सब कुछ तय था जैसे ये भी वो भी,लेकिन कच्ची थी ..उसकी पकड़,रेशमी धागों पर परछाई के जरिये बुनी गई रंग-बिरंगे अहसासों तले,.. ऐसे में हरदम कई-कई सवालों के जवाब अपने होने का सबूत बनकर एक अकाट्य तर्क गढ़ लेते हेँ,आँखें बंद किये एक ही करवट लिए एक घंटे में सात साल बीत जाते हेँ ,कानो के पीछे दर्द की लहर उठती है ..शायद चाय पी लेने से दर्द कम हो जाए...वो उठती है डूबती शाम में ,अलमारी बंद करते-करते उसके पल्ले से जड़ा शीशा और उसमे उभरता अपना अक्स अनजाने दिखाई पड जाता है,दो क्षण वो वैसी ही ठगी सी रह जाती है ..कौन हूँ में? कमरा लगातार अँधेरे में डूबता जाता है शाम ख़त्म रात शुरू होना ही चाहती है ,और रौशनी का होना लाजिमी था. शीशे में उसे अपनी सूरत कुछ अच्छी नहीं लगती सिवाय आँखों के माथे और भावों के बीच छोटी लाल बिंदी थोड़ा सरक कर दाहिने और हो गई थी,हल्दी और कुमकुम जो सुबह पूजा के बाद ठीक बिंदी के नीचे लगाया था फैलकर धुंधला गया था बुझा सा मन चेहरे पर भी उदासी सी पोत चुका था,कुछ दुहराता सा दिल ओह ये क्या हो रहा है मौसम एकदम सर्द है,कई सालों की तरह ये मौसम भी अटपटा ही बीतेगा ,,पिछले मौसम में छूटा हुआ ...कोई भरपाई नहीं वही होगा फिर वहीँ से सोचना होगा कहीं फैलाव कहीं सिकुडन कहीं ख़त्म होने की सूरत में सब कुछ का बदल जाना ,,,,चीजें बंटती है लगता है उन्हें छोड़ दिया जाय या की समेटा जाय ..कुछ खुले से मौसमों को उनकी देहरी से छुडा लाने और अपनी परधि में शामिल करने की कोशिश करना उस मोसम के साथ वो असामायिक जुदाई थी. उसका पसंदीदा मौसम शायद पतझड़ ,एक दुर्लभ आत्मीयता में जीना उन दिनों अपने अनुभवों के आत्मसात होने और फिर अभिव्यक्त होने तक के अपने तर्कों के साथ---सुबह होने तक कुछ और भी गुजरेगा सुबह से पहले जहाँ बहुत सी चीजें खो जाने की अनिवार्य किन्तु तकलीफ देह स्थिति थी तो वहीँ कुछ ख़ुश हो जाने के कारण भी .....लम्बे रागात्मक अभ्यास के बाद शब्दों को ठीक जगहें मिल ही जाती है,साथ ही लेकिन एक स्थाई अंतरा का आलाप जो जहाँ है वैसा ही की शर्त पर रूक सा जाता है ...सारा क्रम टूटता है ना जाने और क्या-क्या किस किस का हिसाब रखूँ, सतर्क आँखे थोड़ा तेजी से अंधेरे में चीजों पर नजर दौडाती हुई अपनी पकड़ को क्रमश मद्धम कर देती है,मानो अँधेरे में ही घूल जाना चाहती है ...अन्धेरा उनींदी शाम को रात तक घसीट ही लाता है ,आखिर तब्दीलियाँ क्यों नहीं चाहता ये मन ,देर रात तक रोकर हंस पढ़ना ,समय का एक हिस्सा उस सड़क से गुजरता है वो शहर वो ढलान वो इमारत जहाँ से सड़क गायब हो जाती है दुखों को निचोड़ने का प्रयास ,सुखों को झटक कर धूप में सुखा लेने की चाहत ,,,कचनार के गुलाबी फूलों का खिलकर सिकुड़कर बेतरतीब हो मुरझा कर, सड़क पर फैल जाना ,,,मौसम की एक दुर्ष्टि उन्हें बुहारती सी लगती है,उनकी देह पर ठंडी हवा निरंतर पछाड़ खाती है उन्हें इधर-उधर अलग-अलग दिशाओं में ठेलती हुई,यहाँ सब कुछ ठीक है ,फिर भी एक झूटा सच सोचते हुए ,उसका दिल डूब सा जाता है भुरभुरी रौशनी में कुछ एक परछाई छत्त से टेढ़ी-आढी सीधी होती दिखाई देती है ,दूर अलग सी ,कांपती सी तेजी से नीचे गिरती हुई..... मुझे उन परछाइयों की आवाज तक सुनाई नहीं देती. [शाख से टूटकर गिरते कुछ पत्तों के लिए रचे अपने शब्दों के संताप और हर मिटटी के हिस्से की वनस्पतियों के लिए ]
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