# भारतीय खान पान ,परम्परा और हमारे व्यवहार और हमारी रेलवे
कल एक खबर देख रही थी ,भारतीय रेल विभाग में खान पान को लेकर कितनी गड़बड़ियां है ,हेल्थ को लेकर सरकार एक तरफ चौकन्ने होने का दावा करती है, दूसरी तरफ ,ऐसा खान -पान जो कई बीमारियों के साथ जान लेवा हो सकता है --तो कहाँ है हमारी गलती और कहाँ है सरकारी भूले ,
बचपन में रेल के सफर के दौरान हर स्टेशन पर हमें सीज़नल फल फ्रूट मिल जाते थे,करौंदे ,आम अमरूद, ककड़ी खीरा चिरोंजी ,शहतूत,फालसे,जामून और उबलासूखा हुआ चना मूमफली आदि, एक सुराही होती थी या छागल जिसमें पानी भर कर घर से ले आते थे ,खाने में अचार पूड़ियाँ पराठे आलू की सब्जी --और नमकीन --सोने के लिए एक मोटी से दरी होल्डाल एकाध एयर पिलो होता, सफर कितना ही लंबा होता मज़ा आता था,और आराम से कट जाता था
धीरे धीरे सब बदल गया ,वातानुकूलित डिब्बे सफ़ेद झक चादरें कम्बल --और उसमें रेलवे की मन मर्ज़ी का खाना --रेलनीर --जिससे ना मन भरता है ना पेट --अब स्टेशन पर वो फल कटी हुई ककड़ी भुट्टे नहीं मिलते ,अब हम अंकल चिप्स हल्दीराम की भुजिया खाते हैं ,वो भी मनमाने दामों पर ,अब सफर पर चलने के दौरान औरते वो मशक्क्त नहीं करती जो हमारी माँ को हमने देखा --वो दो चार लोगों की अतिरिक्त खान सामग्री साथ रखती थी कि ,नामालूम कब ट्रैन लेट हो जाये कब कहाँ रुक जाना पड़ जाए, और ऐसा होता भी था ,तब माँ की चतुराई देखते ही बनती थी ,बचपन के ऐसे तमाम किस्से याद है जब हमने रातें वोटिंग हाल में गुजारी लेकिन खाना कम नहीं पड़ा बल्कि आस पास में बांटकर भी बच जाता था ---अब एक शब्द ' सुनती हूँ ज़हर खुरानी , ना किसी का खाना खाइये ना खिलाइये , चोरों और ठगों का बोल बाला है हमारी ये परम्परा है क्या सब कुछ अकेले अकेले खा जाएँ --सहयात्रियों को बांटे बिना --लेकिन सब कुछ बदलने के साथ मानवीय वृतियां भी ज्यादा बदली और ज्यादा ठगी होने लगी --सोचने की बात ये हैकि ऐसा क्यों हो रहा है --पूँजीवाद ने जो भी बदला है उससे भौतिक प्रगति के सूचकांक चाहे जितने ऊँचे हो ,लेकिन शनै शनै मानवीय वृतियों का ह्रास हुआ है और होता जा रहा है -
पिछले साल ही में तिरुपति से लौट रही थी सम्पर्क क्रांति [ए पी ] उसमें पेंट्री कार ही नहीं थी ये ट्रैन तिरुपति से सुबह 5 बजे निकलती है ,वो तो हमारी बर्थ के बगल में एक रेल अधिकारी थे उन्हें हैदराबाद उतरना था उन्होंने कहीं काल किया और इडली डो से का इंतजाम हुआ ,एसी 2 ,और ऐसी 1 में भी वही वेंडर आते हैं जो रेलवे से अथोराइज़्ड होते हैं और उनके पास भी वही होता है जिस खाने का हम या तो खा नही पाते या लम्बे सफर में उसे पचा नही पाते, इसका विकल्प नहीं होता ,जाते वक़्त तो हम दो दिन तक के सफर का भरपूर खाना साथ रखते हैं --लेकिन लौटते वक़्त क्या करें --आजकल यदि किसी रिश्तेदार का कोई स्टेशन बीच राह पड़ता भी है तो --कई बहाने है ,किसी का घर दूर है ,तो कोई बिज़ी है ,कोई आफिस में है ,कोई बीमार है ---तो कहने और सुनने के बीच स्वाभिमान आड़े आ जाता है --बचपन में हमारे शहर से किसी परिचित /रिश्तेदार /परिवार केगुजरने पर माँ खाना लेकर भेजती थी यथा संभव उनके पसंद का ,और अब सब कुछ रेलवे सडा गला खाना मैनेज करता है ---
शताब्दी से अपनी दो सालपहले की यात्रा के दौरान पड़ोस के एक बुजुर्ग दम्पत्ति जो जल्दबाजी में खाने का पैकेट घर भूल आये थे --मुश्किल में आ गए उन दोनों को शुगर थी जब नाश्ता ,खाना सर्व होता वो समेटकर रख देते या लौटा देते --मैंने पूछा तो पता चला डायबिटिक हैं ,और अब तक जितना खान पान सर्व हो रहा था उनके काम का ना था --मैंने अपने बेग से उन्हें चने और कुछ नमकीन दिया --वेंडर से दही मांगा तो नहीं था ना लस्सी थी और थी भी तो मीठी --रेलवे ने उस वक़्त कांट्रेक्ट आगरा केंट के किसी कांट्रेक्टर को दिया था --प्लेट में रखे पेपर नेपकिन पर उनका नाम फोन नंबर था काल किया और सजेशन दिया --एक माह बाद अखबार में छपा भी अब डायबिटिक लोगों के लिए शताब्दी में खाना अलग से दिया जाएगा --वो लागू हुआ या नहीं ,नहीं पता
हम अपने बचपन से ही खान पान की बिगड़ी आदतों की वजह से बड़े होने तक मुश्किल में रहते हैं, हम सभी भाई बहन मूम्फ़ली ककड़ी चना बिस्कुट से पेट भर सकते हैं --देखती हूँ सफर के दौरान बच्चे तो बच्चे, माँ बाप भी कोल्डड्रिंक्स और जंकफूड डकारते हुए सफर पूरा करते हैं और साथ में रेलवे का कुभोजन भी ,
सोम नाथ एक्सप्रेस में सोमनाथ की यात्रा के दौरान चूहों की भरमार थी -सीट बर्थ में कुतरे हुए बिस्किट रोटियां --तो तमीज़ किसे सिखाएं रेलवे को या खुद को ---बिना धुली चादरें प्रेस करके फिर यात्रियों को दे देना --आप सजग नहीं तो भुगतो किसी इंफेक्शन को -मेरा चाहे जिस कैटेगरी में रिज़र्वेशन हो में अपनी बेडशीट ले जाना नहीं भूलती -भूल जाऊं तो दुपट्टे को ही उपयोग में लाती हूँ चादरों के नीचे --बाहरी खान पान -रहन सहन से एक अज्ञात डर सताता है और उसके सारे उपाय कर लेना जरूरी समझती हूँ
फिर बेटी को बताया उसने कहा मॉ आगे से किसी जंक्शन का पता कर के वाहन से आन लाइन बुकिंग करो ब्रेकफास्ट लांच डिनर सब कुछ मिलेगा ,में कहती हूँ ये अमेरिका नहीं है बेटा ,ट्रैन अक्सर लेट होती है ,खाने की क्वालिटी खराब हो तो क्या ग्यारंटी पैसा वापिस होगा ,और होगा भी तो इतनी झंझट में कौन फंसे --तुम अमेरिका में हो हम इंडिया में --कुछ दिन पहले हमारे फेसबुक दोस्त आर एन शर्मा जी भोपाल से गुजरे तो मैंने उनसे कहा था, आप पहले बताते तो में खाना लेकर आती,उज्जैन से भोपाल की दूरी ट्रैन से 4 घंटे की है,लेकिन हमारी सास पूड़ी सब्जी अचार पैक करके रखती थी, जाने कब जरूरत पड़ जाए,और अक्सर मक्सी या काला पीपल पे ट्रैन 4 4 घंटे खड़ी रहती थी, तब ना कार थी ना बस रुट अच्छे थे ,आज भी कार के सफर के दौरान भी में खाना जरूर साथरखती हूँ वो उपयोग ना आये तो किसी जरूरत मंद को दे देती हूँ --एक बात सच है की हम दूसरे के लिए ऐसा नहीं करना चाहते इसके पीछे एक ही मकसद है ,की फिर हमे भी करना पडेगा ,अगर सभी इस भाव को दिल से निकाल दें वक़्त जरूरत अपने इष्ट मित्रों रिश्तेदारों को भोजन पैक कर देते रहें तो रेलवे की जरूरत ही नहीं होगी यथासंभव साथ घर का बना शुद्ध सात्विक भोजन साथ ले जाएँ
और में सच कहूँ मुझे आज भी स्टेशन पर अपने परिचितों को खाना देकर आना अच्छा लगता है एक सुकून है किसी हमारे को, हमारे शहर से गुजरते देखना और उसे शुद्ध स्वादिष्ट घर का ,हाथ से बना भोजन खिलाकर तृप्त होना
कल एक खबर देख रही थी ,भारतीय रेल विभाग में खान पान को लेकर कितनी गड़बड़ियां है ,हेल्थ को लेकर सरकार एक तरफ चौकन्ने होने का दावा करती है, दूसरी तरफ ,ऐसा खान -पान जो कई बीमारियों के साथ जान लेवा हो सकता है --तो कहाँ है हमारी गलती और कहाँ है सरकारी भूले ,
बचपन में रेल के सफर के दौरान हर स्टेशन पर हमें सीज़नल फल फ्रूट मिल जाते थे,करौंदे ,आम अमरूद, ककड़ी खीरा चिरोंजी ,शहतूत,फालसे,जामून और उबलासूखा हुआ चना मूमफली आदि, एक सुराही होती थी या छागल जिसमें पानी भर कर घर से ले आते थे ,खाने में अचार पूड़ियाँ पराठे आलू की सब्जी --और नमकीन --सोने के लिए एक मोटी से दरी होल्डाल एकाध एयर पिलो होता, सफर कितना ही लंबा होता मज़ा आता था,और आराम से कट जाता था
धीरे धीरे सब बदल गया ,वातानुकूलित डिब्बे सफ़ेद झक चादरें कम्बल --और उसमें रेलवे की मन मर्ज़ी का खाना --रेलनीर --जिससे ना मन भरता है ना पेट --अब स्टेशन पर वो फल कटी हुई ककड़ी भुट्टे नहीं मिलते ,अब हम अंकल चिप्स हल्दीराम की भुजिया खाते हैं ,वो भी मनमाने दामों पर ,अब सफर पर चलने के दौरान औरते वो मशक्क्त नहीं करती जो हमारी माँ को हमने देखा --वो दो चार लोगों की अतिरिक्त खान सामग्री साथ रखती थी कि ,नामालूम कब ट्रैन लेट हो जाये कब कहाँ रुक जाना पड़ जाए, और ऐसा होता भी था ,तब माँ की चतुराई देखते ही बनती थी ,बचपन के ऐसे तमाम किस्से याद है जब हमने रातें वोटिंग हाल में गुजारी लेकिन खाना कम नहीं पड़ा बल्कि आस पास में बांटकर भी बच जाता था ---अब एक शब्द ' सुनती हूँ ज़हर खुरानी , ना किसी का खाना खाइये ना खिलाइये , चोरों और ठगों का बोल बाला है हमारी ये परम्परा है क्या सब कुछ अकेले अकेले खा जाएँ --सहयात्रियों को बांटे बिना --लेकिन सब कुछ बदलने के साथ मानवीय वृतियां भी ज्यादा बदली और ज्यादा ठगी होने लगी --सोचने की बात ये हैकि ऐसा क्यों हो रहा है --पूँजीवाद ने जो भी बदला है उससे भौतिक प्रगति के सूचकांक चाहे जितने ऊँचे हो ,लेकिन शनै शनै मानवीय वृतियों का ह्रास हुआ है और होता जा रहा है -
पिछले साल ही में तिरुपति से लौट रही थी सम्पर्क क्रांति [ए पी ] उसमें पेंट्री कार ही नहीं थी ये ट्रैन तिरुपति से सुबह 5 बजे निकलती है ,वो तो हमारी बर्थ के बगल में एक रेल अधिकारी थे उन्हें हैदराबाद उतरना था उन्होंने कहीं काल किया और इडली डो से का इंतजाम हुआ ,एसी 2 ,और ऐसी 1 में भी वही वेंडर आते हैं जो रेलवे से अथोराइज़्ड होते हैं और उनके पास भी वही होता है जिस खाने का हम या तो खा नही पाते या लम्बे सफर में उसे पचा नही पाते, इसका विकल्प नहीं होता ,जाते वक़्त तो हम दो दिन तक के सफर का भरपूर खाना साथ रखते हैं --लेकिन लौटते वक़्त क्या करें --आजकल यदि किसी रिश्तेदार का कोई स्टेशन बीच राह पड़ता भी है तो --कई बहाने है ,किसी का घर दूर है ,तो कोई बिज़ी है ,कोई आफिस में है ,कोई बीमार है ---तो कहने और सुनने के बीच स्वाभिमान आड़े आ जाता है --बचपन में हमारे शहर से किसी परिचित /रिश्तेदार /परिवार केगुजरने पर माँ खाना लेकर भेजती थी यथा संभव उनके पसंद का ,और अब सब कुछ रेलवे सडा गला खाना मैनेज करता है ---
शताब्दी से अपनी दो सालपहले की यात्रा के दौरान पड़ोस के एक बुजुर्ग दम्पत्ति जो जल्दबाजी में खाने का पैकेट घर भूल आये थे --मुश्किल में आ गए उन दोनों को शुगर थी जब नाश्ता ,खाना सर्व होता वो समेटकर रख देते या लौटा देते --मैंने पूछा तो पता चला डायबिटिक हैं ,और अब तक जितना खान पान सर्व हो रहा था उनके काम का ना था --मैंने अपने बेग से उन्हें चने और कुछ नमकीन दिया --वेंडर से दही मांगा तो नहीं था ना लस्सी थी और थी भी तो मीठी --रेलवे ने उस वक़्त कांट्रेक्ट आगरा केंट के किसी कांट्रेक्टर को दिया था --प्लेट में रखे पेपर नेपकिन पर उनका नाम फोन नंबर था काल किया और सजेशन दिया --एक माह बाद अखबार में छपा भी अब डायबिटिक लोगों के लिए शताब्दी में खाना अलग से दिया जाएगा --वो लागू हुआ या नहीं ,नहीं पता
हम अपने बचपन से ही खान पान की बिगड़ी आदतों की वजह से बड़े होने तक मुश्किल में रहते हैं, हम सभी भाई बहन मूम्फ़ली ककड़ी चना बिस्कुट से पेट भर सकते हैं --देखती हूँ सफर के दौरान बच्चे तो बच्चे, माँ बाप भी कोल्डड्रिंक्स और जंकफूड डकारते हुए सफर पूरा करते हैं और साथ में रेलवे का कुभोजन भी ,
सोम नाथ एक्सप्रेस में सोमनाथ की यात्रा के दौरान चूहों की भरमार थी -सीट बर्थ में कुतरे हुए बिस्किट रोटियां --तो तमीज़ किसे सिखाएं रेलवे को या खुद को ---बिना धुली चादरें प्रेस करके फिर यात्रियों को दे देना --आप सजग नहीं तो भुगतो किसी इंफेक्शन को -मेरा चाहे जिस कैटेगरी में रिज़र्वेशन हो में अपनी बेडशीट ले जाना नहीं भूलती -भूल जाऊं तो दुपट्टे को ही उपयोग में लाती हूँ चादरों के नीचे --बाहरी खान पान -रहन सहन से एक अज्ञात डर सताता है और उसके सारे उपाय कर लेना जरूरी समझती हूँ
फिर बेटी को बताया उसने कहा मॉ आगे से किसी जंक्शन का पता कर के वाहन से आन लाइन बुकिंग करो ब्रेकफास्ट लांच डिनर सब कुछ मिलेगा ,में कहती हूँ ये अमेरिका नहीं है बेटा ,ट्रैन अक्सर लेट होती है ,खाने की क्वालिटी खराब हो तो क्या ग्यारंटी पैसा वापिस होगा ,और होगा भी तो इतनी झंझट में कौन फंसे --तुम अमेरिका में हो हम इंडिया में --कुछ दिन पहले हमारे फेसबुक दोस्त आर एन शर्मा जी भोपाल से गुजरे तो मैंने उनसे कहा था, आप पहले बताते तो में खाना लेकर आती,उज्जैन से भोपाल की दूरी ट्रैन से 4 घंटे की है,लेकिन हमारी सास पूड़ी सब्जी अचार पैक करके रखती थी, जाने कब जरूरत पड़ जाए,और अक्सर मक्सी या काला पीपल पे ट्रैन 4 4 घंटे खड़ी रहती थी, तब ना कार थी ना बस रुट अच्छे थे ,आज भी कार के सफर के दौरान भी में खाना जरूर साथरखती हूँ वो उपयोग ना आये तो किसी जरूरत मंद को दे देती हूँ --एक बात सच है की हम दूसरे के लिए ऐसा नहीं करना चाहते इसके पीछे एक ही मकसद है ,की फिर हमे भी करना पडेगा ,अगर सभी इस भाव को दिल से निकाल दें वक़्त जरूरत अपने इष्ट मित्रों रिश्तेदारों को भोजन पैक कर देते रहें तो रेलवे की जरूरत ही नहीं होगी यथासंभव साथ घर का बना शुद्ध सात्विक भोजन साथ ले जाएँ
और में सच कहूँ मुझे आज भी स्टेशन पर अपने परिचितों को खाना देकर आना अच्छा लगता है एक सुकून है किसी हमारे को, हमारे शहर से गुजरते देखना और उसे शुद्ध स्वादिष्ट घर का ,हाथ से बना भोजन खिलाकर तृप्त होना
सरकारें ना सुधरी है ना सुधरेंगी --आप हमको ही सुधरना होगा अपनी आदतों और बिगड़े चलन पर कंट्रोल करना होगा
[कल रात इंडियन रेलवे के बिगड़े खान पान पर रिपोट देख सुनकर ]
[इसे अपने ब्लॉग ,ताना बाना,के लिए लिखा है,सोचा यहाँ भी पेश कर दूँ ]
[कल रात इंडियन रेलवे के बिगड़े खान पान पर रिपोट देख सुनकर ]
[इसे अपने ब्लॉग ,ताना बाना,के लिए लिखा है,सोचा यहाँ भी पेश कर दूँ ]