उसी दुःख को हांसिल करना होता है,
लौटते -डूबते इस बारिश में ,
एक निर्वासित दिन उम्मीदों में सर उठाता है ,
इन दिनों - यकायक ...
दूर मैदानों में एकदम हरी घास सुकून देती है ,
जहाँ हवा जोरों से चलती है ,
अंधेरों में देखना उस तरफ ,गाढ़ी आतुरता से
उन दिनों में, बीते पलों की मौजूदगी में/स्पर्श में दर्ज ,
लेकिन इन दिनों, वक्त की हदों में नहीं मिल पायेंगे हम ,
लेकिन मिलेंगे जब ,पूछूंगी,
इस अश्मिभूत आत्मा में ,
एक साथ जीते हुए- जीते जी,बिसराए जाने और स्मृति के बीच ,
कितना बचेगा कुछ,कोई अपना ,
ऐसा क्या था आखिर जिसे अपना ना कह सके ,
जिसके लिए जिये-मरे अनगिन बार ,
मौसम रखेंगें क्या हिसाब?
अकस्मात लौटते से, अनकहे-अनमने शब्दों की सतह पर ,
निरंतर आवाजाही से ,
एक गहरी लकीर का खिंच जाना
लरजते-बीतते मौसमों के साथ
अव्यक्त दुखों संग आद्र हो जाना,
रौशनी में झिलमिलाते -उन दिनों में ..अपने लिए
आखिर कितना बचेंगे हम,
हड़बड़ी और इस नाउम्मीद सी दुनिया में ,
अपनी आलोकित इक्षाओं से ऊपर
कब तक
इन दिनों ये कहना मुश्किल है
"खुला था उसके लिए हर द्वार... रौशनी भरे आसमान सा... पर वह उस रौशनी से चुन रहा था अपनी चारदीवारी... "
(-अमिता शर्मा)