बुधवार, 31 दिसंबर 2008
गहराती जाती शाम ,कांपते रंगों के बीच से गुजर जाती है,तमाम चीजों,लोगों,रिश्तों,प्रेम की तरह बिछुड़ ता है फिर एक साल
सोमवार, 29 दिसंबर 2008
मेरे कुरते का टूटा बटन...खोजती अपनी अँगुलियों के साथ ..
मेरे कुरते का,टूटा बटन
टांकने के लिए आख़िर उसे
सुई धागा नही मिला
समय नही ठहरा,कुरते के टूटे बटन के लिए
अपनी जगह रही मेरी तसल्ली,
सुई धागा,तलाशती वह,
गहरे संताप मैं वहीँ छूट गई,
बिना बटन के ही
वो कुर्ता पहना, पहना इतना,
आगे पहनने लायक नही रहा
मेरे पास वोही एक कुर्ता था,
जिसकी जेब मैं तमाम दुनिया को रखे घूमता था,
रात को मेरे सीने पर वह,
सर टिकाये रहती है,
टूटा बटन खोजती,अपनी अँगुलियों के साथ,
वो शाम के रंगों की तरह था,आया और चला गया,किसको अँधेरा खोजता ,आया और चला गया,[शरद रंजन ]
मंगलवार, 23 दिसंबर 2008
जंगल की याद मैं,चट्टानों के प्रेम मैं ..जहाँ से लौटकर गैर मामूली इच्छाएं विस्मित करती है एक रिपोतार्ज यात्रा चित्र..
गुरुवार, 18 दिसंबर 2008
देला वाढी के जंगलों से गुजरते हुए और जंगल बेखबर....
जंगली हवा तिलिस्मी धूप... ,
रविवार, 14 दिसंबर 2008
रस्टीशील्ड-गोल्डन पीला गुलमोहर... एक शुरुआत, स्मृति के सुख-दुःख से परे...
बुधवार, 10 दिसंबर 2008
एक ख़त बेनामी भाई के नाम...कल एक पोस्ट ..फिर सत्ता मैं शिव सरकार,जिस बेनामी से सम्बंधित हो उसके लिए...
सोमवार, 8 दिसंबर 2008
मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार फ़िर सत्ता में... आत्मविश्वास, चुनौतियाँ और शिद्धत्त से किए काम जीत का सेहरा बने...
गुरुवार, 4 दिसंबर 2008
प्रेम में दर्ज चीजें अनुपस्थिति मैं,उपस्थित प्रवासी परिंदों की उड़ान के साथ जब वो एक तंग गली से गुजर रही थी
उन्होंने चिंदी -चिंदी किया प्रेम ,ताकि सुख से नफरत कर सके उन्होंने धज्जियाँ उडाई जीवन की ताकि सुख से मर सके
मंगलवार, 2 दिसंबर 2008
मेरे शहर मैं २ दिसम्बर १९८४,सूरज पे हमें विशवास है
रविवार, 30 नवंबर 2008
खिलेंगे फूल उस जगह की तू जहाँ शहीद हो ,...वतन की राह ....
शुक्रवार, 28 नवंबर 2008
इस सोच से बहुत आगे,कि हम एक दूसरे के लिए हैं ....
एक मैदान है,
मैं वहां मिलूंगी,
जब आत्मा ,अपने से भी ऊँची,
घांस के बीच लेटती है,
तो दुनिया इतनी ठसाठस भरी होती है,कि
उसके बारें मैं ,कुछ भी बोलना अच्छा नही लगता,
विचार-भाषा यहाँ तक कि
यह कहना
कि हम एक दूसरे के लिए हैं
जहाँ,
कोई मायने नही रखता ,....
जलालुद्दीन रूमी ....वही दुनिया है ,मैं हूँ तुम हो ,प्रश्न हैं ,युद्ध है ,कविता है ,
आतंकवाद के भस्मासुर की चुनौतियों के सामने आख़िर हम नाकाम क्यों?
बुधवार, 26 नवंबर 2008
कोष्टक मैं बंद दिसम्बर,फ्लूट पर गीत ,कभी -कभी,,प्रेम से बड़ी होती समझ की नफरत होजाए रोने गाने और प्रेम से
सोमवार, 24 नवंबर 2008
तुम भीतर के फरिश्ते को नए पंख देते हो ,
तुम्हारा आना-तुम्हारा जाना
कहीं दूर ओट मैं खुलना -खिलखिलाना,
शनिवार, 22 नवंबर 2008
सिटीजन केन ..सफलता, यश पैसा, सत्ता और अमरता की वासनाएं किस तरह किसी का क्रमिक आध्यात्मिक स्खलन करती हैं,की अंत मैं उनके पास बाकी सिर्फ डर और उसकी छाया
भोपाल के रविन्द्र भवन मैं इन दिनों पत्रकारों ,अखबार मालिकों उनके पेशेगत कठिनाइयों ,संघर्ष से आम जन को रूबरू कराने वाली फिल्मों का पर्दर्शन किया जा रहा है ,उन्ही मैं से एक सिटीजन केन भी है ,इस फिल्म के लिए निर्देशक को धमकियां भी मिली मुकदमें ,एफ बी आई ,की जांच भी ये फिल्म ९ श्रेणियों में आस्कर के लिए नामांकित हुई किंतु महत्त्व इसका है की अकेले आर्सन वेल्स को चार श्रेणियों ,...निर्माता,निर्देशक अभिनेता व् स्क्रीन प्ले मैं नामांकित किया गया था और ये सम्मान पाने वाल वो पहला व्यक्ति था ।
समीक्षा मनोज श्रीवास्तव ,...आयुक्त जनसंपर्क,और सचिव संस्कृति विभाग MP द्वारा। (सम्पादन की दृष्टि से मैंने इसमे कुछ स्वतंत्रताएं ले ली हैं...)
शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
शेटरड ग्लास ,लेखनी सिर्फ उपकरण नही है ,एक न्यास है ,जिसका टूटना सार्वजानिक घटना है ,वो निजी हाशिये की चीज नही
समीक्षा मनोज श्रीवास्तव ,...आयुक्त जनसंपर्क,और सचिव संस्कृति विभाग द्बारा, प्रदेश में पत्रकारों के हित , और सहयोग हेतु हमेशा तत्पर रहने वाले मनोज जी ने कई पुस्तकें लिखी हैं ,स्त्री प्रसंग भी उनमें से एक है ,जिसमें एक सम्रद्ध द्रष्टि ,गंभीर और आत्मसाती किंतु नवीन संवेगों के बल पर स्त्री का एक भिन्न ओजस रूप जिया गया है ,जिसे फिर कभी ताना -बाना के जरिये पेश किया जायेगा
ऐ क्राय इन द डार्क ....इस दौर मैं जब तक सच अपने जूते के तस्मे बाँध रहा होता है,झूट पृथ्वी की परिक्रमा कर चुका होता है...
बुधवार, 19 नवंबर 2008
आधी आबादी की पढ़ी लिखी अनपढ़ बनी हिस्सा ये चमकीली औरतें,..और बेशर्म कोशिशें रिपोतार्ज कथा का शेष ...
एक महिला बॉडी मसाज करवा रही है,उम्र लगभग ५० ,आस -पास ,म्यूजिक सिस्टम पर पुराना गाना ....आवाज दे कहाँ है दुनिया मेरी जवां है ,शरीर पर चर्बी की परतें, अर्ध नग्न सी ,...तभी मसाज रूम ,जिसे पार्टीशन से बनाया गया है,मैं एक महिला आती है ,हाय,पुर्णीमा ... यू स्टुपिड रीना! - व्हेयर आर यू?... आय एम हियर... रिअली ?॥नो-नो ... तो फ़िर कहाँ थी पिछले हफ्ते?... अरे यार ऊटी चली गई थी, रेस्ट चेयर पे टाँगे फैलाकर बैठ जाती है - "तू तो ऐसे कह रही है जैसे न्यू-मार्केट चली गई थी?..." "यार बस इनका मूड बन गया, मैंने भी सोचा - जस्ट फॉर अ चेंज"... "तभी इतना फ्रेश लग रही है!" - "ओह! नो!" - नाक सिकोड़कर कहती है, "वहां भी वही मिडिल-क्लास वाली भीड़, मुझे तो कोई चेंज नहीं मिली" - तभी मोबाइल की एक लहराती 'त्रन-त्रिन-नन' - "हेलो, कौन? सोम्या!... येस!... हाँ पूर्णिमा, क्या बोल याद है न कल कृति के यहाँ किटी है... अरे? ... हाँ... पर मेरा मूड ऑफ़ है... क्या हुआ? कल शाम तक तो ठीक थी?, राकेश से फ़िर झगडा? ... नहीं... सो वाय आर यू क्रेअटिंग ड्रामा ?... ठीक है, आ जाउंगी तू लेक्चर शुरू मत करना... ओके बाय!" रीना पूर्णिमा से:- "क्यों नहीं जाना चाहती? ... नहीं,उस भुक्कड़ के यहाँ नहीं! जितना खिलाएगी सब वसूल कर लेगी, दूसरो के यहाँ तो ऐसे खायेगी जैसे जन्मों की भूखी हो और ख़ुद के यहाँ खिलाने के नाम पर दम निकलेगा!... तो?.... तो क्या? बस उसने तो यही समझना है, मेरी नई हुंडई गेट्ज से जेलस कर गई!... ओह गोड! क्या सच? कार ?हुंडई ?गेट्ज? कब खरीदी? - एक ही साँस में पूछती है, पहली महिला रीना... "किटी पार्टी तो बहाना है, सच तो ये है... क्या?... उसे तो अपनी सिंगापुर वाली भाभी को सारे जलवे दिखाना है जो आजकल छुट्टियों में उसके पास आई हुई है, पार्टी भी बंगले पर नहीं... तो?... कंट्री-वुड क्लब में... हाय! ये इतना पैसा क्यों खर्च कर रही है?... डोंट माईंड... दमयंती की वेडिंग अनिवर्सरी पर मिल गई थी, १२ को... हाय में कहाँ थी?... तू....... - याद करते हुए कहती है-तू दिल्ली गई थी... ऑफ़ व्हाइट चामुंडी शिफोन पर बीट्स और सिल्क एम्ब्रायडरी वाली साड़ी ... आह!... क्या पल्लू को लहरा लहराकर इतराती फ़िर रही थी, मानो उसी की वेडिंग अनिवर्सरी हो... तू मुझे रिपोर्ट कर रही है या जला रही है?... बेवकूफ सारा शहर जानता है दमयंती जब अपने मामा के यहाँ अमेरिका गई थी, ये वही पड़ी रहती थी, हरीश को तो इसने इतना एक्स्प्लोईट किया... वो तो दमयंती की नौकरानी लीलाबाई ने फोन पर हिंट दे दी उसे, बड़ी ईमानदार है लीला... क्या खाक ईमानदार! पहले साहब कुछ दिन उसके साथ ऐश फरमाते रहे बीच में ही यह महारानी आ टपकी... बस लीलाबाई से टोलरेट नहीं हुआ। बन गई लीलाबाई लक्ष्मीबाई, मन ही मन उठा ली तलवार! पोल खुल गई... लेकिन तुझे कैसे मालूम?... ख़ुद लीला ने बताया... लीला तुझे क्यों बताने लगी?... अरे यार! अब तुझे कौन सी किताब लिखनी है? मेरा सर्वेंट छुट्टी पर था और फ़िर उन दिनों दमयंती को मैंने ही मोरल सपोर्ट दिया था। छोड़ गई उसे मेरे पास! कोम्प्लिमेंट्री तौर पर!... अच्छा छोड़ लीलाबाई का किस्सा, थोड़ा स्टीम ले लूँ... -ब्यूटी पार्लर में मसाज - फेशिअल करने वाली कुछ कम उम्र लड़कियां आपस में मुस्कुराते हुए काम में व्यस्त हैं... "इनका समाज उन लोगों का है जिन्हें धन और ऐश दोनों प्राप्त है... एक-दुसरे को नीचा दिखाने की फ़िक्र और बेशर्म कोशिशों में यह औरतें इस कदर आत्मकेंद्रित और कुंठित होती जा रही हैं, की उनके अपने होने का एहसास ही गुम हो गया है और इस अप-संस्कृति को और अधिक विकृत करने में उन लोगों का हाथ अधिक है जिन्होंने नया-नया पैसा देखा है, जिसकी चका-चौंध में वे अंधे हो चुके हैं, सारी नैतिकता और मान-मरियादा को ताक पर रखकर हर दिन नए-नए शौक पालना जिनका शगल बन चुका हो, रुपयों पैसों की मनमानी का खेल और ज़िन्दगी का मजा ही जिनका धर्म बन चुका हो वहां क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिए (शेष और अन्तिम पोस्ट आगामी...)"
एक शब्द जो...हवा मैं रह गया,...दोस्त के नाम ...
मंगलवार, 18 नवंबर 2008
ये चमकीली औरतें,..रिपोतार्ज कथा,..पिछली पोस्ट से आगे,
चमकीली औरतें कोई किस्सा नही, हमारे समाज का सच है ,आधी आबादी का एक पढा लिखा अनपढ़ हिस्सा बनी ये औरतें अच्छे भले आदमी का दिमाग घुमाने के लिए काफ़ी है ,ये पोस्ट ज्यों की त्यों पेश है जैसा मैंने इसे सुना,...आगे सुनिए.....बुटिक मालकिन आँख मारकर,..यादव को तो पटा नही पाई ,अरे क्या पटाती ..चोरी कर के जो खाता था ,फिर तो गोविन्द तेरे यहाँ चल ही नही सकता,ग्यारंटी से कहती हूँ ,क्यों ?क्यों ,क्या जब तू ज्यादा आब्जर्व करेगी तो नौकर ने तो भागना ही है सीने पर चर्बी के पहाड़ , ,रंगीन होंटो की नकली चमक ,कटे छितराए बालो का घोंसला प्यार तो क्या देखने के भी काबिल नही जाने किन अभागों के पल्ले आती होंगी ये महिलायें ,मन ही मन सोचती हूँ ,....चल तेरी लक्ष्मी को पटा लेती हूँ ...पहली ना जी,ये मत करना तेरे लिए रोज दो मुर्गे भेज दूँगी ..ओह पर तुने खाना नही बनाना ...अरे यार कौन से पति महाराज ने गोल्ड मैडल देना है वो खाना खाता ही कब घर मैं ,कभी यहाँ ,तो कभी कोई पार्टी दुनिया भर मैं मुँह मारता फिरेगा और घर के खाने मैं नुक्स निकालेगा,मेरे बस का नही ये सब,फिर घर के खाने को खाना ही कितनो ने,फिर उसकी आँख का कोना दब जाता है ,..जबसे लक्ष्मी आई है साहब भी खुश,मैं भी अच्छा तू तो आज ही गोविन्द को बुला दे ..खाने की मुझे तो परेशानी है ,सास जो है मेरे सर ,निभाना ही है ,...खाने मैं क्या -क्या देती थी ,...क्या-क्या नही दिया बदमाश को ,साहब से पहले एक गिलास दूध ,दो उबले अंडे ,..दूसरी आँखे मटका कर...साहबसे पहले और क्या-क्या...छोड़ यार याद नादिला उसकी ..पर एक बात समझ ले ,इसके बाद भी उसे चोरी से खाते देख ले तो एक आँख बंद कर लेना ,क्यों दोनों क्यों नही ,सवाल मत कर समझ ले,उससे आँख ना मिल जाए ,तेरी जो मर्जी आए करना बेचारा सब मैं राजी तू जाने तेरा गोविन्द, आज से वो तेरा हुआ, भोंडी और निरर्थक हँसी ,..ही ..ही ..हो...चल बता कुरते कब देना है तूने-अपने भारी भरकम शरीर को समेटती हुई खड़ी होती है ,खुशनुमा और थोड़े ठंडे मौसम मैं भी कहती है ,हाय बड़ी गर्मी है शाम आजा ,..बियर का मूड है ,मजे करेंगे ,ना बाबा तेरे यहाँ क्या ख़ाक मजे करना है मैंने ,तेरा पति तो होगा नही ,हाँ ये बात तो है उसने कहाँ होना है सही शाम घर पे ,अच्छा चल कॉल करना ..तू चाहे ना आए अपना तो प्रोग्राम फिक्स है सींक कबाब बनवा लूँगी ...ओके ,कल इसी वक्त कुरते तैयार रखना ,बुटिक वाली मुझे देखती है उड़ती सी नजर से ...गेट तक छोड़ने महिला को जाते हुए ,..दोनों महिलायें अपने पेंटेड काले सुनहरे बालों के साथ थोडा गर्दन को झटका देते हुए चली जाती हैं हवा मैं देशी पसीने और विदेशी पर फ्यूम की मिली जुली एक तीखी गंध छोड़कर ....(अगली पोस्ट मैं एक ब्यूटीपार्लर मैं मिलेंगे)
ये चमकीली औरतें ...फिजूल की औरतें,...अंख देखी-कन सुनी एक रिपोतार्ज कथा
सोमवार, 17 नवंबर 2008
क्या राजनीति की अपनी मजबूरियाँ होती हैं,?भा ज पा का घोषणा पत्र
गुरुवार, 13 नवंबर 2008
देविदाफ्फ़ कॉफी,और ..उसके हिस्से की शाम...एक प्रेम की शुरुआत ..अंत से पहले.
सोमवार, 10 नवंबर 2008
तुम छोड़ जाती हो ...सतह पर
शुक्रवार, 7 नवंबर 2008
कुछ दुःख भी सुखों की तरह अलौकिक होते हैं...
गुरुवार, 6 नवंबर 2008
सिहांसन किसी की बपौती नहीं... पिछले चुनाव और उमा भारती.
बुधवार, 5 नवंबर 2008
पृथ्वी की तरह थरथराते हुए... प्रेम करते हुए...
जिन दिनों ,
अंधेरे आकाश से लड्ते हुए।
बादलों को चीर कर कभी कभार ,
दिख जाता था,एक टुकडा चाँद,
तुमने मेरे मन को,
पोथी की तरह बांच डाला था,
पृथ्वी की तरह थरथराते हुए,
तुमने किया था स्पर्श ,
कई बार जब तुम्हे प्यार करते हुए,
मुझे याद आया हमारा युद्धरत देश,
तुमने गुलाबी होंटों को,
मेरे माथे पर धर कर अभिषेक किया,
जबकि बेहद आक्रोश था मन मैं,
तुमने फूल सा हाथ,
मेरे कन्धों पे रखते हुए,
मुझे और तपने दिया।
यह खूबसूरत प्रेम-कविता सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के पौत्र - 'विवेक निराला' की है। जिसे अपनी डायरी से ...
मंगलवार, 4 नवंबर 2008
बांधो ना नाव इस ठौर बन्धु...
शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008
"कई मौसम एक साथ चलते हैं" अमृता प्रीतम की किताब - दूसरे आदम की बेटी...मैं
गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008
जब गूंजता हुआ एकांत था...
रविवार, 26 अक्तूबर 2008
मनाओगे क्या तुम अपने को मेरे साथ, त्यौहारों से ज्यादा... "
गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008
चकाचौंध करते आकाश की पृष्ठभूमि में सगर्व - "कज्जाक"
यह उपन्यास करीब पंद्रह वर्ष पूर्व पढ़ा था, और हाल ही में दोबारा, जिसे माँ ने उपहार में दिया था। मुझे लगता है कज्जाक को पढ़े बिना तोल्स्तोय को जानना अधुरा होगा।
मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008
अजरा तुम जहाँ हो...
अजरा... (ख़त एक) -
अपनी पहली पोस्ट मैं अपनी बचपन की मित्र अजरा के लिए लिख रही हूँ... ये ख़त बरसो से दिल-दिमाग में था। ज़िन्दगी के कई ज़रूरी और गैर-ज़रूरी कम करते वक्त बीतता रहा... अजरा तुम कहाँ हो? कल जबकि १४ अक्टूबर को तुम्हारा जन्मदिन भी है, सुबह की ताजा और कच्ची धुप मैं तुम्हे एक बड़ा सा ख़त लिखूंगी।
प्रिय अजरा,
कई दफा हमे अपनी एकांगी सोच से बचना होता है, तुम भी मुझे जहाँ हो याद ज़रूर करती होगी। लेकिन कितनी हैरानी की बात है की सुचना के इस संपन्न- संभ्रांत युग में मेरे पास न तुम्हार टेलीफोन नम्बर है,न सेल और ना ही आई-डी। जब हम आठवी कक्षा में थे तब हमारी पहचान हुई, बरसों पहले से ही, शायद जन्म से ही तुम परम्परावादी धर्म की रस्सियाँ तोड़कर उससे आगे जाना चाहती थी और फ़िर लौटने के बाद सारे रास्ते बंद! आज तुम बहुत याद आ रही हो, तुम्हारी बातें उस वक्त कोई मुल्ला-मौलवी सुन लेता तो उस कुफ्र के लिए तुम्हे उसी वक्त इस्लाम से निकाल खदेड़ देता, तुम्हारे बहुत से सवालों के जवाब उस वक्त मेरे पास नहीं थे सिवाय अपनी अबोध समझाइश के जो तुम्हारे धर्म के बारे में मुझे मालुम थी। अब सोचती हूँ वाकई इस्लाम की बुनियादी अवधारणा पर ही शक करने वाली अजरा तुम्हारा परिवार में रहना उस वक्त कितना मुश्किल रहा होगा।अब ये मेरी ज्यादा समझ मैं आता है. तुम मेरी गहरी दोस्त थी, दिमागी तौर पर तुम जितनी ऊँचाई पर थी उतनी ही शारीरिक तौर पर भी... एक पठानी मुस्लिम लड़की जो औसतन अपनी उम्र से करीब सात -आठ साल बड़ी लगने वाली, बात-बात पर खिलखिलाने वाली। तुम आती और हम बरामदे के बड़े से झूले पर दिनभर बतियाते , तुम्हारा होटों को थोड़ा तिरछा कर हंसने पर मुह के दायें दातों पर अर्धविकसित दांत का चढा होना दीखते ही... आह! कितनी खूबसूरत लगती थी तुम, बस तुम्हारा रंग आम मुस्लिम लड़कियों से अलग था... ना गोरा , ना काला औरत्वचा एकदम चमकीली , उन्ही दिनों हमने आज के गुज़रे ज़माने की अभिनेत्री - मौसमी चेत्तेर्जी , जो हुबहू तुम्हारी शक्ल मिलती थी की एक फ़िल्म कृष्णा टाकिज में देखी थी। आज वहां एक बड़ा शौपिंग मॉल बन गया है, खुदा जाने , तुम्हे याद है की नहीं जहाँ बैठकर हमने पूरी दुनिया को भुलाकर 'मंजिल' का शो देखा था, शो ख़त्म होने के बाद बारिश हो रही थी, और तीन किलोमीटर का रास्ता घर तक हमने पैदल ही तय किया था... तुम अपना बुरखा पहन कर लौट गई थी।अजरा बस कल शाम कुछ मेहमान आए देखा कांच के ग्लास ज़यादातर मेरे घर में बेजोड़ हो चुके हैं, पति की तमतमाई आँखें देखी, हालाँकि अब कई बातें बेअसर होने लगी हैं। वैसे अजरा १७-१८ साल की गृहस्ती मैं कोई औरत हमेशा चीजों की देखभाल कैसे करती रह सकती है? यूँ तो मैं आम औरतों की तुलना मैं अपने घर की सार-संभार थोडी अच्छी तरह स करती हूँ और अपने को १०० में स ७५ नम्बर देती हूँ इसीलिए मैंने सोचा कुछ अच्छे ग्लासों की खरीदारी कर लूँ वैसे मैं यहाँ हजारों बार आई हूँ लेकिन तुम इतनी शिद्धत स जेहन में कभी नहीं उभरी। कांच की चीजों स मुझे वैसे भी हमदर्दी कभी नहीं रही उन्हें काम वाली बाई तोडे या मेहमान या वो अपने हाथ से छूटकर 'चन् से ' टूट जाए अथवा गैर-जिम्मेदार बातूनी माँओं के बच्चे उन्हें खिलौना समझकर फर्श पर पटक दे। मुझे कभी दुःख नहीं होता यकीन मानो सिर्फ़ कांच की किरचों को उठाते मैं बेहाल हो जाती हूँ... घर लौटी तो...
शनिवार, 18 अक्तूबर 2008
शालमल्ली अब फूल नहीं बेचती..
मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008
एक रिपोतार्ज़ ख़त..अजरा तुम कहाँ हो?
अजरा तुम जहाँ हो.....
घर लौटी तो चार पाँच घंटे का एकांत है मेरे इर्द गिर्द तुम ही तुम घूम रही हो याद है ग़ालिब फैज़ तोल्स्तोय शरत यहाँ तक की शिव पुराण भी बहुधा हम साथ साथ पढ़ते थे शिव पुराण माँ तुम्हे कितने सटीक ढंग से समझाती थी ,लेकिन सच बताऊँ माँ की कई बातें उनके इतने पढ़े लिखे होने और साफ नजरिये के बावजूद,मैं नही जान पाई जैसे की जब भी तुम आती वो अंदर बुलाकर तुम्हे कांच के बर्तनों मैं ही खाने पीने की चीजें देने की हिदायतें देती और तुम्हारे जाने के बाद उन्हें गर्म पानी से साफ करने या किचिन के पीछे रखवाने तक और भी बहुत कुछ,जो इस्लाम और हिंदू मैं विभेद करती है शायद उन पर उनका कट्टर ब्राहमण होना उस वक्त हावी होजाता था उन पर बेहद गुस्सा आता लेकिन एक तरह से उनकी हुकूमत मैं जिन्दगी जीने के अलावा कुछ आता भी तो नही था,फिर भी माँ के प्यार मैं कोई कमी नही थी, और फिर एक बार उनकी अनुपस्थिति मैं तुमने भाभी की खूबसुरत साढी पहनी बिंदी लगाई जाने कैसे उन्हें पता चल गया तुम छह महीनो तक घर नही आई वो खामियाजा मुझे भुगतना पढा,भाभी ने ही किसी कडुवाहट के तहत तुम्हे बताया था ,बस उस एक छोटे सेहमारे बीच आए अवरोध के अलावा कभी कुछ नही हुआ,तुम भूगोल की और मैं हिन्दी की छात्रा,तुम मैं जो खूबियाँ थी मैं उन पर दिलोंजान से फिदा थी तुम चुप्पा और गंभीर किस्म की और मैं तुमसे उलट,फिर भी हमारी तुम्हारी रुचियाँ एक सी थी,तुम्हे मेरे यहाँ बेसन भरी मिर्ची कोथ्म्बीर की वरी और ककडी का थालीपीठ ,लहसून का थेसा बेहद पसंद था बस माँ तुम पर यहीं जयादा मेहरबान होती और भरपेट से भी अधिक खिलाती थी,
यूँ जिन्दगी मैं कई चीजों के कोई मायने नही होते अजरा लेकिन इतनी लम्बीचौडी जिन्दगी मैं कई लोग मिलते बिछड़ते हैं कभी फर्क पड़ता है और कभी नही, तुम याद आई तो बस आती चली गई मेरे और तुम्हारे इस किस्से मैं बीता हुआ बहुत कुछ ऐसा भी है जिसे हम चाह कर भी नही लौटा पायेंगे तुम इसे कभी पढो शायद..वो तुम्हारा बेवफा प्रेमी पिछले हफ्ते बुक्स वर्ल्ड पे यदि नही मिलता तो मैं तुम्हे ऐसे ही थोडा बहुत याद करके भूल भाल जाती ,वो अपने दो अब्लू गब्लू से बच्चों के साथ था,मैंने उसे हिकारत से देखा पर उसे कोई फर्क नही पढा,बेशर्मी की हँसी के साथ वो बोला और कैसी हैं आप ,कुछ बोलने के पहले ही उसकी कश्मीरी सी दिखने वाली बीवी ने मेरी और देखा इतवार की वजह से भीड़ भी थीऔर जाहिर है मैं कुछ जवाब दिए बिना निकल आई,सच अजरा वो तब भी तुम्हारे काबिल नही था,तुम कितना रोई थी और मेरा गुस्सा ये था की तुम रोजाना मिलती रही फिर भी मुझे कानो कान ख़बर नही होने दी फिर भी मैंने तुम्हे समझाया था नाहक उस सडियल के लिए रो रही हो,तुम्हारी पसंद पे मैं अफसोस करने के सिवाय कर ही क्या सकती थी,.....