अखबार मैं नागरिकों को इंसान समझने ,उनके अधिकारों की लडाई लड़ने की घोषणा एक बड़े बॉक्स मैं करता था वोही केन अपने प्रतिद्वंदी अखबारों को हारने की कवायद मैं एक चूहा दौड़ मैं पड़ जाता है ,आज भी संभ्रम बना हुआ है केन के अन्तिम शब्द रोज बढ़ का क्या अर्थ था ,क्या वो उसकी प्रेमिका का नाम था ,..पर उसने तो अपने सिवा किसी से प्रेम किया ही नही ,वो किसी रेस होर्स का नाम था ,लेकिन ये रेस कौन सी थी ,क्या वो एक चूहा दौड़ तो नही थी?
भोपाल के रविन्द्र भवन मैं इन दिनों पत्रकारों ,अखबार मालिकों उनके पेशेगत कठिनाइयों ,संघर्ष से आम जन को रूबरू कराने वाली फिल्मों का पर्दर्शन किया जा रहा है ,उन्ही मैं से एक सिटीजन केन भी है ,इस फिल्म के लिए निर्देशक को धमकियां भी मिली मुकदमें ,एफ बी आई ,की जांच भी ये फिल्म ९ श्रेणियों में आस्कर के लिए नामांकित हुई किंतु महत्त्व इसका है की अकेले आर्सन वेल्स को चार श्रेणियों ,...निर्माता,निर्देशक अभिनेता व् स्क्रीन प्ले मैं नामांकित किया गया था और ये सम्मान पाने वाल वो पहला व्यक्ति था ।
समीक्षा मनोज श्रीवास्तव ,...आयुक्त जनसंपर्क,और सचिव संस्कृति विभाग MP द्वारा। (सम्पादन की दृष्टि से मैंने इसमे कुछ स्वतंत्रताएं ले ली हैं...)

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

शेटरड ग्लास ,लेखनी सिर्फ उपकरण नही है ,एक न्यास है ,जिसका टूटना सार्वजानिक घटना है ,वो निजी हाशिये की चीज नही


'शेटरड ग्लास' सिर्फ एक पत्रकार की कहानी नही ,क्योंकि वो कभी भी अकेली इकाई नही होता चूँकि उसके साथ ना सिर्फ उसकी प्रतिष्ठा जुड़ी होती है बल्कि संस्थान के सहकर्मियों के सुख-दुःख भी जुड़े होतें हैं किसी पत्रकार की गलतियां उसकी विश्वनीयता को क्षति पहुंचाने के साथ साथीयों और अखबार को भी बट्टा लगाती है ...लेखनी सिर्फ एक उपकरण नही एक न्यास है उस ट्रस्ट का टूटना एक सार्वजानिक घटना है ,जो निजी हाशिये की चीज नही ...शुद्धता अन्तत अन्तकरण की चमक है और फिल्म के नायक से यहीं भूल हो जाती है की वो अपने चेहरे के अबोध लुक को ख़बरों की शुद्धता का विकल्प समझ लेता है खबरें हकीकत का आइना होती हैं,जो इस आईने को मन गढ़ंत कुहासे से ढँक देना देना चाहतें हैं उन्हें टूटे कांच की किरचें गढ़ भी सकती हैं शेटरड ग्लास १९९५ से १९९८ के बीच अमेरिकी मीडिया मैं धूमकेतु की तरह छाए स्टीफन ग्लास नामक एक पत्रकार की कथा है न्यू रिपब्लिक नामक एक पत्रिका मैं इस २० वर्षीय युवा पत्रकार ने ख़बरों को टेबिल पर गढ़ने मैं महारत हांसिल कर ली है ,इस अवधि मैं उसने ४१ आर्टिकल लिखे ,जिनमें से जैसा की बाद मैं जाकर प्रमाणित हुआ की २७ पूर्णत या अंशत झूट थे ,लकिन ग्लास को अपनी कल्पना शक्ति,युवा और अबोध दिखने के आधार पर शुरू में खूब वाहवाही मिली .....फिल्म ये स्पष्ट नही करती की ग्लास ने ऐसा क्यों किया ,?वास्तविक जीवन मैं भी ये कभी स्पष्ट नही हो पाया की ग्लास ऐसा क्यों करता था /क्या वो पेथालोजिकल झूट था ,या उसे हवाई किले बनने मैं मजा आता था ,?या इस सोच मैं की इतनी कम उम्र मैं कैसे वो बड़े लोगों और इस दुनिया को बेवकूफ बना रहा है ,या वो सिर्फ लोगों को मनोरंजन करना चाहता है ,उन्हें वैसे ही खुश देखना चाहता है जैसे वह अपने आस-पास के सहकर्मियों को साथी की लिपस्टिक की तारीफ करना और झूटी ही सही लेकिन जनता का ध्यान खीचने वाली स्टोरी कर लेता है ,दोनों ग्लास के के लिए एक जेसी बात थी खबर ट्रुथ टेलिंग है ,सच बताना, ग्लास ने स्टोरी मैं सच से ऐसी स्वतंत्रताएं ले ली मानो वो साहित्यिक स्टोरी हो किंतु अखबारी पर्तिद्वान्द्विताएं इतनी हैं की कोई ख़बर यदि तथ्यों पर आधारित नही तो ,उसका खोखलापन खुल जाता है ,...फोबर्स डॉट काम के कुछ रिपोर्टर जब ग्लास की खबरों के तथ्य चेक करतें हैं ,तो पाते हैं की वैसा कुछ घटा ही नही ,बाद मैं न्यू पब्लिक का सम्पादक स्वयं उसकी ख़बरों पर जानकारी हांसिल करता है तो ग्लास फंसता ही चला जाता है ...निर्देशक बिली रे ने नायक ग्लास को ना केवल सावधानी पूर्वक चालाक खलनायक होने से बचा लिया है ,...बल्कि उसे इतना युवा और ऊर्जा से भरा हुआ पेश किया की उसका अंत यदि त्रासद नही तो दुखद जरूर लगता है ,फिल्म कहीं ये भी स्थापित करती है की पत्रकारिता किसी तरह की सस्ती लोकप्रियता हांसिल करने का ही माध्यम नही है,युवा पत्रकारों को महत्वाकांक्षी जरूरत के साथ उससे कही ज्यादा परिश्रम की आवश्यकता की जरूरत है फिल्म की लोक प्रियता ,निर्देशक के संदेश और जनता का अनुमोदन इसी से स्पष्ट हुआ की न्यू यार्क सिटी और लोंस एंजिल्स में ही अकेले पहले सप्ताह मैं फिल्म ने ७७५४० अमेरिकी डॉलर कमाए

समीक्षा मनोज श्रीवास्तव ,...आयुक्त जनसंपर्क,और सचिव संस्कृति विभाग द्बारा, प्रदेश में पत्रकारों के हित , और सहयोग हेतु हमेशा तत्पर रहने वाले मनोज जी ने कई पुस्तकें लिखी हैं ,स्त्री प्रसंग भी उनमें से एक है ,जिसमें एक सम्रद्ध द्रष्टि ,गंभीर और आत्मसाती किंतु नवीन संवेगों के बल पर स्त्री का एक भिन्न ओजस रूप जिया गया है ,जिसे फिर कभी ताना -बाना के जरिये पेश किया जायेगा

ऐ क्राय इन द डार्क ....इस दौर मैं जब तक सच अपने जूते के तस्मे बाँध रहा होता है,झूट पृथ्वी की परिक्रमा कर चुका होता है...


मीडिया की बहुत सी फ्लेश लाईट से भी एक अँधेरा निर्मित होता है और इस अंधेरों मैं उभरी चीख को सुनने की फुरसत किसी को नही होती १९८८ मैं बनी आस्ट्रेलिया की फिल्म क्राय इन द डार्क इस अंधेरे मैं असहाय आदमी की चीख है,यह १७ अगस्त १९८० को आयर्स रॉक के पास एक केम्प ग्राउंड से ९ हफ्तों की एक छोटी सी बच्ची को एक जानवर द्बारा उठा ले जाने और उसका दोष उसी की मांपर मढ़ दिया जाने की एक सच्ची और मार्मिक कहानी है,...फिल्म की विशेषता उसके निर्देशक का संयम है उसने मीडिया या न्याय व्यवस्था पर कोई शाब्दिक टिपण्णी नही की ,फिल्म का निष्कर्ष वाक्य बस इतना ही है की मैं नही समझता की ज्यादातर लोग जानतें हैं की निर्दोष लोगों के लिए निर्दोषिता कितनी महतवपूर्ण है, निर्देशक फ्रेड शेपिसी यह कहतें हैं की हमारे समय मैं सच उतना ही पूर्ण या अपूर्ण है जितना की मीडिया उसे पेश करता है ....वे आस्ट्रेलियाई मीडिया के उस मोरल ला पर भी प्रश्नचिन्ह छोड़ जातें हैं की जो बिकता है वही अच्छा है ,..........वो निर्दोष आदमी क्या करे जो मीडिया द्बारा पैदा किए गए उन्माद के वात्या चक्र मैं फँस जाए जब मीडिया द्बारा ना केवल कोर्ट के निर्णय की बल्कि पुलिस के अनुसंधान की प्रत्येक गतिविधि की और कोर्ट की कारर्वाई की हर स्टेज की रनिंग कमेंट्री होती चले ? और तब क्या हो जब निर्णय भी जूरी के द्बारा होना हो ,जो जनमत से प्रभावित होती हो?यह खतरनाक युग है जब जन मत की मॉस मेनुफेक्च्रिंग होती है .इस दौर मई जब तक सच अपने जूते के तस्में बाँध रहा होता है ,झूट प्रथ्वी की परिक्रमा कर चुका होता है ऐसे मैं मीडिया ट्रायल अपने चक्रवात के केन्द्र मैं फंसे व्यक्ति को लगभग निहत्था कर देता है ,.....इस फिल्म मैं एक बहुत ही धार्मिक परिवार है जो कीपिंग अवकाश पर जाता है, माइकल और लिंडी चेंबर्लें का यह मामला आस्ट्रेलिया के कानूनी इतिहास का शायद सबसे फेमस मामला था ,.......जिस परिवार की नव जात बच्ची को जानवर उठा कर ले जाएँ उनके साथ इससे बढ़ा संकट और क्या होगा की मीडिया उन्हीको अपनी बच्ची की ह्त्या का गुनहगार ठहरा दे, मीडिया इम्प्रेशंस कैसे निर्मित करता है यह फिल्म इसका जोरदार चित्रण करती है मां का चेहरा सपाट है वो कोल्ड हार्टेड है ,मां पिता ने अपनी बच्ची की मौत को को इतनी आसानी से स्वीकार कैसे कर लिया?बच्ची का नाम चूँकि अजारिया था और जिसका मीडिया अर्थ लगाता है ...जंगल मैं बलि ,...हलाँकि इसका अर्थ था इश कृपा ,.जनता का मत है की किसी गुप्त धर्म-कर्मकांड के चलते मां बाप ने अपनी बेटी की बलि दे दी वे पिकनिक मनाने केंची क्यों गए ?...दो साल तक मीडिया लिंडी को हत्यारी मां ,कुरूर मां के रूप मैं पेश करता रहा ,और अंततः अदालत उन्हें ह्त्या का दोषी मानकर सजा सुना देती है ,......क्या हो जब आप अपने सच के साथ अकेले रह जाएँ,फिल्म का वो द्रश्य बहुत मार्मिक है जब सजा के बाद दोनों पति-पत्नी एक दुसरे को चूम रहें है और फिर दोनों के हाथ एक दुसरे से छुट तें हैं ,...यह फिल्म जितनी मीडिया के बारे मैं है ,उतनी ही उस आपराधिक न्याय व्यवस्था के बारे मैं जो ,कच्चे सबूतों और तगडे लोकमत के आधार पर सजा देती है ,यदि सजा के तीन साल बाद किसी टूरिस्ट को उसी कैंप ग्राउंड से मामले पर नए सिरे से रौशनी डालने वाले कुछ सबउत नही मिले होते तो लिंडी चम्बर्लें सश्रम आजीवन कारावास की सजा भुगतती ,..सच क्या है? सच क्या अभिमत है ?सच क्या जनमत है ? या इस सब से आगे सच कोइ एक सवतंत्र सत्ता है जिस पर लिंडी और माइकल जैसे इश्वर पर भरोसा करने वाले निर्दोष इंसान भरोसा करते हुए जीवन बिताते हैं ।

समाचारपत्र केवल जानकारियों ख़बरों का पुलिंदा ही नही वो हमारे जीवन को कहीं गहरे तक प्रभावित करता है ..इन दिनों भोपाल मैं अखबारों की दुनिया पर आधारित फिल्म समारओह आयोजित हो रहें है इस फिल्म की समीक्षा लेखक आयुक्त जनसंपर्क और संस्क्रति सचिव मनोज श्रीवास्तव मध्यप्रदेश भोपाल हैं ,वे एक आत्मीय रुझानके साथ चीजों को आत्मसात करतें हैं उनकी संवेदनशीलता से आगे भी तानाबाना आपको रूबरू करवाता रहेगा,इस समीक्षा के लिए मीडिया और जुडिशरी की तवज्जों चाहूंगी,......

बुधवार, 19 नवंबर 2008

आधी आबादी की पढ़ी लिखी अनपढ़ बनी हिस्सा ये चमकीली औरतें,..और बेशर्म कोशिशें रिपोतार्ज कथा का शेष ...


पिछली दो पोस्ट के बाद इस सच्ची रिपोतार्ज कथा का ये तीसरा शेष वर्णन है ...एक ब्यूटी पार्लर मैं दो बड़े अधिकरियों की संभ्रांत दिखने और कही जाने वाली औरतें हैं ,इनके पास बँगला है कारें हैं ड्राइवर है,सेल रुपया -पैसा है, और है ,बेहिसाब समय ...अपनी ही बिरादरी मैं एक दूसरे को कैसे नीचा दिखाए धन दौलत से शोहरत से सुन्दरता से या सेक्स के मामलें मैं कैसे पीछे करें बस इसी उधेड़ बुन मैं इनका दिन बीत जाता है,...


एक महिला बॉडी मसाज करवा रही है,उम्र लगभग ५० ,आस -पास ,म्यूजिक सिस्टम पर पुराना गाना ....आवाज दे कहाँ है दुनिया मेरी जवां है ,शरीर पर चर्बी की परतें, अर्ध नग्न सी ,...तभी मसाज रूम ,जिसे पार्टीशन से बनाया गया है,मैं एक महिला आती है ,हाय,पुर्णीमा ... यू स्टुपिड रीना! - व्हेयर आर यू?... आय एम हियर... रिअली ?॥नो-नो ... तो फ़िर कहाँ थी पिछले हफ्ते?... अरे यार ऊटी चली गई थी, रेस्ट चेयर पे टाँगे फैलाकर बैठ जाती है - "तू तो ऐसे कह रही है जैसे न्यू-मार्केट चली गई थी?..." "यार बस इनका मूड बन गया, मैंने भी सोचा - जस्ट फॉर अ चेंज"... "तभी इतना फ्रेश लग रही है!" - "ओह! नो!" - नाक सिकोड़कर कहती है, "वहां भी वही मिडिल-क्लास वाली भीड़, मुझे तो कोई चेंज नहीं मिली" - तभी मोबाइल की एक लहराती 'त्रन-त्रिन-नन' - "हेलो, कौन? सोम्या!... येस!... हाँ पूर्णिमा, क्या बोल याद है न कल कृति के यहाँ किटी है... अरे? ... हाँ... पर मेरा मूड ऑफ़ है... क्या हुआ? कल शाम तक तो ठीक थी?, राकेश से फ़िर झगडा? ... नहीं... सो वाय आर यू क्रेअटिंग ड्रामा ?... ठीक है, आ जाउंगी तू लेक्चर शुरू मत करना... ओके बाय!" रीना पूर्णिमा से:- "क्यों नहीं जाना चाहती? ... नहीं,उस भुक्कड़ के यहाँ नहीं! जितना खिलाएगी सब वसूल कर लेगी, दूसरो के यहाँ तो ऐसे खायेगी जैसे जन्मों की भूखी हो और ख़ुद के यहाँ खिलाने के नाम पर दम निकलेगा!... तो?.... तो क्या? बस उसने तो यही समझना है, मेरी नई हुंडई गेट्ज से जेलस कर गई!... ओह गोड! क्या सच? कार ?हुंडई ?गेट्ज? कब खरीदी? - एक ही साँस में पूछती है, पहली महिला रीना... "किटी पार्टी तो बहाना है, सच तो ये है... क्या?... उसे तो अपनी सिंगापुर वाली भाभी को सारे जलवे दिखाना है जो आजकल छुट्टियों में उसके पास आई हुई है, पार्टी भी बंगले पर नहीं... तो?... कंट्री-वुड क्लब में... हाय! ये इतना पैसा क्यों खर्च कर रही है?... डोंट माईंड... दमयंती की वेडिंग अनिवर्सरी पर मिल गई थी, १२ को... हाय में कहाँ थी?... तू....... - याद करते हुए कहती है-तू दिल्ली गई थी... ऑफ़ व्हाइट चामुंडी शिफोन पर बीट्स और सिल्क एम्ब्रायडरी वाली साड़ी ... आह!... क्या पल्लू को लहरा लहराकर इतराती फ़िर रही थी, मानो उसी की वेडिंग अनिवर्सरी हो... तू मुझे रिपोर्ट कर रही है या जला रही है?... बेवकूफ सारा शहर जानता है दमयंती जब अपने मामा के यहाँ अमेरिका गई थी, ये वही पड़ी रहती थी, हरीश को तो इसने इतना एक्स्प्लोईट किया... वो तो दमयंती की नौकरानी लीलाबाई ने फोन पर हिंट दे दी उसे, बड़ी ईमानदार है लीला... क्या खाक ईमानदार! पहले साहब कुछ दिन उसके साथ ऐश फरमाते रहे बीच में ही यह महारानी आ टपकी... बस लीलाबाई से टोलरेट नहीं हुआ। बन गई लीलाबाई लक्ष्मीबाई, मन ही मन उठा ली तलवार! पोल खुल गई... लेकिन तुझे कैसे मालूम?... ख़ुद लीला ने बताया... लीला तुझे क्यों बताने लगी?... अरे यार! अब तुझे कौन सी किताब लिखनी है? मेरा सर्वेंट छुट्टी पर था और फ़िर उन दिनों दमयंती को मैंने ही मोरल सपोर्ट दिया था। छोड़ गई उसे मेरे पास! कोम्प्लिमेंट्री तौर पर!... अच्छा छोड़ लीलाबाई का किस्सा, थोड़ा स्टीम ले लूँ... -ब्यूटी पार्लर में मसाज - फेशिअल करने वाली कुछ कम उम्र लड़कियां आपस में मुस्कुराते हुए काम में व्यस्त हैं... "इनका समाज उन लोगों का है जिन्हें धन और ऐश दोनों प्राप्त है... एक-दुसरे को नीचा दिखाने की फ़िक्र और बेशर्म कोशिशों में यह औरतें इस कदर आत्मकेंद्रित और कुंठित होती जा रही हैं, की उनके अपने होने का एहसास ही गुम हो गया है और इस अप-संस्कृति को और अधिक विकृत करने में उन लोगों का हाथ अधिक है जिन्होंने नया-नया पैसा देखा है, जिसकी चका-चौंध में वे अंधे हो चुके हैं, सारी नैतिकता और मान-मरियादा को ताक पर रखकर हर दिन नए-नए शौक पालना जिनका शगल बन चुका हो, रुपयों पैसों की मनमानी का खेल और ज़िन्दगी का मजा ही जिनका धर्म बन चुका हो वहां क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिए (शेष और अन्तिम पोस्ट आगामी...)"

एक शब्द जो...हवा मैं रह गया,...दोस्त के नाम ...

इतना लिखा,
इतना लिखा
पहाड़ भर यादें,
समुद्र भर दुःख
आसमान भर सपने,
रात भर आवाजें,
दिन भर बातें,
धरती भर प्रेम,
फिर भी, फिर भी
कितना रीता रह गया,
दोस्त के नाम लिफाफा ...
(आज सुबह बारिश होने के बाद मेरे शहर में)
यह अंश डायरी के पन्नों से - धर्मेन्द्र पारे की कविता से...


मंगलवार, 18 नवंबर 2008

ये चमकीली औरतें,..रिपोतार्ज कथा,..पिछली पोस्ट से आगे,






चमकीली औरतें कोई किस्सा नही, हमारे समाज का सच है ,आधी आबादी का एक पढा लिखा अनपढ़ हिस्सा बनी ये औरतें अच्छे भले आदमी का दिमाग घुमाने के लिए काफ़ी है ,ये पोस्ट ज्यों की त्यों पेश है जैसा मैंने इसे सुना,...आगे सुनिए.....बुटिक मालकिन आँख मारकर,..यादव को तो पटा नही पाई ,अरे क्या पटाती ..चोरी कर के जो खाता था ,फिर तो गोविन्द तेरे यहाँ चल ही नही सकता,ग्यारंटी से कहती हूँ ,क्यों ?क्यों ,क्या जब तू ज्यादा आब्जर्व करेगी तो नौकर ने तो भागना ही है सीने पर चर्बी के पहाड़ , ,रंगीन होंटो की नकली चमक ,कटे छितराए बालो का घोंसला प्यार तो क्या देखने के भी काबिल नही जाने किन अभागों के पल्ले आती होंगी ये महिलायें ,मन ही मन सोचती हूँ ,....चल तेरी लक्ष्मी को पटा लेती हूँ ...पहली ना जी,ये मत करना तेरे लिए रोज दो मुर्गे भेज दूँगी ..ओह पर तुने खाना नही बनाना ...अरे यार कौन से पति महाराज ने गोल्ड मैडल देना है वो खाना खाता ही कब घर मैं ,कभी यहाँ ,तो कभी कोई पार्टी दुनिया भर मैं मुँह मारता फिरेगा और घर के खाने मैं नुक्स निकालेगा,मेरे बस का नही ये सब,फिर घर के खाने को खाना ही कितनो ने,फिर उसकी आँख का कोना दब जाता है ,..जबसे लक्ष्मी आई है साहब भी खुश,मैं भी अच्छा तू तो आज ही गोविन्द को बुला दे ..खाने की मुझे तो परेशानी है ,सास जो है मेरे सर ,निभाना ही है ,...खाने मैं क्या -क्या देती थी ,...क्या-क्या नही दिया बदमाश को ,साहब से पहले एक गिलास दूध ,दो उबले अंडे ,..दूसरी आँखे मटका कर...साहबसे पहले और क्या-क्या...छोड़ यार याद नादिला उसकी ..पर एक बात समझ ले ,इसके बाद भी उसे चोरी से खाते देख ले तो एक आँख बंद कर लेना ,क्यों दोनों क्यों नही ,सवाल मत कर समझ ले,उससे आँख ना मिल जाए ,तेरी जो मर्जी आए करना बेचारा सब मैं राजी तू जाने तेरा गोविन्द, आज से वो तेरा हुआ, भोंडी और निरर्थक हँसी ,..ही ..ही ..हो...चल बता कुरते कब देना है तूने-अपने भारी भरकम शरीर को समेटती हुई खड़ी होती है ,खुशनुमा और थोड़े ठंडे मौसम मैं भी कहती है ,हाय बड़ी गर्मी है शाम आजा ,..बियर का मूड है ,मजे करेंगे ,ना बाबा तेरे यहाँ क्या ख़ाक मजे करना है मैंने ,तेरा पति तो होगा नही ,हाँ ये बात तो है उसने कहाँ होना है सही शाम घर पे ,अच्छा चल कॉल करना ..तू चाहे ना आए अपना तो प्रोग्राम फिक्स है सींक कबाब बनवा लूँगी ...ओके ,कल इसी वक्त कुरते तैयार रखना ,बुटिक वाली मुझे देखती है उड़ती सी नजर से ...गेट तक छोड़ने महिला को जाते हुए ,..दोनों महिलायें अपने पेंटेड काले सुनहरे बालों के साथ थोडा गर्दन को झटका देते हुए चली जाती हैं हवा मैं देशी पसीने और विदेशी पर फ्यूम की मिली जुली एक तीखी गंध छोड़कर ....(अगली पोस्ट मैं एक ब्यूटीपार्लर मैं मिलेंगे)

ये चमकीली औरतें ...फिजूल की औरतें,...अंख देखी-कन सुनी एक रिपोतार्ज कथा


आजादी के बाद औरतों ने कैसी कैसी स्वतंत्रताएं हांसिल की ,और परिवार समाज और व्यक्ति से अपने कैसे २ रिश्तें कायम किए इसका जिन्दा उदाहरण मौजूद है ये चमकीली औरतें इनकी शिक्षा ,रहन सहन खान पान सब कुछ अंग्रेजी,नकली आवरण ,जीवन शैली मैं रुपयों पैसों की चकाचोंध और गर्माहट मैं पलती इस संस्क्रती का जिस गति से विकास हुआ ...चौकाने वाला तो है ही घिनौना और कुत्सित भी इसमें पुरुष कितना दोषी है ये बात अभी यहाँ छोड़ीजा रही है ,झूटी शानो शौकत मैं गुरूर से भरी ये औरतें इतनी अलमस्त की दायें -बाएँ कहाँ कौंन इनकी कारगुजारियों को देख सुन रहा है इसकी ना इन्हे फिक्र है ना शर्म इन औरतों से सामजिक उत्थान तो क्या पारिवारिक या अन्य उम्मीद भी बेमानी है पति की कमाईपर एशो -आराम फरमाने वाली ऐसी ही औरतों की ,अंख देखी-कनसुनी बातों का सच्चा दस्तावेज है ...कभी किसी बुटीक पर तो कभी पार्टी मैं कहीं क़ल्ब मैं कार्ड्स खेलते हुए ,तो कभी वातानुकूलित कारों मैं लम्बी ड्राइव पर पेट्रोल और सिगरेट फूंकती, बर्थडे,वेडिंग एनिवेर्सरी के बहानो अथवा यूं ही ब्यूटीपार्लर मैं जबरन उम्र को पीछे धकेलने की नाकाम कोशिश मैं फिजूल की शौपिंग करती हुई इन फिजूल की औरतों को जानने की ये कोशिश है ताकि आप जान सकें की आधी आबादी का एक पढा-लिखा किंतु अनपढ़ हिस्सा बनी ये औरतें अपने परिवार और बेटियों के लिए कौनसी विरासत छोड़ कर जायेंगी ,.... ऐसी ही दो महिलाओं की बात चीत सुने जो एक वातानुकूलित बुटिक मैं है बुटिक मालकिन की भव्यता दोनों अँगुलियों मैं डायमंड दोनों औरतें किसी बड़े व्यापारी/अधिकारी की पत्नियां ...उम्र ४५-५० लगभग कोई काम नही ,नित नई`ड्रेसेस मैं बीस साल पीछे उम्र को धकेलने की नाकाम कोशिश मैं भीतर कहीं कुछ छूट जाने की एक कसमसाहट के साथ....

हाय नीतू सिल गए शलवार सूट?नही हाय रब्बा अब क्या पहनुगीं-२४ को शादी वीच? -,पिछले महीने जो सिलवाया था सुनहरी तारों वाला डाल लेना,....अरे वो ॥वो तो आउट ऑफ़ फैशन हो गया कर दूसरी महिला कहती है अच्छा कितना सिला बता तो सही,देखती है,यह क्या कर दिया .क्यों ? क्या खराबी है इसमें ,...तेरे तो नखरे ही ख़तम नही होना कभी ,नही-नही ये नही चलेगा,ये क्या बाइयों वाली पट्टी डाल दी आस्तीनों मैं ,इसे निकलवा पहले ,वो बारीक वाली किंगरी डलवा पहले बताया था ना तुझे प्रियंका चोपडा जैसा ,..नही ना अब नही हो सकता और १५ दिन लग जाने हैं ,कोई बात नही पर ऐसे नही पहन सकती ,चल ठीक है ,...फिर नाप दे ,दे मास्टर जी को बुटिक मालकिन आवाज़ लगाती है टीवी केमेराकी और जाकर उसकी नजर ठहर जाती है ,,,राजू ...पहली महिला दुपट्टा ऊपर सरकाती है नाप -३८ ४० के बीच ..पारदर्शी कुरते से कीमती ब्रेसरी झांकती है शायद ये भी स्टेटस सिम्बल है ,..सिलसिला बदलता है ,फ़ोन की बेल बजती है ,,अरे ठहर जा अभी आगे ही एक शोर मचा रही है ,नही जल्दी नही दे पाउंगी,तू एक घंटा बाद आना ,....अरे नीतू यार मैंने यादव को हटा दिया ..वो तो तेरा मुँह लगा नौकर था ....तुने ही तो शिकायत की थी बतमीजी की थी उसने तेरे साथ ...ऐं तू तो बड़ी चालाक है मेरे सर डाल दी नौकर दी परेशानी ,अच्छा बता ,पहली महिला से ,तेरे गोविन्द का क्या हुआ ,हाय नाम ना ले उस नमक हराम ,का क्यों? सीने पर हाथ रख लम्बी साँस लेती है ...हाय कुछ कुछ होता है ,भाग गया बेशरम ,दो साल लगे सिखाने मैं ..क्या काम ..मतलब अरे यार तू मतलब की बात बता ,आँख दबाकर हंसती हैकहाँ चला गया आमेर हट बित्त्त्तन मार्केट ..तू तो बडी तारीफें करती फिरती थी मेरा गोविन्द ऐसा है -वैसा है ..तो क्या कल ही पता चला वहां भी दुखी है बेचारा वापिस आना चाहता है ,...पर मेरे बच्चों ने मना करदिया ,..तेरी लत जो लग गई है ,ये बात नही थोडा गंभीर हो कर कहती है ,...काम मैं तो बड़ा सोना था पर ज़रा वीच -वीच चालाकी भी करता था, बुटिक मालकिन मेरा मन करता था ,तेरे गोविन्द को पटा लेती....( शेष अगली पोस्ट पर ),.....

सोमवार, 17 नवंबर 2008

क्या राजनीति की अपनी मजबूरियाँ होती हैं,?भा ज पा का घोषणा पत्र

मध्यप्रदेश मैं बी.जे पी ने अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया है जिसमे प्रमुखता से २००३ के घोषणा पत्र मैं किए गए वादों को पूरा करने की बात भी कही गई है.और नए वादों मैं वह गांवों मैं २४ घंटे पानी,बिजली ,प्रदेश को जैविक प्रदेश बनाने कृषि ऋण घटाने अपराध पर अंकुश,गरीब को २ रूपया गेहूं और २५पैसाकिलो नमक देने का वादा कर रही है हैरानी की बात है की औरतों के लिए बहुत कुछ करने कहने और -बखान करने वाली सरकार के एजेंडे मैं औरत नाम तक नही आया .....अनुभव बताता है की शीर्षस्थ व्यक्ति को शीर्ष पर समय तक बने रहने के लिए अन्तिम व्यक्ति को याद रखना होगाबिना भेदभाव के,ताकि एक विशिष्ट चेतना के बल पर समय समाज और राजनीति kआ,वो ठीक ठाक मूल्यांकन कर सके ,और युक्तियुक्त ढंग से भरसक क्षमता विशवास मुठ्ठीभर स्नेह उन्हें भी दे सके जिनके वे हकदार हैं......सरकारें आती हैं जाती हैं वोट बैंक बढतें हैं और वहीसबकुछहोता है जिसकी जनता को आदत हो चुकीं है,इस चरमराती राजनेतिक और सामजिक व्यवस्था मैं एक धुंधलका है,रतन्तु नेतिकता-नेतिकता करते आकंठ भ्रष्टाचार मैं डूब जातें हैं,आमजन अपनी असहायता पर सर पीटकर रह जातें हैं,बस अभी अभी लीलाधर मंडलोई की कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई ,तुमने एक बूढे के पाँव छुए ,और बटुआ टटोला,तुमने एक औरत की तारीफ़ की और उसकी देह से जा सटे,तुमने एक बच्चे को चूमा और उसे चाकलेट देना भूल गए,तुमने सितार पर बंदिश सुनी और भोजन को सराहा,तुमने शक्ति केन्द्रों पर धोक दी और आलोचकों को याद किया,यह सब करते हुए तुम पहचान लिए गए,.....इन शब्दों के नेपथ्य मैं एक सच टटोला जा सकता है जिसके सहारे आम आदमी मैं भ्रष्ट ताकतों के खिलाफ लड्ने का होंसला ईमान दारी से विकसित किया जा सके ३ साल पहले जब शिव सरकार बनी उसके सामने भी चुनौतियां ज्यादा थी कुछ घोष नाएँ की गई, नवीन महिला नीतिउसका क्रियान्वयन ,महिला हितेषी बातें,जिनमें लाडली लक्ष्मी योजना, कन्यादान, अन्नप्राशन जैसी योजनाये शामिल हैं ,ये सफल जरूर हुई,लेकिन इसी के साथ कुपोषण और मातृत्व पर्तिशत घट गया यधपि सरकार का दावा है की उसने राज्य को बीमारू राज्य की श्रेणी से उबार लिया है ,जो अब गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को, २ रुपया किलो गेहूं और २५ पैसा किलो नमक शायद आयोडीन रहित देगी ,इस पत्र मैं २४ घंटे बिजली प्रदेश के सभी गांवों और शहरों मैं देने कीभी बात है,जो थोडी थोथी किंतु लुभाती है,नए उधोग-धंधों को बढ़ावा बिजली के डिमांड और सप्लाई मैं अन्तर बिजली जर्नेट करने और नए थर्मल यूनिट लगाने और बिजली का एक समय अवधि के बाद उत्पादन होना फिलवक्त कोल का कोटा फिक्स होना जैसे तथ्य सोचने पर मजबूर करतें हैं क्या येसप्लाई सचमुच होपाएगी,....सड़कों का नेटवर्क जरूर सशक्त हुआ है,१८ से १९ पर्तिशत तक सड़कें,२००७ तक दूरदराज के गांवों मंडियों तक जोड़ी जा चुकी हैं लकिन बुनियादी इन्फ्रा स्ट्रक्चर कमजोर हुआ है ,और अभी तक इसीलिए बड़े उधमियों को म प्र मैं सरकार लाने मैं असफल रही है,...पानी कीस्थिति भोपाल शहर मैं एक दिन छोड़कर दी जारही है पानी के मामलें मैं प्रदेश अभी भी दुसरे राज्यों के मुकाबलें मैं धनी और भाग्यवान है,लेकिन पानी के अपने भौगलिक उतार चढाव हैं बस निर्भरता नेचरल पानी पर है ७० पर्तिशत जल स्त्रोत अनुपयोगी पड़े हैं पानी रोको ,जल ही जीवन जैसे स्लोगन दम तोड़ चुकें हैं वाटर हार्वेस्टिंग निल है ना यहाँ बड़े डेम बन पाये ना हमने कलटिवेतेद एरिया बढाया ना जमीनी पानी को उंचा कर पाये इसके लिए बस सरकारें और सरकारें जिम्मेदार हैं ,....इसके अलावा भूख प्यास भ्रष्टाचार नक्सली,सम्प्रदायवाद, आतंकवाद महिलाओं की सुरक्षा जैसी और भी बातें हैं ...यदि ये सरकार दुबारा सत्ता मैं लौटती है तो पिछली सरकार की तरह जनता बेहाल ना हो ,क्योंकि सत्ता मैं रहकर भ्रष्ट होना ही होता है राजनीति की अपनी मजबूरियाँ और जरूरतें होती होंगी की वे शासक को शासक नही रहने देती इसलिए याद यही रखा जाए की कभी कभी वयवस्था बनाने के लिए कुछ चीजें छोड़ना पड़ती है और कहीं मूल स्थिति को बनाय रखना होता है