रविवार, 23 जनवरी 2011

-//बीच रात संशय भरी आँखें कभी मुंदती- खुलती छोटी बड़ी होती जाती है,इससे आगे भी सोचना की अगले मोड़ के बाद फिर बचा रहेगा समूचा दिन पूरा दिन ओर दोपहर.


उस दिन ठण्ड कम थी पारा ना जाने कितना कम या ऊपर होगा नहीं मालूम लेकिन ये सच है कि ताप मापक यंत्रों ने हर स्थिति में यंत्रणा को  --ठण्ड हो या वर्षा या तेज गर्मी बर्दाश्त करना सीखा दिया ...सूरज को सर चढ़ते- चढ़ते थोड़ा वक़्त जरूर लगा लेकिन ओर दिनों के मुकाबले थोड़ी कम धुंध के  बीच किसी छोटे बच्चे कि तरह आकाश में थोड़ा तिरछा सर करके बादलों के बीच से वह निकल ही आया, एक हल्की सी मुस्कान चेहरे पर झुकती सी कांपती है, ओर किसी परदेसी सी भाग जाती है ...थोड़ी हलचल ओह ये कौन? कठिन  सवाल सा, गुमसुम सा -कुछ सुलगता है थोड़ा सुलझता भी है लेकिन उलझन का पता नहीं चलता ,धूप की तपिश पीठ पर भली लगती है ,इसी दिसंबर सात्र को ठीक से पढ़ना शुरू किया है ''शब्द '' के शब्द -शब्द को पढ़ना मानो अचेतन में कई रंगों की लकीरें घुलती -मिलती है ,अफसोस कैसे छूट गया ..ये सब ख़ास पैरा पेन्सिल से अंडर लाइन होते जाते हें हर दोपहर थोड़ा  फ्री होकर सात्र के साथ बीतती है ..इन दिनों, जाने कितने दिनों ओर ये सिलसिला कायम रह पायेगा कुछ पता नहीं ,फिर गर्मियों की दोपहर में सब कुछ अधूरा रह जाएगा --क्या अब भी लौटा जा सकता है 'हाँ'' के साथ अपने ही सवाल के  जवाब में एक निश्चित निर्णय लगातार अगले क्षण को मुल्तवी करता है फिर भी हैरानी नहीं होती ..बरामदे में रखी कांच की गोल टेबिल पर बिखरी किताबों पर कांच के छोटे टुकड़ों से बनी विंड चाइम हल्की हवा के साथ हिलती है धूप कांच के टुकड़ों से  टकराती छोटे-छोटे गोलों में बंटती हुई शब्दों पर हाय लाईट होती जाती है ...सब कुछ ठीक है हवा उसके धुले -खुले बालों में ठंडक पहुंचाती है ओर धूप नर्म-गर्म गर्मी.ये एक अजीब सा अहसास होता है लेकिन मनचाहा कोई पल रुकता नहीं पल भर को साँसे शून्य के हवाले होती हुई अपनी पूरी ताकत से दौड़ने की कोशिश करती है कई क्षण कई बंधन,-पीडाएं -यातनाएं और खुशियाँ   एक साथ दौडती है लेकिन विंड चाइम यकायक स्थिर  होजाती है,और उसमे लगे कांच से आती रौशनी भी ..  धूप थोड़ा आगे जाकर जामुनी फूलों की लतर पर चिढाती सी पसर जाती है ...एक थकान  और हांफ के साथ रुकना होता है,सब कुछ वहीँ छोड़ते  हुए अंदर की हवा को जोर से साँस लेकर बाहर छोड़ना पड़ता है ,हवा भी अब तक थमने लगती है ...थकी आँखें ठहर -ठहर कर पूरे आँगन का मुआयना करती है ,जिस धूप भरे आँगन में पूरी सर्दियां गुजरती है पतझड़ आते ना आते वो बेगाना बन रह जाता है .थोड़ी गर्म थोड़ी सुनहरी धूप क्रमश मटमैली और ज्यादा गर्म होती जाती है ....जतन से पाले पोसे पौधों का  मुरझाना और कुछ एक का मर जाना तय है,शाम स्थिर  चाल से आगे बढती है अनजाना भय मन में कुड़ मुडाता है ,थोड़े दिन पहले ही तो गमलों की मिटटी बदली गई है,एक बोनसाई की सतह पर पीपल का पत्ता तार-तार हुआ आधी मिटटी और जड़ में दबा अपनी हल्की आवाज में फडफडाता शिकायती नजरों से ताकता है ..हर दिन उसे देखते सुनते पिछला हफ्ता गुजर गया बारिश में जाने कहाँ से उड़ कर  चला आया था,हर दिन तय होता है  कि आज जरूर उसे मिटटी से आहिस्ता से निकाल कर साफ कर और सुखा कर टेबिल के कांच के नीचे रख दूंगी ..मगर वैसा हो नहीं पाता -पत्ता रोजाना कातार-लाचार वहीँ पडा-पडा खुद ही बाहर आने की कोशिश करता है और अपनी इसी नाकाम कोशिश में एक तरफा थोड़ा  ज्यादा ही  जर्जर हो चला है ..देखो तो लगता है मानो किसी बुनकर के अड्डे पर टंका हुआ बुनाई के बुनियादी स्तर पर आधा-अधूरा जिसे  और रंग और धागों से काता जाना शेष हो,,,धूप,टेबिल,कांच,पत्ता, सात्र सब कुछ  वक्त की नजर से नजर अंदाज होते हें, एक पेज पलटता है शाम की जाती धूप कांच के गोलों से रिफ्लेक्ट होकर अंतिम बार अंडर लाइन  हुए शब्दों पर  रूकती है ''में एक बेईमान बन गया और बना रहा हालांकि जो भी कुछ में हाथ में लेता हूँ उसमें पूरी तरह से जुट जाता हूँ चाहे  कोई काम हो ,गुस्सा हो दोस्ती हो ,दूसरे  ही क्षण में उससे इनकार कर देता हूँ में उसे समझता हूँ उसे चाहता हूँ लेकिन अपने आप को भरपूर जोश में धोखा दे  देता हूँ..." हर दिन जड़ों के पास जमीन के भीतर मिटटी में दबे हुए पत्ते की तरह नामालूम सुख क़ी तरह कांच के टुकड़ों से निकली रौशनी में, विश्वास की  देह में, देह के प्रेम में, प्रेम की धडकनों में,आते वसंत की आहट में, फ्रेम में रुकी तस्वीर में... गुनगुनाते  एक मयूरपंखी अन्धकार  बरगलाता है, याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से रात के पिछले पहर रोज जगाती है हमें ...कोई ओर गहराता है सुबह से पहले ठीक  बीच रात संशय भरी आँखें कभी मुंदती- खुलती छोटी बड़ी होती जाती है,इससे आगे भी सोचना की अगले मोड़ के  बाद फिर बचा रहेगा समूचा दिन पूरा दिन ओर दोपहर. कल शुरू करना है सात्र का नाटक 'रास्ते बंद है ''....अभी....

अजब सी बात है, अजब सा ये फसाना है ,
कि अपने शहर में, अपना नहीं ठिकाना है ... (-तेजेंदर शर्मा)