एक छोर से आसमान ढह गया
धूल-धूसरित,
धरती भी थोडी सी डूबी,
और जम गई -इस बीच एक धुन्द सी
और ये कहते -कहते
रुंध गया है गले में ये जो ,कुछ
एक ही समय में ,
अगम राह में निर्जन
इकठ्ठा कोई संत्रास ,
भीतर-बाहर उफनता है
ये तो ..ठीक नहीं
धूप सर पर है
और नापना शून्य को है
अपने ही भीतर निमग्न होते
एक निमिष आकाश को
रंग उडे ख्यालों की अद्रश्य उदासी
नहीं, सबसे अलग खोजा उसने,
अभिमंत्रित एक शब्द
तुम्हारे होने ना होने की जगह
उस बबूल के पेड़ तले
ताजे,छोटे, गोल, पीले रेशमी फूलों की ,
महमहाती छावं में
वक़्त रुकता नहीं
जहाँ रूकती है दृष्टी
उसी वक़्त तुम सुनते हो
,मन्नाडे की पुरअसर आवाज
"हंसने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है"
टूटा-फूटा वर्तमान छूट रहा है
एक भरा-पूरा भविष्य हो सकता है
इक्छाओं को टोह देती है ,
नेक नियत- सधे हुए ढंग से
रंग उडे ख्यालों को रंगना
बिसराए जाने से पहले
ताज़ी स्मृति बनना
और उन्हें देखना -देखते रह जाना
जहाँ से गुजरता है
''प्रेम '' प्रवासी पक्षी सा
एक नया सूर्योदय
भुरभुरी रौशनी के साथ उभरता है
एक निराकार अंधेरे के बाद
उसका खुश चेहरा,और
सात तालों में कैद
चुप्पी बोलती है
घोलती है --बेखबर,
जलतरंग की झिलमिल
आँखों में देखकर मिरी, तुफाने मौजे खूं... चढ़ने से पहले, वक़्त का दरिया उतर गया...
जो मौत के जवाब में रहता था, पेश-पेश, वो ज़िन्दगी के चंद सवालों से डर गया... (-नजीर फतेहपुरी)