सोमवार, 10 जुलाई 2023

उस दिन कितने पत्ते झड़े थे

 #एक धुकधुकी कलेजे से उतर अक्सर उसकी हथेलियां थाम लेती है आधी रात,

फिर उसके बरअक्स रखकर खुद को सोचना

मैंने सुना  है कि उसके आँगन में एक नीम का  बड़ा सा पेड़ है, ठीक वैसा ही जैसा मेरे घर के आँगन में और  मोड़ पे है ,जब तेज हवाएँ और आंधी चलती है, बरसात होती हैं बिजली चमकती है तो वो नींद से जाग दूर तक -------- अंधेरों में झांकता है कभी कभार -बदली से निकलते  छुपते चाँद की हल्की रौशनी में नीम की  पत्तियों पे पड़ी बूंदें फिसलती है ,और वो टकटक उन्हें देखा करता है ,तब उसके अंदर का वैभव चेहरे पर दमकता है ,यहाँ भी नीम की टहनियां झूमती है तब मन बेहद पीछे चला जाता है 

देर रात किताबों को समेटना  --मोबाईल ऑफ करना -- ठंडे पानी के घूंट भी  कलेजे को नही राहत देती ,पैरों को सिकोड़ लेना फिर लिहाफ में ढँक लेना -हाथों को मोड़कर गर्दन को सिर को मुड़ी हुई बाँहों में धंसा देने के बावजूद नींद आने की कोशिशें भी कभार  बेकार हो जाती है तो फिर परदों को सरका कर बाहर देखने लगना यही होता रहता है, जब तुमसे बात हुए बगैर दिन और आधी रात बीती जाती है

अक्सर बैचनियों में  ऐसा होता है  अपनी असहायता  से तकलीफ भी होती है लेकिन फिर भी--रात गुजर जाती है---

सुबह नीम के हरे -पीले पड़े गीले पत्तों से आँगन

पट जाता है फिर नए सिरे से दिन को शुरू होना होता है

(उस दिन कितने पत्ते झड़े थे जब उस मोड़ से मुड़ते हुए देखा था तुम्हे अपने घर से--और जो

 कहने से बच  गया याद रह गया

 जो सच में सच से ज्यादा था 

नीम के मोड़ पे "-

(कुछ फुटकर नोट्स)

री पोस्ट -

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