काशी बाई का नाम सूरज बाई होना था दिनभर तपने के बाद दूसरों को गर्माहट और रौशनी की खुशी दे कर डूब जाने वाला ...मुश्किलें चाहे जितना आदमी को मजबूत बना कर जीना आसान बना दे लेकिन मुश्किल हालात में जीना आसान काम नहीं है, हालांकि नई प्रौधोकियाँ ,भ्रूण ह्त्या आर्थिक चुनौतियां और नए-नए व्यवसायों की तरफ महिलाओं का रुझान ,अपराध का अन्तराष्ट्रीय करण,विश्व स्तर पर बढ़ता निरंतर देह व्यपार और गरीबी जैसी समस्याएं लगातार स्त्री के सामने है तिस पर सबसे गरीब औरत की बेतरतीब जिन्दगी का अंदाजा तो आम आदमी लगा ही नहीं सकता.
आज अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस है अभी अभी..काशी बाई से मुलाक़ात कर के लौटी हूँ ...काशी बाई को वैसे तो में पिछले आठ सालों से जानती हूँ और उसकी कर्मठता की कायल भी हूँ,भोपाल शहर के ठीक बीच से होकर गुजरने वाली शाहपुरा लेक की और जाने वाली सड़क किनारे है बांस खेडी जिसके चौराहे पर सड़क के किनारे पर आप काशीबाई से रूबरू हो सकतें हेँ ..जिसके धूप में तपे ताम्बई रंग के बूढ़े शरीर पर झक्क सफेद बाल के साथ धूप हवा सर्दी गर्मी हर मौसम को आत्मसात किये एक स्वाभिमानी चेहरा मिलेगा ....काशीबाई अपने सधे हुए हाथों से बांस की कलात्मक टोकनियाँ बुनती हुई मिल जायेगी ...काशी बाई हिन्दुस्तान की उन तमाम औरतों का प्रतिनिधितत्व करती है जो शहरों में तो है लेकिन शहरी सुविधाओं से वंचित हुनरमंद है लेकिन भूखों मरने को मजबूर रहने को यूँ तो उसके पास एक अदद झोपडी है लेकिन सडक पर रहने को मजबूर ....काशीबाई के दोनों हाथ बांस का काम करते बहुत ही कट -फट गए हेँ ,बांस के नुकीले रेशे और खपच्ची को निकालने में छिली हुई अँगुलियों -हथेलियों में से खून रिसने लगता है हालांकि दरार भरने में दो चार दिन का समय लगता है लेकिन फिर नया घाव ,नई टोकनीयां और ये सिलसिला चलता रहता है ..काशीबाई का सूरज रोज निकलता है और रोज डूब जाता है उसकी जिन्दगी में कोई बदलाव नहीं होता ,कुछ नया नहीं होता ,बिना थके बिना रुके काम तो करना होता है .लेकिन फिर भी मन माफिक पेट भरने लायक पैसा नहीं मिलता महंगाई बढ़ गई है बांस महंगा है उसका कहना है .....ललितपुर से साठसाल पहले भोपाल आई काशी बाई, जिन्दगी के अंतिम पड़ाव पर बिलकुल अकेली है लेकिन उसका होंसला बुलंद है उसकी बड़ी कल्पना में एक छोटी इक्छा है की उसकी अपनी दूकान होती और वो ठाठ की जिन्दगी जीती ....जिन्दगी अब बची ही कितनी है काशी बाई और उस जैसी औरतों की ......इस बिखरे हुए समाज की सबसे गरीब और अंतिम स्त्री की छवि हमें आपको फिर से गढना पड़े उसकी बेतरतीब होती जिन्दगी को समेटना और उसे मजबूत करना,...भाषा और लेखन इस निमित्त साधन मात्र है हम एक नयी स्त्री का सुन्दर भविष्य गढ़ सकें -हमें आपको कोशिश तो करना ही होगी लेकिन ईमान दार ......
आज विश्व महिला दिवस पर माखन लाल चतुर्वेदी विश्विद्यालय में महिला पत्रकारों का दायित्व विषय पर एक परिचर्चा /संगोष्ठी में भाग लेने की बजाय मुझे लगा ..काशीबाई पर कुछ लिखा जाय ...क्योंकि हर साल की तरह रेशमी साड़ियों की फरफराहट खुशबुओं और कुछ निरर्थक तालियों ,भाषणों कैमरों की चकचौंध ,झूटी मुस्कराहटों की बजाय काशीबाई से आपको रूबरू कराया जाये ...आमीन