ये एक बात बचपन से सुनती आई हूँ, मेरी नानी कहा करती थी, फिर माँ और जब में खुद एक 18 साल की बेटी की माँ हूँ तो अनायास मेरे मुँह से भी कभी-कभार ये निकल ही जाता है - "तुम (ये) लड़की क्या निहाल करेगी..!!"... लड़कियों से माँ को ही सबसे अधिक अपेक्षा होती है, वो सोचती हैं लड़कियां खाना बनाये दूसरे इतर काम भी करें, यदि छोटे भाई-बहन हो तो उनकी देखभाल और साथ ही उनकी दूसरी ज़रूरतें भी पूरी करें, और यदि लड़की थोड़ी बड़ी हो तो पिता-भाई के हुक्म पर भी दौड़ी-दौड़ी फिरे... मेरी माँ और नानी दोनों एक ही सुर में कहती थी - "एक औरत को एक पल भी होश खोये बगैर जीना चाहिए... चाहे वो सो रही हो, हर पल चौकन्ना और चौकस उसे होना ही चाहिए..."... और भी न जाने किस-किस तरह की हिदायतें... ये पहनो, वो खाओ, ऐसे नहीं वैसे, वो नहीं ये, यूँ नहीं इस तरह... और ऐसी कई बातें जो प्रसंगों की तरह जीवन में जुडती गयी, और जो आज भी याद हैं... कुछ बातें सुनते थे, कभी बगावत भी करते थे - ये बात अलग थी की हमारी बगावतों का वहां कोई असर नहीं होता था! परिवार में उनके हुकूमतों के साथ ही उनके छोटे-बड़े संघर्षों की हिस्सेदार अनायास बेटियां भी होती जाती हैं. नानी अनपढ़ थी किन्तु दुनिया-दारी के पाठ में अव्वल और पारंगत... माँ उस ज़माने की graduate , मेरी नानी 12 घंटे रसोई में खपती थी, माँ आठ घंटे - जिसमे उनके पूजा-पाठ और नोवेल्स पढना भी शामिल था और में अपने किचिन को बमुश्किल सुबह-शाम मिलाकर चार घंटे भी नहीं दे पाती हूँ, अब अपनी बेटी से क्या उम्मीद रखूं? एक हद तक उसकी नूडल्स, बर्गर, पिज्जा की दुनिया है, जिसमे कंप्यूटर, चैटिंग, कॉमिक्स, नोवेल, म्यूजिक (इंडियन / वेस्टर्न दोनों), दोस्त, पढाई भी शामिल है... यह सही है वो रोजाना काम में हाथ नई बंटा पाती लेकिन आकस्मिकता में पूरी तौर पर किचिन में साथ होती है... अक्सर मेरे पति भी कहते है - "तुमने इसे कुछ नहीं सिखाया!". हमारे दूसरे परिवारों में माँ के साथ फुल-टाइम काम करने वाली लड़कियों के उदाहरण और ताने भी सुनने पड़ते हैं... "वो देखो , इतनी पढाई कर रही है, तुम्हारी लाडली सो रही है!".. अब में उनसे क्या कहूँ? एक लड़की की लाखों बेचैनियाँ हो सकती हैं... उसे खुद अपनी तरह से बड़ा होना और इस दुनिया में अपने कायदे करीने से जीना भी तो ज़रूरी है. मन ही मन कहती हूँ, "सुनो! कई चीज़ें है जो लड़कियों के जीवन में बदलनी है.", लेकिन इस बदलाव में कई ताकतें रोड़ा बन जाती हैं... सबसे पहले घर से ही इसकी शुरुआत होती है और उसे हम अनदेखा किये जाते हैं.
अभी जैसे कल की ही तो बात है, छोटी सी थी.. गोद में लिए न जाने कितने काम निपटा लेती थी मैं, कई बार ज़िन्दगी तेजी से बदल जाती है, इतनी कि अजीब किस्म का डर लगता है और हम भौंचक रह जाते है - एक अपराधबोध में घिर जाते हैं... क्या वाकई एक अच्छी माँ बनना मुश्किल है? अपने आप से प्रश्न होता है... अपने बचपन की ओर पलटती हूँ तो कोई बंधन नहीं था बस हिदायतें मिलती थी, ज़बरदस्ती नहीं होती थी... लेकिन नानी, माँ,पिता, बड़े भाई की निगरानी में उनकी मर्जी से सबकुछ सटीक हो जाता था, लेकिन अब हम अपनी कई इच्छाओं की तरह किसी दूसरी इच्छा को भी असंभव मान लेते हैं और इसी असंभव में खो या डूब जाने तक अपने सच को नैस्तानाबूत करके ही दम लेते हैं... और ये सच है अब भी हमारे परिवारों में, समाज में जिस लड़की/स्त्री को रोटी-खाना बनाना ना आता हो वो सुघड़ नहीं मानी जाती. अक्सर जब मेरी बेटी की तुलना परिवार वाले उसकी कज़िन बहनों से करते हैं, मुझे खुद यह सब ठीक नहीं लगता क्योंकि मेरी बेटी वक़्त ज़रूरत खाना तो बना ही लेती है लेकिन साथ ही वह कंप्यूटर संबंधी, बैंक, बाजार, बिल्स आदि कामो के भुगतान के साथ ही दुःख, बीमारी और दूसरे अन्य तकनिकी कामों में भी मेरी मदद कर पाती है... इस मायनो में वो अन्य लड़कियों से तो प्लस हुई,लेकिन उसे मान्यता नहीं मिलती... हमारे यहाँ औसत भारतीय पढ़े -लिखे परिवारों में भी खाना बनाना ही सब कुछ माना जाता है...
स्त्रियों के जीवन में कुछ काम नैसर्गिक होते हैं और मुझे लगता है उन्हें सीखने में कोई तुक नहीं. मेरी माँ ने हमेशा पढने पर जोर दिया, बुनाई-कढाई सीखने के विषय में उनका कहना था - "ये सब यूँ ही पैसों में मिल जाता है.. पर समय नहीं मिलेगा, इसीलिए पढो!".. सच ही है अशिक्षा ही स्त्री के दुखों का कारण है, स्त्री को यदि स्टैंड करना होगा तो उसे पढना ही होगा.. थ्योरी / प्रक्टिकल/ टेक्नीकल सभी कुछ... अपनी बेहतरी के लिए स्त्री को एक बार चीन की तरफ देखना होगा, वहां स्त्री व्यक्ति रूप में जीवित है और अपने स्त्री होने की सीमा तक स्वतंत्र भी है.
शक्ति, सत्ता और वैभव की इस दुनिया में कोई लड़की बाद में स्त्री बनी एक औरत इस दुनिया द्वारा पहले से रूढ़ बना दिए गए निष्कर्षों में ही आखिर क्यूँ जिये -मरे? ताकि उसे खुद लगने लगे की संतुलन बिगड़ा की सब कुछ बिखरा... परम्पराओं से जड़े कट्टर लोग ही नहीं अपितु पढ़ा-लिखा प्रबुद्ध वर्ग भी, आज भी लड़कियों को स्केल, तौल या मीटर से नापते हैं... जैसे उनकी ज़िन्दगी जीने के पैमाने होते हैं, और आप पर भी आसानी से ऊँगली उठा देते हैं, आखिर क्या सिखाया अपने अपनी बेटी को. लेकिन कोई नहीं समझता एक लड़की की आकांशा स्वप्न और उसके भय को स्वीकार करना भी तो ज़रूरी है... कौन जानेगा माँ के पुराने दिल में,बेटी के दिल की ताज़ी धड़कन... क्या ज़रूरी है वो इस समाज-परिवार की मूक प्रतिछाया बनी रहे, बिना कोई प्रतिकार के, पर- दुःखकातरता को सहेजे रहे, एक निशब्द समर्पण जीवन जिये.
मुझे कभी-कभी तेजी से हिचकी आने लगती है... कहते हैं कोई याद करता है तो ऐसा होता है, सात घूँट पानी पी लेने पर हिचकियाँ आप ही बंद हो जाती है, तो कौन याद करता है? किसने याद किया होगा? पिता, भाई, माँ, बहन, छूटा हुआ कोई, कोई दोस्त, कोई परमप्रिय... जाने कौन? एक बार घर-बार छूटा तो बस छूटा, लड़कियों का... बस ऐसा ही झूठा सच जीना होता है, फिर ऐसे में क्या ज़रूरी है ताउम्र, अपनी बेटी के लिए माँ से बेहतर कौन जान सकता है..? अपनी नियति उसे खुद बदलना और निर्धारित करना सिखाना, दुःख के निराकरण के लिए सिर्फ आंसू बहाने की बजाये किसी आपात स्थिति में अपने हिसाब से द्रढ़-हो नियम बनाना, बेशक कोई नियम गड़-बड़ भी हो जाये तो हर्ज क्या है? इतनी बड़ी ज़िन्दगी में दस-बारह फैसले गलत भी हो जाएँ तो आगे आने वाली बड़ी मुश्किलों में वो सहायक ही होगी, एक अच्छे के निमित. मुझे लगता है मेरी बेटी ही नहीं हर लड़की परिवेश की गहरायी में ईमानदार बने रहने मात्र से ही सब कुछ सीख सकती है साथ ही कोरी भावुकता की बजाय प्रेम के घनत्व का महत्व भी समझ सके, बस इसके लिए थोड़ी सी कोशिश करनी ज़रूरी है, अच्छे और बुरे की पहचान करना सीखना भी... आज हर दिन बदलती और नई आयातीत तकनीक और उपभोगतावाद के खतरों और हादसों में जीने-मरने की आदत डालना भी ज़रूरी है, और अपने सामाजिक सरोकारों को भी सुनियोजित करना ज़रूरी है.
मेरी माँ जो व्यंजन बनती थी उनसे बेहतर चाहे मैं नहीं बना पाती हूँ लेकिन उन जैसा मैं भी बना लेती हूँ, घर की साज-संवार, देख-रेख... एक जरुरत और जिम्मेदारी के साथ निभाती हूँ... मेरी बेटी मेरे से बेहतर चायनीज/थाई फ़ूड बना लेती है, तो इसमें कमाल क्या है... मैंने अपनी माँ से सीखा और आज मैं अपनी बेटी से थोड़ी बहुत नहीं, ढेर सी चीज़ें सीखती हूँ, वो कहती है - "सब कुछ आसान है 'माँ'... नेट खोलो, रेसेपी नोट करो, सब कुछ तैयार फटा-फट...", यही सही है, जब चित्त हो; समय हो; कोई मुश्किल ना हो, तभी कुछ बने तो स्वादिष्ट बनता है, और फिर दो माह बाद वो इंजीनियरिंग के लिए अमेरिका चली जायेगी.. जीवन की एक संतुष्ट हंसी और बेफिक्री की दुनिया से दूर तो उसके लिए क्या ये ज़रूरी नहीं है की जो उसे पसंद नहीं- उसका वो मुखर प्रतिरोध कर सके.. आज वो अपने लिए जीना सीखेगी तभी तो कल दूसरों के लिए जीना सीख पायेगी...