- मेन गेट खोलते ही मोबाईल ओन करना,समय देखना और फिर चलना शुरू करना ...तब से ठीक एक घंटा होता है उसके पास .अपने आप से कहना ,झुक कर शूज़ को एक बार पैरों में ठीक से महसूस करना -फिर चलना ,,रोजाना की आदत में शुमार है पाँव चलतें हें देह चलती है और मन तो जैसे पूरे बर्ह्माण्ड का फेरा लगा -लगा कर लौटता है कतारबद्ध डुप्लेक्स मकानों की की नेम प्लेट पढ़ते जाना ..सरस्वती शिशु मंदिर के आहते में बच्चों की समवेत प्रार्थना के स्वर,डा वसंती साहू गायनाकोलाजिस्ट जेपी हॉस्पिटल,आशीष जैन कार्डियोलाजिस्ट ,दीपेश यादव एडवोकेट अनिल सोनी मेकेनिकल इंजीनियर ..बीच में एक बड़ा सा मटमैला मकान बदरंग जंग खाए गेट पर बड़ा सा ताला ----ये मकान बेचना है आगे मोबाईल नंबर बीएस एन एल का ...सारे दर्शय नाम का पहाड़ों की तरह रटते जाना ..बेमकसद सडक पार करते ही सरकारी मकानों की लाइन .बस स्टॉप पर इस्कूली बच्चों के हाथ थामे मा-बाप।।एक हलकी उसांस के साथ तभी अपने को लुक आफ्टर करना पुरानी आदतों जैसा ..सब कुछ वैसा ही है कुछ नहीं बदला और शायद बदले भी नहीं ..अपने साथ ही किसी चीज को देखने फिर समझने की समझ को सहेज लेना ---स्मृति की दृष्टि का धुंधला जाना ,अपने को पकड़ने की कोशिश करना ,थोडा आगे बढना ..लेकिन कुछ चीजें रह गई,,लगता तो है उन्हें छुए बिना निकल जाना और हैरान होकर पलटना ,उन्हें फिर देखना -अन्दर कुछ रिश्ते अभी तक बने हुए हें ताजा-तरीन -एक अतीत राग का छिड जाना ,दुनिया भर की ख़बरें अनगिन हलचलें -एक फेहरिश्त में कुछ कुछ कभी एडिट तो कभी हायलाईट और कभी अंडर लाइन होता रहता है पर क्या करें आसमान कितना नीला है दिखाई देकर भी अंदाजा नहीं होता सच अविश्वास ही आदमी को पराया बनाता है रंगों को बदरंग सामने शाहपुरा झील है उस पार छोटी पहाड़ी जिसके नीचे खूबसूरत मकानों,पहाड़ी के ठीक पीछे से सूरज निकलना ही चाहता है कुछ छोटे मोड़ और दूर तक जाकर बड़े घुमाव ..बेतरतीब पेड़ों पर धुप उतरती है एक आवाज़ हवा में तैरती है कैसा है जीवन इन दिनों ..और बेख्याली में कहना ठीक बिलकुल ठीक .टूटे हुए आलाप की एक शक्ल बन जाती है एक खालीपन ..एक बदली हुई तमीज के साथ एक बदली हुई दुनिया ..और एक ठोकर ---पिछले दिनों हुई बेमौसमी बारिश में भीग कर आधी बोरी पत्थर हुई सीमेंट ,ठीक वैसी ही ठोकर ,गिरते-गिरते बच जाना और संभल जाना ,गिर जाने के अहसास से कमतर नहीं होता ,सांसों का तेज होना फिर मोबाइल देखना ओह पैंतीस मिनिट गुजर गए ठोकर का एक हल्का अहसास पेरों में अभी भी बना हुआ है --कमबख्त लोगों को जाने क्या सूझता है खासे मकान को तुडवा कर फिर बनवाना ईंट फर्श कांच प्लास्टर का मलबा सड़कों पर पटक देना ,कितनी बातें कितनी यादें कोई कैसे ऐसे ही बीच सड़क पर छोड़ सकता है ,अपने से मुखातिब होना अब वो घर से करीब दो ढाई किलोमीटर दूर है कालोनी का ये एक्सटेंशन एरिया है कई नए अधूरे बने मकान ...स्मृतियों का भी एक्सटेंशन ..अगले मोड़ से लौटना ,तुम ठीक तो हो?ये कोई सवाल है पूछने वाला ..है तो सही ..बस अब लौटो घर ..देखो अपना चेहरा देखो आईने से हाल पूछो सही जवाब तो उसी के पास होगा ,पर आइना भी सवाल ना कर बैठे उस काल खंड में जिसे कुछ साल पहले उम्र के एक हिस्से में जिया गया हो कोई मुकम्मल जवाब नहीं उसके पास कोई अफसोस नहीं ....घर के नजदीकी वाला मिल्क पार्लर दिखाई पड़ता है और वहीँ से मुड़ना होता है .मोड़ से आठवां मकान मेरा अपना एक वो ही तो है इन दिनों भी बाकी दिनों की तरह ढेर से जामुनी फूलों की लतरों से सजा में गेट पर हरदम स्वागत के लिए आतुर ...अन्दर दाखिले के साथ ही सीढियों के ठीक नीचे वाशबेसिन के उपरी रैक से केटाफिल क्लीनसिंग लोशन को चेहरे पर फैलाना जामुनी नेप्किंस से चेहरा पोंछना ..आह अब चेहरा साफ है ..आईने के भीतर से खुश चेहरा दुहाई देता है हंसती रहे तू हंसती रहे ....मनसे किसी परत का उतर जाना किवाड़ों को ठेलकर वो लौटे वसंत सा इस बार भी कुछ लरजता है इत्मीनान की लहर सा कुछ ठहरता है एक उम्मीद की सूरत ...तब जरूरत से ज्यादा सोचना ,ये सोचना कि सुरक्षित रह कर धीरे-धीरे मरना कैसा होता होगा और फिर अधिक सुरक्षित होने की फिक्र छोड़ कर बेफिक्र हो जाना --पसीजी हथेलियाँ पीठ पर एक आद्र भाव लिए ---रुको रुको प्लीज़ डोंट बी इमोशनल ,तर्कों के जरिये अपनी इमानदारी से अपनी काबलियत की दाद दो ..वाकई तुम अलग हो सबसे,, खुशकिस्मती कहें इसे या?गायब हुई तिलिस्मी चीजें कैसे बार बार लौटती हें ...सच में बावजूद हंसना फिर भी स्थगित रहता है -विक्टोरियन उपन्यास की तर्ज पर कभी कभी अभिभूत होना ...सर्वेश्वर की कविता का याद आना उसकी सौ कविताओं के साथ उनके बाद ....कितना चौड़ा पाट नदी का कितनी गहरी शाम'' वसंत में शुरू और ख़त्म हुए किस्से का वजूद बचा रहता है सर्दियों की शामे और रातें तो वक्त ही नहीं देती यूं आती हें यूं जाती हें कि बस उनका मुड़कर ओझल होना ही याद भर रह जता है फिलहाल दिन बड़े हें और राहत है लेकिन ऐसे कैसे दिन आये भी नहीं ,बीते भी नहीं,भूले भी नहीं,और खो गए किसी अक्षांश -देशांतर में दिक्काल के किसी कोण पर ना मालूम कहाँ ...वसंत का आना सेमल का दहकना बर्फ में दबी कविताओं वाले दिनों का पिघलना टहनी से बिछड़ी पत्तियों का नवजीवन बनना फिर सेमल के फूलों से फलियाँ बनना फिर उनमे गद बदी रुई का भरना .हवा में एक गंध का फैलना धुंद और धुप के बीच चिड़ियों की उड़ानों का स्थगित रहना शाम का जाना रात का आना ...और छोटे-छोटे सफेद सेल्फ प्रिंटेड फूलों की ए लाइनसफेद नाईटी में बहुत दिनों बाद खुद को हल्का महसूस करना ..तारों भरे आसमान के नीचे छत्त पर सुकून में मोबाईल के मेसेजेबोक्स में झांकना ,डिलीट करना बकवास ख़बरें ..दुनिया से बेखबर एक कतरा सुख की खातिर आखिर कोई नाम तो चमके उसकी खातिर ...
- हकीकतों का लाये तखय्युल के बाहर मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाये [शमशेर ]
रविवार, 3 मार्च 2013
सच में बावजूद हंसना फिर भी स्थगित रहता है -विक्टोरियन उपन्यास की तर्ज पर कभी कभी अभिभूत होना ...सर्वेश्वर की कविता का याद आना उसकी सौ कविताओं के साथ उनके बाद ....कितना चौड़ा पाट नदी का कितनी गहरी शाम'' वसंत में शुरू और ख़त्म हुए किस्से का वजूद बचा रहता है
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