मंगलवार, 25 मार्च 2025

रिश्तों का अवमूल्यन

 रिश्तों का अवमूल्यन होना दुखद होता है, लेकिन  उन्हें बचाना और निभाना भी जरूरी हो तो बहुत कुछ किया जा सकता क्या हम शब्द या व्यवहार से रिश्ते में दरार पैदा कर रहे हैं?सोचना जरूरी है बिना गिले-शिकवे जमा किए खुलकर बात करना एक विकल्प हो सकता है

अपनी भावनाओं को स्पष्ट करना और दूसरे की भावनाओं को समझने की कोशिश करना जरूरी हो सकता है

ज्यादा अपेक्षाएँ रिश्ते को बोझिल बना देते है

व्यावहारिक और यथार्थवादी उम्मीदें ही सही है

यदि एक का भी सम्मान कम हो जाए, तो रिश्ता कमजोर हो जाता है।

एक-दूसरे की भावनाओं, सोच और स्वतंत्रता का सम्मान करें।

यदि रिश्ते में विश्वास की कमी आ गई है, तो इसे धीरे-धीरे पुनः स्थापित करें।

अपने शब्दों और कार्यों में स्थिरता बनाए रखें।

हर बातचीत में आलोचना करने से बचें।

छोटे-छोटे पलों में खुशी ढूंढें और साझा करें।

कभी-कभी दूरी बनाए रखने से चीजें स्पष्ट होती हैं।

यदि रिश्ता बहुत तनावपूर्ण हो गया है, तो थोड़े समय के लिए  दूर हो जाना ठीक होगा

छोटी-छोटी बातों को पकड़कर बैठने से रिश्ता और कमजोर होता है।गलतियों को माफ करके नए सिरे से शुरुआत करें।

हर रिश्ता समय के साथ बदलता है।

नई परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालें।

रिश्तों को निभाने के लिए धैर्य, समझ और निरंतर प्रयास की जरूरत होती है। अगर रिश्ते में कोई मूल्य नहीं बचा है, तो खुद को तकलीफ देने की बजाय उसे छोड़ना भी एक विकल्प हो सकता है।

सबसे बड़ी बात एक की समझ कम है या अनपढ़ है तो फिर खुद के विवेक से काम लें कि निभाना है या नहीं 

(चित्र गूगल से)

She for we

 आज महिलाओं से संबंधित आंदोलनों पर कुछ पढ़ रही थी तो यह जानकारी सामने आई जिसे साझा कर रही हूं इनमें से एक है

"She" फॉर वी (She for We) अभियान –यह भारत सरकार द्वारा महिलाओं के सशक्तिकरण और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए चलाया गया अभियान है

 "She Leads" प्रोग्राम –यह भी कई देशों में एक पहल है, जो महिलाओं को नेतृत्व में आने के लिए प्रेरित करती है।

"She" – महिला केंद्रित योजनाएँ है जो – कई सामाजिक संगठन के साथ "She" नाम से महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और सुरक्षा से जुड़ी पहल चलाते हैं।

"HeForShe" यह आंदोलन – संयुक्त राष्ट्र द्वारा लैंगिक समानता के लिए चलाया गया एक वैश्विक अभियान है जिसमें पुरुषों को भी महिलाओं के अधिकारों के समर्थन में आगे आने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

 इसमें विभिन्न पृष्ठभूमियों की महिलाएँ आत्मविश्वास के साथ खड़ी होकर  शिक्षा, रोजगार और लैंगिक समानता पर काम।करती है


#इक गांव तेरा है मेरे गांव में

 #इक गांव तेरा है मेरे गांव में


मध्यप्रदेश की शिक्षा प्रणाली में बड़ा बदलाव

मध्य प्रदेश में अब शिक्षा प्रणाली में बड़ा बदलाव होने जा रहा है। सीबीएसई (CBSE) की तरह, अब एमपी बोर्ड की 10वीं और 12वीं की परीक्षा साल में दो बार होगी। यह नई व्यवस्था 2024-25 सत्र से शुरू होगी। पहली परीक्षा फरवरी-मार्च में होगी और दूसरी परीक्षा जुलाई-अगस्त में होगी। स्कूल शिक्षा विभाग ने इस बदलाव के लिए माध्यमिक शिक्षा मंडल 1965 में अमेंडमेंट कर नोटिफिकेशन जारी की है।

राजपत्र के अनुसार ऐसे छात्रों को जो द्वितीय परीक्षा में बैठने वाले हों, द्वितीय परीक्षा का रिजल्ट आने तक अगली उच्चतर कक्षा में अस्थायी प्रवेश ले सकेंगे। ऐसे छात्र जो मंडल की प्रथम परीक्षा के परिणाम में एक या एक से अधिक विषयों में अनुपस्थित एवं अनुत्तीर्ण रहे है, वह द्वितीय परीक्षा में सम्मलित हो सकेंगे। किसी विषय में उत्तीर्ण भी अंक सुधार सकेंगे।

एक से ज्यादा विषय में श्रेणी सुधार संभव

● प्रथम परीक्षा में उत्तीर्ण रहे छात्र एक या एक से अधिक विषयों की द्वितीय परीक्षा में सम्मलित होने के पात्र होंगे।

● प्रायोगिक विषयों में कोई छात्र प्रथम परीक्षा की प्रयोगिक व आंतरिक परीक्षा में केवल अनुत्तीर्ण भाग में सम्मलित होने के लिए पात्र होगा।

● द्वितीय परीक्षा में सम्मलित होने के लिए छात्र को निर्धारित शुल्क के साथ परीक्षा आवेदन पत्र भरना अनिवार्य होगा, पर द्वितीय परीक्षा के दौरान छात्र द्वारा प्रथम परीक्षा में लिए गए विषय में परिवर्तन की अनुमति नहीं दी जाएगी।

विद्यार्थियों के लिए नई प्रक्रिया

द्वितीय परीक्षा (Second Exam) में शामिल होने के लिए विद्यार्थियों को एप्लीकेशन लेटर भरना अनिवार्य होगा। लेकिन, परीक्षा के समय विषय में कोई बदलाव की अनुमति नहीं होगी। इसके अलावा, जिन छात्रों ने पहले परीक्षा में एक या एक से अधिक विषयों में एब्सेंट या फेल्ड पाया हो, वे अब द्वितीय परीक्षा में शामिल हो सकते हैं।

कैसे तैयार होगा वार्षिक परिणाम?

दोनों परीक्षाओं में प्राप्त अंकों के आधार पर छात्रों का वार्षिक परिणाम तय किया जाएगा।

द्वितीय परीक्षा में केवल वही छात्र शामिल हो सकेंगे, जिन्होंने पहली परीक्षा दी हो।

छात्र अंक सुधार या फेल हुए विषयों में दोबारा परीक्षा दे सकेंगे।

अस्थायी प्रवेश और अन्य नियम

द्वितीय परीक्षा देने वाले छात्र अगली कक्षा में अस्थायी प्रवेश ले सकेंगे, लेकिन अंतिम परिणाम आने तक उनकी उपस्थिति प्रोविजनल होगी।

प्रायोगिक विषयों में केवल अनुत्तीर्ण भाग की ही दोबारा परीक्षा दी जा सकेगी।

छात्र परीक्षा शुल्क भरकर ही द्वितीय परीक्षा के लिए आवेदन कर सकेंगे।

पहली परीक्षा में चुने गए विषय बदलने की अनुमति नहीं होगी।

CBSE की तर्ज पर MP बोर्ड का कदम

इससे पहले, केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल (CBSE) ने भी अगले सत्र से 10वीं और 12वीं की परीक्षाएं साल में दो बार आयोजित करने का फैसला किया था। MP बोर्ड ने भी इसी मॉडल को अपनाया है। हर साल MP बोर्ड की परीक्षाओं में लगभग 18 लाख छात्र शामिल होते हैं।

पूरक परीक्षा की जगह द्वितीय परीक्षा

पहले बोर्ड की मुख्य परीक्षा के बाद जुलाई में पूरक परीक्षा होती थी, लेकिन अब इसकी जगह द्वितीय परीक्षा ली जाएगी। इससे छात्रों को अधिक मौका मिलेगा और रिजल्ट की प्रक्रिया भी पहले से बेहतर होगी।

इस नई व्यवस्था पर 15 दिनों के भीतर सुझाव या आपत्तियां आमंत्रित की गई हैं। उसके बाद इसे अंतिम रूप देकर लागू कर दिया जाएगा।

दोनों परीक्षाओं के आधार पर तैयार होगा रिजल्ट

    द्वितीय परीक्षा में वही विद्यार्थी शामिल होंगे, जिन्होंने पहली परीक्षा दी है। इसके बाद बोर्ड की पहली परीक्षा और दूसरी परीक्षा में प्राप्त अंक के आधार पर वार्षिक परीक्षा का परिणाम तैयार किया जाएगा।

    उल्लेखनीय है कि हाल ही में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल (सीबीएसई) ने भी अगले शैक्षणिक सत्र से दो बार 10वीं और 12वीं की परीक्षा कराने का निर्णय लिया था। इसी तर्ज पर मप्र बोर्ड भी आगे बढ़ा है।

    मप्र माध्यमिक शिक्षा मंडल की 10वीं व 12वीं परीक्षा में हर साल करीब 18 लाख विद्यार्थी शामिल होते हैं। बोर्ड की अभी तक एक ही परीक्षा फरवरी या मार्च में होती थी। मुख्य परीक्षा के रिजल्ट के बाद जुलाई में पूरक परीक्षा आयोजित की जाती थी, जिसे अब नई व्यवस्था में नहीं कराने का निर्णय लिया गया है।

अब ऐसी रहेगी व्यवस्था

द्वितीय परीक्षा में बैठने वाले विद्यार्थी पूर्ण परीक्षा परिणाम घोषित होने तक माध्यमिक शिक्षा मंडल या महाविद्यालय द्वारा संबद्धता प्राप्त संस्था के प्रधानाचार्यों से अनुमति प्राप्त कर अगली कक्षा में अस्थायी प्रवेश ले सकेंगे।

ऐसे विद्यार्थियों के लिए, जो मंडल की प्रथम परीक्षा के परीक्षा परिणाम में एक या एक से अधिक विषयों में अनुपस्थित अथवा अनुत्तीर्ण रहे हों, द्वितीय परीक्षा में शामिल हो सकेंगे।

ऐसे अभ्यर्थी, जो किसी विषय में उत्तीर्ण हो गए हों, वे भी अंक सुधार के लिए द्वितीय परीक्षा में शामिल हो सकेंगे।

प्रथम परीक्षा में उत्तीर्ण रहे विद्यार्थी भी एक या एक से अधिक विषयों में द्वितीय परीक्षा में शामिल हो सकेंगे।

प्रायोगिक विषयों में कोई विद्यार्थी प्रथम परीक्षा की प्रायोगिक/आंतरिक परीक्षा के केवल अनुत्तीर्ण भाग में शामिल होने के लिए पात्र होगा।

द्वितीय परीक्षा में शामिल होने के लिए विद्यार्थी को आवेदन-पत्र भरना अनिवार्य होगा, लेकिन द्वितीय परीक्षा के दौरान विद्यार्थी द्वारा प्रथम परीक्षा में लिए गए विषय में परिवर्तन की अनुमति नहीं होगी।


सोमवार, 17 जुलाई 2023

 अपना एमपी गज्जब है..91

मिर्च का नाम जलेबी रखा

पर न हुई वो मीठी...

अरुण दीक्षित

अक्सर कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है!आप तो काम देखो!काम से ही पहचान बनती है!फिर वो चाहे व्यक्ति हो या कोई संस्था! इन दिनों इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए एमपी में एक ऐसा उदाहरण देखने को मिल रहा है जो यह साबित कर रहा है कि नाम चाहे जो रख लो पर काम नही बदलेगा!

 आप सही समझे!मैं व्यापम (व्यवसायिक परीक्षा मंडल) से कचबो (कर्मचारी चयन बोर्ड) तक सफर कर चुके सरकारी संस्थान की ही बात कर रहा हूं।पिछले एक दशक से अपने "कुकर्मों" की वजह से पूरी दुनियां में चर्चित इस संस्थान के नाम तो बदल रहे हैं पर चरित्र जस का तस है! दस साल पहले मेडिकल भर्ती परीक्षा में बड़े घोटाले की वजह से चर्चा में आया यह संस्थान अब पटवारी भर्ती में घोटाले को लेकर चर्चा में है।इसकी वजह से सरकार बैकफुट पर आ गई।मजे की बात यह है कि इस बार भी घोटाले के तार सत्तारूढ़ दल से ही जुड़े हैं!

 पटवारी भर्ती घोटाले पर बात करने से पहले एक नजर इस संस्थान पर डालते हैं।1970 की बात है।तब पंडित श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री थे।उन्होंने मेडिकल कालेजों में भर्ती के लिए होने वाली परीक्षाओं को कराने के लिए एक बोर्ड बनाया।नाम रखा गया प्री मेडिकल टेस्ट बोर्ड।यह नाम करीब 12 साल तक चला।

 लगभग एक दशक बाद 1981में इसी तरह का एक बोर्ड इंजीनियरिंग परीक्षा के लिए बनाया गया।उस समय अर्जुन सिंह राज्य के मुख्यमंत्री थे।एक साल बाद दोनों बोर्ड का आपस में विलय करके एक नया बोर्ड बनाया गया।उसका नाम रखा गया - प्रोफेशनल एक्जामिनेशन बोर्ड!हिंदी में नाम हुआ - व्यावसायिक परीक्षा मंडल।जो व्यापम नाम से मशहूर हुआ।

 गठन के करीब 30 साल तक व्यापम आम  सरकारी संस्थान की तरह चलता रहा।उसके भीतर क्या चल रहा है,इसके बारे में कभी कोई खास चर्चा नही हुई।इस दौरान कई सरकारें आई और गईं।किसी का ध्यान व्यापम के "चरित्र" पर नही गया।

 साल 2013 ! मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान।बीजेपी की दस साल पुरानी सरकार!दस साल की कांग्रेस सरकार की कमियों के भरोसे राज्य के लोगों का भरोसा जीतती आ रही बीजेपी सरकार को व्यापम ने बड़ा झटका दिया।अचानक यह राज खुला कि व्यापम में बैठे अफसरों ने सरकार के इशारे पर बड़ा खेल किया है।एक नेटवर्क के जरिए अयोग्य छात्रों को परीक्षा में पास कराया गया।इसके लिए मोटी कीमत ली गई। इस "कीमत" में दलाल,नकली छात्र,बोर्ड के अफसर - कर्मचारी,सरकार 

,निजी मेडिकल कालेजों के मालिक,बीजेपी के नेता और उनके मातृ संगठन के माननीय भी हिस्सेदार बने।

 व्यापम का यह घोटाला जब खुला तो देश भर में हंगामा हुआ।राज्य सरकार कटघरे में आई।खुद मुख्यमंत्री पर कांग्रेस ने गंभीर आरोप लगाए।पहले राज्य सरकार की एटीएस ने जांच की।उसने शिवराज सरकार के मंत्री स्वर्गीय लक्ष्मीकांत शर्मा के साथ साथ व्यापम के अधिकारी पंकज त्रिवेदी,नितिन महेंद्र,अजय सेन और सी के मिश्रा को भी गिरफ्तार किया।निजी मेडिकल कालेजों के मालिक और अधिकारी भी पकड़े गए।

 मामला स्थानीय अदालत से होते हुए देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंचा।उसके आदेश पर सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू की जो आज भी जारी है।

 इस मामले में सैकड़ों लोग गिरफ्तार हुए।दर्जनों लोगों की संदिग्ध मौतें हुईं।आरोपों की जद में सीएम हाउस भी आया।लंबे समय तक यह मामला पूरे देश में छाया रहा।

 मेडिकल भर्ती परीक्षा की जांच के दौरान यह भी पता चला कि व्यापम ने इसके अलावा और जो परीक्षाएं कराई हैं,उन सभी में घपला हुआ है।खूब हंगामा हुआ।विधानसभा में जमकर आरोप प्रत्यारोप हुए।इस दौरान कई लोगों ने अपना मुंह बंद करने की भरपूर "कीमत"   वसूली तो कुछ को मुंह बंद रखने के लिए "समर्थन मूल्य" दिया गया।यह बात भी उसी दौरान सामने आई।

 भारी बदनामी और हंगामे के बीच राज्य सरकार ने तमाम फसाद की जड़ बने व्यापम का नाम बदलने का ऐलान कर दिया। हिंदी की हिमायती बीजेपी की सरकार ने व्यापम के मूल अंग्रेजी नाम को ही प्रचलन में लाने का आदेश दिया।इस आदेश के बाद सरकारी अमले ने व्यापम का नाम मिटा कर हर जगह पीईबी (प्रोफेशनल एक्जामिनेशन बोर्ड) लिखवा दिया।सरकारी रिकॉर्ड में व्यापम पीईबी हो गया।लेकिन लोगों की जुबान पर यह नाम नहीं चढ़ा। चढ़ता भी कैसे? खुद भोपाल नगर निगम ने अपने बस अड्डे पर बड़ा बड़ा लिखवाया - व्यापम चौराहा।

 इस बीच 2018 आ गया।लोग जेल आते जाते रहे।एक लक्ष्मीकांत शर्मा को छोड़ कोई दूसरा सत्ताधारी नेता नही पकड़ा गया।अन्य दलों के भी कुछ नेता पकड़े गए।लेकिन धीरे धीरे सब छूटते रहे।जांच चालू है साथ ही वसूली भी।

 2018 में बीजेपी की सरकार चली गई।लेकिन 15 महीने बाद ही,जैसा कि आरोप कांग्रेस लगाती  है, उसके कुछ विधायकों और एक बड़े नेता को मुंहमांगा "समर्थन मूल्य" बीजेपी ने फिर अपनी सरकार बना ली।शिवराज सिंह चौहान फिर मुख्यमंत्री बने।इसके बाद उन्होंने एक बार फिर व्यापम का नाम बदला।व्यापम से पीईबी बना यह संस्थान अचानक कचबो (कर्मचारी चयन बोर्ड) हो गया।2022 में व्यापम ने कचबो तक का सफर पूरा किया।

 नाम तो बदल गया पर संस्थान का डीएनए नही बदला।आजकल वह फिर चर्चा में है।इस बार उस पर रेवेन्यू सिस्टम की जान माने जाने वाले पटवारियों की भर्ती में घोटाला करने का आरोप लगा है।इस घोटाले में कचबो के साथ एक बीजेपी विधायक के कालेज का भी नाम आया है।

 विपक्ष ने विधानसभा में मामला उठाना चाहा तो अध्यक्ष ने अनुमति नहीं दी। 5 दिन चलने वाला विधान सभा का मानसून सत्र मात्र दो दिन में ही खत्म हो गया।इन दो दिनों में भी सिर्फ करीब ढाई घंटे ही सदन का कामकाज हुआ।सरकार के प्रवक्ता ने इस मुद्दे पर विपक्ष को ही कटघरे में खड़ा कर दिया।उन्होंने अपनी सरकार का इतनी ताकत से बचाव किया कि ऐसा लगा जैसे विपक्ष ने ही पटवारी परीक्षा कराई हो।

 लेकिन अगले ही दिन जब पूरे प्रदेश में बड़ी संख्या में बेरोजगार युवा इस घोटाले के खिलाफ सड़कों पर उतरे तो खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने पटवारी भर्ती परीक्षा की जांच कराने की घोषणा की।जांच कैसे होगी और कौन करेगा यह बाद में बताया जाएगा।

 कांग्रेस हमलावर है।वह सीबीआई से जांच की मांग कर रही है।उसके शीर्ष नेतृत्व ने भी पटवारी भर्ती घोटाले को उठाया है।उधर भर्ती परीक्षा में बैठे 12 लाख से भी ज्यादा युवा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।जो चुन लिए गए हैं अब वे भी परेशान हैं। शुरुआती दौर में जो तथ्य सामने आ रहे हैं वे यह बता रहे हैं कि पटवारी भर्ती में भी जम कर लेन देन हुआ है।एक बस्ते में कालेज चलाने वालों ने मात्र कुछ लाख रुपयों की एवज में उन लोगों को "पटवारी का बस्ता"(रेवेन्यू रिकॉर्ड) थमाने की व्यवस्था कर दी जिन्हें यह भी नही मालूम कि एमपी में कितने जिले और संभाग हैं।चुनाव सिर पर हैं! इसलिए हंगामा चल रहा है।

 इस हंगामे के बीच यह बात तो समझ में आई कि नाम से कुछ नही होता!जो जैसा होता है वैसा ही रहता है।व्यापम ने ही 41 साल में तीन नाम पा लिए लेकिन उसका काम वही रहा।हमारे गांव में कहावत है - मिर्च का नाम जलेबी रक्खा..पर न हुई वो मीठी! ऐसा ही कुछ व्यापम के साथ हो रहा है।अब कुछ भी हो पर एक बात पक्की है !अपना एमपी है तो गज्ज़ब!है कि नहीं!?

 18 जुलाई 2023




सोमवार, 10 जुलाई 2023

उस दिन कितने पत्ते झड़े थे

 #एक धुकधुकी कलेजे से उतर अक्सर उसकी हथेलियां थाम लेती है आधी रात,

फिर उसके बरअक्स रखकर खुद को सोचना

मैंने सुना  है कि उसके आँगन में एक नीम का  बड़ा सा पेड़ है, ठीक वैसा ही जैसा मेरे घर के आँगन में और  मोड़ पे है ,जब तेज हवाएँ और आंधी चलती है, बरसात होती हैं बिजली चमकती है तो वो नींद से जाग दूर तक -------- अंधेरों में झांकता है कभी कभार -बदली से निकलते  छुपते चाँद की हल्की रौशनी में नीम की  पत्तियों पे पड़ी बूंदें फिसलती है ,और वो टकटक उन्हें देखा करता है ,तब उसके अंदर का वैभव चेहरे पर दमकता है ,यहाँ भी नीम की टहनियां झूमती है तब मन बेहद पीछे चला जाता है 

देर रात किताबों को समेटना  --मोबाईल ऑफ करना -- ठंडे पानी के घूंट भी  कलेजे को नही राहत देती ,पैरों को सिकोड़ लेना फिर लिहाफ में ढँक लेना -हाथों को मोड़कर गर्दन को सिर को मुड़ी हुई बाँहों में धंसा देने के बावजूद नींद आने की कोशिशें भी कभार  बेकार हो जाती है तो फिर परदों को सरका कर बाहर देखने लगना यही होता रहता है, जब तुमसे बात हुए बगैर दिन और आधी रात बीती जाती है

अक्सर बैचनियों में  ऐसा होता है  अपनी असहायता  से तकलीफ भी होती है लेकिन फिर भी--रात गुजर जाती है---

सुबह नीम के हरे -पीले पड़े गीले पत्तों से आँगन

पट जाता है फिर नए सिरे से दिन को शुरू होना होता है

(उस दिन कितने पत्ते झड़े थे जब उस मोड़ से मुड़ते हुए देखा था तुम्हे अपने घर से--और जो

 कहने से बच  गया याद रह गया

 जो सच में सच से ज्यादा था 

नीम के मोड़ पे "-

(कुछ फुटकर नोट्स)

री पोस्ट -

क्या हम पशु हैं ?

 #एक अखबार ने लिखा है ,"क्या हम पशु हैं" 

घटना यूं है कि एक कार्यक्रम के  दौरान सीधी जिला जनपद (मध्यप्रदेश )  में  भाजपा के विधयाक प्रतिनिधि आरोपी प्रवेश शुक्ला ने फुटपाथ पर  बैठे कोल आदिवासी युवक पर पेशाब कर दी ,इस घटना का वीडियो वायरल होने पर मुख्यमंत्री ने आरोपी को एन एस ए के तहत कार्रवाई के निर्देश दिए हैं ,हालांकि आरोपी भारतीय जनता युवा मोर्चे का प्रतिनिधि रह चुका है 

अब आते हैं इस वाक्य पर कि "क्या हम पशु हैं" जवाब होगा नही ,लेकिन हम पशु से बद्दतर है क्योंकि किसी राह चलते या बैठे व्यक्ति पर कभी कोई पशु पेशाब नही करता, ना करी होगी 

 9 अगस्त को हम विश्व आदिवासी दिवस मनाते हैं 9 अगस्त 1982 को  UNO ने इसकी घोषणा की थी जिसके अंतर्गत आदिवासियों के मानवाधिकारों को लागू करने उनके संरक्षण के लिए आदिवासी दिवस मनाने की अपील की गई थी उस समय संयुक्त राष्ट्र महासभा के घोषणापत्र में अदिवासियों के  अधिकारों के विषय में घोषणा की गई 

इसके अनुच्छेद 7 के पैरा 2 में कहा गया है

आदिवासियों को विशिष्ट व्यक्तियों की तरह ही स्वतंत्रता शांति सुरक्षा के साथ जीने का सामूहिक / एकल अधिकार होगा और उनके प्रति किसी भी तरह का नरसंहार या हिंसक कार्यवाही नही की जा सकेगी, यह एक ऐसी घटना है जिसने सभ्य कहलाने वाले हमारे समाज पर कस कर तमाचा जड़ा है

मनोविज्ञान कहता है ऐसे  व्यक्ति किसी  विकृति के कारण ऐसे आचरण करते हैं ,तो सवाल है ऐसे तथाकथित सभ्य समाज में पैदा कैसे हो जाते हैं , और जनता के प्रतिनिधि तक बन जाते हैं,यदि  होते हैं तो उनकी परवरिश में क्या कमी रह जाती है बहुत सारे सवाल उठ खड़े हुए हैं,क्या हम 16 वी सदी में आ खड़े हुए हैं - क्या आज़ादी के बाद हम रोटी कपड़ा मकान के आगे नही बढ़ पाये शिक्षा या उच्च शिक्षा के साथ बुनियादी शिक्षा में पिछड़ गए ,क्या कानून के लिए कानून बनाकर अपने समाज के पिछड़े दलित,गरीब कमजोर को हमने बेसहारा नही छोड़ दिया, कोई पावर फुल नेता / आदमी है क्या इन लोगों के लिए, लचर कानून और न्याय व्यवस्था के बीच लंबी खाई है,इस घटना ने साबित कर दिया है गरीबों के लिए मान  सम्मान के कोई मायने नही --आप उनके लिए योजनाएँ  बनायें ,उन्हें पैसा बांटे उन्हें रोटी कपड़ा और मकान दे दें ,फिर उन पर यह अमानवीय कुकृत्य करें ,शर्मनाक है यह

इस घटना के बाद में उस वीडियो को यहाँ शो करना असभ्यता समझती हूँ , आप तय करिये ऐसे नारकीय लोगों की सज़ा क्या हो, क्या उन्हें आदिवासी अधिकारों के तहत सज़ा देकर  आपका कर्त्तव्य पूरा हो जायेगा ? या कोई और सज़ा होनी चाहिए ?

बुधवार, 10 अगस्त 2022

नीतीश कुमार कोई राजनीतिक त्यागी पुरुष नही है - एक विश्लेषण

 बिहार में कंधा बदल: क्या यह मोदी बनाम नीतीश की कच्ची पटकथा है? 



बिहार में मुख्यपमंत्री नीतीश कुमार द्वारा तीसरी बार पाला बदलने और 17 साल में छठी बार सीएम पद की शपथ लेने के पैंतरे को राजनीतिक प्रेक्षक अलग अलग नजरिए से देखने समझने की कोशिश कर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव के जिस ‘जंगल राज’ के खिलाफ उन्होंने भाजपा से हाथ मिलाकर लड़ाई लड़ी, उन्हीं लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के साथ दूसरी बार सरकार बनाकर वो बिहार में ‘मंगल राज’ लाने की बात कह रहे हैं। इस मायने में नीतीश ‘पलटूराम पालिटिक्स’ के यकीनन बाजीगर हैं। लेकिन बात केवल अपनी सत्ता की पालकी का कंधा बदलने तक सीमित नहीं है। कहा जा रहा है कि नीतीश अब राष्ट्रीय फलक पर किस्मत आजमाना चाहते हैं, वो उस आसमान में उड़ना चाहते हैं, जिसे उन्होंने बिहार में 2015 में भाजपा के कंधे पर बैठकर सरकार बनाकर गंवा दिया था। वरना 2013 में जिन नरेन्द्र मोदी को ‘साम्प्रदायिक’ बताकर नीतीश ने साम्प्रदायिक राजनीति के खिलाफ मोर्चा खोला था और जिसके कारण उन्हें विपक्ष का सर्वसम्मत चेहरा माना जाने लगा था, उन्हीं मोदी का नेतृत्व स्वीकार कर एक नैतिक लड़ाई वो हार गए थे। अब सात साल बाद नी‍तीश फिर उसी अखाड़े में खम ठोंकने की तैयारी में हैं। भले ही वो ऊपर से ना करते रहें, लेकिन भीतरी तमन्ना वही है। यहां सवाल यह है ‍कि यदि सचमुच नीतीश 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी नेता के रूप में प्रोजेक्ट हुए तो क्या वो मोदी और भाजपा को सत्ता से बाहर कर पाएंगे? क्या इतनी ताकत, आभामंडल  और जनअपील उनके पास है? क्या यह समूचा घटनाक्रम 2024 के लोकसभा चुनाव में खेले जाने वाले मोदी बनाम नीतीश कुमार नाटक की कच्ची पटकथा है?  

तथ्यों और तर्कों के आईने में देखें तो ऐसा कर पाना असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल जरूर है। यहां लोकसभा चुनाव की बात इसलिए क्योंकि भाजपा के लिए  बिहार का विधानसभा चुनाव जीतने से ज्यादा अहम वहां लोकसभा की ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना है। बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं। विजयी सीटों की संख्या के ‍िहसाब से देखें तो जब नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) 2014 में कांग्रेस नीत यूपीए का हिस्सा थी, उस वक्त भाजपा ने 40 में से 22 सीटें जीती थीं। उसका वोट शेयर 29.40 फीसदी था। तब भाजपानीत एनडीए में लोक जनशक्ति पार्टी और उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी शामिल थी ( अब यह पार्टी जेडीयू में शामिल हो गई है)। और इन दोनो पार्टियों ने भी क्रमश: 6 और 3 सीटें जीती थी। तीनो पार्टियों को अगर मिला लिया जाए यह वोट शेयर 38 फीसदी होता है। दूसरी तरफ आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस यूपीए के सहयोगी के रूप में लड़े थे। उन्हें क्रमश: 4 और 2, 2 सीटें मिली थीं। एक सीट राष्ट्रवादी कांग्रेस ने जीती थी। इस सबका वोट शेयर 44 फीसदी होता है। यानी कुल वोट ज्यादा मिलने के बाद भी सीटें एनडीए ने चार गुना ज्यादा जीतीं। तब भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थे। एनडीए की जीत को मोदी लहर के रूप में पारिभाषित किया गया। 

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू साथ थे। इनके अलावा एनडीए में रामविलास पासवान की लोक जनशक्तिपार्टी भी थी। इस गठबंधन ने बिहार में विपक्ष का लगभग सफाया कर दिया था। तीनो ने कुल 39 सीटें जीत लीं। केवल एक सीट कांग्रेस को मिली। तीनो का सम्मिलित वोट शेयर 52.45 फीसदी रहा। जबकि राजद 15 फीसदी वोट लेकर भी कोई सीट नहीं जीत पाई। हालांकि सीटों और वोट शेयर के हिसाब से भाजपा को घाटा ही हुआ। उसकी पांच सीटें कम हो गईं और वोट शेयर भी 6 फीसदी घट गया। इस चुनाव की जीत भी मोदी लहर का नतीजा ही मानी गई। 

अब 2024 में भाजपा अपने दम पर लड़ी तो उसे कितनी सीटें मिलेंगी, यह देखने की बात है। एनडीए में भी उसके साथ लोजपा ही रह सकती है। ऐसे में जीती हुई सीटो का आंकड़ा 20 तक पहुंचाना भी आसान नहीं है, केवल उस स्थिति को छोड़कर कि जब मोदी और भाजपा के पक्ष में कोई सुनामी चल जाए। देश के अंदरूनी हालात इसकी गवाही नहीं देते। भाजपा की चिंता यह है ‍कि बिहार से होने वाले घाटे की पूर्ति कहां से की जाए। बंगाल में तो अब 2019 का परिणाम दोहराना भी मुश्किल है। बाकी हिंदी पट्टी में वो अधिकतम सीटें जीत ही रही है। इसमें और इजाफे की गुंजाइश नहीं है। पूर्वोत्तर में सीटें ही बहुत कम हैं। दूसरी समस्या यह है कि भाजपानीत एनडीए से तीन बड़े सहयोगी दलों के बाहर जाने के बाद गठबंधन में कहने को 18 दल बचे हैं, लेकिन इन शेष दलों की राजनीतिक हैसियत गौण है। इसलिए एनडीए व्यवहार में अब केवल भाजपा ही है। 

तो क्या भाजपा और मोदी के लिए 2024 का चुनाव बिहार के ताजा घटनाक्रम के बाद ज्यादा कठिन होने वाला है? इसमें शक नहीं कि आज मोदी देश में लोकप्रियता के अपने सर्वोच्च शिखर पर हैं। अगले चुनाव में भी उनके नाम पर ही वोट पड़ेंगे। उसकी तुलना में नीतीश की लोकप्रियता का दायरा बिहार तक सीमित है। जहां तक जन नेता होने की बात है तो नीतीश लोकसभा तो दूर बिहार विधानसभा का चुनाव भी कभी अपने दम पर नहीं जीत सके हैं। हर वक्त उन्हें कोई न कोई सहारा चाहिए होता है। ऐसे में विपक्ष ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें प्रोजेक्ट कर भी ‍िदया तो वो अपने दम पर कितने वोट खींच पाएंगे,यह बड़ा सवाल है। यूं नीतीश ने अपनी छवि समन्वयवादी जरूर बना रखी है, लेकिन वो कोई धुरंधर वक्ता भी नहीं हैं। बिहार के बाहर उन्हें लोग कितना स्वीकार करेंगे, कहना मुश्किल है। 

तो फिर वो यह बात किस भरोसे से कह रहे हैं जो 2014 में आए, वो 2024 में न आ पाएं। यह केवल उनका सपना है या हकीकत का पूर्वाभास? ऐसा केवल एक ही स्थिति में संभव है कि देश का समूचा विपक्ष अपने मतभेदों और अहम को भुलाकर लोकसभा चुनाव में एक हो जाए, उनमें सीट शेयरिंग भी सहजता हो जाए, देश तथा लोकतंत्र को बचाने का एकमात्र एजेंडा बन जाए और जनता के गले यह बात उतारने में कामयाबी मिल जाए कि मोदी-शाह के नेतृत्व में देश सुरक्षित नहीं है, तब ही बड़ी सफलता की उम्मीद है। इस तर्क में दम इसलिए भी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने 303 सीटें जीत कर अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था, तब भी उसे 37.36 प्रतिशत वोट ही मिले थे, यानी बाकी 62.64 फीसदी वोट विपक्षी दलों में बंट गए थे। अगर विपक्षी वोट नहीं बंटे तो भाजपा को सत्ता में आने के लिए अपना वोट प्रतिशत 50 प्रतिशत तक ले जाना होगा। यह आसान नहीं है। हालांकि यह कागजी गणित है। व्यवहार में ऐसा ही हो जरूरी नहीं है। 

इस देश में विपक्षी एकता का एक महाप्रयोग इमर्जेंसी के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में हुआ था, जब तकरीबन समूचा विपक्ष एक हो गया था और तबकी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस और श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव में वन-टू- वन लड़ाई हुई थी। उसमें कांग्रेस पश्चिमोत्तर भारत में साफ हो गई थी। फिर भी दक्षिण में वो पूरी ताकत से जिंदा रही थी। यानी देश का मन तब भी विभाजित था। आने वाले चुनाव में विपक्ष भी नीतीश के नेतृत्व में अपने वजूद को बचाने एक हो सकता है, लेकिन भाजपा के खिलाफ वन-टू-वन मुकाबला बनाने के लिए राजनीतिक जिगरा और त्याग चाहिए। अभी तो यह भी तय नहीं है कि विपक्ष में नेतृत्व का ध्वजदंड किसके हाथ में होगा। राहुल गांधी, नी‍तीश कुमार या ममता बनर्जी या फिर और कोई। 

जहां तक गठबंधन राजनीति की बात है तो भाजपा अब उस दौर में पहुंच गई हैं, जहां कभी कांग्रेस हुआ करती थी। वह अब सत्ता में शेयरिंग नहीं चाहती। इसके फायदे और नुकसान दोनो हैं। भाजपा यह चाहे कि देश का हर दल और हर व्यक्ति और दल राष्ट्रवादी हो जाए और उसी की तरह सोचने लगे तो यह संभव नहीं है। लेकिन विपक्षी दल अपने राजनीतिक आग्रहों और सुविधा के अनुसार कट्टी-बट्टी करते रहें तो इससे भी उन्हें कुछ ज्यादा हासिल नहीं होने वाला। जाहिर है कि राष्ट्रीय फलक पर नीतीश के लिए चमकना बेहद कठिन है। अगर वो प्रधानमंत्री बन सके तो यह चमत्कार ही होगा। 

जहां तक बिहार की बात है तो भाजपा वहां अब लगभग अकेली है। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए वो अब साम्प्रदायिक कार्ड खुलकर खेलेगी। हालांकि बिहार में इस कार्ड का चलना कठिन इसलिए है, क्योंकि बिहार का राजनीतिक चरित्र अलग तरह का है, ठीक वैसे ही कि जैसे बंगाल का है। बिहार में राष्ट्रीय मुद्दे भी जातिवाद के रैपर में ही चलते हैं। जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता के आग्रह के आगे राष्ट्रवाद और हिंदू एकतावाद पानी भरने लगता है। दरअसल‍ बिहार में सत्ता पार्टी या व्यक्ति के हाथ में नहीं आती, परोक्ष रूप से वह जाति या जातियों के हाथों में आती है। इस जातीय गोलबंदी को तोड़ना भाजपा के लिए अभी भी आसान नहीं है, क्योंकि उसके पास राज्य में नीतीश के कद का कोई नेता भी नहीं है। ऐसा नेता तैयार करने में भी वक्त लगेगा।  

कुछ नीतीश कुमार के ताजा फैसले को देश में  विपक्ष के पुनर्जन्म के रूप में देख रहे हैं। यह अति आशावाद भी हो सकता है। भाजपा गठबंधन में अपनी सहयोगी पार्टियों की जड़े खोदने का काम करती है, यह आरोप सही हो तो भी भाजपा और आरएसएस एक साथ कई मोर्चों पर काम करते हैं, यह भी समझना होगा। सारी विपक्षी पार्टियां अपने राजनीतिक हितों को दांव पर लगाकर नीतीश के पीछे बिना शर्त खड़ी हो जाएं, तो भी यह काफी मुश्किल है। यह तभी संभव है जब देश की बहुसंख्यक जनता मोदी-शाह की रणनीति और भाजपा की राजनीति से ऊब जाए। इसके कोई आसार अभी तो नहीं दिख रहे। अलबत्ता नीतीश का यूपीए में लौटना अल्पसंख्यक वोटों में राहत का सबब जरूर होगा। 

यूं नीतीश कुमार के लिए भी अब बिहार में सात पहियों वाली सरकार चलाना आसान नहीं होगा। क्योंकि महाराष्ट्र में तीन पहियों वाली सरकार ही ढाई साल मुश्किल से चल पाई। क्योंकि नीतीश समाजवादी भले हों, लेकिन राजनीतिक त्यागी पुरूष कदापि नहीं है। उनका मन कब किस से ऊब जाए, कहा नहीं जा सकता। मोदी के खिलाफ भी वो उसी स्थिति में खम ठोकेंगे, जब उन्हे पक्का यकीन हो जाएगा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी उनका ही इंतजार कर रही है, वरना पटना में मुख्यमंत्री की धुनी रमी हुई है ही, वक्त जरूरत के हिसाब से कंधा बदलने में कोई दिक्कत नहीं है न नैतिक और न ही राजनीतिक। 

वरिष्ठ संपादक अजय बोकिल की कलम से

‘राइट क्लिक’


शनिवार, 30 अप्रैल 2022

संघ का एजेंडा, मध्यप्रदेश सरकार के लिए

 *सरकार और संगठन के काम से नाखुश संघ, MP BJP को दी चेतावनी, गलतियां नहीं सुधारी तो सत्ता से हाथ धोना पड़ सकता है*


भोपाल। भाजपा के साथ आरएसएस भी चुनावी मोड में आ गया है. मिशन 2023 की रणनीति को लेकर मप्र की भाजपा सरकार से संघ ने दो टूक कह दिया है कि नहीं सुधरे तो सत्ता से हाथ धो दोगे. संघ ने यह चेतावनी सरकार और संगठन के काम से नाखुश होकर दी है. संघ ने कहा है कि गलतियां नहीं सुधारी तो हाल 2018 की तरह हो सकता है. 


संघ की बैठक में निकला निचोड़ : संघ की नजर में एमपी में फिलहाल प्रभावी ट्राइबल नेतृत्व की कमी है. खिसकते जनाधार का यह एक प्रमुख कारण माना गया है. जिस पर चिंता भी जताई गई है आदिवासियों को लुभाने की योजना के क्रियान्वयन का खाका सरकार ने संघ को दिया, लेकिन संघ की रिपोर्ट में देखा गया कि सरकार की योजनाएं सिर्फ कागजों तक ही सीमित हैं. संगठन के मुताबिक आदिवासी बाहुल्य इलाके में नेता रुचि नहीं दिखा रहे हैं. इसे देखते हुए संघ ने साफ कहा है कि बीजेपी के नेता 2018 जैसी गलतियां फिर न दोहराएं. 


सीएम शिवराज और वीडी शर्मा ने पेश किया था रिपोर्ट कार्ड: 


दिल्ली में हुई बैठक में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने सत्ता-संगठन का रिपोर्ट कार्ड पेश किया. प्रेजेंटेशन के बाद संघ ने यह भी प्लान मांगा कि सरकार आने वाले दिनों क्या करने जा रही है. इसके अलावा संगठन से भी उसकी तैयारियों को लेकर पूछताछ की गई.


संघ ने बताया अपना एजेंडा: संघ ने सरकार को एजेंडा बताकर काम पर फोकस करने की सलाह दी है. संघ ने प्रदेश के नेताओं को युवाओं पर फोकस करने के लिए कहा है. संघ के मुताबिक ढाई करोड़ युवाओं पर फोकस करने के साथ सोशल मीडिया और आईटी का काम सुधारने की भी बात कही है. संघ कि चिंता इस बात को लेकर भी है कि सत्ता और संगठन के बीच समन्वय की कमी है. जिस तरह से मंत्रियों की आपसी खींचतान और मुख्यमंत्री के साथ कई मंत्रियों का आपसी मनमुटाव की बातें सीधे तौर पर जनता के बीच जा रही हैं, विपक्ष इसका फायदा उठा सकता है

सोमवार, 8 जून 2020

पहले से अधिक संपन्नता से छिपते हैं तुम्हारे मौन के शब्द


#पहले से अधिक शब्दों के बीच,
   संपन्नता से छुपते हैं ,
  केसरिया धब्बों की तरह तुम्हारे मौन के शब्द
  मेरे मौन में--लेकिन
  देर तक रहते हैं देह में,देह की धमनियों में बजते से
  देर से अँधेरा है,यहाँ 
  दूर तक बिजली/रौशनी नही
  जिसने यकायक पहुंचा दिया है,
 इस गोपन आत्मा को, तुम तक 
 और मैंने अभी अभी रोना स्थगित कर 
दौड़ के अंतिम लक्ष्य तक,
बूँद भर से राफ्फू गिराई की महा समुद्र की
मुठ्ठी में भर   लिया ब्रह्मांड,को
सोचा --
 कब से मिलना नही हुआ तुमसे,
 कितने लंबे समय से,नही देखा तुम्हे
 इस लेखे को भी फाड़ दिया आज रत्ती रत्ती,
 बहुत तपने के बाद हुई आज बारिश में
मौलश्री के  वृक्षों का रंग गहरा हरा है आज 
 सड़के काली नदी सी, जिन पर
 मेरी राह ठुमकती है ,तुम तक आने को
 रक रसता की ऊब से उठकर
 एक मौलश्री का पेड़ उग आता है मेरी नाभि तक
कालसर्प योग से छीजती देह में -
 एक फूल धंसता है नाभि तक 
और सारी देह आहिस्ता से मौलश्री के गोल छोटे तेज फूलों की खुशबू से भर उठती है
 जानते हो बिछुड़ कर जीने का संघर्ष कैसा होता है
इसे लिखकर नही बताया जा  सकता
बस दौड़कर आतुरता में 
जीती हूँ ,ठहरकर
खुश्बू से तरबतर,तुम्हारे लिए
सोचने से ना बचते हुए
अनंत तक ,इस अँधेरे में रात -बिरात
जानते हो ना मौलश्री का एक बोन्साई भी तो है मेरे पास

 इस बार सहेज लूंगी कुछ फूल तुम्हारे लिए
( बुकुल की याद में *बकुल मौलश्री के फूल का नाम )

शुक्रवार, 15 जून 2018

,हर स्त्री के भीतर उपजा एक नायक होता है ,मन का साथी,वो आपकी काबलियत और इच्छानुसार ही व्यवहार करता है मेरा सनातन अमर नायक है ,मेरे ब्लॉग की हर पोस्ट का जो मुझे अज्ञात सुख देता है और इस भौतिक दुनिया का कोई सशरीर मनुष्य किसी स्त्री के मन का साथी नही हो सकता ,शरीर से एक स्त्री को गुलाम बना लेने वाला नायक कैसे हो सकता है, में स्वप्नजीवी हूँ और मेरी खुशी इस दुनियावी लोगों से बिलकुल अलग है ,तुम ध्यान से पढ़ोगी तो पहाड़ से मेरा नाता प्रेम का है --आत्मिक प्रेम दैहिक से कितना अलग है, जिसमे इस दुनिया का कोई प्रपंच नही, जब करोगी तो जानोगी, बाकि सब झूट है ---तो पुरूष पति किस चिड़िया का नाम है,तुम्हे इस प्रेम में पति /साथी का ना होना अखर रहा है ,तो जान लो पति को दोस्त बना लेना आसान नहीं है ,और हद्द दर्ज़े तक में ऐसा कर भी पाई हूँ फिर भी मेरे सपनो से छेड़ छाड़ का अधिकार मैंने नहीं दिया उन्हें --मेरा अपना स्पेस है स्त्री होने के नाते ,मुझे पत्नी या जीवन साथी की फ्रेम से बाहर निकाल कर देखो --तुम कहती हो तुमने प्रेम किया ,इस दुनिया में एकाध ही अभागा मनुष्य हुआ होगा जिसे प्रेम नहीं मिला होगा मानती हूँ पर प्रेम को आत्मिक और मानसिक स्तर जीना ये ताक़त सबको नहीं मिलती -मेरे घर में हम दो स्वतंत्र प्राणी है में पति को अपने दोस्तों पर नहीं लादती ना वो ऐसा करते हैं समय समय पर परिवार के फोटो शेयर करना अच्छा होता है ,हाँ में स्वतंत्र हूँ अपनी बात अपनी फोटो शेयर करने को ---और कौनसा पति होगा जो हफ्ते भर जब बाहर आफिस बाजार को निकलो तो बड़े प्यार से पत्नी की फोटो खींच दे --वरना कितनी सेल्फियों वाली दोस्त हैं यहाँ -मेरे तो पासवर्ड भी साझा हैं --सही पत्नी के क्या मायने --मेरा ए टी एम् हसबेंड के पास है --मुझे कभी किसी चीज के लिए मन नहीं मारना पड़ता जब जो चाहिए मिल जाता है और ये स्वतंत्रता मैंने कमाई है --स्वतंत्रता कामना हंसी खेल नहीं है कोई किसी को चाहे --और पति प्राणी के लिए कितने रात और दिन उसके परिवार के लिए तन मन से झोंके होंगे तुम जान नहीं सकती -गृहस्थी का पहाड़ अटल रखते हुए --तो अब आकर इस मुकाम पर हूँ जिंदगी क्या इतने लेखक लेखिकाएं हैं जिनके दर्ज़नो उपन्यास कहानियां होती हैं सबके वो नायक नायिका होते हैं ,अजब है तुम्हारी बात में फिर कहती हूँ किसी स्त्री का पति उसके भीतर का नायक नहीं हो सकता जो ऐसा कहती हैं वो झूटी हैं --हाँ साथी आपकी प्रेरणा हो सकता है मेरे ब्लॉग में ,ज़ेब्रा क्रॉसिंग ,एक लम्बी कहानी है 5 किश्तों में--उसका नायक सनातन दुनियावी प्रेमी है ---मेरी जन्म कुंडली में लिखा है एक दिन में सन्यासिनी हो जाउंगी ---शायद पहाड़ की ये दूसरी यात्रा ,पहली उत्तराखंड की थी --तीसरी बार उस संन्यास की शायद लौ जग जाए मेरे प्रिय लेखक नरेश मेहता कहते हैं --मनुष्य भोगता व्यक्ति की भांति है मगर अभिव्यक्ति कलाकार की भांति करता है , और लेखक को हर हाल अपने इसी अच्युत पद की रक्षा करना पढ़ता है, मुझे नही समझ आता , पति को कैसे अपने लेखन में ले आऊं प्रेम और कर्तव्य एक ही मुहाने पर है जिसे लिखती हूँ उसे जीती हूँ, और जिसे नही लिखती उसके लिए दिन रात बरस दर बरस जिए हैं ,वो तो भीतर है उसके लिए भीतर क्या है ये बताना लिखना छिछलापन है ,उसके दुख सुख के लिए भीतर माँ बहन बेटी दोस्त प्रेमिका एक साथ है, और मेरे ड्रीम नायक सनातन के लिए में अकेली पिछले साल पति को डेथ बेड से बचा लाई जब डॉ जवाब दे चुके थे तब मेरे भीतर के सनातन ने ही मुझे स्ट्रेंथ दी --मैंने उससे कहाथा क्या ईश्वर मुझसे मेरे साथी को छीन कर मुझे भिखारी बना देगा --तब सनातन ने ही कहा नहीं, मेरे पेड़ पौधों ने कहा नहीं -दिल ने कहा नहीं और आज में धनवान हूँ - तो डियर असल जिंदगी से अलग स्वप्न सनातन है ,कहीं ज़िंदा भी तो क्या में उससे मिल पाऊँगी नहीं जानती अगर मिली तो मेरा प्रेम दुगुना ही होगा जानती हूँ इस भीतरी प्रेम के बदौलत ही मेरे साथ ,मेरे आस पास इतनी ख़ूबसूरती है ,एक इनर ताक़त है जो मुझे झूट बोलने से हमेशा रोकती रही है --तो मेरा प्रेम गलत दिशा में कहाँ ---में रास्ते चलते जमीन पर पड़े पत्ते में भी ख़ूबसूरती देख लेती हूँ --लोग भोपाल आते हैं मुझसे मिलना चाहते हैं --जो मिलकर गए उनसे पूछो -मैंने कभी नहीं कहा मेरे पास समय नहीं --मुझे जो ईश्वर ने दिया है ,मुझे गर्व है और माँ की कुछ सीखें सौगाते हैं क्या में खूबसूरत हूँ नहीं ,बहुत नहीं साधारण स्त्री हूँ लेकिन में खूबसूरत होने के मायने जानती हूँ -ख़ूबसूरती से जीती हूँ मेरा मूलस्वर प्रेम है जिसके भीतर दुःख है और दुःख ही मेरी दूसरी ताक़त है जिससे में इस फरेबी दुनिया को जान पाती हूँ -उनसे निबटने उपाय जानती हूँ -किसी का मोहताज़ नहीं रक्खा मुझे ईश्वर ने -मेरी हर बात हर दुआ कबूल की लेकिन उसके पहले मेरी परीक्षा भी ली --क्या में कम उम्र युवती हूँ ,जो छल कपट नहीं जानती होंगी --पर बात यही है कि पास आकर झूट कपट भी मुझसे दूर भाग जाते हैं। तो शुक्रगुजार हूँ नेचर की जो मुझे बुरे लोगों से बचाय रखता है -मेरी दिशा को प्रेम की और बढ़ाये रखता है जब में दुबई गई थी तो जो पॉयलट उड़ाकर कर ले गया था उसका नाम मुस्तफा था , मैंने उस पर एक पोस्ट लिखी थी जिससे में ना तब ना आज तक मिली, तब भी वो मेरा नायक था, भीतर बुद्धत्व का उपजना क्या होता है नही जानती मगर अभिनेता गुरुदत्त मेरे ड्रीम नायक हैं ,तो जंगल भी तो पहाड़ भी तो--- पत्रकारिता में संघर्ष गृहस्थी बच्ची लेखन परिवार माँ पिता के बिना का जीवन क्या आसान होगा - स्त्री का व्यवहार ही उसका हथियार होता है --जिस आधार पर वो जीतती या हारती है --- ये लिखना क्या यूं ही है , मेरे पति की क्वालिटी 10 %पुरुष में भी ना होगी, और उन जैसी जिद्द भी नही ,एक जिंदगी बतौर मेरे मानवीय मनुष्य होने के नाते इन सबसे परे हैं ----मेरा स्त्री होना ही शुभ है सार्थक है --हर नजरिये से ,समझती हूँ --जिनमें अधिसंख्य पुरुष मित्र पति और मेरे साझे हैं जिन्होंने हमेशा मुझे आदर सम्मान प्रेम दिया --- मेरे प्रेम को में खिचड़ी बनाने से परहेज रखती हूं ,और उसकी नजर उतारती हूँ इतवार की शुभकामनाएं तुम्हे इस पोस्ट पर हार्दिक स्वागत है उन पुरुष स्त्री मित्रों का जो मेरी बात से सहमत भी हैं और उसे विस्तार भी दे सकें

 ,हर स्त्री के भीतर उपजा एक  नायक होता है ,मन का साथी,वो आपकी काबलियत और इच्छानुसार ही व्यवहार करता है मेरा  सनातन अमर नायक है ,मेरे ब्लॉग की  हर पोस्ट का  जो मुझे अज्ञात सुख देता है और इस भौतिक दुनिया का कोई सशरीर मनुष्य किसी स्त्री के मन का साथी नही हो सकता ,शरीर से एक स्त्री को गुलाम बना लेने वाला नायक कैसे हो सकता है, में स्वप्नजीवी हूँ और मेरी खुशी इस दुनियावी लोगों से बिलकुल अलग है ,तुम ध्यान से पढ़ोगी तो पहाड़ से मेरा नाता प्रेम का है --आत्मिक प्रेम दैहिक से कितना अलग है, जिसमे इस दुनिया का कोई प्रपंच नही, जब करोगी तो जानोगी, बाकि सब झूट है ---तो पुरूष पति किस चिड़िया का नाम है,तुम्हे  इस प्रेम में पति /साथी का ना होना अखर रहा है ,तो जान लो पति को दोस्त बना लेना आसान नहीं है ,और हद्द दर्ज़े तक में ऐसा कर  भी पाई हूँ फिर भी मेरे सपनो से छेड़  छाड़ का अधिकार मैंने नहीं दिया उन्हें --मेरा अपना स्पेस है स्त्री होने के नाते ,मुझे पत्नी या जीवन साथी की फ्रेम से बाहर निकाल कर देखो --तुम कहती हो तुमने प्रेम किया ,इस दुनिया में एकाध ही अभागा मनुष्य हुआ होगा जिसे प्रेम नहीं मिला होगा मानती हूँ पर प्रेम को आत्मिक और मानसिक स्तर  जीना ये ताक़त सबको नहीं मिलती   -मेरे घर में हम दो स्वतंत्र प्राणी है में पति को अपने दोस्तों पर नहीं लादती ना वो ऐसा करते हैं समय समय पर परिवार के फोटो शेयर करना अच्छा होता है ,हाँ में स्वतंत्र हूँ अपनी बात अपनी फोटो शेयर करने को ---और कौनसा पति  होगा जो हफ्ते भर जब बाहर आफिस बाजार को निकलो तो बड़े प्यार से पत्नी की फोटो खींच दे --वरना  कितनी सेल्फियों वाली दोस्त हैं यहाँ -मेरे तो पासवर्ड भी  साझा हैं --सही पत्नी के क्या मायने --मेरा  ए टी एम् हसबेंड  के पास है --मुझे कभी किसी चीज के लिए मन नहीं मारना पड़ता जब जो चाहिए मिल जाता है और ये स्वतंत्रता मैंने कमाई है --स्वतंत्रता कामना हंसी खेल नहीं है कोई किसी को चाहे --और पति प्राणी के लिए कितने रात और दिन उसके परिवार के लिए तन मन से झोंके होंगे तुम  जान नहीं सकती -गृहस्थी का पहाड़ अटल रखते हुए --तो अब आकर इस मुकाम पर हूँ जिंदगी क्या इतने लेखक लेखिकाएं हैं जिनके दर्ज़नो उपन्यास कहानियां होती हैं सबके वो नायक नायिका होते हैं ,अजब है तुम्हारी बात में फिर कहती हूँ किसी स्त्री का पति उसके भीतर का नायक नहीं हो सकता जो  ऐसा कहती हैं वो झूटी हैं --हाँ साथी आपकी प्रेरणा हो सकता है मेरे ब्लॉग में ,ज़ेब्रा क्रॉसिंग ,एक लम्बी कहानी है 5  किश्तों में--उसका नायक सनातन दुनियावी प्रेमी है ---मेरी जन्म कुंडली में लिखा है एक दिन में सन्यासिनी हो जाउंगी ---शायद पहाड़ की ये दूसरी यात्रा ,पहली उत्तराखंड की थी --तीसरी बार  उस संन्यास की शायद लौ जग जाए 
मेरे प्रिय लेखक नरेश मेहता कहते हैं --मनुष्य भोगता व्यक्ति की भांति है मगर अभिव्यक्ति कलाकार की भांति करता है , और लेखक को हर हाल अपने इसी अच्युत पद की रक्षा करना पढ़ता है,
मुझे नही समझ आता , पति को कैसे अपने लेखन में ले आऊं प्रेम और कर्तव्य एक ही मुहाने पर है जिसे लिखती हूँ उसे जीती हूँ, और जिसे नही लिखती उसके लिए दिन रात बरस दर बरस जिए हैं ,वो तो भीतर है उसके लिए भीतर क्या है ये बताना लिखना छिछलापन है ,उसके दुख सुख के लिए भीतर माँ बहन बेटी दोस्त प्रेमिका एक साथ है, 
और मेरे ड्रीम नायक सनातन के लिए में अकेली पिछले साल पति  को डेथ बेड  से बचा लाई जब डॉ जवाब दे चुके थे तब मेरे भीतर के सनातन ने ही मुझे स्ट्रेंथ दी --मैंने उससे कहाथा क्या ईश्वर मुझसे मेरे साथी को छीन कर मुझे भिखारी बना देगा --तब सनातन ने ही कहा नहीं, मेरे पेड़ पौधों ने कहा नहीं -दिल ने कहा नहीं और आज में धनवान हूँ -
तो डियर असल जिंदगी से अलग स्वप्न सनातन है ,कहीं ज़िंदा भी तो क्या में उससे मिल पाऊँगी नहीं जानती अगर मिली तो मेरा प्रेम दुगुना ही होगा जानती हूँ  इस भीतरी प्रेम के बदौलत ही मेरे साथ  ,मेरे आस पास इतनी ख़ूबसूरती है ,एक इनर  ताक़त है जो मुझे झूट बोलने से हमेशा  रोकती रही है --तो  मेरा प्रेम गलत दिशा में कहाँ ---में रास्ते चलते जमीन पर पड़े पत्ते में भी ख़ूबसूरती देख लेती हूँ --लोग भोपाल आते हैं मुझसे मिलना चाहते हैं --जो मिलकर गए उनसे पूछो -मैंने  कभी नहीं कहा मेरे पास समय नहीं --मुझे जो ईश्वर ने दिया है ,मुझे गर्व है और माँ की कुछ सीखें सौगाते हैं क्या में खूबसूरत हूँ नहीं ,बहुत नहीं साधारण स्त्री हूँ लेकिन में खूबसूरत होने के मायने जानती हूँ -ख़ूबसूरती से जीती हूँ मेरा मूलस्वर प्रेम है जिसके भीतर दुःख है और दुःख ही मेरी दूसरी ताक़त है जिससे में इस फरेबी दुनिया को जान पाती हूँ -उनसे  निबटने  उपाय जानती हूँ    -किसी का मोहताज़ नहीं रक्खा मुझे ईश्वर ने -मेरी हर बात हर दुआ कबूल की लेकिन उसके पहले मेरी परीक्षा भी ली --क्या में कम उम्र युवती हूँ ,जो छल कपट नहीं जानती  होंगी --पर बात यही है कि  पास आकर झूट कपट भी मुझसे दूर भाग जाते हैं। तो शुक्रगुजार हूँ नेचर की जो मुझे बुरे लोगों से बचाय रखता है -मेरी दिशा  को प्रेम की और बढ़ाये रखता है 
जब में दुबई गई थी तो जो पॉयलट  उड़ाकर कर ले गया था उसका नाम मुस्तफा था , मैंने उस पर एक पोस्ट लिखी थी जिससे में ना तब ना आज तक मिली, तब भी वो मेरा नायक था, भीतर बुद्धत्व का उपजना क्या होता है नही जानती मगर अभिनेता गुरुदत्त मेरे ड्रीम नायक हैं ,तो जंगल भी तो पहाड़ भी तो---
पत्रकारिता में संघर्ष  गृहस्थी बच्ची  लेखन परिवार माँ पिता के बिना का जीवन क्या आसान होगा - स्त्री का व्यवहार ही उसका हथियार होता है --जिस  आधार पर वो जीतती या हारती है ---
ये लिखना क्या यूं ही है , मेरे पति की क्वालिटी 10 %पुरुष में भी ना होगी, और उन जैसी जिद्द भी नही ,एक जिंदगी बतौर मेरे मानवीय मनुष्य होने के नाते इन सबसे परे हैं ----मेरा स्त्री होना ही शुभ है सार्थक है --हर नजरिये से ,समझती हूँ --जिनमें अधिसंख्य पुरुष मित्र पति और मेरे साझे हैं जिन्होंने हमेशा मुझे आदर सम्मान  प्रेम दिया ---
मेरे प्रेम को में खिचड़ी बनाने से परहेज रखती हूं ,और उसकी नजर उतारती हूँ 
इतवार की शुभकामनाएं तुम्हे
   इस पोस्ट पर हार्दिक स्वागत है उन पुरुष स्त्री मित्रों का जो मेरी बात से सहमत भी हैं और उसे विस्तार भी दे सकें  

शनिवार, 9 जून 2018

इस अभेद में भेद को जान लेना तुम, पहाड़ों पर बारिशों के बाद जब कांस के फूल खिलेंगे तुम खुश होना-

मैंने तय किये थे रास्ते और उन रास्तों पर सोचा था  तुम्हे ,जिनसे होकर तुम गुजरे होंगे ,सोचती हूँ तय तो  था तुमसे बिछुड़ना भी बिना मिले ही ---उन घुमाव दार सड़कों की  स्मृतियों में ,उनके हर मोड़ पर ठन्डे पहाड़ों की निर्मल गुनगुन थी कौन सुनता होगा जिन्हे पहाड़ सुनना/सुनाना  चाहे उसे ही ना ?जो सुनना चाहे --तब लौटना, लौटना नहीं था लेकिन पीछे मुड़कर देखना सच था पहाड़ मुस्कुराते हुए बिना चले ही साथ चल पड़े थे दूर तक ,बिदा देते से -समूचे पहाड़ आँखों में भर लाई  हूँ ---अब लौटी हूँ तो रोना चाहती हूँ ,कितने शिकवे थे इस दुनियावी लोगों के ,--इस तपते शहर के सुर्खरू गुलमोहर मुँह चिढ़ाते हैं ,कहते हैं तुम लौट आई --रोका नहीं तुम्हे किसी ने तुमसे अनुनय नहीं की ?किसी ने ----क्या कहती इन सर चढ़े गुलमोहर से --सनातन जिंदगी कम मौके देती है मनमुताबिक जीने के, एक की लापरवाही दूसरे के दुःख का सबब  बन जाती है अनजाने ,तय था ये सब भी जिसे तय किया था किसी ओर  पल ने --उस शाम वेज लजीज मोमोज़ खाते बारिश हुई --और भीग गई उसी सड़क पर जिसका नाम मुझे बाद में पता चला ,तुम्हारी ताक़ीद को सुना था,जानते हो  सालों से एक सफ़ेद ट्रांसपेरेंट छाता  खरीदना तय था--हर बारिश में सफेद छाता ढूँढ़ते जाने कितने हरे नील पीले छाते इकठ्ठा होते गए नीली पीली स्मृतियों संग --सफेद छाता उस दिन भी नहीं मिला, मिलता तो बारिश बादल एक साथ देख लेती ऊपर सर उठाकर ---फिर एक बमुश्किल हरा छाता  पसंद आया --जो उस दिन जाने कितनी ह्री पहाड़ी  यादों संग बारिश से भर गया --सोचती तो हूँ सोचने से ही इच्छाएं पूरी हो जाती तो ?--पर नहीं जो इच्छाएं पूरी नहीं होती दुःख देती हैं ---जानते हो ना दुःख अलाव है हरदम जलाता है,जिस होटल में रुकी थी वहां विंडो कर्टेंस एकदम नीरस रूखे बूढ़े भूरे रंग के थे उन्हें देखना गवारा नहीं था क पल भी , तो बस जब तक वहाँ होती पीछे बालकनी से पहाड़ की ऊंचाई में बसी घनी हरियाली गर्म कॉफी की प्याली हाथ लिए निहारती रहती ,मेरा बस चलता   तो आकाश की नीलाई और पहाड़ों की हरियाली खींच लाती और पर्दों  पर स्प्रेड कर  देती --
ब लौटकर जब एक पूरा दिन बीत गया है तो दूर तक पसरी इच्छाएं पहाड़ों की शाममें टिमटिम जगमग हो उन जगहों पर  उदास मुस्कान लिए सामने आती है रुलाई आँखों में भरभराई हुई  है --पेड़ों के चेहरे साफ़ दिखलाई पड़ते हैं पत्ते अब भी उड़ते हुए दुपट्टे में पनाह लेते से हैं अनाम फूलों की खुशबू तरबतर करती है कुछ भी नहीं भूल पाती हूँ सनातन --जिंदगी अक्सर तेज़ चलने के बावजूद पीछे धकेलती है --आगे उनींदे दिन बीतेंगे जानती हूँ बेबसियों की उदासी भरी शामें आँखे नम करती रहेंगी --इस अभेद में भेद को जान लेना तुम, पहाड़ों पर बारिशों के बाद जब कांस के फूल खिलेंगे तुम खुश  होना-- इस बरस साल भर इकठ्ठा करुँगी आम नीम गुलमोहर,आकाश चमेली चम्पा  जामुन अमरुद के बीज और उन्हें बिखेर  दूँगी तुम्हारी मनपसंद  पहाड़ों की घाटियों में कुछ तो लगेंगे ,फलेंगे उम्मीद से ज्यादा उम्मीद रखती हूँ जीवन रहा तो देखूंगी कभी उन्हें बढ़ते खिलते फूलते संग संग तुम संग वो ख़ुशी कितनी मीठी होगी सनातन --कोई नहीं जान पायेगा इस गोपनीय ख़ुशी को --
-मन कसकता रहेगा फिर भी -- क्योंकि में बुरांश से भरी पहाड़ी देखना चाहती थी ,बुरांश के गहरे  लाल गुलाबी फूलों को बालों में सजाना चाहती थी -तुम्हारी आँखों में झांकते हुए-चेलिया गाँव के नुक्कड़ पर बनी  किसी गुमठी की  चाय पीना चाहती थी --पहाड़ी आलू का देशज परांठा खाना चाहती थी --और बुरांश की चाय पिलाने  का तो वादा है ही --भूल मत जाना --उस कच्ची पुलिया के कांधों पर गहरी आसक्ति में डूबे झुके उस अनाम पेड़ के कानो में तुम्हारा नाम --सनातन कह आई हूँ कभी गुजरो तो वो आवाज़ लगाएगा --सुन लेना जानते हो पेड़ बहुत जल्दी बुरा मान जाते हैं और फिर उदास भी  हो जाते हैं , बस पेड़ों की उदासी में बर्दाश्त नहीं कर पाती हूँ ,मेरी ख़ुशी इतनी ही है इसलिए  ख्याल ---रखना 
अपना भी 
-इसी बरस जब बुरांश के फूलों का मौसम आएगा और टोकरा भर बुरांश लिए तुम मेरा इन्तजार करोगे किसी बुरांश के पेड़ों और फूलों से लदी भरी पहाड़ी के किनारेअपनी  मनपसंद पुलिया   पर 
जल्दी ही -में उस पुलिया के[कि]नार मिलूंगी ----
# पहाड़ भर यादें --पहाड़ों की- 9 / 6/ 2018 
[पहाड़ों की यातनाएं हमारे पीछे हेँ ..मैदानों की यातनाएं हमारे आगे हेँ [ब्रेतोल्ट ब्रेख्त ].

शुक्रवार, 18 मई 2018

लौट कर 
एक ही समय में होना 
स्पर्श में ,स्मृति में ,बारिश में बादलों की तरह बरसना नादियों की तरह बहना,समुद्र में मिलना
प्रेम, जल,आग और रोशनी के दृश्य में 
रोशनी की तरह दौड़ना बार बार --और दौड़ जाना
फलांगते हुए सात समुद्र
उस उदासी की मौजुदगी मे जो
उम्र और रिश्तों के हिसाब में
अभिसार की रातों में
रूमानी सपनो में बसी थी ,
देह की अपरिचित भाषा में
बूढ़े पहाड़ों पर बजती गिटार की धुन में
पत्तों की खड़ खड में
रात के स्तब्ध सन्नाटे में ,होते हुए भी ,में थी

अपने ही आत्मघाती प्रेम में गलती -सुलगती
किसी प्रत्याशा में तमुलनाद सी
जहाँ नही थी, वहाँ मेरा सुख था
खुद को टोहता, अपने प्रेम में संक्षिप्त और सूचनात्मक
सावधान आगे अंधा मोड़ है 

और प्रेम जो अभी बाकि था/ है/रह
(पंछी लौटते हैं ,अपनी डायरी से 2010, 17 मई )

सोमवार, 12 मार्च 2018

देह अद्भुत शान्ति की खोज में अपने से ही नितांत अलग थलग चल पड़ती है ---चरम उपलब्धि से कुछ कदम पीछे ही,

सूरज को टोहता अन्धेरा आगे आगे चलता है अक्सर रात की अगुवाई  करता इन दिनों चीजें अपनी तरह से अलग और अलस ढंग से दूसरी तरह से पसरी हुई हैं एक आत्म निवेदन उनसे लगातार सुनाई देता है ,मुझे रहने दो ऐसे ही --पेड़ पत्ते कपड़ों के ढेर फ्रीज़ में सुस्तसी सब्जियां पेन कागज कांच में जमी धूल मिटटी के कटोरे में जमा खट्टा होता दही यहाँ तक की आंसू  भी छलके रहने के लिए बरबस 
 .सात्र का अस्तित्ववाद इसी सिद्धांत पर है कि जिन घटनाओं के लिए आप उत्तरदाई नहीं उनका बोझ भी आपके ही माथे पर है.फिर जिन्दगी का हिसाब -किताब कैसे करें कि सारे जोड़ सही हो जाए बिना किसी को घटाए ,उनके सुख चैन छीने बिना 
वो वक्त जिसे दुहाई देकर जिया उसके- अपने लिए वो बिछुड़ गया ..उसके बाद सारे स्पर्श खुरदुरे हो कर रह गये, कैसे भूलना होता है,-ना भूलने वाली बातें अस्वाभाविक था शब्दों का अर्थ बदलना उनका विपरित हो जाना .
..एक लम्बी यात्रा से ऊबा हुआ मन और  उसमे ना सुस्ताया हुआ दिन था वो ..बस हरा भरा मन हार गया था 
.ठंडक थोड़ा कम थी वहाँ...एक कम गहरी नदी पर पुल तैरते दिखलाई पड़ते हेँ ..डूब जाने के खतरों के साथ ..यात्राएं अधूरी और त्रस्त होकर रह जाती है ..किनारे खो जाते हेँ तिनके भी छूट जाते हेँ और दूर तक फैली धुध मानो सब कुछ निगल जाना,चुप्पी साधे हुए .कम में अतिरिक्त हांसिल कर लेना भी अपनी इमानदारी में अपने साथ किसी और को भी देखना ..एक हिचकी आ जाती है ..दो तीन चार और लगातार कौन याद करता है ..लेकिन कौन ?पानी गले को तर करता है फिर भी बेअसर ...उस दिन ऐसा ही लगा कहीं दूर भाग जाने का मन एक लम्बी उड़ान ..नीले आसमां में बस जाने का मन बस आसमान और मेरे बीच कोई ना हो ..एक असंभव इक्छा ..फिर लगा पलक झपकते ही ये शहर दूसरे शहर में तब्दील होजाए लेकिन वो भी हो ना सका,पूरे 48 घंटे थे सब कुछ छोड़ देने के लिए ..कोई पहाड़ काट लेता पर वो पल नहीं कटे 
एक खालीपन और एक निर्मम बेवकूफी के बीच अपने को मृत्त घोषित कर देने में ही सुकून मिलना था ...वो जिन्दगी की  सबसे खुशनुमा दोपहर थी तब लगा उड़ना सचमुच ऐसा ही होता होगा अपना ही वजूद ढूँढ पाना मुश्किल था ...संगमरमरी चट्टानों से सूरज ओट हो जाता है ...आँखों का मौन आँखों में ही रह जाता है पलकों से उठते गिरते पल-पल का हिसाब जरूर होगा वहाँ , दिन बीत जाता है रात भी, और बीतती है सुबह ..थक जाती हूँ बहुत दूर तक जाने पर पलटना फिर देखना घर पीछे छूट जाता है ..लौटती हूँ क्या मांगा था ,मुठ्ठी भर धूप ही तो, वो दोपहर दिल में उतरती है सांसों में रूकती है बीच राह कोई रोक लेता है चलते-चलते टोक देता है,आहिस्ता छू लेता है आँखे खुलती है फिर कोई पीछे छूट जाता है पकड़ से परे और वहीँ मरना होता है अचाहे दुःख घसीटते से पीछा करते हेँ और फिर एक जामुनी सफर शुरू होता है अपनी ढेर सी गलतियों का कन्फेस ..तलाश का अंत... ना बोले शब्दों की आंच झुलसा जाती है,एक अकथ पीड़ा बड़े-बड़े दावों -दलीलों बौने हो रह जाते हेँ ,और अब लौटती हूँ तो सब कुछ ठहर गया है शहर के तालाबों पर धुंद,पहाड़ों पर हवाएं पेड़ों पर पत्तियां और नीले बादल सिकुड़ कर आँखों में बस जाते हेँ ,जैसे कहीं कुछ बदला ही नहीं जैसा उन्हें छोड़ा था वैसा ही ,बरसों बाद आज देखा बादलों में उड़ता हुआ एरोप्लेन बचपन की खुशी की तरह बयान ना हो सके ऐसी गंध की छुवन अब भी बरकरार है खिड़की के शीशे से लिपटी धूल को हटाने पर अंगुली कसमसाती है एक शब्द लिखा नहीं जाता ..सीधी लकीर बीच में थोड़ी आड़ी फिर ऊपर की ओर सीधी ..उसके नाम का पहला अक्षर अंगुली की पोर में धंसा रह जाता है,पूरा नाम जैसे एक पूरी यात्रा कर ली हो...क्या वो दिन वो यात्रा वो समय,स्मृतियों में इतना ही ताजा रहेगा ..गहराती शाम में उदासी घूल जाती है सुख में दुखाती शाम पीड़ा की तरह घुलती जाती है ,कोई बात नहीं सपने रहेंगे तो जियेंगे -संग,पार्क की एक बेंच पर बैठे सोचा जाना सामने,एक सेमल का बूढा पेड़ है जिसके तने में गहरी खोह दिखाई दे रही है ...... नारंगी फूलों से भरा, कुछ फूल खोह में धंस जाते हैं कुछ क़दमों में.. ओर आस-पास बिखर जाते हेँ शाम टूटती सी बीतती है थोड़ा कुछ भुलाने की कोशिश में बहुत कुछ याद आता है ..गुजरता है मन से, अपने आस पास की दुनिया ओर वे तमाम लोग जो हमारे बीच हेँ उनसे लड़ने का कोई बहाना ढूँढू ..लगता है... कहानी का एक हिस्सा पूरा होता है ,कहानी नहीं ..जिन्दगी भी नहीं 
हवा के साथ  बजते हुए कुछ शब्द दिल में घुसपैठ करते हेँ, बुध्धम शरणम गच्छामि ...की आवाज..कानो से टकराकर लौटती है    शरीर  के साथ उंचाई से नीचे का डर,ओर डर के साथ धडाम से नीचे  गिर जाने  वाला डर होता है ,वरना तो ऐसा कुछ भी नहीं है ..ओर फिर आँखें मुंद जाती है,बजाय बस सोच ही काफी है, बेचैनियों की तरल छूअन उसे छू कर लौट आती है तब तक अस्सी करोड़ से ज्यादा बार उसे सोचा जा सकता है ..बहुत कुछ ऐसा था जिसे नहीं समझा जा सका ,कितनी आहटें ओर दस्तकें थी पर वही नहीं था, जो उसके लिए था किसी ओर के लिए संभव ही नहीं था एक ऐसा सच जो पानी में घुल मिल गये की तरह था ,इस बार भी लगा वह लौट आयेगा कई बार की तरह...बीते सालों में उसका इन्तजार मौसमों की तरह ही तो किया था  ओर सोचा  जियेगा बीते कल को फिर से ..एक छोटे से जीवन में नामालूम से रंग भी बुरे मौसम की आशंका से फीके हुए जाते हेँ एक धूसर दुःख चुप्पी साध लेता है जिसके पीछे का सुख एक धनात्मक उम्मीद जगाता है ..बेहद निस्संग ओर उदास शाम भी आखिर खींच-तान के, दिन के साथ बीत ही जाती है, इस बारिशी नमी में भी कुछ शब्दों को सुखा लेने का सुख अन्दर ही अन्दर शोर बरपाता है ,कतई नहीं हो सकता  --क्या? वो ,जो तुम सोचती हो, वैसा -हाँ क्यों नहीं ...अपने को भरमाने के अलावा हो ही क्या सकता है फिर भी सब कुछ उंचाई से नीचे की ओर धंसता ही जाता है ,९० डिग्री के कोण से नीचे देखना देह को थरथरा जाता हैसामना करने का,  मुंदी आँखों से एक ठंडी साँस के साथ फिर से जीने की कोशिश --बस बचा लिया उसने वरना तो मर ही जाती --थैंक्स ,एक दिली थकान जुबां से बहार निकलती है उबड़-खाबड़ पहाड़ों से, दुःख से उबरना ,हमें लौटना होगा अपनी आबो- हवा में जहाँ हमारी चुप्पियाँ रहती हेँ जिनके बेहद करीब उसकी नर्म अँगुलियों ने खोज ली थी [लामायुरु]की सफेद पगडंडियाँ बस संग साथ की सोच से  उमीदों को  बल मिलता था,ओर कोशिशों से ,जहाँ अनाम  जंगली पेड़ों  की कंटीली गीली ओर चमकदार पत्तियों में धंसी धूप खिलखिल करती अचंभित करती है अब भी ...
सच में बावजूद हंसना फिर भी स्थगित रहता है -विक्टोरियन उपन्यास की तर्ज पर कभी कभी अभिभूत होना ...सर्वेश्वर की कविता का याद आना उसकी सौ कविताओं के साथ  उनके बाद ....कितना चौड़ा पाट   नदी का कितनी गहरी शाम'' वसंत में शुरू और ख़त्म हुए किस्से का वजूद बचा रहता है सर्दियों की शामे और रातें तो वक्त ही नहीं देती यूं  आती हें यूं  जाती हें कि बस उनका मुड़कर ओझल होना ही याद भर रह जता है फिलहाल दिन बड़े हें और राहत है लेकिन ऐसे कैसे दिन आये भी नहीं ,बीते भी नहीं,भूले भी नहीं,और खो गए किसी अक्षांश -देशांतर में दिक्काल के किसी कोण पर ना मालूम कहाँ ...वसंत का आना सेमल का दहकना बर्फ में दबी कविताओं वाले दिनों का पिघलना टहनी से बिछड़ी पत्तियों का नवजीवन बनना फिर सेमल के फूलों से फलियाँ बनना फिर उनमे गद बदी  रुई का भरना .हवा में एक गंध का फैलना धुंद और धुप के बीच चिड़ियों की उड़ानों का स्थगित रहना शाम का जाना रात का आना ...और छोटे-छोटे  सफेद सेल्फ  प्रिंटेड फूलों की ए लाइनसफेद  नाईटी में बहुत दिनों बाद खुद को हल्का महसूस करना ..तारों भरे आसमान के नीचे  छत्त  पर सुकून में मोबाईल के मेसेजेबोक्स में झांकना ,डिलीट करना बकवास ख़बरें ..दुनिया से बेखबर एक कतरा सुख की खातिर  आखिर कोई नाम तो चमके उसकी खातिर .
देह अद्भुत शान्ति की खोज में अपने से ही नितांत अलग थलग चल पड़ती है ---चरम उपलब्धि से कुछ कदम पीछे ही, राग -विराग ,आसक्ति -अनासक्ति ,मिलन--बिछोह और समय की क्रूरताओं में हमारी समिल्लित अनुभूतियों के बीच आकार लेता --हमारा बचा हुआ प्रेम,इसी उम्मीद पर तो बाढ़ को तैर कर --तूफान को पार कर --इस दुनिया को तुम्हारी ही आँखों से देखते हुए,कोई अगर बची हो उन अधूरी इक्षाओं को पूरा करना, जीना चाहती हूँ, असंभव में कुछ संभव जोड़ते हुए -उन -सारे सपर्शों को गंध में लपेट--झिलमिलाते हुए अधीर दिन की तरह,  दो शब्दों में बोला गया एक शब्द, शहद में गूंथा हुआ नाम , देह की परिचित भाषा में - दिनों हफ़्तों महीनो सालों जिसमें तुम उजाले की शक्ल में दिखाई देते रहते हो हरदम , अपने लिए, तुम्हारे लिए बचाये गए जीवन में, अपने वासन्ती आँचल के बालूचरि ताने- बाने में,एक भरा पूरा सच, जिसे  इस जीवन में  तुम्हारे सिवा कोई कुछ नहीं जानता.
  एक चुप्प सी रात भी बीत जाती है -हरमोड़ पर भटकाव --हर भटकाव में ढेर से रास्ते --ठिठक जाओ या एक चुन लो या लौट जाओ सब कुछ आपकी सोच पर निर्भर करेगा ---लौटो तो दस पांच खिड़कियों वाला घर भी अंदर से रोशन नहीं करता, लेकिन  क्या जरूरी है हर खिड़की से रौशनी भीतर आये --लेकिन इन्ही में से किसी दिन या रात तयशुदा मृत्यु  जरूर आएगी --मृत्यु  का भय घेरता है ---'कौन हो तुम ''पूछते ही वह धूप की परछाई में गुम  होता है किसी मुकम्मल स्पर्श से जीवित होती देह --फिर छूट जाने से डरती है तेज गले से रुलाई का भरभराना रोने से बदत्तर --कितना  दम घुटता  है कोई माप नहीं, एक तपिश देह में उतरती है --जल में उँगलियाँ डूबा देना एक सुकून एक ठंडक एक राहत --लेकिन कब तक ?  एक चुप्प सी रात भी बीत जाती है -बहुत उदास किया एक उदास दिन -रात ने जो बीत गया अभी अभी, डब डब  सी आवाज़ करता पानी में

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

कलमकारी भारत की प्रमुख लोककलाओं में से एक है

कलमकारी भारत की प्रमुख लोककलाओं में से एक है
कपड़े पर जन जीवन ये कलमकारी कहलाती है,दक्षिण में ये कला खूब विकसित हुई ,ये कला एक श्रम साध्य कार्य है ,चित्र को वेजिटेबल डाय द्वारा चार पांच दिन में उकेरा जा कर तैयार किया जाता है , इसे इमली के बीज उसके पानी ,फिटकरी के घोल से बार बार निकाला जाता है ,इमली की लकड़ी के कोयले से ही आकृति उभारी जाती है,ये पूरी तरह से केमिकल रंगों से मुक्त होते है,इस कारण महंगे भी होते हैं , इस कला के कलाकारों को फिर भी ।उतना मेहनताना नहीं मिलता जिसके वो हक़दार हैं-महंगे और चमीकीले  बाजारों ने  इन बेहद कर्मठ कलाकारों के जीवन की रौशनी कम कर  दी है ,सरकारों द्वारा प्रायोजित बाजारों और हाट मेलों में इनके हुनर को सराहा तो बहुत जाता है लेकिन इन्हे अपने माल और मेहनताना के वाजिब मूल्य नहीं मिलते ,इससे भी बड़ी विडंबना यह है की वेजिटेबिल डाय वाले कपड़ों के मुकाबले में मार्केट में सिंथेटिक डाय वाले कपड़ों की नकल तेजी से आ जाती है ,और जानकारी के अभाव में ,लोग इन वेजेटेबिल्स डाय की असल कीमत देने को तैयार नहीं होते 
क़लमकारी एक हस्तकला का प्रकार है जिस में हाथ से सूती कपड़े पर रंगीन ब्लॉक से छाप बनाई जाती हैक़लमकारी शब्द का प्रयोग कला एवं निर्मित कपड़े दोनो के लिए किया जाता है मुख्य रूप से यह कला भारत एवं ईरान में प्रचलित है।
सर्वप्रथम वस्त्र को रात भर गाय के गोबर के घोल में डुबोकर रखा जाता है अगले दिन इसे धूप में सुखाकर दूध, माँड के घोल में डुबोया जाता है। बाद में अच्छी तरह से सुखाकर इसे नरम करने के लिए लकड़ी के दस्ते से कूटा जाता है। इस पर चित्रकारी करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक पौधों, पत्तियों, पेड़ों की छाल, तनों आदि का उपयोग किया जाता है।
भारत में क़लमकारी के दो रूप प्रधान रूप से विकसित हुए हैं एक  हैं मछिलिपट्नम क़लमकारी और दूसरा श्रीकलाहस्ति क़लमकारी।
मछिलिपट्नम क़लमकारी में मुख्य रूप से पादप रंगों का उपयोग लकड़ी के ब्लॉक के माध्यम से किया जाता है। इसके लिए जिस कपड़े का उपयोग होता है वह आंध्रप्रदेश के मछिलिपट्नम प्रांत में बनाया जाता है। इस शैली से बनाई गई हस्तशिल्प वस्तुओं को मुगल काल में दीवार पर सजावट के तौर पर लगाया जाता था,वर्तमान में ये साड़ियों बेडशीट दुपट्टे सूट्स रुमाल और घरेलू सजावटी वस्त्रों में भी बखूबी की जा रही है 
[चित्र में एक असल वेजिटेबल डाय वाला कलमकारी saari
 

खिलंदड़ी --गिलहरियां बहुत आसानी से पीछा करती हें --एक दूसरे का

खिलंदड़ी --गिलहरियां बहुत आसानी से 

पीछा करती हें --एक दूसरे का 

--वहाँ प्रतियोगिता नहीं है /उनकी बेहिसाब दौड़ती-फुदकती दुनिया में /-
-एक आरामदायक सुरक्षा है /उजली सुबहों में घास के बीज कुतरती गिलहरियां मुझे पसंद हें /-
-उतरती दोपहर और शुरू होती शामों से पहले वाले सन्नाटे में /--
पत्तों की  हरी रौशनी में झुरमुटों के बीच /उनका होना एक हलचल है /-
-पत्तों के गिरते रहने में भी /
--तब भी ,जब सुकमा की झीरम घाटी में विस्फोट होता है /
और पत्तों की  नमी यकायक सूख जाती है
/--भरभराकर टूटते शब्द बौने होते जाते हें /
तब कड़क और कलफदार चेहरों वाली इस दुनिया को /-
-अपनी गोल किन्तु छोटी और चमकदार आँखों से ,
चौकन्ने कानों से,  पंजो के बल /पेड़ के तने को नन्हे पंजों से थामे / -खड़ी  हो देखती है 
,झांकती ,सुनती है गिलहरियां- अगल बगल -
---मेरी समझ से---लचीली गिलहरियां दुःख ताप  ईर्ष्या  से परे
दुनियावी चीजों को एक सिरे से देखती मिलेंगी /-
-एक लम्बे विलाप को पूर्ण विराम देती सी /
-किसी लोकवाद्य यंत्र की  तरह बजती हुई  निष्कपट /
-बांस की  दो चिपटियों  के बीच दबकर निकलती सी उनकी आवाज़ की  मिठास /-
उस-- इस समय में /-जिनमे दर्ज है हमारा प्रेम /-
-प्रेम के उत्सव की  तरह ,मंगलगीत गाती बीतती  है /
--फिर आना तुम याद बहुत कहती--/

और तमाम तरक्कियों के बावजूद बदत्तर  होती जाती इस दुनिया में /
-बचे हुए खूबसूरत प्रेम की  मानिंद /
जो घास के एक  नन्हे तिनके के सहारे थाम लेती है, पूरा आकाश /-
उन्ही गिलहरियों से मुझे बेहद  प्रेम है 
---बेहद
गिलहरियां--[कविता ]
विधुल्लता 

शनिवार, 22 जुलाई 2017

# भारतीय खान पान ,परम्परा और हमारे व्यवहार और हमारी रेलवे

# भारतीय खान पान ,परम्परा और हमारे व्यवहार और हमारी रेलवे 
कल एक खबर देख रही थी ,भारतीय रेल विभाग में खान पान को लेकर कितनी गड़बड़ियां है ,हेल्थ को लेकर सरकार एक तरफ चौकन्ने होने का दावा करती है, दूसरी तरफ ,ऐसा खान -पान जो कई बीमारियों के साथ जान लेवा हो सकता है --तो कहाँ है हमारी गलती और कहाँ है सरकारी भूले ,
बचपन में रेल के सफर के दौरान हर स्टेशन पर हमें सीज़नल फल फ्रूट मिल जाते थे,करौंदे ,आम अमरूद, ककड़ी खीरा चिरोंजी ,शहतूत,फालसे,जामून और उबलासूखा हुआ चना मूमफली आदि, एक सुराही होती थी या छागल जिसमें पानी भर कर घर से ले आते थे ,खाने में अचार पूड़ियाँ पराठे आलू की सब्जी --और नमकीन --सोने के लिए एक मोटी से दरी होल्डाल एकाध एयर पिलो होता, सफर कितना ही लंबा होता मज़ा आता था,और आराम से कट जाता था 
धीरे धीरे सब बदल गया ,वातानुकूलित डिब्बे सफ़ेद झक चादरें कम्बल --और उसमें रेलवे की मन मर्ज़ी का खाना --रेलनीर --जिससे ना मन भरता है ना पेट --अब स्टेशन पर वो फल कटी हुई ककड़ी भुट्टे नहीं मिलते ,अब हम अंकल चिप्स हल्दीराम की भुजिया खाते हैं ,वो भी मनमाने दामों पर ,अब सफर पर चलने के दौरान औरते वो मशक्क्त नहीं करती जो हमारी माँ को हमने देखा --वो दो चार लोगों की अतिरिक्त खान सामग्री साथ रखती थी कि ,नामालूम कब ट्रैन लेट हो जाये कब कहाँ रुक जाना पड़ जाए, और ऐसा होता भी था ,तब माँ की चतुराई देखते ही बनती थी ,बचपन के ऐसे तमाम किस्से याद है जब हमने रातें वोटिंग हाल में गुजारी लेकिन खाना कम नहीं पड़ा बल्कि आस पास में बांटकर भी बच जाता था ---अब एक शब्द ' सुनती हूँ ज़हर खुरानी , ना किसी का खाना खाइये ना खिलाइये , चोरों और ठगों का बोल बाला है हमारी ये परम्परा है क्या सब कुछ अकेले अकेले खा जाएँ --सहयात्रियों को बांटे बिना --लेकिन सब कुछ बदलने के साथ मानवीय वृतियां भी ज्यादा बदली और ज्यादा ठगी होने लगी --सोचने की बात ये हैकि ऐसा क्यों हो रहा है --पूँजीवाद ने जो भी बदला है उससे भौतिक प्रगति के सूचकांक चाहे जितने ऊँचे हो ,लेकिन शनै शनै मानवीय वृतियों का ह्रास हुआ है और होता जा रहा है -
पिछले साल ही में तिरुपति से लौट रही थी सम्पर्क क्रांति [ए पी ] उसमें पेंट्री कार ही नहीं थी ये ट्रैन तिरुपति से सुबह 5 बजे निकलती है ,वो तो हमारी बर्थ के बगल में एक रेल अधिकारी थे उन्हें हैदराबाद उतरना था उन्होंने कहीं काल किया और इडली डो से का इंतजाम हुआ ,एसी 2 ,और ऐसी 1 में भी वही वेंडर आते हैं जो रेलवे से अथोराइज़्ड होते हैं और उनके पास भी वही होता है जिस खाने का हम या तो खा नही पाते या लम्बे सफर में उसे पचा नही पाते, इसका विकल्प नहीं होता ,जाते वक़्त तो हम दो दिन तक के सफर का भरपूर खाना साथ रखते हैं --लेकिन लौटते वक़्त क्या करें --आजकल यदि किसी रिश्तेदार का कोई स्टेशन बीच राह पड़ता भी है तो --कई बहाने है ,किसी का घर दूर है ,तो कोई बिज़ी है ,कोई आफिस में है ,कोई बीमार है ---तो कहने और सुनने के बीच स्वाभिमान आड़े आ जाता है --बचपन में हमारे शहर से किसी परिचित /रिश्तेदार /परिवार केगुजरने पर माँ खाना लेकर भेजती थी यथा संभव उनके पसंद का ,और अब सब कुछ रेलवे सडा गला खाना मैनेज करता है ---
शताब्दी से अपनी दो सालपहले की यात्रा के दौरान पड़ोस के एक बुजुर्ग दम्पत्ति जो जल्दबाजी में खाने का पैकेट घर भूल आये थे --मुश्किल में आ गए उन दोनों को शुगर थी जब नाश्ता ,खाना सर्व होता वो समेटकर रख देते या लौटा देते --मैंने पूछा तो पता चला डायबिटिक हैं ,और अब तक जितना खान पान सर्व हो रहा था उनके काम का ना था --मैंने अपने बेग से उन्हें चने और कुछ नमकीन दिया --वेंडर से दही मांगा तो नहीं था ना लस्सी थी और थी भी तो मीठी --रेलवे ने उस वक़्त कांट्रेक्ट आगरा केंट के किसी कांट्रेक्टर को दिया था --प्लेट में रखे पेपर नेपकिन पर उनका नाम फोन नंबर था काल किया और सजेशन दिया --एक माह बाद अखबार में छपा भी अब डायबिटिक लोगों के लिए शताब्दी में खाना अलग से दिया जाएगा --वो लागू हुआ या नहीं ,नहीं पता 
हम अपने बचपन से ही खान पान की बिगड़ी आदतों की वजह से बड़े होने तक मुश्किल में रहते हैं, हम सभी भाई बहन मूम्फ़ली ककड़ी चना बिस्कुट से पेट भर सकते हैं --देखती हूँ सफर के दौरान बच्चे तो बच्चे, माँ बाप भी कोल्डड्रिंक्स और जंकफूड डकारते हुए सफर पूरा करते हैं और साथ में रेलवे का कुभोजन भी ,
सोम नाथ एक्सप्रेस में सोमनाथ की यात्रा के दौरान चूहों की भरमार थी -सीट बर्थ में कुतरे हुए बिस्किट रोटियां --तो तमीज़ किसे सिखाएं रेलवे को या खुद को ---बिना धुली चादरें प्रेस करके फिर यात्रियों को दे देना --आप सजग नहीं तो भुगतो किसी इंफेक्शन को -मेरा चाहे जिस कैटेगरी में रिज़र्वेशन हो में अपनी बेडशीट ले जाना नहीं भूलती -भूल जाऊं तो दुपट्टे को ही उपयोग में लाती हूँ चादरों के नीचे --बाहरी खान पान -रहन सहन से एक अज्ञात डर सताता है और उसके सारे उपाय कर लेना जरूरी समझती हूँ 
फिर बेटी को बताया उसने कहा मॉ आगे से किसी जंक्शन का पता कर के वाहन से आन लाइन बुकिंग करो ब्रेकफास्ट लांच डिनर सब कुछ मिलेगा ,में कहती हूँ ये अमेरिका नहीं है बेटा ,ट्रैन अक्सर लेट होती है ,खाने की क्वालिटी खराब हो तो क्या ग्यारंटी पैसा वापिस होगा ,और होगा भी तो इतनी झंझट में कौन फंसे --तुम अमेरिका में हो हम इंडिया में --कुछ दिन पहले हमारे फेसबुक दोस्त आर एन शर्मा जी भोपाल से गुजरे तो मैंने उनसे कहा था, आप पहले बताते तो में खाना लेकर आती,उज्जैन से भोपाल की दूरी ट्रैन से 4 घंटे की है,लेकिन हमारी सास पूड़ी सब्जी अचार पैक करके रखती थी, जाने कब जरूरत पड़ जाए,और अक्सर मक्सी या काला पीपल पे ट्रैन 4 4 घंटे खड़ी रहती थी, तब ना कार थी ना बस रुट अच्छे थे ,आज भी कार के सफर के दौरान भी में खाना जरूर साथरखती हूँ वो उपयोग ना आये तो किसी जरूरत मंद को दे देती हूँ --एक बात सच है की हम दूसरे के लिए ऐसा नहीं करना चाहते इसके पीछे एक ही मकसद है ,की फिर हमे भी करना पडेगा ,अगर सभी इस भाव को दिल से निकाल दें वक़्त जरूरत अपने इष्ट मित्रों रिश्तेदारों को भोजन पैक कर देते रहें तो रेलवे की जरूरत ही नहीं होगी यथासंभव साथ घर का बना शुद्ध सात्विक भोजन साथ ले जाएँ 
और में सच कहूँ मुझे आज भी स्टेशन पर अपने परिचितों को खाना देकर आना अच्छा लगता है एक सुकून है किसी हमारे को, हमारे शहर से गुजरते देखना और उसे शुद्ध स्वादिष्ट घर का ,हाथ से बना भोजन खिलाकर तृप्त होना
सरकारें ना सुधरी है ना सुधरेंगी --आप हमको ही सुधरना होगा अपनी आदतों और बिगड़े चलन पर कंट्रोल करना होगा
[कल रात इंडियन रेलवे के बिगड़े खान पान पर रिपोट देख सुनकर ]
[इसे अपने ब्लॉग ,ताना बाना,के लिए लिखा है,सोचा यहाँ भी पेश कर दूँ ]

शुक्रवार, 19 मई 2017

इस वर्तमान को अतीत होने से फिलवक्त बचाना चाहती हूँ,बस इतना ही तो चाहती हूँ

स वर्तमान को अतीत होने से फिलवक्त बचाना चाहती हूँ,बस इतना ही तो चाहती हूँ 

## और में चल पड़ती हूँ ,जंगलों की तरफ -
जंगलों के अंतिम विनाश के खिलाफ़ --
अपनी आत्मा की समूल शुद्धि -के लिए -
तुम्हारी स्मृति के गाढ़े हरियल होने को
जंगल की सुवासित देह को,पेड़ों की सुगठित गठन ,चमकीले पत्तों ,अनाम फूलों की जंगली खुशबूओं को ,
भरे पूरे गर्भा गूलर को ,चट्टान के सीने से लिपटी प्रेम पगी लत्तरों को आत्मसात करने 
चलते चलते - 
 देखती हूँ शहर के तालाब का अंतिम छोर लांघते, मछुआरों को जाल डाले 
कच्चे तूरे हरे सिंघाड़ों से लदी नाव को किनारे लगते हुए आहिस्ता -
और में चलती रहती हूँ ,गहरी नदियों ऊँचे पहाड़ों की सीमांत तक ,
खुद को तुम्हारी और चलते देखना-मानो तुम वहां हो -
'भीम बैठिका, की अंतिम चोटी से मॉरीशस की 'मुड़िया' चोटी तक
पूरा शहर टिमटिम जुगनूओं सा ,

में चाहती हूँ तुम्हे दिखाना अपनी आँख से,
सांस लेते शाल वृक्ष,सागौन वन वृक्षों को -
उनसे बात करते,उनमें निमग्न होना,रोजगार और शोर से परे,
बस इतना ही चाहती हूँ -
ताकि सुन पाओ गुन पाओ मुझे भी,एक अनुष्ठान की तरह -समझ पाओ मेरी साधारणता को -
चहकती वनस्पतियों के दिन है ये और उनकी सुगंध से भर दूं हथेलियों से तुम्हारी देह,  -चाहती हूँ
वहीँ कहीं आस -पास --धुँआती लकड़ी पे बनती सौंधी चाय के अस्वाद संग -गीली आँखों से
एक मुस्कान का बाहर आना --दृश्य से  
--उस वक़्त 
एक जीवन का बीत जाना  हो -वहाँ
पहाड़ी सीने पर उड़ते धुएँ से बनते धूसर बरसाती रंग में-एक भूरी चिड़िया का तिनका बनता घोसला -देखना
चट्टान के सीने पर खड़े निड़र पेड़,पत्थरों पे उकेरी प्रेम की प्रतिध्वनियां -जंगल की अनगूंज सुनना
मेरे धानी दुपट्टे से छनकर आती जंगली मेहँदी की खुशबू,और प्रेम में लीन वो काला जंगली खरगोशों का जोड़ा
,देखना शाम की ठंडक में,तुम्हारी आँखों के जुगनुओं को समेट लेना तभी,फिर देखना जंगली झरना -पहाड़ी ऊंचाई पे,
काँधे पर तुम्हारे,अपनी साँसों का दुशाला -ओढ़े सो जाना
बीच आधी रात,पूरी रात में खिलने वाले फूलों को देखना,देखते हुए --
सोचती हूँ -सुनूंगी तुमसे एक कविता -तुम्हारी-अलौकिक इच्छाओं से भरी
फिर अपने नाम का- 
 जाप- उच्चारण बार बार 
इस ब्रह्मांड के जड़ चेतन से निर्विवाद अलग थलग,संशय रहित,आत्मिक और कायिक निकटता में 
बस इतना ही तो चाहती हूँ --
में इस वर्तमान को अतीत होने से फिलवक्त बचाना चाहती हूँ
जो तुम्हे दिखाना है,उसे आत्मसात कर 
एक मुकम्मल जंगल से गुजर जाना चाहती हूँ -यकीन करो में,अपनी गवाह बन -सरसराती जंगली हवा की तरह 
ना लौटकर आने के लिए -
लेकिन थोड़ा ज्यादा चाहती हूँ -
बस इतना ही ---

रविवार, 11 सितंबर 2016

## जेब्रा क्रॉसिंग -6,,बाहरी अँधेरे में एक सनातन भिक्षु मन की बंटी हुई दुनिया में डोलता है
आज खबर है इस शहर को स्मार्ट सिटी में तब्दील किया जाएगा तो निश्चित ही वो ज़ेब्रा क्रासिंग भी कई नए मोड़ के साथ अपनी नई शक्ल में सामने होगा,बैचैन हूँ इस खबर से - इस खबर के अलावा यहाँ सब कुछ ठीक ठाक है लेकिन सनातन बीते कई वर्षों में समय अपनी रफ़्तार से आहिस्ता घटती हुई घटनाओं और काल जिसमें हम तुम बीत रहे हैं चल रहा है -मेरा मन यकीन करों उसमें नही लगता जिंदगी में कितनी सारी बातें उल्ट हो जाती है --असावधानी से पीटे मोहरे और फिर भी खेल जारी रहे तो इसका मतलब हम हारना नही चाहते ---जीत की उम्मीद के बिना --और मुश्किल और दुःख यही ना की दूसरी बाजी खेलने नही मिलती 
उम्र दिन गिन रही है और मुझे याद आया अचानक वो दिन --लेकवयू से श्यामला हिल्स की पहाड़ियों तक जब हम जाने क्या सोच पांच किलोमीटर तक पैदल चलते रहे उस दिन हल्की ठंडक थी सड़कें दूर तक सूनसान ऊपर नील आकाश में चमकता नर्म पीला चाँद साथ चलता हुआ,तुम्हारा बात को बीच बीच में अधूरा छोड़ देना ''सुनो एक जरूरी बात -और तुमने मेरा हाथ हाथों से छोड़ दिया थोड़ी तपिश भरी हथेलियों में हल्की ठण्ड का टुकड़ा सिमट आया और बाहरी दुनिया से मन जुड़ गया --में देखती हूँ तुम्हारी आँखों में एक स्लेटी शाम का अन्धेरा -नही कुछ नहीं जाने क्या सोच बात अधूरी छोड़ दी तुमने ---आज इतने सालों बाद भी उस अधूरी बात को सुनना चाहती हूँ और एक पल में में उस ज़ेब्रा क्रॉसिंग को पार करती हूँ एक बिना भीड़ वाला दिन उस दिन भारत भवन से एक प्ले देख कर लौटे हुए मेरी पैरट ग्रीन जामवार साड़ी -के पल्लू पर पर्पल कलर के बने मोर पे कैसे मोहित हुए थे तुम --ज्यादा ही मूडी हो गए थे कहते कहते तुम मेरी मोरनी और में, ये मोर--उड़ने मत देना -में हंसी, मोर वैसे भी कहाँ उड़ पाते हैं -सहेज रखना तुमने कहा -
-आज वार्डरोब से कई साड़ियां निकाली कामवाली बाई से और वो चीख पड़ी दीदी ये तो में लूंगी आपको तो नहीं देखा पहने कभी आनन् फानन में उसने झट उसी पल्लू को सीने पे डाल कहा देखो तो कितनी अच्छी -साड़ी झपट कर मैंने उससे कहा ,,ना --ये नहीं इसके बदले दूसरी दोऔर ले लो पर ये नही दूँगी --क्या प्रेम और आस्था के जिए चरम क्षणों में हम जीवन की दूसरी यंत्रणाओं संग सहनीय नही बनाते --बनते --शायद हाँ 
- कोई उदासी कोई ,कोई कुंठा ,कोई याद कोई मोह ,-और ऐसा ही कोई रूखा सूखा दिन किसी रात में गड़मड़ होता है कोई ठौर नहीं ,बेस्वाद और तूरा सा दिन दूर से नजदीक की चीजों को देखता हुआ ख़त्म होता है और रात पास आकर दूर जा कर सोचती है --हर मोड़ पर भटकाव --हर जगह ढेर से रास्ते --ठिठक जाओ या एक चुन लो या लौट जाओ सब कुछ आपकी सोच पर निर्भर करेगा ---लौटो तो दस पांच खिड़कियों वाला घर भी अंदर से रोशन नहीं करता, लेकिन क्या जरूरी है हर खिड़की से रौशनी भीतर आये --क्या इन्ही में से किसी दिन या रात -- तयशुदा मृत्यु नही आएगी सवाल अपने आप से होता है --मृत्यु का भय घेरता है ---कई डर सताते हेँ एक साथ .दरवाजों पर नीले परदे कांपते हेँ सचमुच सच सा लगता था- वो साथ अब छूट जाता है ओर फिर --.
.इस घटाटोप में कोई हाथ थाम लेता है .कहने को बहुत कुछ था तब भी अब भी दरअसल एक पूरा भाषा विज्ञान था ओर कहने के खतरे भी नहीं थे, उँगलियों में गंध का टुकडा लिए, लेकिन हम सोचते रहे संबंधों की बड़ी डोर से धरती ओर आकाश को बाँध लेना, एक ही संवाद को दुहराते जाना ओर यह सोचते जाना की डूबने से पहले पानी के बीच किसी स्निग्ध फूल की तरह खिला था वो वक्त.
वक़्त को पलट कर देखना 'कौन हो तुम ''पूछते ही वह धूप की परछाई में गुम होता है किसी मुकम्मल स्पर्श से जीवित होती देह --फिर छूट जाने से डरती है तेज गले से रुलाई का भरभराना रोने से बदत्तर --कितना दम घुटता है कोई माप नहीं, एक तपिश देह में उतरती है --जल में उँगलियाँ डूबा देना एक सुकून एक ठंडक एक राहत --लेकिन कब तक ? एक चुप्प सी रात भी बीत जाती है -बहुत उदास किया एक उदास दिन -रात ने जो बीत गया अभी अभी, डब डब सी आवाज़ करता पानी में--
तुम्ही बताओ हे तथागत उस उजल और साफ दिन में जैसा आज यहाँ है उस दिन तब जब एक समरस समय में तालाब जल बीच में बने शिवमन्दिर भीतर एक सौ आठ रक्त-चम्पा के फूलों से में शिव का अभिषेक करुँगी -एक दिन ये होगा जरूर-- -सोचती ही रह जाती हूँ रात घिरती है-देर रात फ़रमाइशी गीतमाला में आशाजी का गीत बज उठता है 'समय और धीरे चलो --बुझ गई राह से छाँव --दूर है पी, का गाँव --धीरे चलो-साथ ही -पति की आवाज़ हेडफोन लगाकर क्यों नही सुनती हो उफ़ कितना शोर है--जेब्रा क्रॉसिंग की कालीपट्टियों पे चलता हुआ --बाहरी अँधेरे में एक सनातन भिक्षु मन की बंटी हुई दुनिया में डोलता है 
[जेब्रा क्रॉसिंग ,, अपनी लंबी कहानी का छटवां [6] भाग ]