गुरुवार, 23 अक्टूबर 2008

चकाचौंध करते आकाश की पृष्ठभूमि में सगर्व - "कज्जाक"

इमानदारी से जीने के लिए आदमी को कुछ करने को लालायित होना, चाहिए भटकना और गलतियाँ करना शुरू करना चाहिए और फ़िर से छोड़ना चाहिए और निरंतर संघर्ष करना चाहिए। इत्मीनान और चैन तो मानसिक अधमता है। लेव तोल्स्तोय के ये शब्द - हमारे लिए भी बहुत कुछ स्पष्ट करते हैं, जब भी उनकी बात होती है तो उनके विश्व विख्यात उपन्यास- युद्ध और शान्ति, अन्ना कारेनिना और पुनुरुथ्हन के विषय में ही, लेकिन 'कज्जाक' जिसका शाब्दिक अर्थ है 'आजाद आदमी'। उपन्यास उनके प्रारंभिक उपन्यासों में से हे जो उनके अपने निजी अनुभवों के आधार पर लिखा गया है। १८५१ में २२ वर्ष की उम्र में वे अपने बड़े भाई निकोलाई के साथ 'काकेशिया' गए थे, यहाँ 'तैरक नदी' के पास 'कज्जाक' नामक गाँव में वह लगभग तीन वर्ष तक रहे और काकेशिया में हुई सैनिक कार्यवाही में उन्होंने भाग लिया। उन्होंने ख़ुद लिखा है की - 'अपना सहस परखने और लडाई क्या होती है, देखने के लिए वह यहाँ आए हैं, काकेशिया आकर ही वह लेखक बने।' हालाँकि मोस्को में ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। उनका लघु उपन्यास 'बचपन' था जिसे उन्होंने काकेशिया में ही पूरा किया। उन्ही दिनों पित्तेस्बुर्ग से प्रकाशित होने वाली पत्रिका - 'सोब्रेमिन्नक' के संपादक और रूसी कवि 'निकोलाई नेक्रसो' को जब यह रचना प्रकाशन हेतु मिली वो उससे इतना प्रभावित हुए की इसके लेखक का नाम जाने बिना ही उन्होंने इसे प्रकाशित कर दिया। 'कज्जाक' उपन्यास पर तोल्स्तोय ने १८५२-१८६२ तक काम किया... करीब दस वर्ष। काकेशिया में बिताये वर्षों का उनका अनुभव इसमे प्रतिबिंबित हुआ है। इसमे जन-जीवन का सौन्दर्य और सरलता तथा कुलीन समाज का झूट और पाखंड है। इसका नायक - 'ओलेनिन्न' आत्म-चरित्रात्मक है, जो कुलीन समाज की आलोचना और भर्त्सना करता है, उनसे नाता तोड़ने को भी तैयार है ताकि साधारण लोगो के समीप आ सके, उनका जीवन अपना सके। लेकिन उपन्यास में बांके 'कज्जाक' और 'लुकाश्का', गर्वीली सुंदरी 'मर्मंका' और बुडे शिकारी - 'येरोश्का' और उनके बीच और एक गहरी खाई है जिसे पाटने के सारे प्रयास ओलेनिन्न के व्यर्थ होते जाते हैं। कज्ज़कों के गाँव में ओलेनिन्न परदेसी है, लेकिन एक बात, इस अर्थ में, नायक लेखक से भिन्न है। उन्ही दिनों एक पत्र में उन्होंने लिखा था की काकेशिया में ही उन्होंने जीवन की शिक्षा पायी। सैनिक सेवा के लिए दुसरे स्थान पर जाते हुए अपनी डायरी में लिखा - की काकेशिया से मुझे गहरा अनुराग हो गया है। यह बीहड़ इलाका सचमुच अनुपम है, यहाँ दो विपरीत बातों 'युद्ध और स्वतंत्रता' का विचित्र और काव्यमय संयोजन हुआ है। उसी समय 'कज्जाक' उपन्यास के साथ तोल्स्तोय के लेखन कार्य का पहला दशक पूरा हुआ था। उनके स्रजन में यह उपन्यास एक सीम का महत्व रखता है और फ़िर बाद में विश्व विख्यात उपन्यासों का सिलसिला शुरू हुआ।
यह उपन्यास करीब पंद्रह वर्ष पूर्व पढ़ा था, और हाल ही में दोबारा, जिसे माँ ने उपहार में दिया था। मुझे लगता है कज्जाक को पढ़े बिना तोल्स्तोय को जानना अधुरा होगा।

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2008

अजरा तुम जहाँ हो...

समकालीनता के साथ-साथ परम्परा से भी लगातार रूबरू होना ज़रूरी होता है, परम्परा मैं बहुत सी धाराएं एक साथ चलती हैं जिनसे जरुरी नहीं सभी सहमत हो। लेकिन उनकी मौजूदगी से इंकार एक तरह की हटधर्मिता ही मानी जायेगी। चीजें, व्यक्ति और व्यवस्था एक खुली बहस और वैचारिक संघर्ष से ही आकर ग्रहण करती है।


अजरा... (ख़त एक) -


अपनी पहली पोस्ट मैं अपनी बचपन की मित्र अजरा के लिए लिख रही हूँ... ये ख़त बरसो से दिल-दिमाग में था। ज़िन्दगी के कई ज़रूरी और गैर-ज़रूरी कम करते वक्त बीतता रहा... अजरा तुम कहाँ हो? कल जबकि १४ अक्टूबर को तुम्हारा जन्मदिन भी है, सुबह की ताजा और कच्ची धुप मैं तुम्हे एक बड़ा सा ख़त लिखूंगी।


प्रिय अजरा,


कई दफा हमे अपनी एकांगी सोच से बचना होता है, तुम भी मुझे जहाँ हो याद ज़रूर करती होगी। लेकिन कितनी हैरानी की बात है की सुचना के इस संपन्न- संभ्रांत युग में मेरे पास न तुम्हार टेलीफोन नम्बर है,न सेल और ना ही आई-डी। जब हम आठवी कक्षा में थे तब हमारी पहचान हुई, बरसों पहले से ही, शायद जन्म से ही तुम परम्परावादी धर्म की रस्सियाँ तोड़कर उससे आगे जाना चाहती थी और फ़िर लौटने के बाद सारे रास्ते बंद! आज तुम बहुत याद आ रही हो, तुम्हारी बातें उस वक्त कोई मुल्ला-मौलवी सुन लेता तो उस कुफ्र के लिए तुम्हे उसी वक्त इस्लाम से निकाल खदेड़ देता, तुम्हारे बहुत से सवालों के जवाब उस वक्त मेरे पास नहीं थे सिवाय अपनी अबोध समझाइश के जो तुम्हारे धर्म के बारे में मुझे मालुम थी। अब सोचती हूँ वाकई इस्लाम की बुनियादी अवधारणा पर ही शक करने वाली अजरा तुम्हारा परिवार में रहना उस वक्त कितना मुश्किल रहा होगा।अब ये मेरी ज्यादा समझ मैं आता है. तुम मेरी गहरी दोस्त थी, दिमागी तौर पर तुम जितनी ऊँचाई पर थी उतनी ही शारीरिक तौर पर भी... एक पठानी मुस्लिम लड़की जो औसतन अपनी उम्र से करीब सात -आठ साल बड़ी लगने वाली, बात-बात पर खिलखिलाने वाली। तुम आती और हम बरामदे के बड़े से झूले पर दिनभर बतियाते , तुम्हारा होटों को थोड़ा तिरछा कर हंसने पर मुह के दायें दातों पर अर्धविकसित दांत का चढा होना दीखते ही... आह! कितनी खूबसूरत लगती थी तुम, बस तुम्हारा रंग आम मुस्लिम लड़कियों से अलग था... ना गोरा , ना काला औरत्वचा एकदम चमकीली , उन्ही दिनों हमने आज के गुज़रे ज़माने की अभिनेत्री - मौसमी चेत्तेर्जी , जो हुबहू तुम्हारी शक्ल मिलती थी की एक फ़िल्म कृष्णा टाकिज में देखी थी। आज वहां एक बड़ा शौपिंग मॉल बन गया है, खुदा जाने , तुम्हे याद है की नहीं जहाँ बैठकर हमने पूरी दुनिया को भुलाकर 'मंजिल' का शो देखा था, शो ख़त्म होने के बाद बारिश हो रही थी, और तीन किलोमीटर का रास्ता घर तक हमने पैदल ही तय किया था... तुम अपना बुरखा पहन कर लौट गई थी।अजरा बस कल शाम कुछ मेहमान आए देखा कांच के ग्लास ज़यादातर मेरे घर में बेजोड़ हो चुके हैं, पति की तमतमाई आँखें देखी, हालाँकि अब कई बातें बेअसर होने लगी हैं। वैसे अजरा १७-१८ साल की गृहस्ती मैं कोई औरत हमेशा चीजों की देखभाल कैसे करती रह सकती है? यूँ तो मैं आम औरतों की तुलना मैं अपने घर की सार-संभार थोडी अच्छी तरह स करती हूँ और अपने को १०० में स ७५ नम्बर देती हूँ इसीलिए मैंने सोचा कुछ अच्छे ग्लासों की खरीदारी कर लूँ वैसे मैं यहाँ हजारों बार आई हूँ लेकिन तुम इतनी शिद्धत स जेहन में कभी नहीं उभरी। कांच की चीजों स मुझे वैसे भी हमदर्दी कभी नहीं रही उन्हें काम वाली बाई तोडे या मेहमान या वो अपने हाथ से छूटकर 'चन् से ' टूट जाए अथवा गैर-जिम्मेदार बातूनी माँओं के बच्चे उन्हें खिलौना समझकर फर्श पर पटक दे। मुझे कभी दुःख नहीं होता यकीन मानो सिर्फ़ कांच की किरचों को उठाते मैं बेहाल हो जाती हूँ... घर लौटी तो...

शनिवार, 18 अक्टूबर 2008

शालमल्ली अब फूल नहीं बेचती..


शालमल्ली अब फूल नहीं बेचती...


शालमल्ली एक जादुई सच थी, पाँच पैबंद का एक गाम्ठी लहंगा पहने

जिसपर खुशबुएँ निर्बाध तैरती थी, जो अब ठिठुरेगी इस शीत मैं...

घास की ताजा पत्तियों की नियति में, उसकी उदासी मैं जज्ब हो गई है,

सितारों की राख; आसमान की स्याही जो बनती है गवाह, लिखती है - "ऐ खुदा!"

वो सब रद्द किया जाए, कहा-सुना माफ़ और विलोपित। मुड़कर देखा गया भी

गोपीनाथ बारदोलाई मार्ग से जब गुजरा था एक घुड़सवार ; हाथों में चाबुक,

आखों में प्रेम, मन में उत्ताप लिए कई बार...

शालमल्ली दौडी थी उसके पीछे हर बार , फूलों का एक गुच्छा लिए।

पिछले दिनों दिल्ली बम-धमाकों के बाद, शिनाख्त के लिए उसे बुलाया गया

उस घुड़सवार , डॉन जूआन के पैरों तले शालमल्ली का हाथ था,

लिली, मुंडासा, दहेलिया, चंपा के नीले-पीले-जामुनी और गुलाबी

मुरझाये फूलों का गुच्छा, और बंद हथेलियों में चाबुक के निशान।

पूरी शिष्टता और संजीदगी से उसने उसके विक्षत, हाथ विहीन शव को पहचान लिया।

एक संवाद टूट गया।

मृत्यु की अनेक कहानियो की तरह,

शालमल्ली अब वहां फूल नहीं बेचती।

राजमार्ग पर प्रवेश निषेध है,

उसका सनातन प्रेमी अब मूर्तिकार बन गया है-

जो अब शाल्भंजिकाएं बेचता है...

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2008

एक रिपोतार्ज़ ख़त..अजरा तुम कहाँ हो?

अजरा तुम जहाँ हो.....


घर लौटी तो चार पाँच घंटे का एकांत है मेरे इर्द गिर्द तुम ही तुम घूम रही हो याद है ग़ालिब फैज़ तोल्स्तोय शरत यहाँ तक की शिव पुराण भी बहुधा हम साथ साथ पढ़ते थे शिव पुराण माँ तुम्हे कितने सटीक ढंग से समझाती थी ,लेकिन सच बताऊँ माँ की कई बातें उनके इतने पढ़े लिखे होने और साफ नजरिये के बावजूद,मैं नही जान पाई जैसे की जब भी तुम आती वो अंदर बुलाकर तुम्हे कांच के बर्तनों मैं ही खाने पीने की चीजें देने की हिदायतें देती और तुम्हारे जाने के बाद उन्हें गर्म पानी से साफ करने या किचिन के पीछे रखवाने तक और भी बहुत कुछ,जो इस्लाम और हिंदू मैं विभेद करती है शायद उन पर उनका कट्टर ब्राहमण होना उस वक्त हावी होजाता था उन पर बेहद गुस्सा आता लेकिन एक तरह से उनकी हुकूमत मैं जिन्दगी जीने के अलावा कुछ आता भी तो नही था,फिर भी माँ के प्यार मैं कोई कमी नही थी, और फिर एक बार उनकी अनुपस्थिति मैं तुमने भाभी की खूबसुरत साढी पहनी बिंदी लगाई जाने कैसे उन्हें पता चल गया तुम छह महीनो तक घर नही आई वो खामियाजा मुझे भुगतना पढा,भाभी ने ही किसी कडुवाहट के तहत तुम्हे बताया था ,बस उस एक छोटे सेहमारे बीच आए अवरोध के अलावा कभी कुछ नही हुआ,तुम भूगोल की और मैं हिन्दी की छात्रा,तुम मैं जो खूबियाँ थी मैं उन पर दिलोंजान से फिदा थी तुम चुप्पा और गंभीर किस्म की और मैं तुमसे उलट,फिर भी हमारी तुम्हारी रुचियाँ एक सी थी,तुम्हे मेरे यहाँ बेसन भरी मिर्ची कोथ्म्बीर की वरी और ककडी का थालीपीठ ,लहसून का थेसा बेहद पसंद था बस माँ तुम पर यहीं जयादा मेहरबान होती और भरपेट से भी अधिक खिलाती थी,


यूँ जिन्दगी मैं कई चीजों के कोई मायने नही होते अजरा लेकिन इतनी लम्बीचौडी जिन्दगी मैं कई लोग मिलते बिछड़ते हैं कभी फर्क पड़ता है और कभी नही, तुम याद आई तो बस आती चली गई मेरे और तुम्हारे इस किस्से मैं बीता हुआ बहुत कुछ ऐसा भी है जिसे हम चाह कर भी नही लौटा पायेंगे तुम इसे कभी पढो शायद..वो तुम्हारा बेवफा प्रेमी पिछले हफ्ते बुक्स वर्ल्ड पे यदि नही मिलता तो मैं तुम्हे ऐसे ही थोडा बहुत याद करके भूल भाल जाती ,वो अपने दो अब्लू गब्लू से बच्चों के साथ था,मैंने उसे हिकारत से देखा पर उसे कोई फर्क नही पढा,बेशर्मी की हँसी के साथ वो बोला और कैसी हैं आप ,कुछ बोलने के पहले ही उसकी कश्मीरी सी दिखने वाली बीवी ने मेरी और देखा इतवार की वजह से भीड़ भी थीऔर जाहिर है मैं कुछ जवाब दिए बिना निकल आई,सच अजरा वो तब भी तुम्हारे काबिल नही था,तुम कितना रोई थी और मेरा गुस्सा ये था की तुम रोजाना मिलती रही फिर भी मुझे कानो कान ख़बर नही होने दी फिर भी मैंने तुम्हे समझाया था नाहक उस सडियल के लिए रो रही हो,तुम्हारी पसंद पे मैं अफसोस करने के सिवाय कर ही क्या सकती थी,.....