शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

इस सोच से बहुत आगे,कि हम एक दूसरे के लिए हैं ....


इस सोच से बहुत आगे
एक मैदान है,
मैं वहां मिलूंगी,
जब आत्मा ,अपने से भी ऊँची,
घांस के बीच लेटती है,
तो दुनिया इतनी ठसाठस भरी होती है,कि
उसके बारें मैं ,कुछ भी बोलना अच्छा नही लगता,
विचार-भाषा यहाँ तक कि
यह कहना
कि हम एक दूसरे के लिए हैं
जहाँ,
कोई मायने नही रखता ,....
जलालुद्दीन रूमी ....वही दुनिया है ,मैं हूँ तुम हो ,प्रश्न हैं ,युद्ध है ,कविता है ,

आतंकवाद के भस्मासुर की चुनौतियों के सामने आख़िर हम नाकाम क्यों?


आतंकवाद के भस्मासुर की चुनौतियों के सामने आख़िर हम नाकाम क्यों हैं?हम थोडा आगे देखें लादेन को जिसने सर पर बैठाया,वो ही विश्व व्यापी सर दर्द बन गया,और जिसकी निवारक गोली कोई देश इजाद नही कर पाया,तेल के कुओं पर कब्जा करने के लिए आक्रमण के बहाने ,अफगानिस्तान को नेस्तान्बूद करने के लिए इरान को धमकाना कभी मुस्लिम तो कभी हिंदू राष्ट्रों को परेशान करना,तो कभी लोकतंत्र के नाम पर ,कभी जेविक रासायनिक हथियारों के नाम पर तो कभी परमाणु कार्यक्रम के नाम पर हमले,,,सभी जानते हैं लेकिन महा शक्ति शाली अमेरिका मैं सत्ता परिवर्तन के बाद ,जो अभी ख़ुद भी आतंकवाद की आंच की झुलसन को भूलानही होगा,भारत की मुश्किल समझ रहा है , ये जो खामियाजा हम भुगत रहें हैं ,इसके लिए हमारी अन्दुरुनी हालत भी कम जिमेवार नही?इसके केन्द्र मैं छेत्रिय अलगाव भी प्रमुख है, पंजाब मैं भिंडरावाले का उपयोग पूरे देश का सर दर्द बना...इंदिरा गांधी की ह्त्या,सिख विरोधी दंगे,--कुर्बानियां ,आतंकियों की नोक पर कश्मीर ,श्रीलंका का तमिल सिंहली विवाद और राजीव गांधी की बलिऔर कुछ ही दिनों पहले मुंबई मैं भी ठाकरे की जातीय राजनीति ऐसे और भी कारण हैं , ,,आज भी पंजाब कश्मीर पूर्वोत्तर ,श्रीलंकाके आतंक के मूल मैं संकीर्ण `छेत्रिय धार्मिक व् जातीय चेतना है तो नक्सलियों व् नेपाल के माओवादी हिंसा के मूल मैं आर्थिक विषमता,रातों -रात अमीर बनने उपभोक्ता संस्क्रती और बेरोजगारी ने भी आतंकी गतिविधियों को खूब फूलने के अवसर दिए ,रास्ट्रीय जातीय धार्मिक भावनाओं के नाम पर युवा शक्ति का दुरूपयोग अब चलन मैं है ,महात्मा गांधी के बाद इतनी कुर्बानियां -पंजाब व् कश्मीर के आतंकवाद के शिकार १९८४ के सिख विरोधी दंगे बाबरी मस्जिद ,मुंबई बोम ब्लोस्त ,गोधरा गुजरात मैं बेगुनाहों की बलि और अब फिर मुंबई मैं लगातार आतंक का तांडव निर्दोषों की कुर्बानी हमारे लिए क्या अन्तिम सबक होगा या.....?

बुधवार, 26 नवंबर 2008

कोष्टक मैं बंद दिसम्बर,फ्लूट पर गीत ,कभी -कभी,,प्रेम से बड़ी होती समझ की नफरत होजाए रोने गाने और प्रेम से


उसका स्वर हमेशा ही निर्णायक और निर्मम होता है,टाइम केलकुलेटिंग,सेल्फिश ...आधी रात को उचटी नींद के बाद उसने सोचा ,अपने आप से नाराज हो जाए ,लेकिन क्या होगा? इतना अनिश्चित कोई कैसे हो सकता है,ना किसी पत्ती की हरियाली ने उसे नम किया ना फूल ने खुश,ना गीत ने अभिभूत ,कच्चे अनार सा चटका तूरा,बेस्वाद मौसम उसके आँगन से गुजर गया,विरोध दर्ज नही हो पाया, करना भी नही ...प्रेम -विभ्रम या उस रंग मैं बुरी तरह डूब जाना क्या जरूरी था,...उन आंखों की पनीली चमक ऐसी ही की आपके अंहकार को परे कर दे,वो अंदाज ऐसा की आप सोचें की आप पर कोई दिलों जान से फिदा, लेकिन सतह से थोडा और गहरे उतरकर प्रेम से बड़ी होती समझ ने बकायदा ,उसे छोटा -पंखहीन आत्मा की तरह कर दिया,..पिछली सर्दियों मैं सावधानी से सहेजे-तह किए उनी गर्म कपड़े कभी ना मिटने वाले सलवटों के साथ पहने जाने को मजबूर होते,अफसोस पिछला सब कुछ स्पष्ट होने लगा इतने असम्प्रक्त होकर जीना की अन्दर धूनी की तरह रमे दुःख की आंच ताप महसूस ही ना हो और छोड़ देना किसी बीहड़ कोने पे और ,दोहराया गया बर्ह्मास्त्र हजारों बार,सारे सफल साधे गए अचूक निशानों के बाद विजेता तो बनना ही है ,ये कहते हुए की मुझे तुम्हारे फूलों ,गीतों ,और आंसुओं की फिक्र रहेगी उम्र भर और फिर जो नही सोचा जा सकता था वही सामने था, उबड़-खाबड़ पर घसीटते हुए स्याह अंधेरों मैं उजली सुबह का इन्तजार करते रह जाना ,ओस भीगी सुबह मैं नीले पंखो वाली चिडिया खुश तो जरूर करती है किंतु एक अज्ञात भय मन ही मन कुड-मुडाता है,कोष्टक मैं ,बंद दिसम्बर सामने है फ्लूट पर हर गीत अच्छा लगता है लेकिन खय्याम की धुन हमेशा तरोताजा ,...कभी-कभी नफरत होने लगती है इतने रोने गाने और प्रेम से आख़िर,....
सातवे आसमान में थे वे जब सितारों के गुच्छे उनकी हथेलियों में थे...

सोमवार, 24 नवंबर 2008

तुम भीतर के फरिश्ते को नए पंख देते हो ,

सभी कुछ तो है तर्क से परे,
तुम्हारा आना-तुम्हारा जाना
कहीं दूर ओट मैं खुलना -खिलखिलाना,
यका-यक गुमसुम हो जाना,
तुम्हारी प्यार की अनबुझी प्यास,
और हर एक पर गहरा अविश्वास ,
इतना खुलापन ,इतनी घबराहट ,
भीतर की उदास इतनी मिठास ,
मैं हार मान लेता हूँ,
मेरी बुद्धि से परे है।
पर मेरी बुद्धि को बार -बार तोड़कर
मुझसे तुम परे नही होते
ऐसा क्यों?
क्यो ऐसा होता है की
तुम भीतर के फरिश्ते को नए पंख देते हो
कैसी विडंबना है ,की तन-मन को उत्तेजनाये तोड़ती है
सपने सहलातें हैं,मेरा वो तन-मन मेरा नही रहता
तुम्हारे होने का सवाल नही उठता ,
पर वो ,पराया होकर भी ,
पराया नही।
अपनी डायरी से,...विद्या निवास मिश्र की प्रेम कविता से ,ये अंश सरल शब्दों किंतु कठिन भावों की बानगी मैं इतने सहज हैं की प्रेमी के सोंधे तर्कों को ,हर अगली पंक्ति पे, खुबसूरत मोड़ पे छोड़ देतें हैं.