रविवार, 19 मई 2013

सुनो माँ ----माँ माँ माँ अनहद नाद की तरह ,गूंजती हो ---यकीन है तुम मुझे सुन रही हो




सुनो माँ 
तुम थी, तो थी हरियाली 
और कोई जलन मालूम ना थी 
बीच यात्रा में छूटा  सा ----
तुम्हारा मौन ,अब भी आवाज़ लगाता  है ''बेटा ''
ढेर से शब्दों के बावजूद अवाक -हूँ 
माँ माँ माँ अनहद नाद की तरह ,गूंजती हो 
भीतर  -बाहर,उत्सव में दुःख में सुख में 
आस-पास ,हरदम नेह का नीड़ बुनती सी तुम 
महसूस होती हो 
तुम पास हो ,ये अहसास है 
इस कोलाहल में /इस शून्य में अपनों -अजनबियों में 
फिर भी शेष हो ,मुझमें  
मेरी इस दुनिया में 

माँ मुझे यकीन है तुम मुझे सुन रही हो 
स्मृति जल में डूबते-उतराते ,बीते कई सालों में 
सारे मौसमों में बीतती रही तुम 
तुम्हारे ना होने पर कई दुःख आये और चले गए 
कई सुख आये और -रह गये 
तुम्हारी देह गंध -अब भी साढ़ीयों के ढेर में ताजा है 
और उस चौड़े जरी के पाट  वाली हरी साढी में तो तुम  ज्यादा ही याद आती हो 
पहनती हूँ जब-जब तुम्हारा स्पर्श जीवंत हो उठता है 
इसके अलावा भी 
दाल के छौंके में ,आम की मैथी लौंजी में 
लाल मिर्च की चटनी में ,आटे  बेसन के लड्डुओं में 
खट्टी -मीठी सी तुम मौजूद हो 
हर पल परछाई सी होती हो पास,
हमारी छोटी उपलब्धियों पर हमें विशिष्ट बना देने वाली माँ 
तुम्हारे कुछ अनमोल शब्द /कुछ सीखें /सौगातें 
तुम याद आती हो ता बस आती हो 
पेड़ नहीं काटना /बाल नहीं काटना/गुरूवार को हल्दी का उबटन करना /केले के पेड़ को  पूजना 
सूर्य उपासना करना ---
मंत्रोचार की ध्वनि में 
तुम्हारे निष्ठूर देवी देवताओं को पूजती हूँ आज भी 
भरसक कोशिश करती हूँ उन्हें निभाना  तुम्हारी खातिर 
अक्सर रातों में जब नींद नहीं आती 
आसमान से एक तारा चुन लेती हूँ -मान लेती हूँ तुम्हे 
आँख भर आती है तब 
इससे पहले की कोई आंसू इस लिखे पर गिरे 
उससे पहले थाम लेती हो 
मुझे यकीन है
सुनो माँ 
तुम मुझे सुन रही हो 
 
[अपनी माँ की स्मृति में आज अभी सुबह[
May 12 -2013]
 अभी ये शब्द ...जो छोड़ गई हमें सात  साल पहले ]

रविवार, 3 मार्च 2013

सच में बावजूद हंसना फिर भी स्थगित रहता है -विक्टोरियन उपन्यास की तर्ज पर कभी कभी अभिभूत होना ...सर्वेश्वर की कविता का याद आना उसकी सौ कविताओं के साथ उनके बाद ....कितना चौड़ा पाट नदी का कितनी गहरी शाम'' वसंत में शुरू और ख़त्म हुए किस्से का वजूद बचा रहता है

  • मेन गेट खोलते ही मोबाईल ओन करना,समय देखना और फिर चलना शुरू करना ...तब से ठीक एक घंटा होता है उसके पास .अपने आप से कहना ,झुक कर शूज़ को एक बार पैरों में ठीक से महसूस करना -फिर चलना ,,रोजाना की आदत में शुमार है पाँव चलतें हें देह चलती है और मन तो जैसे पूरे बर्ह्माण्ड का फेरा लगा -लगा कर लौटता है कतारबद्ध डुप्लेक्स मकानों की की नेम प्लेट पढ़ते जाना ..सरस्वती शिशु मंदिर के आहते में बच्चों की समवेत प्रार्थना के स्वर,डा वसंती साहू गायनाकोलाजिस्ट  जेपी  हॉस्पिटल,आशीष जैन कार्डियोलाजिस्ट ,दीपेश यादव एडवोकेट अनिल सोनी मेकेनिकल इंजीनियर ..बीच में एक बड़ा सा मटमैला मकान बदरंग जंग खाए गेट पर बड़ा सा ताला ----ये मकान बेचना है आगे मोबाईल नंबर बीएस एन एल का ...सारे दर्शय नाम का पहाड़ों की तरह रटते जाना ..बेमकसद सडक पार करते ही सरकारी मकानों की लाइन .बस स्टॉप पर इस्कूली बच्चों के हाथ थामे मा-बाप।।एक हलकी उसांस के साथ तभी अपने को लुक आफ्टर करना पुरानी आदतों जैसा ..सब कुछ वैसा ही है कुछ नहीं बदला और शायद बदले भी नहीं ..अपने साथ ही किसी चीज को देखने फिर समझने की समझ को सहेज लेना ---स्मृति की दृष्टि का धुंधला जाना ,अपने को पकड़ने की कोशिश करना ,थोडा आगे बढना ..लेकिन कुछ चीजें रह गई,,लगता तो है उन्हें छुए बिना निकल जाना और हैरान होकर पलटना ,उन्हें फिर देखना -अन्दर कुछ रिश्ते अभी तक बने हुए हें  ताजा-तरीन -एक अतीत राग का छिड जाना ,दुनिया भर की ख़बरें अनगिन हलचलें -एक फेहरिश्त में कुछ कुछ कभी एडिट तो कभी हायलाईट और कभी अंडर लाइन होता रहता है पर क्या करें आसमान कितना नीला है दिखाई देकर भी अंदाजा नहीं होता  सच अविश्वास ही आदमी को पराया बनाता है रंगों को बदरंग सामने शाहपुरा झील है उस पार छोटी पहाड़ी जिसके नीचे  खूबसूरत मकानों,पहाड़ी के ठीक पीछे  से  सूरज निकलना ही चाहता है कुछ छोटे मोड़ और दूर तक जाकर बड़े घुमाव ..बेतरतीब पेड़ों पर धुप उतरती है एक आवाज़ हवा में तैरती है कैसा है जीवन इन दिनों ..और बेख्याली में कहना ठीक बिलकुल ठीक .टूटे हुए आलाप की एक शक्ल बन जाती है एक खालीपन ..एक बदली हुई तमीज के साथ एक बदली हुई दुनिया ..और एक ठोकर ---पिछले दिनों हुई बेमौसमी बारिश में भीग कर आधी  बोरी  पत्थर हुई सीमेंट ,ठीक वैसी ही ठोकर ,गिरते-गिरते बच  जाना और संभल जाना ,गिर जाने के अहसास से कमतर नहीं होता ,सांसों का तेज होना फिर मोबाइल देखना ओह पैंतीस मिनिट गुजर गए ठोकर का एक हल्का अहसास पेरों  में अभी भी बना हुआ है --कमबख्त लोगों को जाने क्या सूझता है खासे मकान को तुडवा कर फिर बनवाना ईंट फर्श कांच प्लास्टर का मलबा सड़कों पर पटक देना ,कितनी बातें कितनी यादें कोई कैसे ऐसे ही बीच सड़क पर छोड़ सकता है ,अपने से मुखातिब होना अब वो घर से करीब दो ढाई किलोमीटर दूर है कालोनी का ये एक्सटेंशन एरिया है कई नए अधूरे बने मकान ...स्मृतियों का भी एक्सटेंशन ..अगले मोड़ से लौटना ,तुम ठीक तो हो?ये कोई सवाल है पूछने वाला ..है तो सही ..बस अब लौटो घर ..देखो अपना चेहरा देखो आईने से हाल पूछो सही जवाब तो उसी के पास होगा ,पर आइना भी सवाल ना कर बैठे उस काल खंड में जिसे कुछ साल पहले उम्र के एक हिस्से में जिया गया हो कोई मुकम्मल जवाब  नहीं उसके पास कोई अफसोस नहीं ....घर के नजदीकी वाला मिल्क पार्लर दिखाई पड़ता है और वहीँ से मुड़ना होता है .मोड़ से आठवां मकान मेरा अपना एक वो ही तो है इन दिनों भी बाकी दिनों की तरह ढेर से जामुनी फूलों की लतरों  से सजा में गेट पर हरदम स्वागत के लिए आतुर ...अन्दर दाखिले के साथ ही सीढियों के ठीक नीचे वाशबेसिन के उपरी रैक से केटाफिल क्लीनसिंग लोशन को चेहरे पर फैलाना जामुनी नेप्किंस से चेहरा पोंछना ..आह अब चेहरा साफ है ..आईने के भीतर से खुश चेहरा दुहाई देता है हंसती रहे तू हंसती रहे ....मनसे किसी परत का उतर जाना किवाड़ों  को ठेलकर  वो लौटे वसंत सा इस बार भी कुछ लरजता है इत्मीनान की लहर सा कुछ ठहरता है एक उम्मीद की सूरत ...तब जरूरत से ज्यादा सोचना ,ये सोचना कि सुरक्षित रह कर धीरे-धीरे मरना कैसा होता होगा और फिर अधिक सुरक्षित होने की फिक्र छोड़ कर बेफिक्र हो जाना --पसीजी हथेलियाँ पीठ पर एक आद्र  भाव लिए  ---रुको रुको प्लीज़ डोंट बी इमोशनल ,तर्कों के जरिये अपनी इमानदारी से अपनी काबलियत की दाद दो ..वाकई तुम अलग हो सबसे,, खुशकिस्मती कहें इसे या?गायब हुई तिलिस्मी  चीजें कैसे बार बार लौटती हें ...सच में बावजूद हंसना फिर भी स्थगित रहता है -विक्टोरियन उपन्यास की तर्ज पर कभी कभी अभिभूत होना ...सर्वेश्वर की कविता का याद आना उसकी सौ कविताओं के साथ  उनके बाद ....कितना चौड़ा पाट   नदी का कितनी गहरी शाम'' वसंत में शुरू और ख़त्म हुए किस्से का वजूद बचा रहता है सर्दियों की शामे और रातें तो वक्त ही नहीं देती यूं  आती हें यूं  जाती हें कि बस उनका मुड़कर ओझल होना ही याद भर रह जता है फिलहाल दिन बड़े हें और राहत है लेकिन ऐसे कैसे दिन आये भी नहीं ,बीते भी नहीं,भूले भी नहीं,और खो गए किसी अक्षांश -देशांतर में दिक्काल के किसी कोण पर ना मालूम कहाँ ...वसंत का आना सेमल का दहकना बर्फ में दबी कविताओं वाले दिनों का पिघलना टहनी से बिछड़ी पत्तियों का नवजीवन बनना फिर सेमल के फूलों से फलियाँ बनना फिर उनमे गद बदी  रुई का भरना .हवा में एक गंध का फैलना धुंद और धुप के बीच चिड़ियों की उड़ानों का स्थगित रहना शाम का जाना रात का आना ...और छोटे-छोटे  सफेद सेल्फ  प्रिंटेड फूलों की ए लाइनसफेद  नाईटी में बहुत दिनों बाद खुद को हल्का महसूस करना ..तारों भरे आसमान के नीचे  छत्त  पर सुकून में मोबाईल के मेसेजेबोक्स में झांकना ,डिलीट करना बकवास ख़बरें ..दुनिया से बेखबर एक कतरा सुख की खातिर  आखिर कोई नाम तो चमके उसकी खातिर ...
  • हकीकतों का लाये तखय्युल के बाहर 
    मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाये [शमशेर ]

बुधवार, 7 नवंबर 2012

बहुत कुछ छूट जाता हैअक्सर,जैसे कुछ भले लोग, और बेरहमी से छूट जाता है बरसों का साथ


बहुत कुछ छूट जाता हैअक्सर  
जैसे बचपन ,जैसे जवानी ,जैसे कुछ भले लोग,
और बेरहमी से छूट जाता है बरसों का साथ 
वक्त से पहलेटूटकर गिर जाती है हंसी 
सन्दर्भों के बदलते ही प्राथमिकताओं की सूचि में कहाँ से कहाँ पहुंचा दिए जाते हें लोग 
कुछ लोगों से अपने गाँव की मिटटी छूट जाती है 
छूट जाते हें खेत खलिहान अमराई कुआं बावड़ी 
हाथों से हाथ ,नाते रिश्तेदार ,यात्रा के बीच पेड़ फूल पहाड़ 
बहुत से लोग जाते हें यात्राओं पर सभी कहाँ पहुँच पाते  हें
कुछ बीच में ही हो जाते हें दुर्घटना ग्रस्त 
तमाम शुभकामनाओं के बावजूद .
.कुछ चीजें छूट जाती अकस्मात और कुछ आहिस्ता आहिस्ता
 कुछ पहले और कुछ बाद में 
एक दिन खुद से ही छूट जाती अपनी मिटटी सी देह 
और अपनी ही आँखों में भरे जल को देखना
 अपनी ही आँखों से देखना भी नहीं रहता शेष
 लेकिन इससे पहले कभी कभी या अक्सर
 ये  छूटना अखरता है बेहद ...
लेकिन जो छूटता है वो छूटता तो है ही  


आज पहली दफे महसूस हुआ शब्दों के पार जाने मे सहायक होते हें शब्द ही  [ कैलाश पचौरी ] 

सोमवार, 10 सितंबर 2012

एक सफेद कनेर का फूल उसके नाम ..जीत लेना खुद को उसके लिए..खैरियत ओर राजी ख़ुशी का सम्बन्ध वक्त ओर मेरे- उसके बीच वजह बन जाता है .


  •  फिर से लिखा है आज हरे कागज़ के टुकड़े पर ,साथ,ख़ुशी,ओर भरोसा ,  अरसे बाद इक्का - दुक्का विस्मृत कोनो को,वो भरोसा जो मिला था, बिना मांगे ओर याद किया एक नीला सा धुंआ छाया हुआ बेवजही चुप्पी पर   एक गुलदाउदी चेहरा ..फिर से बादल, बारिश ओर उदासी.. ओर लौट कर जाती हुई....ना आती हुई बमुश्किल चंद सांसे. उसका चेहरा कभी कभी यूँ ही उचाट नजर आने लगता है आइना भी अक्सर झूट बोल जाता है, पर आईने से कोई  शिकायत नहीं जब दुनिया की हर चीज मनमानी पर उतारू हो जाये ...कुछ दुश्वारियां थी ..एक लम्बी फेहरिश्त थी,तेजी से गुजरती उम्र थी, संसार की इस आवाजाही में बसी स्मृतियाँ ,क्या सब कुछ याद रख पाऊं बस इसलिए भूल जाना होगा लेकिन कितना ओर क्या ...अपने हरेपन में मौसम की मन मर्जी के आगे हार जाना होता है ..खैरियत ओर राजी ख़ुशी का सम्बन्ध वक्त ओर मेरे- उसके बीच वजह बन जाता है ..आश्रम रोड पर ट्रेफिक में फँसी कार के शीशे को थपथपाते दो हाथ ...पानी की बूंदों से भीगी दो रजनी गंधा की टहनियां,जाने क्या सोच कर ले लेती हूँ,उस रात खूब महकी रजनीगंधा,ओर देर रात तक माय एफ एम पर ''जाने क्या बात है नींद नहीं आती.. गीत बजता रहा...मानों पांच साल से यूँ ही बज रहा हो .. .शायद इसी में बेहतरी होगी लेकिन ..क्या बेहतर होगा ओर क्या नहीं आपकी बेहतरी इश्वर से ज्यादा कौन सोच सकता है ..कनाटप्लेस के मंदिर समूह में बनी ब्लेक मार्बल की गणपति की मूर्ति के  आगे सर झुकता है एक आत्मीय  सूची में उसका नाम नए सिरे से फिर जुड़ जाता है, मंदिर की परिक्रमा एक गुच्छा फूलों का हाथ में लिए, एक सफेद कनेर का फूल उसके नाम ..जीत लेना खुद को उसके लिए ..कुछ चीजें ओर पसंद नहीं बदलती शाम हो आई थी, हर बार मेसेज अलर्ट ने निराश किया लेकिन उस  शाम का रवा डोसा बेहद लजीज था तो दूसरी ओर .शाम के समाचार में बारिश बाबत हाय अलर्ट ...
  •  उसने  ऐसा तो नहीं चाहा था,  आसमान स्लेटी अंधेरों में गुमसुम हो जाता है तमाम साजिशें यकीन को पुख्ता करती हेँ  .आज फिर लिखा है लौटकर अपने शहर में  तुम्हारे शहर के बादल को बारिश के लिए, पहाड़ों को नदिया के लिए, इन थरथराते शब्दों को चुम्बन के लिए ...सच उस रात सुबह तक नींद नहीं आई सुबह बारिश की नमीओर ठंडक थी दो घंटे यूँ ही एक ही जगह लेटे रहने का अपना सूकून था .कोई दुःख कोई ताप कोई खालीपन भी नहीं था...पूरा शहर पानी पानी था..मेरी जमीन भी डूब में थी ओर मुडे -तुडे सपने भी,,सीने में धडकते हुए  बस इक नाम भीगने से बच गया था ..दूसरे दिन हल्की धूप थी बड़ी उम्मीदों से नाउम्मीद होना तय था दिल ने कहा था ये  सच नहीं होगा वो जैसा तुमने चाहा ओर वही हुआ वैसा ही खैर .... उसे नहीं मालूम था,उसके  किस हथेली में धूप  थी ओर किसमें चांदनी ..जाने किसमें में कौन सा सपना रख दिया ..जल गया ...76 घंटे बाद दोपहर का सुनहरा ओर डूबती शाम की हल्की नीलाई- आसमानी मिलकर धूप-छाहीं हो जाते हेँ उसे बाएं हाथ की बीच वाली अंगुली पर भरपूर लपेट लेती हूँ ,थोड़ी ठंडक की उम्मीद ..राहत मिले ..शायद ..पहले ही दिन .कार के गेट में जल्दी बाजी में फँसी रह गई अंगुली .एक नीला सा दर्द ..आँख झिलमिला जाती है लोधी स्टेट की उस बिल्डिंग की नौवीं मंजिल तक लिफ्ट .बर्लिन के चार्ली स्कवेयर में तब्दील हो जाती है उस दिन भी यही हुआ था ..लापरवाही की भी हद है ...अपने को कोसने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं ..तब पचास हजार मील की दूरी भी तय हो गई थी ओर आज  महज पचास मील पर कोई विस्थापित हो  कर  रह  जाता  है ...उसकी डायरी में दर्ज ओर फाड़ दिए गए दिन ओर तारीखों में संयोगों से  सिमट जाते हेँ..कल -परसों आज -कल ...  जो उस तक नहीं पहुंचे ...ओर आज भी निश्चिंत नहीं हूँ कि लड़ने सुलह करने हंसने -रोने या राजी ख़ुशी जीने या डूब कर मर जाने के लिए क्या बचेगा मेरे पास ..आज फिर लिखने का मन है... कि एक छिला हुआ दिन, नील पड़ी वो अंगुली वो धूप छाहीं.. वो मौसम, वो शहर उसका, उनमें से गुजरते दिन रात उसके,  ओर बारिश में भीगा सफेद दुपट्टे का वो कोना ओर उसमें अटका बारिश में  रेशा-रेशा हुआ टूटा ओर उधड़ा सा  एक पीपल का पत्ता उसके शहर का देखो ना, साथ चला आया है अनायास एक जिद्द में ..जिसमें हम थे ओर जिसमें उलझी हमारी एक पूरी दुनिया ...कोई इस्तरी कोई शब्द कोई  लगन ओर जतन से .इन उलझनों पर करूँ .....वो पत्ता सफर करता है एक रात का सफर महज दो घंटों में आश्चर्य एयरपोर्ट से घर तक...मुझे सुनते देखते चुपचाप ..जिसने मुझे एक बूँद तक रोने ना दिया ..एक अकेलेपन में अपने आप से कठोर होना ..वाकई एक दूसरी ही तरह की नरमी में घुलमिल जाना भी था 

  • अजनबी शहर के अजनबी रास्ते मेरी तन्हाई पर मुस्कराते रहे 
  • में अकेला बहुत देर चलता रहा तुम याद बहुत देर तक आते रहे 
  • [राही मासूम रजा ]



 




मंगलवार, 14 अगस्त 2012

..सब कुछ उंचाई से नीचे की ओर धंसता ही जाता है ,९० डिग्री के कोण से नीचे देखना देह को थरथरा जाता है हवा के साथ बजते हुए कुछ शब्द दिल में घुसपैठ करते हेँ, बुध्धम शरणम गच्छामि

  • देर रात की अंतिम सौ  ख़बरों की आखरी खबर में मौसम विशेषज्ञों ने फिर तेज बारिश ओर तूफान की घोषणा की थी -हालाँकि झूटा निकला मौसम विभाग का अनुमान ,पिछले महीने ओर हफ्ते भर से मूसलाधार बारिश की वजह से अब कोई फर्क नहीं पड रहा था इस तरह के वेदर फॉर कास्ट से ..ओर मौसम की मासूमियत में घुली थी हर चीज रेशा-रेशा ,उसे मानों पता ही नहीं था की कितनी तबाही ओर तूफान आकर चले गये थे इस बीच ..फिर धूप भी निकली बड़ी मिन्नतों ओर मन्नतों के बाद, साथ ही उमीदों की खुली खिड़कियाँ से  सोच का गुब्बार बह निकला बाहर के मटमैले पानी संग ओर अन्दर सब कुछ पारदर्शी हो गया ..ऐसे में आसमान खुलता है पर लगता है ये सब थोड़े समय के लिए ही है ..ओर फिर एक मनमौजी बादल के साथ सफर की शुरुआत ,ख़ुश हो जाओ ..आश्वस्त करना अपने को ...जहाँ हम हेँ वहाँ से रौशनी कुछ ऐसे ही आएगी लगता है पीछे एक गरीब सूनापन ,पसरी हुई जड़ता एक बेगानापन अपने से निजात पाना चाहता है मुक्त होने का सवाल ही नहीं ,कोई दुःख है जो छीजता ही जाता है तुम्ही  बताओ? नहीं तो लिखो एक कागज़ पर लार्ज साइज़ में उसकी नाव बनाओ ओर छोड़ दो पानी की तरलता में कोई ठौर तो लगेगी, ना हो तो रफ्ता-रफ्ता गलते दुःख शायद राहत दे ...बस सोच ही काफी है, बेचैनियों की तरल छूअन उसे छू कर लौट आती है तब तक अस्सी करोड़ से ज्यादा बार उसे सोचा जा सकता है ..बहुत कुछ ऐसा था जिसे नहीं समझा जा सका ,कितनी आहटें ओर दस्तकें थी पर वही नहीं था, जो उसके लिए था किसी ओर के लिए संभव ही नहीं था एक ऐसा सच जो पानी में घुल मिल गये की तरह था ,इस बार भी लगा वह लौट आयेगा कई बार की तरह...बीते सालों में उसका इन्तजार मौसमों की तरह ही तो किया था  ओर सोचा  जियेगा बीते कल को फिर से ..एक छोटे से जीवन में नामालूम से रंग भी बुरे मौसम की आशंका से फीके हुए जाते हेँ एक धूसर दुःख चुप्पी साध लेता है जिसके पीछे का सुख एक धनात्मक उम्मीद जगाता है ..बेहद निस्संग ओर उदास शाम भी आखिर खींच-तान के, दिन के साथ बीत ही जाती है, इस बारिशी नमी में भी कुछ शब्दों को सुखा लेने का सुख अन्दर ही अन्दर शोर बरपाता है ,कतई नहीं हो सकता  --क्या? वो ,जो तुम सोचती हो, वैसा -हाँ क्यों नहीं ...अपने को भरमाने के अलावा हो ही क्या सकता है फिर भी सब कुछ उंचाई से नीचे की ओर धंसता ही जाता है ,९० डिग्री के कोण से नीचे देखना देह को थरथरा जाता है हवा के साथ  बजते हुए कुछ शब्द दिल में घुसपैठ करते हेँ, बुध्धम शरणम गच्छामि ...की आवाज..कानो से टकराकर लौटती है    शरीर  के साथ उंचाई से नीचे का डर,ओर डर के साथ धडाम से नीचे  गिर जाने  वाला डर होता है ,वरना तो ऐसा कुछ भी नहीं है ..ओर फिर आँखें मुंद जाती है,बजाय सामना करने का,  मुंदी आँखों से एक ठंडी साँस के साथ फिर से जीने की कोशिश --बस बचा लिया उसने वरना तो मर ही जाती --थैंक्स ,एक दिली थकान जुबां से बहार निकलती है उबड़-खाबड़ पहाड़ों से, दुःख से उबरना ,हमें लौटना होगा अपनी आबो- हवा में जहाँ हमारी चुप्पियाँ रहती हेँ जिनके बेहद करीब उसकी नर्म अँगुलियों ने खोज ली थी [लामायुरु]की सफेद पगडंडियाँ बस संग साथ की सोच से  उमीदों को  बल मिलता था,ओर कोशिशों से ,जहाँ अनाम  जंगली पेड़ों  की कंटीली गीली ओर चमकदार पत्तियों में धंसी धूप खिलखिल करती अचंभित करती है अब भी ...
  • लामायुरु लदाख की समृद्ध विरासत का सबसे प्राचीन ओर सर्वाधिक महत्वपूर्ण बौद्ध मठ....

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

.है ना हैरानी? तेज रफ्तार वक्त का, गति निरपेक्ष हो जाना ..इस समय में पिछले समय का ठहर जाना स्लेटी शाम का हँसते ही जाना. बाहरी अँधेरे में एक सनातन भिक्षु मन की बंटी हुई दुनिया में डोलता है


  • उसकी आवाज़ पिघल कर बारबार  गीली होती जाती है.लेकिन कोई सुनने वाला नहीं अपनी ही आवाज़ उसे छिली हुई लगती है .यूकेलिप्टस की नुकीली पत्तियों से छनकर आती लहराती गीली हवा राहत देती है विक्स वेपोरब सी ठंडक ओर खुशबू दोनों . लगातार  होती हुई बारिश में पत्ते जमीन पर फैली काई  के साथ सड़ जाते हेँ ओर उनकी मामूली कसैली गंध जुबान की सतह से होती हुई  दिमाग पर छा जाती है पूरे घर में इन दिनों गीलापन है दीवारों की नमी दिमाग पर भी निशान छोडती है,चीजों में वो बात नहीं जो अक्सर खुशक मौसम में हुआ करती है एक तो मौसम की मार दूसरे वैसे भी इन दिनों दिल दिमाग का सुकून छीना हुआ है ...लगता है मेरे शहर की बारिश उसके शहर पहुँच जाए दिल से दुआ करती हूँ आजकल वहाँ वैसे भी सूखा है एक चमकीला चेहरा दिमाग पर असर करता है टैरेस पर  खड़े होकर देखो दूर तक जहाँ नजर जाती है एक शमी का पेड़ झूम झूम कर लहराता ख़ुशी जाहिर करता दिखाई देता है रात हुई मुसलाधार बारिश के बाद पत्ता-पत्ता धुला ओर साफ.. उन के सर से काले सिलेटी बादल गुर्राते गुजरते हेँ तेजी से... उनका शोर कानो को दुखाता है, डराता भी है. बारिश की बूंदे चेहरे पर पड़ती है आंसू ओर रोना मानों पानी के साथ घुल-मिल जाते हेँ चलो कोई जवाब तलब नहीं करेगा  नीचे की तरफ देखो पानी की मोटी सी लहर दूसरे किनारे से बहती हुई सड़क पार करती दिखाई देती है ..जिसमे तेजी से घास  तिनके मरे हुए पत्ते एक दूसरे से उलझते से बहते ओझल होते जाते हेँ, ये कल्पना ही तो है ...कुछ किसी बड़े से पेड़ के तने- तले  वहीँ खाद हो जाने को मजबूर हो जायेंगे ओर कुछ किसी बड़े नाले या तालाब के मुहाने पर जाकर ठिठक कर पीछे मूड कर सोचेंगे ...एक जीवन था,जो  कैसे बीता ...साथ छोडती लहर सी टूटती इक्षाएं मुंडेर पर इधर-उधर फैल जाती है शाम उतरने को है दोपहर से लगातार हुई बारिश शाम होते होते अपने पीछे एक गीली उदासी का इंतजाम कर जाती है ..कोई अन्दर के धुंधलके को पछारता है,ओर बाहर की ओर बुहारता है शाम को आखिर बीतना है ओर वो बीत जाती है यूं कुछ ना कुछ को तो बीतना ही है बस एक मुकम्मिल स्मर्ति ठहरी रहती है रात शुरू होना चाहती है ...नींद में डूबे शहर के अँधेरे में जहाँ पिछले आठ घंटे से बिजली गुल है ,एक कोने में सिमटा सिकुड़ा रौशनी का टुकडा पानी में सराबोर चमकता है .
  •  .है ना हैरानी? तेज रफ्तार वक्त का, गति निरपेक्ष हो जाना ..इस समय में पिछले समय का ठहर जाना स्लेटी शाम का हँसते ही  जाना. बाहरी अँधेरे में एक सनातन भिक्षु मन की बंटी हुई दुनिया में डोलता है  कई डर सताते हेँ  एक साथ .दरवाजों पर नीले परदे कांपते हेँ सचमुच सच सा लगता था वो साथ अब छूट जाता है ओर फिर ..इस घटाटोप में कोई हाथ थाम लेता है .कहने को बहुत कुछ था तब भी अब भी दरअसल एक पूरा भाषा विज्ञान था ओर कहने के खतरे भी नहीं थे, उँगलियों में गंध का टुकडा लिए, लेकिन हम सोचते रहे संबंधों की बड़ी डोर से धरती ओर आकाश को बाँध लेना एक ही संवाद को दुहराते जाना ओर यह सोचते जाना की डूबने से पहले पानी के बीच किसी स्निग्ध  फूल की तरह खिला था वो वक्त.. वो पानी पर घर उसकी ख्वाहिशों का घर था ....बारिश फिर बरसना शुरू करती है कुछ बूंदे बालों पर कुछ गालों पर हथेलियों से उन्हें रगड़ कर वो चेहरे पर फैला देती है एक ठंडक स्पर्श से दिल में पहुँचती है  पार्क के दूसरी ओर की कालोनी में स्ट्रीट लाईट जल उठी है ....यहाँ भी पल दो पल में सब कुछ रोशन हो जाएगा पर लेकिन चमकदार पानी का चेहरा फिर भी स्याह ही रहेगा धूप निकलेगी कई दिनों की बारिश के बाद ..शायद कल 
नदी नहीं पीती अपना जल ,पहाड़  नहीं खाते कभी अपनी हरियाली,कोयल नहीं कूकती कभी अपने लिए तब हम किसके लिए जीते हें[रमेश अनुपम ] 

सोमवार, 14 मई 2012

.जैसे बीच यात्रा में छूटा हुआ मौन ,जैसे किसी निगूढ राह से मानों बीती हुई एक शाम ,बीत गई माँ ...हर दिन मुझमें शेष रह जाती हो ''माँ''

इंद्र धनुष के जितने रंग माँ के उतने शेड्स ,जब माँ थी तो जीवन में जल की तरह घुली हुई थी ...तब कोई जलन ना थी,वर्षों पीछे छूटे हुए समय को देखती हूँ तो इस समय से कुट्टी कर लेने को जी चाहता है --जहाँ तक पंख ले जाएँ बचपन से तब तक, जब तक माँ साथ थी ,लौट जाने को भी मन करता है ,माँ के साथ  बीता जीवन ..पल पल को शब्द देने का भी मन, कितनी बातें हेँ याद करूँ तो जीवन कम पड जाए ,,,माँ थी तो हरियाली अपने हरियाली पन में उनका प्रेम अपने प्रेमपन में उत्कट था ओर जिसकी कोई सानी नहीं.. तुम्हारी चिठ्ठी, लिखावट आवाज इश्वर से मांगी हुई प्रार्थनाएं हमारी  खातिर मांगी हुई शुभकामनाएं सब ज्यों की त्यों सुरक्षित है मुझमें लेकिन शर्मिन्दा हूँ जब तुम थी तो अपने संसार में गुम थे हम तुम हंसती थी, कहती थी.. संसार ऐसे ही चलता है ओर अब  ...अब तुम अपने संसार में हो  लेकिन सन्नाटे के स्वर में ..जैसे बीच यात्रा में छूटा हुआ मौन ,जैसे किसी निगूढ राह से मानों बीती हुई एक शाम ,बीत गई माँ ...हर दिन मुझमें शेष रह जाती हो ''माँ''यूं तुम्हारी स्मृति ताज़ी ही बनी रहती है रास्तों के उंच-नीच से आगाह करती ऐसा नहीं वैसा करो यूं नहीं ऐसा, रूको -चलो ---कितनी बातें कितने आदेश कितनी डांटें-फटकार ..कितना दुलार कितना प्यार माँ के ''बेटा '' बोले हुए शब्द का कोई मोल नहीं जब भी ठोकरें खाती हूँ इस उबड़-खाबड़ में तुम्हारी अनमोल सौगातें सीखें कानों में गूंजती हेँ बस लगता है यहीं पास ही तो हो कभी सपनो में तो कभी किसी अन्य की शक्ल में कभी किसी की आवाज में ओर कभी कच्ची कैरी की सुगंध में तुम अटी पड़ी रहती हो .माँ तुम्हारी देह गंध अक्सर दाल के छोंके में, तो कभी आम की लौंजी में, मेथीभाजी में. पोंड्स क्रीम में, बेडशीट्स के फूलों के तारों  में गमकती है. ढेर से शब्दों के बावजूद में अवाक हूँ अपनी पूरी रागात्मकता पूरी लय के साथ बात करना चाहती हूँ.. तुमसे ..ओ इन दिनों तो मोगरा बहुत खिला है उसकी खुशबू में तुम याद से भर जाती हो तुम्हे पसंद था मोगरा माँ बस इस लिए इन दिनों गाहे -बगाहे टांक लेती हूँ में भी बालों में मोगरे का गजरा ...तुम्हारी याद आती है तो बस आती ही चली जाती है, कितने ही दिन बीतते जाते हेँ रास्तों से गुजरते हेँ, मोड़ आते ...मुड़ते हेँ हर सुख में हर उपलब्धि पर ..पीठ पर तो माथे पर तो अक्सर ही सीने पर तुम्हारे  स्पर्श जीवंत हो उठते हेँ 
 हर ठोकर पर हर दुःख में बस, माँ माँ माँ अनहद नाद की तरह एक आवाज बजती है भीतर-बाहर ..कुछ नहीं अच्छा लगता माँ जब तुम याद आती हो .ये .टी वी ना बक झक करते रेडियो ना संगीत ,ना सारी दुनिया से जोड़कर रखने वाला कंप्यूटर ....काश तुम्हारी दुनिया से भी जोड़ देता, ना मिलती तुम कोई बात नहीं..एक क्लिक पर  तुमसे बातें ही हो जाती. कोई ऐसी लिस्ट होती जिसमें तुम्हे ढूँढ ही लेती ..समय के साथ बदलती चीजों ,रिश्तों, प्रेम से भी तब कहाँ फर्क पड़ता ..देखो माँ- में तो तुम्हे बेहद याद करती हूँ ओर आज सुबह अखबारों में, कंप्यूटर में, मोबाईल में आये  ढेरों मेंसेजेस में ...''माँ'' शब्द दुखी कर गया तुम ज्यादा शिद्दत से याद आती गई ...माँ तुम याद आती हो तो बस आती हो ..सुनो माँ मुझे यकीन है तुम मुझे सुन रही हो.. एक लड़की के लिए माँ क्या होती है  माँ ही जान सकती है ..आज तुम्हारे जैसा पोटली पुलाव बनाया देसी घी में भुने हुए चांवलों की खीर पूरे घर की डस्टिंग की, धूल से तुम्हे नफरत थी ,तुम्हारी दी हुई सुनहरी पाट की जामुनी हरी जामदानी  साढ़ी पहनी तुमने उसे पहना था जब ओर मुझे अच्छी लगी तो, तुमने उसे मुझे दे दी थी यह कह कर बहुत भारी है ...तुम पहनो बहुत जतन से संभाल कर रखा है उसे . तुम्हारी देह गंध अब तक ज्यों की त्यों उसमें बसी है .माँ तुम जैसा ही बनने की कोशिश करती हूँ पर नहीं बन पाती अब अपनी कामनाओं भरे संसार में अपने ही भीतर निमग्न होते आकाश में तुम दिखलाई पड़ती हो जहाँ बीच में खड़ा चतुर्थी का गोल चाँद टोक देता है, रोक लेता है.. रूको आज तुमसे बात करने को जी चाहता है.आज उपवास है तुम्हारा वो पूछता है पूजा ठीक से की .कोई गलती ती नहीं की ...वो प्रतिनिधितत्व करता है तुम्हारा ..उत्सव से हफ्ता दस दिन पहले शुरू हो जाते थे उत्सव घर में ओर अब कितने फीके-फीके से हेँ सब त्यौहार. कितना व्यापक उत्साह था तुममें माँ,ना कभी थकती ना रूकती ना शिकायत,बस दौड़ी दौड़ी हम लोगों की खातिर कुछ भी तो नहीं लौटा पाए तुम्हे .....आज का दिन उदास ओर चुपचाप है रात बीतने में वक्त है तुम्हारी आहटें इस भीढ़ में भी सुन पाती हूँ तुम्हे कौन ले गया हमसे दूर ...ओर छोड़ गया यहाँ एक निर्मम तटस्थता...बुक शेल्फ में तुम्हारा फोटो रखा है तुम्हे किताबें पसंद थी ,देखती हूँ जब जब तुम्हे, यकीन हो जाता है तुम पास ही हो ...बीते कितने बरस तुम्हारी देह के चारों ओर समवेत प्रार्थना के वे शब्द कानो में गूंजते हेँ साँसे रूक रूक कर चलती है .मोमबत्ती की लो की तरह जलती-पिघलती देह हमारे सामने देखते-देखते ही गुम हो गई 
दो सितम्बर २००५ की वो दोपहर गणपति अथर्व शीर्ष ओर  विष्णु सह्श्त्र नाम का पाठ करते करते आवाज छिल गईथी उस दिन,  तुम्हारा चेहरा ओर मुंदी आँखें ओर काया रह रह कर काँप उठती थी तुम्हारे निष्ठुर देवी देवता ..ओर हम बस देखते रह गये बीच रात माँ तुम चली गई ...तुम्हारे सामने उस दुनिया के बहुत से जरूरी  काम थे शायद,...तुम्हारे जाने के बाद कई दुःख आये -गए, कई सुख आये ओर रह गये पास... ओर अब उन्ही शेष सुखों में शेष हो मेरे भीतर,[अभी भी रह गई हेँ कई बातें.].

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

मुख्त्सिर सी बात है




मुख्त्सिर सी बात है वो गर्दन को थोड़ा उंचा करके ओर आँखों को कुछ ज्यादा ही सिकोड़कर फिर पलकों को जोड़कर थोड़ा खुला रखकर पूरे चेहरे का मुआयना करता है उसकी आँख नाक माथा ठुड्डी होंठ  ओर होंठों के बायीं तरफ गोल तिल फिर गर्दन को छोटे-छोटे टुकड़ों  में फोकस करता है अपनी पनीली नजरों से वो चेहरे के हर अक्स को दिल में उतार लेना चाहता है उसकी डायरी में दर्ज वक्त समानांतर नहीं चलता उसकी कोहनी के ऊपर खरोंच का निशान, वो रूकता है..जाने क्या सोचता होगा अपनी नजरों को वो निशान पर ले जाती है पूछे तो बताऊँ कैसे मोबाईल की रिंग बजते हुए वो दौड़ी थी उस दिन इस उम्मीद में के उसका  ही फ़ोन होगा ओर दरवाजे से कोहनी जा टक राई सीधे- -सीधे कोहनी की हड्डी में चोट ओर घसीटते हुए अपने को बचाने में ये खरोंच लम्बी सी ओर फोन भी अननोन उसका भी होता तो चोट सार्थक हो जाती ,वो असहज होती है... जाने क्या दिल में उतरता है ..ओर फिर आहिस्ता नजर उसके हाथों ,उसकी अँगुलियों पर जाते हुए डायमंड रिंग पर ठहरती है ..अनामिका में मोती पर ओर यहीं उसकी नजरें यकायक रूक जाती है ओर अपना हाथ वो उसकी अँगुलियों में फंसा देता है...आसमान में उडती उडती कोई पतंग स्थिर हो गई हो  जैसे ,अब उसकी आँखें मुस्कराती है वो यकीन कर लेना चाहता है अपनी खुशी का लेकिन उसकी चुप्पी से एक कोफ्त महसूस होती है वो, वो सब कहना चाहती है पर नहीं कह पाती..क्योंकि कहे का कोई फायदा भी नहीं  उसका बहुत कुछ जाने बिना भी काम चल जाता है, पर वो ऐसा नहीं कर पाती..चाह कर भी ..वो अपनी काली टी शर्ट की कॉलर को उंचा उठाकर अंगूठे ओर तर्जनी से मोड़ देकर छोड़ देता है ..हाथ से हाथ छूट जाता हैउसकी सुनहरी  हथेलियाँ आँखों में बस जाती है, आँखे फिर जाने क्या खोजती सी अब उसका ध्यान शायद रंगों की तरफ है.एक सरसरी तौर से  वो रंग चुनता है.. नजरें बचाकर, हम दोनों के बीच कोई नहीं.. ब्लेक-रेड प्रिंटेड शिफोन साडी पर उसकी सतही नजर दौडती है- लेकिन दिल में उतरती है ब्लेक कोफी  की एक चुस्की रेड ब्लाउज  के भीतर तक नर्म थोड़े गर्म  अहसास की तरह फैल जाती है ....
 ओर बाहरी दुनिया से टूटा ये रिश्ता अकथ की गहरे के दो छोर बन जाते हेँ, सहसा लगता है वो अकेला पड गया है .सामने दो लड़के काफी की चुस्कियों के साथ लगातार बहस करते हुए ..एक उडती सी नजर उस लड़के से मिलती है ..एक अनजाना भाव ..शीशे के पास कोने की दीवार के वो सामने हेँ कैफे काफी में दोपहर की धूप शाम की धूप में तब्दील हो रही है लड़के की पीठ पर टी शर्ट पर लिखा सेव वाटर ...पढ़ना ओर उस पर  नजरें दौडाना मजबूरी बन जाता है पानी से याद आता है उसके लिखें में पानी की सूरत कितनी अलग कितनी जुदा कितनी मीठी..उसकी कविता याद आती है जिसमें पानी का ज़िक्र है यकीन करना मुश्किल होता जाता है की वो ऐसा भी लिख सकता है ...शीशे के दूसरी ओर एक खूबसूरत कम उम्र  लड़की अपने बॉय फ्रेंड के साथ चहकती ही जाती है कभी ख़त्म ना होने वाली हंसी. वो भी कहना चाहती है,चहकना चाहती..हंसना चाहती है उसके स्पेस में ..पर ये मुमकिन नहीं ..उसके मूड पर डिपेंड करेगा ...ओर उसका मूड जान पाना कोई आसान नहीं  उस लड़की की तरह..हंसना... लेकिन एक मुहाने पर आकर रूक जाता  है एक  वाक्य, जिन्दगी के सारे रास्ते उस तक आकर ही क्यों ख़त्म हो गये एक अनवरत अनुभव अपने सपने तोड़ने का ...वो निश्चल निगाहें गडाए उसे देखता है मानो कहेगा  अभी वो सारी उम्र प्रतीक्षा करेगा .लेकिन कहता नहीं ..वो आँखों में उभर  आये पानी को रोक लेना चाहती है अब कहाँ देखूं ,उसकी तरफ या सडक पर गाड़ियों की आवा-जाही, वो गाड़ियों पर भी ज्यादा से ज्यादा फोकस नहीं कर पाती अब उसका ओर मेरा साथ अधिक से अधिक दस मिनिट का ही है ...उंह ठीक है जो वक्त जो साथ मिला है वही सही ..वो मोबाइल की जलती बुझती रौशनी में कहीं गुम है..मोबाईल को थोड़ा झुकाकर बात करना प्रायवेसी रखना उसकी आदत है जब तक ना पूछो जवाब नहीं मिलेगा उसे पसंद भी नहीं कोई दखलंदाजी  .क्या बात करूँ ..बातों का सिरा फिर से पकड़ने की कोशिश --पूछती हूँ --जवाब मिलता है ..हाँ लेकिन इतनी जल्दी नहीं ..तो आधा घंटा वो साथ को सूकून से बिताना चाहता है और वो रोना चाहती है ..लगातार जमते हुए तलछत्त में जमते ही  जाना..अँधेरे का काला घोल उसकी आवाज में जम जाता है शब्दों में धवनि  भी नहीं बस पल-पल बीतता है अपने पूरे पन के साथ क्या यहूदियों की कहावत कारगार साबित होगी इश्वर के सामने रोओ ओर मनुष्य के सामने हंसो पर कैसे -किस तरतीब से ...सोचते ही एक गहरी ऊब से उसका मन भर जाता है ओर छोटे-छोटे सूत्रात्मक संवाद उनके बीच शुरू फिर --ख़त्म होते जाते हेँ अब फिर उसकी आँखें छोटी होती जाती है ..वो कुछ खोजता है -जोगी से उसके चेहरे में क्या है ? नहीं मालूम लेकिन कुछ जरूरहै.. जो  उसकी समझ से परे ..लगा मानो वो झुका ओर झुक कर पानी की सतह पर झांका .उसका  ये झांकना ही तो अजीब सा है 
त्वचा के भीतर तक..उत्फुल्ल आवाज में'' कोशिश करता हूँ कल मिलतें हेँ'' .जो वो कहता है कितना सच होगा कौन जाने ...लेकिन हर सच, सच कहाँ हो पाता है .रगों में भरती...जाती आवाज.लेकिन .फिर भी  वो सोचता होगा इस पर विश्वास करूँ ,ये मासूम है या बस यूँ ही... फिर वो अपनी सोच  को आधा-अधूरा छोड़कर कांच से  परे गौसिप  करती कमसिन लड़कियों की ओर लौटा लाता है --लेकिन नहीं, ये वो कतई नहीं सोच रहा शाम का प्रोग्राम..अब  उसके होंठ  स्थिर से लगते हेँ .जो पहले बुदबुदाते से थे ..सडक की तरफ से एक कार तेजी से निकलती है उसके खुले से शीशों से शाम का उदास गीत बजता हुआ सुनाई देता..एक शोर  सा गायब हो जाता है ''मुख्त्सिर सी बात है'' ... राग भरी पीड़ा हवा में फैल जाती है उस पीड़ा से उस गीत से, कार चालक को कोई लेना देना नहीं लगता ..एक उचटी सी नजर उसपर ..उसने सुना ही नहीं यकीन हो जाता है. उसी एक ही समय में ढ़ेरसी चीजों-वीजों..का एक साथ भीतर-बाहर होना अटपटे पन  की हद में --कुछ कहने के पहले का सोचना ओर भीग जाना खाली पन में खाली मन का दौड़ पडना..जब याद आयें तुम्हे हम --नहीं-नहीं  कौन याद करता है..एक बार छूट जाने के बाद किसे फुरसत है इस आपा -धापी वाले समय में, वो नाराज ना हो जाए ये डर भी तो अक्सर साथ ही रहता है उसके पूर्व अनुभव चेताते हेँ ..नहीं ये मत बोलो ,वो नहीं,ऐसे नहीं.वैसे नहीं --वो रूक जाती है  
वो हर जगह कुछ खोजता है एकदम बे- मतलबी ..खोज लगती है उसकी ..अरे यार कितना वक्त कम है हमारे पास ये क्या कहाँ  ध्यान है तुम्हारा...कहना चाहती है वो  नहीं कह पाती ...कैसे शब्द ठूठ हो जाते हेँ एक सर्द ना गर्म हवा का झोंका रोक लेता है टोक देता है ..पल्लू को सीधे हाथ से बाँई ओर  बेवजह कन्धों की ओर तरतीब से ठीक करना ..सब कुछ ठीक-ठाक है बस एक आदत के तहत हाथ वहीँ पहुँच जाता है ...जो जरूरी भी नहीं ..जरूरी तो ये शाम भी नहीं थी जो गुजर रही है उनके बीच ...ओर उसकी उपस्थिति दर्ज हो रही है सालों में...वो लेवेंडर कलर के एक फूल को याद करती है ...जो उन दोनों की आँखों ने देखा था एक साथ  क्या वो दिन वो फूल वो वक्त याद आयेगा उसे ..इस शाम के साथ ...यादों की फेहरिश्त  में जुड़ेगा उसकी क्या?ये लम्हा ...उसकी जिद्द उसकी आँखों से  झांकती है ओर हाथ से छूटी अंगुलियाँ सिगरेट थाम लेती है..सिगरेट से कुछ चिंतित कश वो लेता है होटों को गोल करके उसकी वो शक्ल जीरोक्स हो जाती है अन्दर ओर हर दिन उसकी कमसकम बीस पचीस कापियां बाहर आती जाती है ना चाहते हुए भी जीरोक्स तो ओर भी बहुत कुछ हुआ था किस-किस का हिसाब दूं  उसका हाथ , हाथों में था ओर नजरे झुकी हुई .एक साहसी पल कंपकपाता हुआ ..
.कितना धुआं फैल रहा है.. वो आँखों ही आँखों से लापरवाह बने  रहने का भ्रम फैलाना चाहता है ..ओर वो ..वो अन्दर ही अन्दर सतर्क रह कर अपने समर्थन में बुलंद होना चाहती है ..नाउमीदी की सूरत में उसने उसी वक्त सोच लिया था जो नहीं कह पाई वो एक लम्बी चिठ्ठी में कह देगी... इतिफाकन उसकी आवाज उस दिन सर्द थी. ओर उसे अपने हिस्से की पीड़ा मिली थी, कुछ सालों पहले तक अपनी जड़हीनता  में वो कितना ख़ुश थी ...शाम हो चली है सपाट सा लगता जागता वक्त दौड़ रहा है चुप्पी कड़े -गहरे अँधेरे से भी ज्यादा कड़ी लग रही थी उस वक्त उसका  दिल  डूब जाता है ..अक्सर होता यही है की एक से, दूसरा नाखुश नाराज़ होने का अधिकारी हो जाता है एक सुबकी मन से बाहर आते आते रूक जाती है ..उसे रोकना ही होता है ...रोने से उसे नफरत है ओर रुलाने के सारे उपक्रम उसे आते हेँ ..जीवन से विरक्त ग्यानी की तरह किसी  टूटन को मन ही मन छुपाते हुए .वो मुस्कराता है आस -पास की तमाम चीजों में अपने को खपाते ..आने वाले दिन का दवाब वो शायद महसूस कर रहा हो ओर चाक हुआ जाता सारा वक्त ..बेरहम हो छूट जाता है... ओर वो क्या करे? निरुपाय .चाहती है .धीरे-धीरे बटोर लेना उसकी दुनिया,संभावना ख़त्म और  घंटे भर में रात उतर आएगी ..उस दिन उसकी हथेलियाँ पनीली थी ओर आँखों में एक जंगल ,बातों में एक बेतरतीब उंचा-नीचा पहाड़. लगा उसकी हथेलियों पर हाथ रख कर कोई वादा ले ले, या रोक ले ..या अपने उमड़े हुए आंसुओं से उसकी हथेलियाँ भर दे ..पर सोच ओर चाह में कोई ताल-मेल नहीं हो पाता... मन में उसके  ...किसी बात को लेकर लगातार जिद्द थी हवा चुप,रौशनी चुप,पेड़ चुप सिर्फ उतरती धूप के साथ कॉफी  की कड़क महक अपनी उपस्थिति के साथ मौन ओर हतप्रभ थी ...अडतालीस महीने बीस दिन बाद.. मुसीबत जदा वक्त से बाहर आने में कितनी मुश्किल हुई होगी अब उसे कौन बताये...भीतर कोई शीशा चकनाचूर होता है उसे आवाज तक सुनाई नहीं देती ...उसकी कॉफी  ख़त्म वो अपनी दोनों बाहों को समेट कर एक दूसरे में लपेट कर इत्मीनान से बैठ जाता है ...एक खालीपन की पूर्ति सी करता हुआ , सामने कोई हडबड़ी नहीं वो अब अपने पांवों को भी फैला लेता है ...मानो जिन्दगी यही गुजार देगा संग .बसा लेगा एक घर... हवा पानी रौशनी से भरा ..स्मृति के गलियारे से गुजर कर बारह साल गुजर जाते हेँ खोजना पाना खोना ,,साँसों के अन्दर तक उसका नाम धूप  छाँव सा झिलमिल होता जाता रहा ..क्या वो जान पायेगा कभी ?शायद नहीं, समय का फैसला मन तो करता है कह दूं  तुम ही  जीते क्या हांसिल हुआ इतने साल यूं बेखबर रह कर.. पर इतना छोटा समय था इतना कम की कोई ओर गुंजाइश ही नहीं थी ...आत्मा के पार तक उससे मिलकर हर बार पुनर्जनम हुआ हो ऐसा ही तो लगता  रहा .लगता है उससे कह दिया जाय पर ये एक कोरा ओर लिजलिजा वाक्य बन कर रह जाएगा उसके लिए वो जानती है ..कुछ बातें रुकते-रुकते भी हो जाती है..लेकिन इस छोटी सी बची खुची जिन्दगी में कुछ बातें ..ना रुके हुए ..होते-होते ही  हो जाये तो ..लेकिन हो तो सही अब कॉफी  ख़त्म...अलसाया सा वो उठता है ..अब आप क्या कर सकतें हेँ ..उठना ही होगा वो अपनी कार की तरफ सिर्फ दस कदम . कैफे काओफी  के .आहते में एक ताजा सा हरा पत्ता  शाख से बिछुड़ा  गुडी-मुड़ी होकर उसके क़दमों तले लहराता हुआ दिखता है लेकिन वो देख भी नहीं पाता बेखबर सा ..ओर लगातार मोबाईल पर उसकी आवाज़, अपना हाथ हवा में,मेरी ओर  फैला कर वो  गेट बंद कर लेता है  
ओर ..एक गुब्बार सा सड़क पर .है ,ड्रायवर  की आवाज़ भी दूर से आती सुनाई देती हेँ ..किस तरफ गाडी लूं ...कोई जवाब तक देने का मन नहीं..विपरीत दिशा में  दूर तक उसकी कार की पीछे की लाईट ओझल होते-होते आँखों में रह जाती  है . ध्यानाकर्षण की सूचना गुप चुप सी रह जाती है 

....,उसकी सोच बस किसी नदी के गहरे जीवन में उतर जाने की मानिंद ...उतरती ही जाती है ..तारांकित प्रश्नों के जवाब भी नहीं मिलते उसका कसूर नहीं .. जो उसके संज्ञान में ही नहीं ...दिल्ली की वो शाम दिल में उतरती है ...
''.वो अपनी आँखों में समुद्र भरकर आती है..ओर हँसते हुए बूँद भर रोती है [ बसंत त्रिपाठी  ]
[कहानी की शक्ल में ये कहानी .कितनी मुख्त्सिर है ..नहीं मालूम ..] 

मंगलवार, 6 मार्च 2012

.सात्र का अस्तित्ववाद इसी सिद्धांत पर है कि जिन घटनाओं के लिए आप उत्तरदाई नहीं उनका बोझ भी आपके ही माथे पर है.फिर जिन्दगी का हिसाब -किताब कैसे करें कि सारे जोड़ सही हो जाए बिना किसी को घटाए ,उनके सुख चैन छीने बिना ...रोने से कुछ हांसिल नहीं

सूरज को टोहता अन्धेरा आगे-आगे चलता है.रात की अगुवाई करता,इन दिनों चीजें अपनी तरह से अलग और अलस ढंग से दूसरी तरह से  पसरी हुई है.एक आत्म निवेदन उनसे लगातार सुनाई देता है मुझे रहने दो ऐसे ही -पेड़ पत्ते कपड़ों के ढेर फ्रीज  में सुस्त सी सब्जियां पेन कागज कांच पर जमी धूल और यहाँ तक आंसू भी छलके रहने के लिए बरबस...सात्र का अस्तित्ववाद इसी सिद्धांत पर है कि जिन घटनाओं के लिए आप उत्तरदाई नहीं उनका बोझ भी आपके ही माथे पर है.फिर जिन्दगी का हिसाब -किताब कैसे करें कि सारे जोड़ सही हो जाए बिना किसी को घटाए ,उनके सुख चैन छीने बिना ...रोने से कुछ हांसिल नहीं... दर्द को दफा करने का इरादा और मौसम के बदलने का इन्तजार करो,हवाओं के चलन पर भरोसा रखो नहीं तो इस जंगल में सपने मूह फेर लेंगे स्मृतियाँ पीली पड़कर झड जायेगी ...पल-छिन्न में बीता निर्मम होकर रह जाएगा क्या हो गया है उसको वो वक्त जिसे दुहाई देकर जिया उसके- अपने लिए वो बिछुड़ गया ..उसके बाद सारे स्पर्श खुरदुरे हो कर रह गये, कैसे भूलना होता है,-ना भूलने वाली बातें अस्वाभाविक था शब्दों का अर्थ बदलना उनका विपरित हो जाना .
..एक लम्बी यात्रा से ऊबा हुआ मन और  उसमे ना सुस्ताया हुआ दिन था वो ..बस हरा भरा मन हार गया था उसी दिन जरूरी सवालों का ना मिला हुआ जवाब -----मन भी कैसी-कैसी ख़बरें गढ़ लेता है,और उतनी ही सरलता  से अचाहे को विलोपित भी..ना कह पाने के दुःख में रिसता सा मन ...अपने हिस्से कि रौशनी में, सुख में ठहरी-ठहरी सांसे,पीठ पर थमे दो हाथ ,आँखों में पलाश के फूलों कि रंगत लिए खुशबू का गीत ,जहाँ एक अलसाई दोपहर ठहर सी गई थी ,..ठंडक थोड़ा कम थी वहाँ...एक कम गहरी नदी पर पुल तैरते दिखलाई पड़ते हेँ ..डूब जाने के खतरों के साथ ..यात्राएं अधूरी और त्रस्त होकर रह जाती है ..किनारे खो जाते हेँ तिनके भी छूट जाते हेँ और दूर तक फैली धुंद मानो सब कुछ निगल जाना,चुप्पी साधे हुए .कम में अतिरिक्त हांसिल कर लेना भी अपनी इमानदारी में अपने साथ किसी और को भी देखना ..एक हिचकी आ जाती है ..दो तीन चार और लगातार कौन याद करता है ..लेकिन कौन ?पानी गले को तर करता है फिर भी बेअसर ...उस दिन ऐसा ही लगा कहीं दूर भाग जाने का मन एक लम्बी उड़ान ..नीले आसमां में बस जाने का मन बस आसमान और मेरे बीच कोई ना हो ..एक असंभव इक्षा ..फिर लगा पलक झपकते ही ये शहर दूसरे शहर में तब्दील होजाए लेकिन वो भी हो ना सका,पूरे 48 घंटे थे सब कुछ छोड़ देने के लिए ..कोई पहाड़ काट लेता पर वो पल नहीं कटे ..
उस दिन .मौसम खुशगवार था, जिसमें गैर इरादत्तन किया गया कत्ल फिर एक निरीह सपाट आतंक उसके दिल-दिमाग पर छा गया ..एक खालीपन और एक निर्मम बेवकूफी के बीच अपने को मृत्त घोषित कर देने में ही सुकून मिलना था ...वो जिन्दगी की  सबसे खुशनुमा दोपहर थी तब लगा उड़ना सचमुच ऐसा ही होता होगा अपना ही वजूद ढूँढ पाना मुश्किल था ...संगमरमरी चट्टानों से सूरज ओट हो जाता है ...आँखों का मौन आँखों में ही रह जाता है पलकों से उठते गिरते पल-पल का हिसाब जरूर होगा वहाँ , दिन बीत जाता है रात भी, और बीतती है सुबह ..थक जाती हूँ बहुत दूर तक जाने पर पलटना फिर देखना घर पीछे छूट जाता है ..लौटती हूँ क्या मांगा था ,मुठ्ठी भर धूप ही तो, वो दोपहर दिल में उतरती है सांसों में रूकती है बीच राह कोई रोक लेता है चलते-चलते टोक देता है,आहिस्ता छू लेता है आँखे खुलती है फिर कोई पीछे छूट जाता है पकड़ से परे और वहीँ मरना होता है अचाहे दुःख घसीटते से पीछा करते हेँ और फिर एक जामुनी सफर शुरू होता है अपनी ढेर सी गलतियों का कन्फेस ..तलाश का अंत... ना बोले शब्दों की आंच झुलसा जाती है,एक अकथ पीड़ा बड़े-बड़े दावों -दलीलों बौने हो रह जाते हेँ ,और अब लौटती हूँ तो सब कुछ ठहर गया है शहर के तालाबों पर धुंद,पहाड़ों पर हवाएं पेड़ों पर पत्तियां और नीले बादल सिकुड़ कर आँखों में बस जाते हेँ ,जैसे कहीं कुछ बदला ही नहीं जैसा उन्हें छोड़ा था वैसा ही ,बरसों बाद आज देखा बादलों में उड़ता हुआ एरोप्लेन बचपन की खुशी की तरह बयान ना हो सके ऐसी गंध की छुवन अब भी बरकरार है खिड़की के शीशे से लिपटी धूल को हटाने पर अंगुली कसमसाती है एक शब्द लिखा नहीं जाता ..सीधी लकीर बीच में थोड़ी आड़ी फिर ऊपर की ओर सीधी ..उसके नाम का पहला अक्षर अंगुली की पोर में धंसा रह जाता है,पूरा नाम जैसे एक पूरी यात्रा कर ली हो...क्या वो दिन वो यात्रा वो समय,स्मृतियों में इतना ही ताजा रहेगा ..गहराती शाम में उदासी घूल जाती है सुख में दुखाती शाम पीड़ा की तरह घुलती जाती है ,कोई बात नहीं सपने रहेंगे तो जियेंगे -संग,पार्क की एक बेंच पर बैठे सोचा जाना सामने,एक सेमल का बूढा पेड़ है जिसके तने में गहरी खोह दिखाई दे रही है ...... नारंगी फूलों से भरा, कुछ फूल खोह में धंस जाते हैं कुछ क़दमों में.. ओर आस-पास बिखर जाते हेँ शाम टूटती सी बीतती है थोड़ा कुछ भुलाने की कोशिश में बहुत कुछ याद आता है ..गुजरता है मन से, अपने आस पास की दुनिया ओर वे तमाम लोग जो हमारे बीच हेँ उनसे लड़ने का कोई बहाना ढूँढू ..लगता है... कहानी का एक हिस्सा पूरा होता है ,कहानी नहीं ..जिन्दगी भी नहीं 
[पहाड़ों की यातनाएं हमारे पीछे हेँ ..मैदानों की यातनाएं हमारे आगे हेँ [ब्रेतोल्ट ब्रेख्त ]..]ओर ये भी सच है की अस्तित्ववादी गंभीर होतें हेँ ओर उन्हें मजाक करना भी पसंद नहीं आता ...                   

बुधवार, 25 जनवरी 2012

..,तमाम शोरगुल में एक सिरा जो बीच-बीच में छूट या खो जाता है ,,,, तब ''मिलारेपा ''के शब्दों से बनती कविताओं में उसे ढूँढना दुधिया रौशनी में भी मुश्किल होगा ....

कुछ चीजों तक हम बार-बार पहुँचते हें कब कैसे और ये भी नहीं जानते कि वो हमारी खुशियों भरी  नियति क्यों बनती जाती है ..और हमेशा उन खुशियों का अकेलापन ---एक बनी बनाई चौखट से आर-पार आता-लेजाता रहता है चकित करता सा,शामे ढलती हें सुबहें होती हें दिल-दिमाग पर जमा सोच कि परतें उतरती हें कुछ तो ऐसी कि  ताउम्र नहीं उतरे तमाम कोशिशों के बाद भी  और कुछ...तेजी से पीछा छुड़ाने के अंदाज में भारी गडगडाहट के साथ भागती हें  मानो बरसों पुराने किसी पुल से ट्रेन गुजरती जा रही हो .एसे में   साथ-साथ -पीछे अपने पत्थरों ,पहाड़ों ,ऊँचे गठीले टेढ़े-मेढ़े पेड़ों जंगलों हरी सुखी झाड़ियों को विपरीत दिशा में भागते देखना होता है ओझल होने तक ...कभी-कभार किसी लम्बी अँधेरी सुरंग से गुजरना जहाँ काले गाढे घोल में घटनाओं का एक दुसरे पर तेजी से गिरना,सुख में सिझना,दुःख में भीगना अपने अटपटेपन की हद तक और फिर हलकी रौशनी के साथ जंगल शुरू जो  छोटी मोटी चीजों तक तो रुकता ही नहीं ये सिलसिला....एसा ही एक जंगल मुझे अपनी छत्त से दिखाई पड़ता है ..पिछले पांच-सात सालों से अपना सब कुछ साझा करता स्थिर सा एक छोटा सा जंगलनुमा पार्क हमेशा अपनी उदासी में मुझे खुश नजर आता है ...लेकिन पिछले सात दिनों से वहां से आती कुदाली-फावड़ों कि ठक-ठक  की आवाजें मेरे दिल को परेशान करती हें ..इस पार्क के चारों ओर मजबूत फेंस के लिए बनाए गए गढ्ढे, कटे पेड़ों की टहनियां छोटे-छोटे जड़ से उखड़े पेड़ सूखे मुरझाये सड़क पर दम तोड़ते नजर आते हें जाहिर सी बात है इस जंगल का काया-कल्प किया जारहा है ,ओर ये काम जोर शोर से अपने पूरे अंजाम पर है..एक दिन इसका स्वरूप बदलेगा जरूर ...किसे पता कितने दावे ,दलीलें ऊब खीज,सुलझन-उलझनों का गवाह रहा है मेरा ये छोटा सा जंगल जिसके दोनों ओर जंग लगे टूटे फूटे दरवाजे अन्दर टूटी हुई सीमेंट उखड़ी बेंच, बेतरतीब अनगिन जातियों-प्रजातियों के पेड़ पौधे मेरी अलसाई शामों में सराहते से लगते रहें हें.... सूखी हरी पत्तियों-पक्षियों गिलहरियों की फूदकन से हरदम चौकन्ना ओर गर्मियों में सदा सुसताता सा  लगता है ये जंगल थोड़ा हरा थोड़ा सूखा बरस भर रहता है इसके तकरीबन सभी कोनो में लम्बे ओर बड़े-बड़े उम्रदराज  तेबूआइन साक्षात दंडवत मुद्रा में सड़क पर  झुक आयें हें मानो उनकी अरज सुनली जाये,जो वासंती पीले गुच्छों में अब फूलने ही वाले हें हाँ उत्तर दिशा में जंगल जलेबी का काँटों भरा तने वाला पेड़ थोड़ी गुलाबी हरी फलियों की हलकी ख्श्बू में मगन लहराता सा रहता है जिसके नीचे सलोनी शाम की दूर से आती  गमक में एक सूत्र शब्द- संवाद अपने पूरेपन के साथ दोहराता है ''जब  तुम्हे याद आये हम ''घरों से छन कर आती मद्धम रौशनी में पेड़ पार्क बेंच जंगली घास रात की ठिठूरण अलबत्ता सब कुछ अच्छा लगता है यहाँ हमेशा बने रहने वाला कौतूहल हमेशा एक संभावना बने रहने की तर्ज पर महसूस होता है ...जैसे में आज सुनती हूँ दूर तक देखती हूँ टाइटन आई से जंगल से तैर कर आती मेरी छत्त तक मोईनुद्दीन डागर की शिष्या का ध्रुपद अँधेरे की हवा में अँधेरे की ख्श्बू की तरह ना सुझाई देने वाले घुप्प में शब्दों की धवन्या से परे ....एक समय में चीजें एक साथ भीतर-बाहर होती हें तब हमारे हंसने -रोने से फर्क नहीं पड़ता ..गहरी ऊब-तो कभी गहरी खुशफहमी के साथ सर उठाकर देखो तो निरभ्र आकाश बेताबी ओर बेचैनी से चक्कर लगाता नजर आता है उसे फर्क भी  नहीं पड़ता उसके दुपट्टे में कढ़े हुए बेंगनी-गुलाबी फूलों को हँसते हुए देखते ...क्या होगा बेनकाबी के बाद का मंजर ..इस छत्त इस जंगल, इस आसमान ,इस ठंडी शाम ओर रात  के बीच के समय का ..मन कई-कई पोस्टर चस्पां करना चाहता है बेतरतीब से दो करीब-करीब पेड़ पर,सिंदूरी फूल वाले एक ऊँचे पेड़ की खोह में कि- यहीं कहीं आम रास्ता हुआ करता था''  जंगल एक पेंटिंग में तब्दील हो जाएगा जिसमे एक काठ का पुल होगा जिसके आस-पास हरी पीली घास होगी जहाँ अंखुआते बीज तरतीब से फूटेंगे तितलियाँ उडती दिखेंगी एक जंगली पक्षी आसमान में स्यापा करता सा होगा मोबाइल हाथों में लिए इसका एक लंबा चक्कर भी नहीं लिया जा सकेगा,,,तमाम शोरगुल में एक सिरा जो बीच-बीच में छूट या खो जाता है ,,,, तब ''मिलारेपा ''के शब्दों से बनती कविताओं में उसे ढूँढना दुधिया रौशनी में भी मुश्किल होगा .......[''मिलारेपा'' बारहवीं सदी के तिब्बत के लामा कवि]      

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

.कुछ खुले से मौसमों को उनकी देहरी से छुडा लाने और अपनी परधि में शामिल करने की कोशिश करना उस मोसम के साथ वो असामायिक जुदाई थी. उसका पसंदीदा मौसम शायद पतझड़

सब कुछ तय था जैसे ये भी वो भी,लेकिन कच्ची थी ..उसकी पकड़,रेशमी धागों पर परछाई के जरिये बुनी गई रंग-बिरंगे अहसासों तले,.. ऐसे में हरदम कई-कई सवालों के जवाब अपने होने का सबूत बनकर एक अकाट्य तर्क गढ़ लेते हेँ,आँखें बंद किये एक ही करवट लिए एक घंटे में सात साल बीत जाते हेँ ,कानो के पीछे दर्द की लहर उठती है ..शायद चाय पी लेने से दर्द कम हो जाए...वो उठती है  डूबती शाम में ,अलमारी बंद करते-करते उसके पल्ले से जड़ा शीशा और उसमे उभरता अपना अक्स अनजाने दिखाई पड  जाता है,दो क्षण वो वैसी ही ठगी सी रह जाती है ..कौन हूँ में? कमरा लगातार अँधेरे में डूबता जाता है शाम ख़त्म रात शुरू होना ही चाहती है ,और रौशनी का होना लाजिमी था. शीशे में उसे अपनी सूरत कुछ अच्छी नहीं लगती सिवाय आँखों के माथे और भावों के बीच छोटी लाल बिंदी थोड़ा सरक कर दाहिने और हो गई थी,हल्दी और कुमकुम जो सुबह पूजा के बाद ठीक बिंदी के नीचे लगाया था फैलकर धुंधला गया था बुझा सा मन चेहरे पर भी उदासी सी पोत चुका था,कुछ दुहराता सा दिल ओह ये क्या हो रहा है मौसम एकदम सर्द है,कई सालों की तरह ये मौसम भी अटपटा ही बीतेगा ,,पिछले मौसम में छूटा हुआ ...कोई भरपाई नहीं वही होगा फिर वहीँ से सोचना होगा कहीं फैलाव कहीं सिकुडन कहीं ख़त्म होने की सूरत में सब कुछ का बदल जाना ,,,,चीजें बंटती है लगता है उन्हें छोड़ दिया जाय या की समेटा जाय ..कुछ खुले से मौसमों को उनकी देहरी से छुडा लाने और अपनी परधि में शामिल करने की कोशिश करना उस मोसम के साथ वो असामायिक जुदाई थी. उसका पसंदीदा मौसम शायद पतझड़ ,एक दुर्लभ आत्मीयता में जीना उन दिनों अपने अनुभवों के आत्मसात होने और फिर अभिव्यक्त होने तक के अपने तर्कों के साथ---सुबह होने तक कुछ और भी गुजरेगा सुबह से पहले जहाँ बहुत सी चीजें खो जाने की अनिवार्य किन्तु तकलीफ देह स्थिति थी तो वहीँ कुछ ख़ुश हो जाने के कारण भी .....लम्बे रागात्मक अभ्यास के बाद  शब्दों को ठीक जगहें मिल ही जाती है,साथ ही लेकिन एक स्थाई अंतरा का आलाप जो जहाँ है वैसा ही की शर्त पर रूक सा जाता है ...सारा क्रम टूटता है ना जाने और क्या-क्या किस किस का हिसाब रखूँ,  सतर्क आँखे थोड़ा तेजी से अंधेरे में चीजों पर नजर दौडाती हुई  अपनी पकड़ को क्रमश मद्धम कर देती है,मानो अँधेरे में ही घूल जाना चाहती है ...अन्धेरा उनींदी शाम को रात तक घसीट ही लाता है ,आखिर तब्दीलियाँ क्यों नहीं चाहता ये मन ,देर रात तक रोकर हंस पढ़ना ,समय का एक हिस्सा उस सड़क से गुजरता है वो शहर वो ढलान वो इमारत जहाँ से सड़क गायब हो जाती है दुखों को निचोड़ने का प्रयास ,सुखों को झटक कर धूप में सुखा लेने की चाहत ,,,कचनार के गुलाबी फूलों का  खिलकर सिकुड़कर बेतरतीब हो मुरझा कर, सड़क पर फैल जाना ,,,मौसम की एक दुर्ष्टि उन्हें बुहारती सी लगती है,उनकी देह पर ठंडी  हवा निरंतर पछाड़ खाती है उन्हें इधर-उधर अलग-अलग दिशाओं में ठेलती  हुई,यहाँ सब कुछ ठीक है ,फिर भी एक झूटा सच सोचते हुए ,उसका दिल डूब सा जाता है भुरभुरी रौशनी में कुछ एक परछाई छत्त से टेढ़ी-आढी सीधी होती दिखाई देती है ,दूर अलग सी ,कांपती  सी तेजी से नीचे गिरती हुई..... मुझे उन परछाइयों की आवाज तक सुनाई  नहीं देती.  [शाख से टूटकर गिरते कुछ पत्तों के लिए रचे अपने शब्दों के संताप और हर मिटटी के हिस्से की वनस्पतियों के लिए ]           

गुरुवार, 31 मार्च 2011

खेद सहित ढेर से फूलों के खिलने के दिनों का अद्रश्य हो जाना ,मुक्त होते-होते गहरी आसक्ति में बांध जाना .चीजों का बदल जाना और कुछ का वैसा ही रह जाना ..//-

कोई कैसे  देख सकता है आने वाले वक़्त की शक्ल ये किसी की इक्छा पर नही निर्भर नहीं हो सकता की वो शक्ल वैसी ही हो जैसी वो चाहे, रिल्के की कविता याद आती है ...टूटे पंख वाला समय -फिर भी अपनी पुरजोर चाल से दौड़ता है समय यूं मानो अंतिम दौड़ हो सुस्ताने का कोई क्षण मोहलत नहीं देता जहाँ बैठकर ये सब होता है वहाँ की सफेद दीवारें पसीजती है,और उनके पीछे एक दूसरी दुनिया खुली-खुली सी ..आपकी पकड़ से बाहर ,मौसम के निशान चस्पां हें यहाँ-वहाँ... हवाएं भी सुस्त हें उस  समय में चुप सी ....सवाल नहीं जवाब सूझे तो बताना ना  सूझे  तो कोशिश करना,एक चेहरा एक बार  स्पष्ट होता है, दूसरी बार दिमाग से बेदखल होता है ..गाढे अँधेरे में एक चकमक मुठ्ठी में बंद है जब चाहा जो चाहा  चमका लिया खुद के किसी पसंदीदा कोने में बैठ जाना और वहाँ बैठ इत्मीनान से बुनना अपने को एक गहरी तन्मयता में --ऐसे में ख़ास ये होता है की चीजें तब दूसरे ढंग से होती हें सिमट-सिमट कर फैलती सी ..सामने आकर अद्रश्य होती सी एक कोशिश लगातार उन्हें एक जुट करने की ..मगर ऐसा होता नहीं ,आत्मा पर मढ़ी खोल कभी भी उसे तार्किक परिणिति तक पहुँचने नहीं देती ..खैर इन दिनों मौसम में उमस की शुरुआत  हो चुकी है बावजूद शामें अभी चिपचिपी नहीं हुई है,अभी कुछ और दिन  सुबह शामे ठंडी रहेंगी बाद  में  जो होगा देखा जाएगा ......आगत गर्मी का आतंक उसकी आँखों के चौकन्नेपन में भर जाता है सहजता से पुराना छूटता है जो नया महसूस होता है होता, दरअसल वो भी पुराना ही होता है कोई विकल्प नहीं .... एक लम्बी टहनी पर आगे- पीछे स्मृतियाँ गौरय्यों की शक्ल  में चहकती है कुछ उडती जाती और कुछ बैठी बतियाती है.घर के बाजू वाली एक मंजिला बिल्डिंग की छाया लगातार छोटी होती जाती है,दूसरी तरफ कालोनी के उजाड़ से पार्क में खड़े लम्बे-लम्बे तेबुआइन के खुरदरे तने लिए ऊँचे पेड़ों पर फैली अधपत्तों वाली शाखाओं पर छलकती धूप जमीन पर इठलाती पड़ी मुस्कुराती है इन्ही पेड़ों से अभी कुछ दिन पहले ही कच्चे पीले नर्म फूल झड कर हवा के साथ यहाँ -वहाँ जाने कहाँ उड कर चले गये ...दिन भर की थकी धूप थोड़ी स्थिर हो जाती है.....खेद सहित ढेर से फूलों के खिलने के दिनों का अद्रश्य हो जाना ,मुक्त होते-होते गहरी आसक्ति में बांध जाना .चीजों का बदल जाना और कुछ का वैसा ही रह जाना ..संभावनाओं को अपनी पूरी ताकत से खंगालना मेहँदी हसन को सुनते हुए.. की धुन पर उन दिनों की छाप लिए श्यामला हिल्स की पहाड़ियों से देखना वहाँ ...जहाँ मीलों दूर हवा कुछ रोशनियों को अब भी रोक लेती है..

कैसे-कैसे मरहले सर तेरी खातिर से किये,
कैसे-कैसे लोग तेरे नाम पर अच्छे लगे ..
(- नजीर अहमद) 
       
     

रविवार, 23 जनवरी 2011

-//बीच रात संशय भरी आँखें कभी मुंदती- खुलती छोटी बड़ी होती जाती है,इससे आगे भी सोचना की अगले मोड़ के बाद फिर बचा रहेगा समूचा दिन पूरा दिन ओर दोपहर.


उस दिन ठण्ड कम थी पारा ना जाने कितना कम या ऊपर होगा नहीं मालूम लेकिन ये सच है कि ताप मापक यंत्रों ने हर स्थिति में यंत्रणा को  --ठण्ड हो या वर्षा या तेज गर्मी बर्दाश्त करना सीखा दिया ...सूरज को सर चढ़ते- चढ़ते थोड़ा वक़्त जरूर लगा लेकिन ओर दिनों के मुकाबले थोड़ी कम धुंध के  बीच किसी छोटे बच्चे कि तरह आकाश में थोड़ा तिरछा सर करके बादलों के बीच से वह निकल ही आया, एक हल्की सी मुस्कान चेहरे पर झुकती सी कांपती है, ओर किसी परदेसी सी भाग जाती है ...थोड़ी हलचल ओह ये कौन? कठिन  सवाल सा, गुमसुम सा -कुछ सुलगता है थोड़ा सुलझता भी है लेकिन उलझन का पता नहीं चलता ,धूप की तपिश पीठ पर भली लगती है ,इसी दिसंबर सात्र को ठीक से पढ़ना शुरू किया है ''शब्द '' के शब्द -शब्द को पढ़ना मानो अचेतन में कई रंगों की लकीरें घुलती -मिलती है ,अफसोस कैसे छूट गया ..ये सब ख़ास पैरा पेन्सिल से अंडर लाइन होते जाते हें हर दोपहर थोड़ा  फ्री होकर सात्र के साथ बीतती है ..इन दिनों, जाने कितने दिनों ओर ये सिलसिला कायम रह पायेगा कुछ पता नहीं ,फिर गर्मियों की दोपहर में सब कुछ अधूरा रह जाएगा --क्या अब भी लौटा जा सकता है 'हाँ'' के साथ अपने ही सवाल के  जवाब में एक निश्चित निर्णय लगातार अगले क्षण को मुल्तवी करता है फिर भी हैरानी नहीं होती ..बरामदे में रखी कांच की गोल टेबिल पर बिखरी किताबों पर कांच के छोटे टुकड़ों से बनी विंड चाइम हल्की हवा के साथ हिलती है धूप कांच के टुकड़ों से  टकराती छोटे-छोटे गोलों में बंटती हुई शब्दों पर हाय लाईट होती जाती है ...सब कुछ ठीक है हवा उसके धुले -खुले बालों में ठंडक पहुंचाती है ओर धूप नर्म-गर्म गर्मी.ये एक अजीब सा अहसास होता है लेकिन मनचाहा कोई पल रुकता नहीं पल भर को साँसे शून्य के हवाले होती हुई अपनी पूरी ताकत से दौड़ने की कोशिश करती है कई क्षण कई बंधन,-पीडाएं -यातनाएं और खुशियाँ   एक साथ दौडती है लेकिन विंड चाइम यकायक स्थिर  होजाती है,और उसमे लगे कांच से आती रौशनी भी ..  धूप थोड़ा आगे जाकर जामुनी फूलों की लतर पर चिढाती सी पसर जाती है ...एक थकान  और हांफ के साथ रुकना होता है,सब कुछ वहीँ छोड़ते  हुए अंदर की हवा को जोर से साँस लेकर बाहर छोड़ना पड़ता है ,हवा भी अब तक थमने लगती है ...थकी आँखें ठहर -ठहर कर पूरे आँगन का मुआयना करती है ,जिस धूप भरे आँगन में पूरी सर्दियां गुजरती है पतझड़ आते ना आते वो बेगाना बन रह जाता है .थोड़ी गर्म थोड़ी सुनहरी धूप क्रमश मटमैली और ज्यादा गर्म होती जाती है ....जतन से पाले पोसे पौधों का  मुरझाना और कुछ एक का मर जाना तय है,शाम स्थिर  चाल से आगे बढती है अनजाना भय मन में कुड़ मुडाता है ,थोड़े दिन पहले ही तो गमलों की मिटटी बदली गई है,एक बोनसाई की सतह पर पीपल का पत्ता तार-तार हुआ आधी मिटटी और जड़ में दबा अपनी हल्की आवाज में फडफडाता शिकायती नजरों से ताकता है ..हर दिन उसे देखते सुनते पिछला हफ्ता गुजर गया बारिश में जाने कहाँ से उड़ कर  चला आया था,हर दिन तय होता है  कि आज जरूर उसे मिटटी से आहिस्ता से निकाल कर साफ कर और सुखा कर टेबिल के कांच के नीचे रख दूंगी ..मगर वैसा हो नहीं पाता -पत्ता रोजाना कातार-लाचार वहीँ पडा-पडा खुद ही बाहर आने की कोशिश करता है और अपनी इसी नाकाम कोशिश में एक तरफा थोड़ा  ज्यादा ही  जर्जर हो चला है ..देखो तो लगता है मानो किसी बुनकर के अड्डे पर टंका हुआ बुनाई के बुनियादी स्तर पर आधा-अधूरा जिसे  और रंग और धागों से काता जाना शेष हो,,,धूप,टेबिल,कांच,पत्ता, सात्र सब कुछ  वक्त की नजर से नजर अंदाज होते हें, एक पेज पलटता है शाम की जाती धूप कांच के गोलों से रिफ्लेक्ट होकर अंतिम बार अंडर लाइन  हुए शब्दों पर  रूकती है ''में एक बेईमान बन गया और बना रहा हालांकि जो भी कुछ में हाथ में लेता हूँ उसमें पूरी तरह से जुट जाता हूँ चाहे  कोई काम हो ,गुस्सा हो दोस्ती हो ,दूसरे  ही क्षण में उससे इनकार कर देता हूँ में उसे समझता हूँ उसे चाहता हूँ लेकिन अपने आप को भरपूर जोश में धोखा दे  देता हूँ..." हर दिन जड़ों के पास जमीन के भीतर मिटटी में दबे हुए पत्ते की तरह नामालूम सुख क़ी तरह कांच के टुकड़ों से निकली रौशनी में, विश्वास की  देह में, देह के प्रेम में, प्रेम की धडकनों में,आते वसंत की आहट में, फ्रेम में रुकी तस्वीर में... गुनगुनाते  एक मयूरपंखी अन्धकार  बरगलाता है, याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से रात के पिछले पहर रोज जगाती है हमें ...कोई ओर गहराता है सुबह से पहले ठीक  बीच रात संशय भरी आँखें कभी मुंदती- खुलती छोटी बड़ी होती जाती है,इससे आगे भी सोचना की अगले मोड़ के  बाद फिर बचा रहेगा समूचा दिन पूरा दिन ओर दोपहर. कल शुरू करना है सात्र का नाटक 'रास्ते बंद है ''....अभी....

अजब सी बात है, अजब सा ये फसाना है ,
कि अपने शहर में, अपना नहीं ठिकाना है ... (-तेजेंदर शर्मा)                     

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

एक दोपहर की शुरुआत.. - 15 दिसम्बर' 2010


"बस अब इस बहस को विराम मिलना चाहिए", उसने सोचा लेकिन वैसा हुआ नहीं.. जैसा उसने चाहा.. हर दिन की तरह, अल्सुबह की नरमी आँखों में भारती रही, दोपहर का सूरज चटकता रहा और सुरमई शाम का जाता उजाला स्वाद बन जीभ पर तैरता रहा.. जिस बीच कई दिनों से खुद से लापता रहने के बाद मौसम के चेहरे पर खुशियाँ तलाशने में जुटना और इस कवायद में एक स्वप्निल जगह का बनना और ठहर जाना.. सब कुछ के बावजूद खुद को पा लेने वाले अपने ही अंदाज़ में. लेकिन खुद को पाना कभी खुद से लापता रहने वाली लुका छिपी के बीच वाली जगह में अभिवादन और खेद सहित लौटी - लौटाई गयी इच्छाएं ठूस-ठूस कर एक नुकीले तार में पिरोकर टांग दी गयी थी... मजबूत, कमज़ोर, छोटी, बड़ी, इस या उस तरह की.. अब यदि उनमे से किसी एक इच्छा को उतार कर निकलना फिर टटोलने का मन हो तो बाकी को भी उतारना और फिर उन्ही रास्तों, पतझड़ी मौसम की उदासियों की तरह गुज़ारना होता, सच के झूट में तब्दील होता एक पहाड़.. जहाँ तक हांफते हुए दौड़ना, पहुंचना फिर लौटना.. सांसो की आवा-जाही के साथ तार से बिंधी इच्छाओं को उतारना- संवारना... एक कातर नज़र डालना और पलटकर फिर टांग देना उसी बेतरतीब झुण्ड में... शाम होते होते एक चश्मदीद पेड़ मुड़कर सलाम बजाता है, उसकी मजबूत टहनियां हिलती हैं, एक मुस्कराहट दिल से चेहरे तक आती है तेजी से.. इतनी की ऑंखें पनीली हो उठती हैं.. हवा में नमी घुलती है, कोई तेज क़दमों से नज़दीक आता है और अनदेखा किये ही बगल से गुज़रता है.. क्या लौटा जाये यहीं से? अभी इसी वक़्त और समय बीतता है, लौटते हुए बुरी तरह, एक बीती हुई गूंज फिर भी बच जाती है, बिन बटोरी कुछ आहटें मरून पश्मीना में लिपट जाती है, चुभन वाली ठंडक मौसम में हवा के साथ तैरती है.. अपने को बचाने की कोशिश में दोनों बाँहों को क्रास बनाते हुए अपने से लपेटना, नए सिरे से इस दुनिया में अपने को खपाने की निरंतर कोशिश करना और यहाँ-वहाँ लगातार कुछ ना कुछ होना - होते जाना, कोई पूर्णविराम नहीं... मुश्किलों के विरुद्ध कोई जिरहबख्तर भी नहीं, अपनी उदारता में चतुराई से जीना, कितनो को आता होगा ? कितनी चीज़ें खटकती हैं, और कितनी बेखटके स्मृति  के पार चली जाती है, नुकीले तार में अटकती हुई..  एक आरंभिक रंग गाढ़ा होता है फिर फीका पड़ता हुआ नीली धुंध में तब्दील होता है.. कुछ ईमानदार चेतावनियों की दस्तकें साल के अंत की तरह "ठक-ठक" करती चली जाती है, पिछले दिनों की तरह दिन का चलना, थकना और फिर थम जाना... खासा अँधेरा घिर आता है, इन दिनों वैसे भी शाम जल्दी आती है. घर से ढाई किलोमीटर दूर तक, उसे लौटना चाहिए.. एक टूटे हुए चौराहे के सामने सिकुड़-ती हवा के बीच घर का रास्ता देर तक याद नहीं आता, शारीर और आत्मा से बेदखल मन बेहद निरर्थक भाव से ढलान की तरफ बेप्रयास लुडकता है, मन ही मन बच जाने की मंगल प्रार्थनाएं बुदबुदाते हुए, अंतिम अंक.. अंतिम द्र्श्य में एक काला चाँद, काली रात में जलता है.. सिर्फ थोड़ी से रौशनी सन्नाटे के इर्द-गिर्द चकराती फिरती है जो इस बीच इस शहर में दरके हुए बहुत कुछ के बीच अद्रश्य होना चाहती है.. एक कठिन समय में सुनो - जिसे सरलता से नहीं सोचा जा सकता, ना पीछे को आगे, ना बीते को आज, ना वक्र को सरल, ना चुप्पी को कल-कल, ना अँधेरे को रोशन, ना दुःख को सुख, ना दूरी को यहाँ में, ना टूटे को जोड़ने में, सच में तब्दील कर सके ऐसी युक्ति है क्या...?

वक़्त चला जाता है,
वक़्त/ चला गया है/ हर जगह हाजिर था में;
लेकिन/ दस्तखत कही नहीं.. (-श्रीकांत वर्मा)

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

प्रार्थना में ...वो शब्द ,और वो रास्ते जो गढे थे हमने//-

वो शब्द ,वो प्रार्थना ,और वो रास्ते जो गढे थे हमने,
अपने लिए व्यर्थ है ,निरर्थक है ,
अनुभव और स्मृतियाँ चाहे जितनी बार गुजारे ,
उन रास्तों से हमें ,वे शब्द बेआवाज हें ,
सारी प्रार्थनाएं धंस गई है पाताल में ..
हमारी यात्राएं स्थगित हें 
विस्मृति  के किसी क्षण में,
पूरे होते-होते किसी अधूरे स्पंदित समय में ,
ठिठके हुए किसी शब्द -क्षण  या सहमी हुई कोई प्रार्थना ,
भूले से........
किसी रास्ते का पुनर्जन्म संभव हो ---वो लौटे ,
पर हम कहाँ होंगें ,
हम मिले शायद नहीं?शायद हाँ 
उन रास्तों शब्दों ,और प्रार्थनाओं के मौन अस्तित्व में ,

 [में जो देखता हूँ और कहता हूँ -के बीच ,में जो कहता हूँ और मौन रहता हूँ -के बीच ,में जो मौन रहता हूँ और सपने देखता हूँ के बीच, में जो सपने देखता हूँ और भूलता  हूँ के बीच कविता सरकती है - ओक्टावियो पाज ]
ये कविता अहा जिन्दगी ! में प्रकाशित ....बहुत दिनों से ब्लॉग पर कुछ नया लिखना था कई प्रारूप तय्यार भी किये ..लेकिन अंतिम तौर पर फिर  भी कुछ नहीं लिख पाई ....आप सभी को दीपावली की असीम शुभ कामनाएं ...

सोमवार, 30 अगस्त 2010

इन दिनों इच्छाएं, दिन, दुःख, आत्मा, हरी घास और झिलमिलाती रौशनी में...

किसी गहरे दुःख से उबरते ,
उसी दुःख को हांसिल करना होता है,
लौटते -डूबते इस बारिश में ,
एक निर्वासित दिन उम्मीदों  में सर उठाता है ,
इन दिनों - यकायक ...
दूर मैदानों में एकदम हरी घास सुकून देती है ,
जहाँ हवा जोरों से चलती है ,
अंधेरों में देखना उस तरफ ,गाढ़ी आतुरता से 
उन दिनों में, बीते पलों की मौजूदगी में/स्पर्श में दर्ज ,
लेकिन इन दिनों, वक्त की हदों में नहीं मिल पायेंगे हम ,
लेकिन मिलेंगे जब ,पूछूंगी,
इस अश्मिभूत आत्मा में ,
एक साथ जीते हुए- जीते जी,बिसराए जाने और स्मृति के बीच ,
कितना बचेगा कुछ,कोई अपना ,
ऐसा क्या था आखिर जिसे अपना ना कह सके ,
जिसके लिए जिये-मरे अनगिन बार ,
मौसम रखेंगें क्या हिसाब? 
अकस्मात लौटते से, अनकहे-अनमने शब्दों की सतह पर ,
निरंतर आवाजाही से ,
एक गहरी लकीर का खिंच जाना 
लरजते-बीतते मौसमों के साथ 
अव्यक्त दुखों संग आद्र हो जाना,
रौशनी में झिलमिलाते -उन दिनों में ..अपने लिए 
आखिर कितना बचेंगे हम,
हड़बड़ी और इस नाउम्मीद सी दुनिया में ,
अपनी आलोकित इक्षाओं से ऊपर 
कब तक 
इन दिनों ये कहना मुश्किल है   

"खुला था उसके लिए हर द्वार... रौशनी भरे आसमान सा... पर वह उस रौशनी से चुन रहा था अपनी चारदीवारी... " 
(-अमिता शर्मा)

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

एक अधूरी कहानी का पूरा ज़िक्र...

वो गलतफमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहता था ..उसके शब्द भरसक सहेजते हुए भी थरथरा रहे थे ,मानो उन पर तेजी से पानी फिसल रहा हो सब कुछ समझ आ रहा था ..पारदर्शी --पर अब कुछ नहीं हो सकता था उसने तो कहा जो नहीं कहना था ,और कुछ भी तो कहा जा सकता था ---सिवाय इसके जो कहा गया ....उसने उसका एक हाथ थाम लिया और चूम लिया कि मानो अपना सारा प्रेम ,सारा विशवास उस चूमने कि थरथराहट में पिरो दिया हो उसकी दुनिया बदल रही थी एक ना समझ सी समझ की गिरफ्त में था सब कुछ,ये सब कहने करने की भी कई कई रिहर्सल जो बखूबी था और नेपथ्य से लगातार तालियों की आवाजें ...वो समझदार था,समय की नब्ज पकड़ने में माहिर कैसे परिणाम उसके हक में हों ये भी ...सब  कुछ ..लेकिन ऐसे ही उसके सामने ना समझ आने वाली मूर्खता में आँखों को गीली करती हुई चुप सी खडी रह गई लड़की, अपने वजूद में रुई से भी हल्की...
किसी पत्रिका के लिए  कुछ लघु कथाएं  लिखी थी, आधी अधूरी थी, फिर समय निकल गया भेज भी नहीं पाई, इसलिए ताना -बाना पर ही सही ..

शनिवार, 7 अगस्त 2010

अब उसके पास कोई आइना नहीं रहता...


उसके हेंडबेग में एक छोटा सा आइना हमेशा रहता था,जब वो सत्रह साल की थी ...ओवल शेप वाला चारों तरफ से रंग बिरंगी एम्ब्रायडरी वाला, गुजराती ढंग का, बेहद खूबसूरत ,जो किसी रिश्तेदार ने उसे भेंट किया था ..उसमे चेहरा देखने पर एक बार में चेहरे का कोई एक हिस्सा ही फोकस होता था ,सिर्फ एक आँख या कान का निचला हिस्सा ,जब-जब वो इयरिंग्स बदलती पर वो ज्यादातर उसका इस्तेमाल अपनी आँखों को देखने में करती और दोनों आँखों में झाँकने के लिए  उसे बारी-बारी से आईने को हाथ के सहारे ढोडी पर लगाकर देखना होता ...और जब जरूरत होती वो निहार लेती ,उसकी आँखे खूबसूरत थी ,सभी कहते थे ..घर-बाहर पास-पड़ोस दोस्त .उन दिनों  उसे ना जाने क्या हो गया था..कि वो अपनी आँखों को बार बार देखा करती बाद में उसका पर्स बदला उम्र भी और आईने का आकार भी फिर थोड़ा और बाद में, थोड़ा सा और बड़ा आइना उसके पर्स में मौजूद रहने लगा जिसमें उसका पूरा चेहरा दिखलाई पड़े ऐसे आईने कि उसे जरूरत भी थी ये बात अलग थी कि आईने कभी चौकोर थे कभी ओवलशेप  में, तो कभी गोल और कभी षटकोणी जिसमे वो अपनी आँखे निहारा करती और जिस कारण वो   इस दुनिया को पूरी तौर पर देख पाने की काबलियत हांसिल कर पाई ... लड़की अब 34 साल की औरत है ,सत्रह साल बाद भी उसकी  आँखे अब भी उतनी ही खूबसूरत है ,अब उसके पास कोई आइना नहीं रहता, वो खुद रंग-बिरंगे सुन्दर डिजाइन वाले आइने गढ़ती है ..शहरी हाटमेलों में उसके आईने खूब बिकते हें..उसका नाम कस्तूरी था...

सोमवार, 28 जून 2010

ढेर से भय से दूर..जाना होगा कहना- एक प्रश्न का स्थिर होना ,एक खुशरंग परिद्रश्य के कुछ हिस्से जब दुनिया से कोई शिकायत नहीं होती ..//

हीं इस तरह नहीं होना था--एक असमंजस उन आँखों में अटक जाता है,तो फिर कैसे होता?..प्रश्न उलझाता है,..उस शाम का अंत. सोच की कई लहरें एक साथ किनारे आती हुई लौट जाती है, एक में अनेक सवालों की तरह तैरती सी....वो टकटकी बांधे देखता है ...मत सोचो ,मन को भी समझाता है --भला यूं भी कोई मन समझता है ,ये भी तो सोच में शामिल होता है, लेकिन अचाहे,गाहे-बगाहे सोच का बोझिल अंधड़ दिल-दिमाग पर सवार हो ही जाता है ,एक चुप्पी दिल में बजती है ---फिसलती सी उसकी नजरें दूसरे सिरे तक जा कर लौटती है,जहाँ तक आँखें द्रश्यों का पीछा कर सकती है ....इसके बीच खिड़की के शीशे ढलती धूप,और कन्नड़ हाउस की मुंडेर पर फडफडाते कबूतर क्षण भर को सोच के दरिया में कंकर की तरह हलचल मचाते हैं लहरों की छोटी भंवर, एंटीक्लॉक वाईस घुमती है ,फिर लौटना ..कहना ..''तुम्हे खुदा पर यकीन है'' नहीं हठात और जल्दबाजी में मिला जवाब सवाल के साथ ही लिपटा सा टेढा-मेढ़ा हो जाता है जवाब तो होना था '' हाँ ''लेकिन इतना अडिग और जमा हुआ जवाब कि सवाल ही हार मान ले...पिघलने लगे ...उसकी आँखे बोलती है अब कुछ नहीं कहा जाता है तो शब्द थोड़ा जगह बनाते हुए उसकी तरफ आते हेँ ''कहा ना नहीं जानता ''कि किस पर यकीन करूँ ---दोनों के बीच आबो हवा नर्म सी होकर गुजरती है शब्द अंधड़ में उड़ने से बच जाते हेँ ,खिड़की से परे टुकड़ों में छोटे-बड़े पल चक्करघिन्नी खाते हुए, मुझे माफ करें और रिहाई दें ,क्या ,क्या दुबारा कहना सुनना आसान होता ...अचकचा जाना गर्म मोम कि बूंदे दिल कि सतह पर गिरती जमती -उधडती जाती है त्वचा कि सात तहों से होकर नीचे तक जाकर ....तुम्हारी पुकार कानो तक नहीं पहुँचती ..ओह अब चौकने कि बारी उसकी थी,मुझे बख्श दें ,शब्द हेरा फेरी करतें हेँ ,वो काबू पाती है ..असमंजस ,पल, सवाल, समय एक अंधड़ की शक्ल में सतही हो अपरोक्ष से लरजते हेँ,तुम तो हम ख्याल थे ,शायद --पल की चुप्पी सालों में बहती है उसी अँधेरी चुप्पी का एक आइस क्यूब ठंडा, सफेद, पारदर्शी- दर सेकण्ड के हिसाब से पिघलता है,इतना छोटा अंतराल ऐसी जलन जैसी सोची ना गई हो --कोई असर नहीं,कोई ठंडक नहीं कोई राहत नहीं , एक जिद्द में कुछ लहराता है,ढेर सी प्रार्थनाएं चौखट पर खडी बुदबुदाती है...वो दालान वो मुंडेर वो कोना वो सीढियां आकाश ताकतें हेँ ,कोई किस मिटटी से बनता है कोई किस से ....चुप्पी घिसटती सी सर उठाती है ..कोई आतुरता नहीं वहां, कहे गये वाक्य जुड़ते से बड़े वाक्य में तब्दील होतें हेँ...फिर अपने ही बोझ तले किसी गहरी खाई में गिरते ...हुए फिर जादुई ढंग से ऊपर खींचते हुए...ध्यान टूटता है आकाश से एक तारा भी ठीक उसी वक्त मांग लो जो मांगना है----वो रूकती सी शब्दों को समेटती है ,ये क्या ?तारा तो तब तक धरती में समा जाता है... कभी पहले मिला जवाब आज में जोड़ लेना होता है ,एक बियाँबान को गुंजाना ..बांस के झुरमुटों से गुजरते-गुजरते शाम ओझल होना ही चाहती है लगता है उसे रोक लिया जाए,,,बहुत आसान था इस तरह उस शाम के साथ कुछ भी रोक लेना उसकी तरफ देखते हुए ....बाहर नीम की हरी शाखाएं कुडमुडाई उड़ान की कोशिश सतह से ऊपर थोड़ा सही, पैर जमीन टटोलतें हेँ, उठती बंद होती आँखों में चाशनी सी घुलती हुई हर तरह के भय से मुक्त, ढेर से भय से दूर.. मोबाइल में काल्पनिक मेसेज देखना, जाना होगा कहना- एक प्रश्न का स्थिर होना ,एक खुशरंग परिद्रश्य के कुछ हिस्से जब दुनिया से कोई शिकायत नहीं होती ..उस शाम का अंत ..बीतती है शाम चुपचाप ना गिनने में..आती हुई-- तारीखें हर दिन अखबारों की हेडलाइंस के ऊपर ब्लेक एंड व्हाइट फिल्मों की तर्ज पर फडफडाती हेँ

यह शब्द-चित्र जब लिखा गया मालूम नहीं था ... शाम का अंत इस सीलन भरे समय में, आईने से रूबरू शब्द होते हैं जैसे , वैसे ही... शब्दों की उर्ध्व गामी यात्राएं जिन्हें सोचा ही नहीं गया..

गुरुवार, 24 जून 2010

दुःख चिंदी -चिंदी हो गया..//-

दुःख चिंदी -चिंदी हो गया,
पहली बारिश थी ,
बह गया टुकड़ों में ,
छोटी-छोटी नावों की शक्ल में ,
बहता-बहता गल गया होगा
आगे जाकर.या दूर जाकर ,
रूक गया होगा ,
कहीं किसी मुहाने पर जंगल के
बहुत कुछ छूट जाता है,
अक्सर ऐसे ही,बेरहमी से
इस जिन्दगी में
अपने बेगाने
जो लिखा था वो मिट गया
कुछ जिये कुछ शेष रहे .. ,
अकस्मात कुछ आहिस्ता
लेकिन छूटे जो छूट गये

२४ जून २००६ को नई देहली की एक उमस भरी दोपहर --के बाद ----उसी रात कुछ महिला पत्रकारों के साथ हमारी फ्लाईट जर्मनी के लिए थी ..पहले ब्रुसेल्स फिर बाद में बर्लिन तब वहां विश्व फूटबाल मैच हो रहे थे ,तब ये शब्द ख्यालों में थे ----उसी शाम देहली में धूप वाली छिटपुट बारिश भी हुई थी जहाँ में कई सालों बाद अपनी एक बेहद नफासत पसंद दोस्त से मिली थी ...