सोमवार, 1 अगस्त 2016

#‪#‎जेब्रा‬ क्रॉसिंग -
#‪#‎उस‬ मोड़ पे मिलो तो-सोचूँ जहाँ से मुड़कर एक नदी बहती है -वहां पानी की नीली रौशनी की सतह पे ताजे बुरुंश के खिले फूलों को बहाया था मैंने कल,गहराती शाम से पहले हथेलियों के चप्पु से उस दिशा में --ताकि उन्हें समेट पाओ दूसरे किनारे से--तुम --
कहो तो चलना शरू करूँ, यहाँ से इस मोड़ से -तुम तक -अपनी नीली जरी के चौड़े पाट वाली गुलाबी साड़ी पहने -अपनी पदचाप में तुम्हे गुनते बुनते ---में ठीक हूँ ----बिलकुल ठीक हूँ
तुमने क्यों पूछा --

अच्छा लगा तुम्हारा पुकारना
उस जेब्रा क्रासिंग के पार रेलिंग के सहारे वो कोट की जेब में हाथ छुपाये खड़े रहना -याद है मुझे अब तक और भीड़ में दूर से मुझे पहचान लेना तुम्हारा --सालों बाद भी वो याद है क्या फिर कभी ये होगा जिंदगी कितना ही बीते को दोहराये जानते हो सन्दल" रंग और रूप वक़्त का वो नही होता --एक द्रश्य के सौ रूप और उनमें से एक तुम को ढूंढना --आज भी उस जेब्रा क्रासिंग पे रूक जाती हूँ ,अपने शहर में -देर तक कार पार्किंग की दिशा याद नही आती शॉपिंग का बोझा मन, भर का हो जाता है -पिछली बार तुमने पूछा था तब घुटनो में दर्द आ गया था, पैथॉलॉजी रिपोर्ट में केल्शियम डिफेंशियनशी --एक हद्द के बाद दर्द में जीना भी सरल हो जाता है--
जिस जेब्रा क्रॉसिंग को उड़ कर क्रास कर लेती थी -उस पार खड़े तुम पलक झपकाये बिना देखते रह जाते थे मुझे, क्या अब भी में तुम्हे वैसे ही दिखूं ,ना अब में 20 साल पहले वाली नही रही शायद तुम तैयार ना हो वो सब देखने के लिए
पर सच में बदल गई हूँ --क्या में बदल गई हूँ तुम देखोगे तो जानोगे ---लो में अपनी कार तक आ पहुंची --बगल की कार में एक ड्राइवर बैठा ऊँघ रहा है --गीत बज रहा है" जरा सा झूम लूँ में जरा सा घूम लूँ में -- में चली बन के हवा----
तुम याद आते हो इसी जेब्रा क्रॉसिंग पे
अक्सर संदल
जेब्रा क्रॉसिंग ## (दो) 
कभी कभी चुप्पियाँ निरर्थक साबित होती जाती है प्रार्थना के बाद भी -जब हम दुनिया के सही सलामत और साबूत बचे रहने की उम्मीद में आँख मूँद खड़े रहते हैं 
"जानते हो क्यों ?-इसलिए कि इसी दुनिया में तुम
हो -जब धरती हिली और 6.6 के रिएक्टर पर, तुम्हारे शहर में दहशत थी -समाचारों की धुकधुकी में में तुम्हे बार बार काल करती रही कोई उत्तर नही.कितनी धरती आकाश लांघ गई पल में कुछ याद नही -- देर बाद देखा एक डिजिट बीच में गलत डायल होता रहा उफ़ अपनी ही जल्दबाजी और बेवकूफी दोनों पर शर्मसार होना था, बहुत सी तबाही में सब ठीक था ""यही क्या कम था -फिर भी उस रात एक करवट की नींद के बाद सुबह कत्थई उजालों से भरी थी --बहुत कुछ छूट जाने की आशंका से बच जाना --लेकिन किसी अकस्मात से पहले मुठ्ठियों की ऊँगली से रेत के झर जाने के बावजूद स्मृतियों का हरा पहाड़ सांत्वना देता रहा दिल में एक ठंडी लौ जगाये हुए
संदल तुम जानते --मोहलत नही देती जिंदगी तेज चाल के बावजूद --उस जेब्रा क्रॉसिंग के बाद सड़क की रेलिंग्स पर रुक जाती हूँ हाथ टिकाये --सोचते हुए तुम्हे --हांफ भी उठती हूँ वहां तक आने के लिए कभी तो ऑटो को दूसरी तरफ छोड़ देती हूँ, कार से आऊं तो पार्किंग तक जाने में वो रेलिंग छूट जाता है वो बरसो पुराना हाथ भी जहाँ तुम हाथ टिकाये खड़े होते थे --बस एक अहसास है तो है
तुम्हे नही पता इतनी फुर्तीली में तुम्हारी अब कितनी गोलियां खाकर ज़िंदा हूँ थायराइड बी पी ये वो --हर सांस पे शक़ धक--
अभी लौटी हूँ ड्रायक्लिंर्स के यहाँ से उस गीले जेब्रा क्रॉसिंग से अहा बारिश में कितना चमकीला धुला धुला सा --जहाँ से एक बार तेज दौड़ते हुए हाथों को पकड़े हुए हमने सड़क क्रास की थी और देर रात तालाब 
के किनारे खड़े रहे
तुम भी जानते हो वो सड़क रक्त में कथाओं की तरह घुली है
ये तुम्हारा दुःख है तुम्हारी याद है जो बेअसर नही होने देती मुझे मेरे शहर में -
ज़ेब्रा क्रॉसिंग--3-- ## जब-जब लौटती हूँ, वहाँ से ,बातें ठीक से याद अाती हें,बहुत से शब्द अपने ढेर से अर्थ देर बाद खोलते हें-पुराने निशानों के सहारे चलते जाना ओर लौटना कभी धोखा भी हो जाता है -नगर निगम वालों ने पूरे शहर का नक्शा ही बदल दिया है -अक्सर भौच्चक उसी ज़ेब्रा क्रॉसिंग पे दाएं बायें देखती हूँ -ट्रेफिक सिग्नल की ग्रीन रेड लाइट मे गुम सी--अंधेरा अाजकल जल्दी घिर अाता है ,शाम से पहले शाम -रात से पहले रात -हैरानी होती है किसी का पुकारना एक अंतराल के बाद -कोई मुझे तलाशता है ,मे चकित हूँ ,-क्या मुझे अपने को संशोधित करने की जरूरत है इस अाशा निराशा राग द्वेष से परे -जानते हो संदल मे दुखों के टोहे जाने से डरती हूँ,फिर भी मऩ वहीं पहुंचता है --कहता भी है -तुम कहां हो ? जिस जगह हजार हरसिंगार झरते थे --अब तुम नही तो वह जगह अनायास अपरिचित. फीकी सी ,बेस्वाद लगने लगती है- ओर मे अपनी प्रार्थना कामना मे अनायास खाली हो जाती हूँ --ये एक प्रयास होता है सबसे जुदा तुम्हे सोचने का ---फिर तुम भीतर उतरते हो तो मे अासमान होती जाती हूँ -और उसी खालीपन से शुरू करती हूं नये सिरे से अपने को भरना---उड़ना ---
तुम होते तो देख पाते --तुम्हारे ना होनेे पर भी समय अपने पूरे अधूरेपन के साथ कैसे विस्तारित होता है
''तुम स्लीवलेस नही पहनती --ना' ओर तुम्हारी तर्जनी घुप्प से मेरी बाहं मे गड जाती है --अपनी बाहं को सहलाती हूँ --ओर लिपिस्टिक ''ना -क्यों ?-क्यों मतलब नही पसंद --क्यों पसंद नही --अब बातों को घसीटना जरूरी है --नही ---क्यों पूछा --मेरा पूछना -तुम चुप बस अांखों मे झांकते मुस्कुराते रह जाते हो---दो सेकंड बाद ही 
''ओर ये जो मऩ भर काजल भर लेती हो अांखों मे ठीक से देख पाती हो मुझे ? मे हंसी जोर से --हंसी इतना, अनन्त मे चांद की बिंदी मे-सितारों की खनक चमक मे अपने गजरे की महक मे-हंसी मे ,भीगी इतना कि हँसते हँसते रो पड़ी ---उपर सर उठाया तो बादलों के बीच से उड़ता झिलमिल प्लेन --अांखें उसका पीछा करती है -- कितना देर -- सब कुछ ओझल हो जाता है --जानते हो संदल जब सारी दुनिया ठसाठस भरी होती है --मे ज़ेब्रा क्रॉसिंग के पार उस छोटी सी सड़क के किनारे बने पार्क की रेलिंग्स वाला स्पेस तुम्हारे लिए बचा लेती हूँ ---जिसके सहारे, किनारे चलते हुए हम झील किनारे तक अहिस्ता अाते थे 
जानते हो जहां रंग बिरंगे फूलों को बेचने वाला वो गरीब लड़का कितनी हसरत से तुम्हे तकता था ---और तुम मुझे ---
अभी लौटी हूँ कुछ मेहमानों को शहर दिखाने के बाद --अब इस शहर मे ले दे के झील ही तो है --क्या दिखाया जाय - मेंने ,उनसे कहा चलिए पैदल ही चलते हें हालांकि पति महोदय को मेरा अायडिया जरा रास नही अाया --वो बोले मे उस तरफ मिलता हूँ --ओर ज़ेब्रा क्रॉसिंग की काली सफेद पट्टियों पे चलने का सुख उससे ज्यादा तुम्हे सोच लेने का सुख --पर संदल अब नही चल पाती हूँ सांसे तेज़ चलती है -तो झट्ट याद अाता है , बी पी की टेब खाई या नही -याददाश्त पे ज़ोर देती हूँ तो कुछ ओर याद अा जाता है --वो कोना जहां तेज बारिश होती है --मेरी गीली पीठ पे तुम्हारा हाथ --जान लो कुछ दिन बिजी रहूँगा --करीब दो माह --अपनी रिसर्च कंप्लीट कर लो --इस बीच ---बीच -तालाब के पानी पे एक नाविक जाल फैलाता है -अंधेरा अांखों को काटने लगता है किनारे लगे लैम्प जल उठते हें --उनकी रोशनी पानी की सतह पे गिरती है ओर वहाँ से प्रतिबिंबित होती हुई अांखों की पुतलियों मे चमक अाती है ----तुम देखते हो --समझते हो --मे तुम्हे ** सायमा झील के किनारे ले चलूँगा' नंदिनी '' कहते तुम्हारी झक्क सफेद कमीज़ भीग जाती है बारिश से बचने की कवायद मे---तुम्हारी बारिश भरी हथेलियाँ ---मेरी गीली हथेलियों को भर जाती है ---
# अाज तुम्हारी नंदिनी ने भीगा हुअा रजनीगंधा का एक बड़ा सा बंच लिया है----
*** सायमा झील 'फिनलैंड' की सबसे बीडी झील
जेब्रा क्रॉसिंग ## 4 -एक # इतनी बारिश जिसमें भीगने सांस लेने का मऩ --- जो --वहाँ सुन लिया गया जाने कैसे --शाम बीत रही थी -शाम का अखरी पल जैसे रुक गया ,पानी की सतह पे --हमारे देखते ही देखते धूप हिली और लचीली पतली लकीर सी हमारे एडियों से उपर तक पानी मे भीगे पैरों को छूती हुई बीच तालाब की तलछट पर पहुंच गई---झिलमिल सी --वो घाट ,वो किनारा ,वो नावों का झुरमुट उस पल मे सिमटा वो शाम रात का अंधेरा उजाला 
तुम्हे गुस्सा नही अाता --जवाब मे मुस्कुराना -मानो जवाब ही मुस्कुराना हो --अपने ही शब्द नजरा जाते है ----नाराज़ी ओर चुप्पी एक ही हाईट पे --अब क्या करो-जो महीनो नही टूटती- जो गलती ना करे और बात की पहल भी-- ना- तो ----
फिर उन दिनों का बीतना---जैसे समय ही खुराफात करता हो दोनो के बीच -- सुना है इस बार तुम्हारे शहर मे बर्फबारी हुई है --सर्दी तुम्हे जल्दी लग जाती है सोचते हुए तुम्हारी --सुकुड़ती नाक बजने लगती है --- ज़ेहन में
घर से निकली सोच कर कि पास के एक नये बने मॉल मे जरूरी शॉपिंग करुगी - बाहर एक लंबी रैली और भीढ़ दिखाई दी ,अब घूम कर जाओ तो उसी क्रॉसिंग पे--जानते हो सनातन एकांत मे एकांत अक्सर काटता है लेकिन भीढ़ मे अंजानेपन का एकांत ,अजनबी होने का सुख मुझे खूब भाता है --जब चाहे मन को टोह कर कहीं भी रुक जाना शॉप विंडों मेे झांक लेना --देर तक -- भी क्या खूब काम है पता चला, रोड ब्लॉक-रहेगा किसी स्थानिय नेता की सभा होना है - अब उस क्रॉसिंग से गुजरना मजबूरी है --कुछ पल को भी -सोच" टॉप गेयर पे दौड़े तो मुश्किल होती है-- 

''तुम इतना क्यों डरती '' रोड क्रॉस करने मे --वाकई तुम साथ हो तो --सोच रुकती है- तुम झुंझला गये --हाथ पकड़े पकड़े कहना- अराम से चलो ---सच सनातन अाज भी रोड क्रॉस करने से --डरती हूँ --एक कल्पना ,फिर देखना ट्रेफिक सिगनल को,काउंट डाउन करना 6,5 ,4 ,3 ,2 ,1 मे, अपने को बीच सड़क लहूलुहान पाती हूँ --बर्लिन की वो 22 वीं फ्लोर पे लिफ्ट मे अकेले एक अजनबी के सहारे ग्राउंड फ्लोर पे अाना ,सच कितनी शर्मिंदगी होतीअपनी ही बुजदिली से ,लेकिन डर नही जाता --अपने डरों के सच होने से डरती हूँ--तुम्हे खो देने का डर सच हुअा जब -तब से ओर ज्यादा,--बोटिंग करते हुए उस शाम जब बारिश शुरु हुई और नाविक ने जैसे ही हिचकोले खाती नाव को , तेजी से मोड़ा तो तुम्हारे तरफ झुकी नाव लगा अब डूब ही गई --मैने तुम्हे पीठ ओर बाजुओं से जोर से थाम लिया आँखें बंद कर ली-- तुम कहते रहे-तुम्हे मरने नही दूंगा नंदिनी ---अांखों की झिलमिल में तुम मुस्कुरा दिए --
खोया समय याद अाता है देर रात ,भाग कर जी लेने की अातुरता बेसब्र होती जाती है --
ये बालों को क्यों इतना कस लेती हो ''नंदिनी अांटी जी ''--हाथ से बालों मे लगे रबर बेंड को लूज़ कर देना ओर मेरा नंदी बन जाना ---देखो तो कितनी अच्छी लगती हो ''कैसे देखूं? ''मेरी अांखों मे उफ्फ ---
तुम्हारी यादों ओर बातों से बनी दुनिया करवट लेती है ---में ज़ेबरा क्रॉसिंग पार करती हूँ -
यही तो कहा था --एक पूरी रात बिना कामना के जागो मुझ संग ''फिर --फिर हम जुगनुओं को पकड़े -एक दूसरे की बंद -मुठ्ठियों को खोले -अांखों से एक दूजे के लिए सितारे पकड़े --तुम मे्रे लिए कोई कविता पढ़ दो --ना ' ये ना होगा मुझसे -
-अरे कोई किताब से पढ़ देना --एक शरारती सवाल- और क्या ? बस उस रात सूरज भी दोपहर दिन चढ़े तक मूह ढाँप सोता रहे -आइडिया अच्छा है 'जान '' और अनायास चेहरे को सिकोड कर होंटों को गोल घुमाकर सीटी मे तुम्हारा गा पड़ना 
''ना जाने कहां तुम थे ,ना जाने कहां हम थे जादू ये देखो हम तुम मिलें हें'' -------मन्ना डे की पुरसर अावाज़ मे ,मन्नाडे की आवाज़ पसंद है तुम्हे- तुम कहते हो तो बस फिर कुछ याद नही रहता--वो सिकुड़े हुए होंट वो घूमती अांखें जीरोक्स हो जाती है "जान" सुनते -ही
तुम्हारा खुश चेहरा द्रश्यों मे चमतकार पैदा करता है -तुम्हारा साथ चाहना अाज भी ---उस शाम कितनी बैचैनी थी तुमसे ना मिल् पाने की --अाज सोचती हूँ तो लगता है हम वाकई जिंदगी मे उतना ही पाते हें जितने के हकदार होते हें बाकी कोशिशें बेकार है सनातन---सच बताऊँ एक मुकाम एसा भी अाता है जब सारे सच के झूटे होने के अंदेशे मुझे बहलाते हें --पिछले हफ्ते से पीठ मे दर्द है--अब डॉक्टर के पास जाने से डरती हूँ सनातन जाने कोनसी पैथालॉजी रिपोर्ट से जाने कोन सा भूत निकल अाये --अभी शाम डूबना चाहती है --मे ज़ेब्रा क्रॉसिंग के पार उस रेलिंग्स से खड़े हो वहाँ से देखना चाहती हूँ खुद को चलते हुए तुम तक अाते हुए-फिर एक साथ हवा के गुब्रबार को देखना अासमान मे ,जहां ढेरों अबाबील पंख फैलाये उड़ती रहती है -लेकिन फिलवक़्त ये भी ना हो सकेगा रात कहीं डिनर है '`--तुम्हारी सोच को भी तह लगा छोड़ जाऊंगी -सिरहाने --फिर भी --खोलूंगी बीच रात संशय में---इतने बरस बरस बीते ऑर कल रात से बारीश भी बेइंतहा बरस रही है--
समय का कोई विश्वसनिय पाट है --हमारे बीच सनातन '' जो दिन ओर रात की काली सफेद पट्टियों से चल कर हमे एक दूसरे के भीतर पार उतारता है-- -+
मे समय को सांस लेने की मोहलत देती हूँ--
ताकि चलती रहे जिंदगी ---
## ज़ेब्रा- क्रॉसिंग ## 5 ## उसका चेहरा यकायक अब याद नहीं आता ना वो ना उसकी वो बातें और आता भी है तो कहीं भी कभी भी फिर चाहे तालाब पर फैलती सिकुड़ती रौशनी की परछाई ही क्यों ना हो --उनमें भी --बस इस सोच के साथ एक अजब भाव उस पर तारी हो जाता है ---एक लम्बी सांस के साथ रूकना पड़ता है और देखना तालाब की शेडेड रोशनियां कुछ नीली काली सी -- उसके ड्राइंग रूम के पर्दों की तरह -जिन्हे रस्सी की तरह बल देकर कभी पकडे पकडे वो उस तरफ देखती है-- कालबेल पर रखा उसका हाथ -याद आता है ये जो बार बार ज़ेब्रा क्रॉसिंग से लौटती हूँ ना सनातन , तो लगता है कुछ था जो रोशनियों से भरा था वहां से लौटना चाहे जितना तकलीफ देह हो पर ये पीड़ा उस सुख के सामने छोटी ही लगती है -
-''तुम पानी फुलकी खाओगी '' ना अरे पूरा बताया करो आखिर क्यों ना --तुम्हारा ये कहना और चिढ़ना और मुठ्ठियों का गोल करके होंटो और मुँह के पास लगा कर खांस उठना और साथ ही मेरे सफ़ेद कुर्ती पर लहराता 
सतरंगी लहरिया दुपट्ट्टे को मुठ्ठियों में भर लेना --याद आता है --सुन लेने की बेसब्री में --जानती हूँ- ,नहीं पसंद कह उठती हूँ फिर आँखों में कोशचन मार्क --ये खट्टी चीजों से मुझे कोई लगाव नहीं जिंदगी में --- ये क्या हुआ लड़कियों को तो बहुत पसंद होती है' नहीं मुझे नहीं पसंद में जोर देकर कहती हूँ -तुम औरों से बिलकुल अलग हो नंदिनी--और सच सनातन में औरों से कितनी अलग हूँ तुम्ही जानते हो --- 
लेकिन क्या कितना --सोचना पड़ता है और देर तक सुझाई नहीं देता --बल खाया पर्दा जोर से छोड़ देना पड़ता है जो खिड़की के एक हिस्से के टूटे कांच की तिरछी दरार नुमा लकीर से होकर बेतरतीब हो फैल जाता है और पल भर को शीशों से छन कर अंदर आती रौशनी उसके चेहरे पर लहराती हुई जमीन पर फैल जाती है अंदर की भटकन भी एक झटके के साथ कोने में जा सहम बैठ जाती है ---मिल जाए वो शायद --सब कुछ नहीं बस उतना ही जो उसके हिस्से का था, एक निर्जन सपने में निमग्न होना और हर रात ये प्रार्थना करते हुए सो जाना हे ईश्वर आज कोई सपना मत भेजना ऐसा दुःसह --जैसा कोई नहीं एक सचेतन पूर्व ज्ञान समय की गर्द - गुबार हटाकर स्पंदित होता है बहुत कुछ किसी रंग में ,किसी शब्द में ,किसी वक़्त में किसी मिलती जुलती शक्ल में और कभी तिनके-रेशे भर की समानता में भी--- उसकी निगहबानी चाहे-अचाहे होती ही जाती है फैली हुई हवा की शक्ल का बनना टूट जाता है -और ----स्मृतियों का दरवाजा बेवक़्त खुल ही जाता है एक कोलाज रास्ता रोकता है --जो मेरा था वो वक़्त दूर जाकर चिढ़ाता सा दिखाई पड़ता है तेज गति वाली किसी ट्रेन की खिड़की से हिलते हाथ में रुमाल का धब्बे की शक्ल में होते-होते आलोप हो जाना ---एक क्षण के जादू का ताउम्र उसकी गिरफ्त में जीना ---देर रात तक कई बार नींद नहीं आती ---कांपती ठण्ड में नीले मखमली कम्बल में कुड़मुड़ाते बस पड़े रहो --खैर तसल्ली यही है दृश्यों में पहले सा सन्नाटा नहीं है बेडरूम से सटा हुआ बड़े बड़े भूरे लाल पत्तों वाला पेड़ खड़खड़ करता ---जागते रहो की गुहार लगाता चेताता रहता है, 
-मन की बैचेनी बारिश के बाद खिल आये जामुन- अमरुद के ताजे पत्तियों की खुशबू में घुमड़ती ही जाती है तंग दिनों की शुरुआत ---अब राहत देती है ---देखो अब हम कितना बदल गए हें --रोते नहीं--एक दूसरे तरह का हुनर अपने में विकसित कर लेना -- एक पेड़ का निर्लिप्त भाव स्मृतियों की निरंतरता को बरकरार रखता है अँधेरे में खड़ा अपने धड़ से कटा पेड़ अपनी दो टहनियों के साथ विपरीत दिशाओं में फैला एक काले बिजूके की तरह ठहाका लगता है- --तुमने कुछ कहा शायद--मैंने कुछ सुना हमारे अच्छे -सच्चे दिनों--का लौटना मुमकिन होगा-- कभी सपनो में कभी सोच में कभी सच में उम्मीद से अधिक उम्मीद आखिर क्यों --सड़क, दुकाने, आवाजें ,शहर --किसी शहर के खूबसूरत नाम वाला वो मार्ग एक गंध कि तरह व्यक्त होता है --क्या सचमुच कोई उधर इन्तजार कर रहा है छूटा हुआ कुछ मिल जायेगा ये भी तय नहीं है बाहर कोहरा है बेहद ठण्ड है --हर वक़्त स्मृतियों की यात्राएं बेठौर कर देती है कोई ठिकाना नहीं बचता 

---और हर यात्रा को पीछे मुड़कर देखना अजीब है एक सीझा हुआ सा दिन, उन दिनों के पतझड़ के में प्रेम करने और भुलाने के लिए.मजबूर करता है ---हमारा समय कहाँ दर्ज है जिसमें किसी पत्ती तक के गिरने की आहट नहीं है लेकिन हर रात खड़ खड़ करती बड़ी पत्तियों वाला पेड़ जो आधी रात जगा देता है उसे सुबह देखो तो अजनबी लगता है ,हाँ आजकल घर के नजदीक ही जेब्रा क्रॉसिंग की तरह एकांत पार्क में एक पुलिया ढूंढ ली है बिलकुल वैसी ही बस फर्क इतना है में उससे चलकर अकेली आती हूँ दूर तक, कभी कभी तो तुम्हारा चेहरा सोच कर भी याद नही आता -लेकिन बहुत कोशिशों के बाद -तुम्हारा चेहरा कुछ कुछ याद आ चला है-तुमने फिर अपना कहा अच्छा लगा एक नदी -पहाड़ों के नीचे कछारों में - बहती हुई बढ़ती है ,गीले तिनको घास कागज सीपी शंख को ठेलते हुएआगे बढ़ती है इस साल बारिश भी 
ज्यादा हुई और इस मौसम में भी लगातार बारिश हो रही है --नदियों के उफान पर आने के साथ ही ----ये भी बीत जायेगा ---लेकिन हम कितना बचा रहेंगे एक दूसरे के लिए ये कौन जानता है -
##-ज़ेब्रा क्रासिंग अंतहीन सिलसिला है, कौन जाने इसका क्या अंत है- जब तक स्मृतियां रहेंगी ज़ेब्रा क्रॉसिंग लिखा जाता रहेगा ये, इसका 5 वां  भाग  है ]

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

सुनो प्रेम तुम भीतर उतरते हो तो में आसमान होती हूँ--वक़्त से पहले वक़्त की गुहार--हमेशा कारगर नहीं होती --तब समय रेंगता है जब उसे दौड़ना हो वो घिसटता है



  1. सुनो प्रेम तुम भीतर उतरते हो तो में आसमान होती हूँ ##  पुराने निशानों के सहारे चलते जाना -और एक निर्धारित जगह से लौटना कभी कभी धोखा दे जाते है, पुराने निशानों की याद के बावजूद आप रास्ते भूलते जाते हो और भौच्चक किसी चौराहे पे दायें बाएं ,नाक की सीध में या कि पीछे पलटे संशय होता है ,बहुत से निशाँ बरगलाते है --अन्धेरा आजकल जल्दी घिर आता है,शाम से पहले रात ,रात से पहले रात होती है, बस वही नही होता जिसे वक़्त से पहले होना चाहये-और वक़्त से  पहले वक़्त की गुहार--हमेशा कारगर नहीं होती --तब समय रेंगता है जब उसे दौड़ना हो वो घिसटता है और वो धीरे धीरे सरकते हुए -बाहर पसर जाता है यहां  वहां टुकड़ों में --शाम की हल्की ठंडक धड़कती नब्ज पर पलकों और हाथों पे महसूस होती है और आँखों में उस ठंडक का उतरना महसूस होना एक जरूरी सोच के साथ प्रकम्पित करता कुछ बातों वातों के साथ ठगता है, तभी उस यात्रा पर जाना ,जहां जाना अनेकों बार स्थगित हो चुका हो --एक लम्बे अंतराल के बाद कोई तलाशता है मुझे, में चकित  हूँ --मुझे अपने को संशोधित करने की जरूरत है --क्या ? देर तक सवाल का उत्तर नहीं मिलता -फूलों के -रंगो में ,तितलियों के पंखों में ,सौंदर्य के अर्थों में ,प्रेमियों के एकांत में ,ऊँची घास के मैदानों में ,जोर से कहना --सुनो प्रेम तुम भीतर उतरते हो तो में आसमान होती हूँ --एक जादू असर के साथ बातों का बेहिसाब होना --कहीं पहुँचने से बेखबर --   एक लॉन्ग ड्राइव पे निकल जाना ,दिल में हजार हजार ख्वाहिशों के दृश्य लिए-एक खनक -एक गमक ठुमकती है राग द्वेष  से परे --कभी कभी हम अपनी प्रार्थनाओं-कामनाओं में खाली हो जाते हैं --फिर से भर जाने को 

  1. --तभी चीजों को भीतर की तरफ देखना कारगार होता है --सूखे फूल एक विस्मृत गंध ,मुड़े हुए मोर पंख ,और पाजेब सी झंकृत होती स्मृतियाँ ----देर तक विस्मृति में रहने के बाद एक रास्ता जंगल नदी की और मुडत्ता है,घर लौटने से बेहतर , विभ्रम से दूर,नदी के उस छोर तक चलते जाना जहां से लौटने की कोई जल्दी नही होती सूखे पीले पत्तों कुछ जंगली फूलों सूखी टहनियों का, पारदर्शी नदी जल में बहना और उस ठंडे जल में अपना गीला चेहरा देखना आहा फिरअपने ही ,चेहरे का लहरों में गुम  हो जाना ---तुम कहां  हो ---पर जिस जगह तुम नही हो वो जगह अनायास अपरिचित और बेस्वाद लगने लगती है मुझे - लौटना होगा अपने को कहना --अपनी सीध से ठीक उल्ट ,और वो अपनी ब्लेक पश्मीना में कढ़े गुलाबी गुलाबों को बाहों में जकड़े लौटना चाहती है --जाने कितने तमाम सफर जाने कितने छूटे शहरों-जंगल को सोचती हुए  ये छूटना भी तय है --दोपहर की धूप में ,नदी जल में एक भीगी जंगली चिड़िया का सूखी टहनी पे बैठ पंख झाड़ना बार -बार काश तुम, मुझ संग देख पाते, नदी की रेतीली दोमट मिटटी वाले कच्चे रास्ते से लौटते हुए  अपने कानों पे हाथ रख जोर से कहना सुनो इस बार हम **'सायमा' झील के किनारे मिलेंगे सुना तुमने ----
  2.  [ एक रात की नींद ---बारह हजार दिन के सपने -- मन की रिपोतार्ज  कथा  ]
  3. [** सायमा झील --फिनलैंड की सबसे बड़ी सबसे सुंदर झील ]     

सोमवार, 21 सितंबर 2015

-किरदारों को मोड़ दे देने से क्या होगा -हड़बड़ी और नाउम्मीद सी इस दुनिया में रौशनी में झिलमिल उन दिनों में अपने लिए और वो खुश थी ,वो ऐसा ही सोचती थी उसने सोचा भी ---लेकिन सच सजगताएं आदमी को असहज और निकम्मा बना देती है

वैसे किरदारों को मोड़ दे देने से क्या होगा  - --बारिशों की उमस भरी सुबह जब रात तेज बारिश होकर गुजर जाए --जिसे बगैर कुछ याद किये गुजारने की कोशिश तो की ही जा सकती है --जिंदगी के अधकचरेपन को समझने में अपनी समझदारी  कितना काम आई,उस दिन को इस दिन के मत्थे मढ़   देना हालांकि समझदारी नहीं थी --फिर भी कई बेईमान दोस्त और कई कई तरीकों से सताने वाले लोगों और रिश्तों से छुटकारा पा लेना मुश्किल था पर उसने किया वो सब -
--हड़बड़ी और नाउम्मीद सी इस दुनिया में रौशनी में झिलमिल उन दिनों में अपने लिए और वो खुश थी ,वो ऐसा ही सोचती थी उसने सोचा भी ---लेकिन सच सजगताएं आदमी को असहज और निकम्मा बना देती है अनुभव तो यही है --फिर भी एक निरीह सपाट आतंक उसके दिल दिमाग पर छाता गया उसका यही भय उसके सामने कभी निराशा तो कभी अतिशय प्रेम और कभी विवशता की तरह सामने आने लगता --जिसका खामियाजा भी उसे  बेतरतीब तरीकों से भुगतान कर  करना पड़ता --आखिर खींचतान के बाद सलवटों भरा ही तो बचाया जा सकता था बाद में उन्ही सलवटों में खुद को समेट सिकोड़ लेना फिर वैसे ही रहना अनमने और कसैले से हिसाब लगाते रहना दोयम स्थिति से उबरने की कोशिशें, सस्ते और बेहूदा मोहों से बच निकलना -
निकलकर मुकम्मल उदासी और खालीपन से अपने को खूब खूब भर लेना उसे बखूबी आता है -फिर भटकना अज्ञात लोक नक्षत्रों में  ढून्ढ लेना कोई ठौर  हो जाना
निस्संग  आस-पास से --अरसे तक चलता, कई कहानियो उपन्यासों को बार बार पढ़ना --उनके अंत और घटना क्रम को मन मर्जी से बदल देना --और तसल्ली देना खुद को कोई भी उस जैसी मुश्किल में नहीं ये सोचना उसे खुश करता --आखिरकार अंत तो उसे अपना आप ही बनाना है --किरदारों को मोड़ दे देने से क्या होगा ---इस सब में अपने को जानबूझकर स्थितियों में तर रखना एक तरह की निर्ममता में जीवित रहना उसे रास आ जाता ---उसकी यादों बातों और वादों से ऊब की हद तक उक्ता जाना --ये सोचना किसी के लिए बेवकूफी में बिताये दिनों से फिर भी ये बेहतर है ---एक यही  सोच बस थोड़ी सोच की हद से उसे ऊपर ले जाती ----बावजूद कई चीजें और भी इतर चीजों से बड़ी थी जैसे परत उधेड़ती हवा का पीले पत्तों का लहराते  कुड़मुड़ाते हुए शाखों से नीचे गिरते देखना खूबसूरत था/, ख़ुशी  के खजाने की तरह कोई फूल खिला देखना भीगी चिड़िया का पंख झाड़ना बार बार आँख खुलते ही सिरहाने वाली  खिड़की की मुंडेर पर कबूतरों के जोड़े का गुटरगूं करना  बारिश में, नीली धूप  का निकलना छिपना देखना ---एक  द्वैत भाव ही तो था जो जिला देता था, बाकी दिनों में खुद को तटस्थ रख अपने लिए मृत्त घोषित हो जाना किसी परिणीति के बाद तलाश ख़त्म होगी भी या नहीं ---क्या चीजें छीन  लिए जाने के लिए नियति अक्सर चीजों को मिला देती है मिटटी सी चीजों को इतना प्यार करना भी तो ठीक नहीं हंसी आ जाती है एक बूँद आंसू भी --किसी ऐतिहासिक अद्भुत सीलन भरी गंध में सराबोर प्रेम अपनी जगह था जहाँ के तहाँ --इन्तजार एक हैरानी और मूर्खता से भरा पल ही है ,बीते पलों की मौजूदगी में आतुरता से स्पर्श में दर्ज ढाई आखर ---जैसे मधय सप्तक का निषाद स्वर एक ही सांस में मन्द्र  सप्तक के निषाद पर उत्तर आये --हैरानी यही थी इस साल वर्षा कम होने के बावजूद,शहर में हरियाली बहुत घनी थी  
]एक रात की नींद ---बारह हजार दिन के सपने --मन की आंशिक रिपोतार्ज ] 

सोमवार, 4 मई 2015

मन को एक मथ देने वाली उदासी टोहती है,और मुकम्मिल ब्यान दर्ज करती जाती है एक दो तीन एक लम्बी फेहरिस्त फिर सोचना की उसे भरोसा ही नहीं तो कोई क्या करे ? आपका ईमान ही आपका प्रहरी हो सकता है, यू सोच लो कोई माने या ना माने --बेहद कठिन हो जाता है,तुझसे मिलना फिर खोना ,पसीजना ---देर तक फिर सिसकना --वो ठौर पीछे दूर तक छूट जाता है--उदास उदास --लेकिन सब कुछ जल्दी ही धुल पुछ जाता है और फिर नेह की नीड बुनने में व्यस्त ,हल्दी पुते दिनों में तुम्हारी हल्दी हंसी, रेडियो में बजते संगीत से ताल मिलाती है ---दिनभर के बाद शाम देर से आती है और जल्दी लौट जाती है एक अपूर्व निजता मन को कस कर घेरती है उस डूबती दोपहर सी ,उस शाम देर तक देह का पोर पोर बजता रहा था एक हरियल पल --भी एक पल को उदास हो मुस्कुरा उठता है --फिर ऐसा भी होता ,जहाँ मन डूबता ,वहीँ किनारे हरी पत्ती के रंग में ,हर सिंगर के फूलों से गिरती खुश्बू से मन भर जाता तुम हो लगता है, कहीं आस -पास --वो तारीखें और वो भी जिसमें ऐसा कुछ नहीं हुआ वो तारीखें मुकम्मिल है अब भी , थी कम ज्यादा उन तारीखों में सोचे गए कई दिन रात गायब थे ---यूं हिसाबी -किताबी होना आपकी फितरत ना हो तो ,कहते हुए शर्मंदगी हो सकती है लेकिन वक़्त की फितरत अबूझ है यू पलटना और गिनना पल पल कभी मजबूरी हो जाती है और एक अजब करुणा में आद्र हो जाना ,अपने को स्मृतियों से गुणित कर लचल बना लेना तुम्हारी खातिर अच्छा ही लगता जाता है --पानी से गीलापन आग से ऊष्मा मिटटी से आकार लेता सौंधापन मेरे भीतर यही तो हो तुम बस तुम, सुनो ना सुनो में मिलूंगी इसी धरती और आकाश के भीतर कपिल धारा में नर्मदा के सबसे पहले सबसे ऊँचे जल प्रपात के पास अखंड कौमार्य लिए जहाँ नर्मदा, कुण्ड से निकल केवल सात किलोमीटर आगे तक ही तो चलती है,वहीँ जहँ धुप छनकर पानी में चक्राति हुई पैरों की बिछिया बन जाती है शाल वृक्ष से लिपटी हथेलियाँ में मेहँदी घुलती जाती है , पत्तों गुंथी हुई पगडण्डी घुमावदार सड़क के पार जहाँ सूखे शाल पत्र से पटा समतल मैदान है वहीँ, छल -छल पानी गूँज है, चार पग फेरों के बाद -तीन जन्मों के साथ उस गोलाकार सड़क पर जिसे मैंने सुना ही सुना है, का पूरा फेरा लूंगी ,हथेलियाँ मेहँदी रंग,और पायल की रुनझुन में आत्मा की सुवास से भर ,तुम्हारे पीले उत्तरीय वस्त्र के कोने से लिपटे बंधे मन से ,परकम्मपावासी का दृष्टी- आशीर्वाद लेते, में मिलूंगी वहीँ- किसी जनम में, दिन डूबने से पहले हल्दी काया में, केया रंग चूड़ियों भरे हाथ -पीले जरी के पाट वाली --लाल साड़ी में ---सूरज की बिंदी माथे लिए सकुचाई आँखों से ---तुम मिलोगे ना --

मन को एक मथ  देने वाली उदासी टोहती  है,और मुकम्मिल ब्यान दर्ज करती जाती है एक दो तीन एक लम्बी फेहरिस्त फिर सोचना की उसे भरोसा ही नहीं तो  कोई क्या करे ? आपका ईमान ही आपका प्रहरी हो सकता है, यू सोच लो कोई माने या ना माने  --बेहद कठिन हो जाता है,तुझसे मिलना फिर खोना  ,पसीजना ---देर तक फिर सिसकना --वो  ठौर पीछे दूर तक छूट जाता है--उदास उदास  --लेकिन सब कुछ जल्दी ही धुल पुछ  जाता है  और फिर नेह की नीड बुनने में व्यस्त 
,हल्दी पुते दिनों में तुम्हारी हल्दी हंसी, रेडियो में बजते संगीत से ताल मिलाती  है ---दिनभर के बाद शाम देर से आती है और  जल्दी लौट जाती है एक अपूर्व निजता मन को कस  कर घेरती है उस डूबती दोपहर सी ,उस शाम देर तक देह का पोर पोर बजता रहा था  एक हरियल पल --भी एक  पल को उदास हो मुस्कुरा उठता है --फिर ऐसा भी होता ,जहाँ मन डूबता ,वहीँ किनारे हरी पत्ती  के रंग में ,हर सिंगर के फूलों से गिरती खुश्बू से मन भर जाता तुम हो लगता है, कहीं आस -पास  --वो तारीखें और वो भी जिसमें ऐसा कुछ नहीं हुआ वो तारीखें मुकम्मिल है अब भी , थी कम ज्यादा उन तारीखों में सोचे गए कई दिन रात गायब थे ---यूं हिसाबी -किताबी होना आपकी फितरत ना हो तो ,कहते हुए शर्मंदगी हो सकती है लेकिन वक़्त की फितरत अबूझ है यू  पलटना और गिनना पल पल कभी मजबूरी हो जाती है और एक अजब करुणा में आद्र  हो जाना ,अपने को स्मृतियों से गुणित  कर लचल बना  लेना तुम्हारी खातिर अच्छा ही लगता जाता है --पानी से गीलापन आग से ऊष्मा मिटटी से आकार  लेता सौंधापन मेरे भीतर यही तो हो तुम बस तुम, सुनो ना सुनो में मिलूंगी इसी धरती और आकाश के भीतर कपिल धारा में नर्मदा के सबसे पहले सबसे ऊँचे जल प्रपात के पास अखंड कौमार्य लिए जहाँ नर्मदा, कुण्ड से निकल केवल सात किलोमीटर आगे तक ही तो चलती है,वहीँ जहँ धुप छनकर पानी में चक्राति हुई पैरों की बिछिया बन जाती है  शाल वृक्ष से लिपटी हथेलियाँ में मेहँदी घुलती जाती है , पत्तों गुंथी हुई पगडण्डी घुमावदार सड़क के पार जहाँ सूखे शाल पत्र  से पटा  समतल मैदान है वहीँ, छल -छल पानी गूँज है, चार पग फेरों के बाद -तीन जन्मों के साथ उस गोलाकार सड़क पर  जिसे मैंने सुना ही सुना है, का पूरा फेरा लूंगी ,हथेलियाँ मेहँदी रंग,और पायल की रुनझुन में आत्मा की सुवास से भर ,तुम्हारे पीले उत्तरीय वस्त्र के कोने से लिपटे बंधे मन से ,परकम्मपावासी का  दृष्टी- आशीर्वाद लेते,  में मिलूंगी वहीँ- किसी जनम में, दिन डूबने से पहले हल्दी काया में, केया रंग चूड़ियों भरे हाथ  -पीले जरी के पाट वाली --लाल साड़ी में ---सूरज की बिंदी माथे लिए सकुचाई आँखों से ---तुम मिलोगे ना --
अगर शरर है तो भड़के-जो फूल है तो खिले 
तरह तरह की तलब,  तेरे रंगे  लब  से    है  
सहर की बात --उम्मीदें -सहर की बात सुनो [फ़ैज़] 

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

जिनमे दर्ज है हमारा प्रेम /--बचे हुए खूबसूरत प्रेम की मानिंद---गिलहरियां

खिलंदड़ी --गिलहरियां बहुत आसानी से 
पीछा करती हें --एक दूसरे का 
--वहाँ प्रतियोगिता नहीं है /उनकी बेहिसाब दौड़ती-फुदकती दुनिया में /-
-एक आरामदायक सुरक्षा है /उजली सुबहों में घास के बीज कुतरती गिलहरियां मुझे पसंद हें /-बेहद पसंद है 
-उतरती दोपहर और शुरू होती शामों से पहले वाले सन्नाटे में /--
पत्तों की  हरी रौशनी में झुरमुटों के बीच /उनका होना एक हलचल है /-
-पत्तों के गिरते रहने में भी /
--तब भी ,जब सुकमा की झीरम घाटी में विस्फोट होता है /
और पत्तों की  नमी यकायक सूख जाती है
/--भरभराकर टूटते शब्द बौने होते जाते हें /
तब कड़क और कलफदार चेहरों वाली इस दुनिया को /-
-अपनी गोल किन्तु छोटी और चमकदार आँखों से ,
चौकन्ने कानों से,  पंजो के बल /पेड़ के तने को नन्हे पंजों से थामे / -खड़ी  हो देखती है 
,झांकती ,सुनती है गिलहरियां- अगल बगल -
---मेरी समझ से---लचीली गिलहरियां दुःख ताप  ईर्ष्या  से परे
 दुनियावी चीजों को एक से ,दूसरे सिरे तक  देखती मिलेंगी /-
-एक लम्बे विलाप को पूर्ण विराम देती सी /
-
-बांस की  दो चिपटियों  के बीच दबकर निकलती सी उनकी आवाज़ की  मिठास /-
-किसी लोकवाद्य यंत्र की  तरह बजती हुई  निष्कपट /
उस-- इस समय में /-जिनमे दर्ज है हमारा प्रेम /-
-प्रेम के उत्सव की  तरह ,मंगलगीत गाती बीतती  है /
--फिर आना तुम याद बहुत कहती--/शर्माती  शाख की सबसे ऊँची फुनगी तक दौड़ जाती है 
और तमाम तरक्कियों के बावजूद बदत्तर  होती जाती इस दुनिया में /
-बचे हुए खूबसूरत प्रेम की  मानिंद / हर सुबह -हर दिन 
 घास के एक  नन्हे तिनके के सहारे थाम लेती है, पूरा आकाश /-
उन्ही बहादुर  गिलहरियों से मुझे बेहद  प्रेम है 
---बेहद 
पिछले साल सुकमा के झीरम घाटी में नक्सली  हमले [विस्फोट ] के बाद



गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

किसी मुकम्मल स्पर्श से जीवित होती देह --फिर छूट जाने से डरती है तेज गले से रुलाई का भरभराना रोने से बदत्तर --कितना दम घुटता है कोई माप नहीं, एक तपिश देह में उतरती है --

दो आवाजों को अलगाना मुश्किल हो जाता है जब एक ही समय में एक ही सुर में वो सुनाई दे ---ठीक वैसे ही भीतर के दृश्य धूप  से छनकर बाहर की ओर एक बड़े से सेमल के पेड़ की झुकी हुई शाखाओं को भेद जमीन पर आते हैं, उनका दिखना ही अद्भुत है --सेमल की बड़ी बड़ी हरी गदबदी नरम रूई वाली कच्ची फलियों में अब दरारें पढ़ना ही चाहती हैं --इन्तजार तो धूप  को भी है, फलियों की छोटी बड़ी परछाइयाँ हवा संग संग जमीन पर पड़े आड़े तिरछे दृश्यों को दुलराती हुई अलसाई दिखलाई पड़ती है धूप  लम्बी शाखों पे चढ़ते -उतराते एक पतली कांच की लकीर की मानिंद लचीली डोलती है ---हतवाक'' समय में सब कुछ साफ होता है कुछ आवाजें भी, में तो कहीं गया ही नहीं था सच कहीं जाने के लिए ---तुम्ही बताओ तथागत  ऐसा कैसे चलेगा --एक सिरे पर आवाज कंपकपाती तो दूसरे सिरे पर स्थिर हो रह जाती है कबूतर का एक जोड़ा भरी दोपहर क्लॉक वाइज़ ,एंटी क्लॉकवाइज घूमता हुआ सोच को फिर वहीँ लौटाता  हुआ चकित करता है --कुछ चीजें जीते जी अश्मीभूत होती जाती हैं तो दूसरी तरफ फूलों की शिराओं में प्रतिध्वनियों की शक्ल में जी उठती है --सन्नाटे वाली दोपहर में दबी दबी हंसी वाली धूप थोड़ा आगे सरकती है ,बीतती  है आहिस्ता -पहुँचती है शाम तक सुस्त चाल से --लेकिन शाम देर नहीं करती  चुस्त चाल से लम्बूतरी हो पहुँच ही जाती है अँधेरे के निकट --अँधेरे में सुझाई नहीं देता कहाँ सुख है और कहाँ पीड़ा --
कोई उदासी कोई ,कोई कुंठा ,कोई याद कोई मोह ,कोई मुक्ति -और ऐसा ही कोई निश्छल दिन कोई रात में गड़मड़ होता है कोई ठौर नहीं ,बेस्वाद और तूरा सा  दिन दूर से नजदीक की चीजों को देखता हुआ ख़त्म होता है और रात पास आकर दूर सोचती है --हरमोड़ पर भटकाव --हर भटकाव में ढेर से रास्ते --ठिठक जाओ या एक चुन लो या लौट जाओ सब कुछ आपकी सोच पर निर्भर करेगा ---लौटो तो दस पांच खिड़कियों वाला घर भी अंदर से रोशन नहीं करता, लेकिन  क्या जरूरी है हर खिड़की से रौशनी भीतर आये --लेकिन इन्ही में से किसी दिन या रात तयशुदा मृत्यु  जरूर आएगी --मृत्यु  का भय घेरता है ---'कौन हो तुम ''पूछते ही वह धूप की परछाई में गुम  होता है किसी मुकम्मल स्पर्श से जीवित होती देह --फिर छूट जाने से डरती है तेज गले से रुलाई का भरभराना रोने से बदत्तर --कितना  दम घुटता  है कोई माप नहीं, एक तपिश देह में उतरती है --जल में उँगलियाँ डूबा देना एक सुकून एक ठंडक एक राहत --लेकिन कब तक ?  एक चुप्प सी रात भी बीत जाती है -बहुत उदास किया एक उदास दिन -रात ने जो बीत गया अभी अभी, डब डब  सी आवाज़ करता पानी में--
उसे डूबते देखना भी कितना अजीब है चलो रास्ता दिखाओ कोई आदेश सर माथे चढ़कर देता है -कहीं जाने के लिए नहीं -बस ज़रा टहलते हैं -वो रात ख़त्म होती है जिसका कोई जायज अंत नहीं होता 
कोई तो है, कोई सपर्श अब भी बचा है, कोई प्रेम में पगा बैठा है- कैसा दुःख -अँधेरा या डर ये एक आश्चर्य समय होता है जिसमें रहने का सुख -दुःख सपर्श राग विराग --सारे कुछ को मुठ्ठी में दबाये रहना और इसी सच बीच जीना --पंख ऊग आये तो कौन ना चाहेगा  उड़ना उसे तो वैसे भी पसंद नहीं, ठहर जाना गति से बचकर --अपनी ही इक्षाओं की नजर कैद से स्वाभाविक मुक्ति खुश भी तो करती है --कब लौटोगे ? लौटोगे तो जरूर --सवाल के जवाब का इन्तजार कौन करे --तुम्ही बताओ हे तथागत उस उजल और साफ दिन में जैसा आज यहाँ है ये दिन तब जब एक समरस समय में तालाब जल बीच में एक सौ आठ रक्त-चम्पा के फूलों से शिव का अभिषेक करुँगी --''एका दिवशी ये होणार'' --एक दिन ये होगा जरूर 
[समय और धीरे चलो --बुझ गई राह से छाँव --दूर है पि का गाँव --धीरे चलो ]

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

बचपन के डर हमेशा कमजोर नहीं होने देते समय के साथ वो आपके व्यक्तित्व को जिम्मेदार और मजबूत बनाते

व्हाट्स एप्प पर कुछ दिन पहले एक मैसेज कुछ इस शक्ल में था ,म sssssssssम -मी ईईईईईईई''सुनोsssनाsss  -वो एक लम्बी बात थी,बेटी ने जो  कहना चाहा,वो बाद में, इस संस्मरण के बाद ---
चार साल की बेटी को शाम अक्सर सामने वाले पार्क में जूते मोज़े फ्राक पहनाकर  घुमाने ले जाती थी वो भोपाल का पांच नंबर बस स्टॉप कहलाता है  उस पार्क में एक छोटा सा तालाब था जो आज भी है,जिसमें तब भी, आज भी ढेर से सुन्दर कमलफूल खिले रहते हैं, लगता था की बस उन्हें एक टक  देखते ही रहो, पार्क में ही एक साइड में मंदिर और दूसरी तरफ बच्चों के खेलने के लिए छोटे झूले और करीब छह फूट ऊँची एक फिसल पट्टी थी --मेरी बेटी आहिस्ता  अपने नन्हे क़दमों से ऊपर चढ़कर बैठ तो जाती थी लेकिन ऊपर से नीचे फिसल कर आने में उसे डर लगता था, तब ऊपर से नीचे आने में उसे मेरे सपोर्ट  की जरूरत होती और में उसका होंसला आफजाई करती उसे पुश करती और वो धीरे धीरे फिसलते हुए नीचे आती फिर उसके पैर रेत के ढेर में धंस जाते --वो जोर से हंसती मानो अपने ही बल पर कोई जंग जीत ली वो  समझ ही नहीं पाती कि उसकी इस बहादुरी में, माँ का कितना बड़ा सहारा है --वो रेत भरी हथेलियों को फ्राक से पोंछते हुए फिर से दुगने उत्साह से पीछे सीढ़ियों की तरफ दौड़ जाती,लेकिन हर बार ऊपर जाकर उसे माँ  के सहारे की जरूरत पड़ती ---एक बार मैंने उसे ऊपर चढ़ते हुए देखा, फिर मेरा ध्यान बंट गया में भूल गई की ऊपर जाकर उसे फिर मेरे सहारे की जरूरत होगी,  में तालाब के किनारे खिले कमल के फूलों को देखने में मग्न थी - तभी एक चीख सुनाई दी -म sssssमी ssईईइ  लगा जान निकल गई मैंने पलटे बिना ही बेटी के लहूलुहान होने की कल्पना कर डाली ---और उसकी  तरफ तकरीबन भागते हए देखा बेटी उसी पॉइंट पर ऊंचाई पर अटकी हुई थी --करीब पहुंची तो वो डरी हुई सी साफ साफ आवाज में बोली मम्मी आप उधर फूल देख रही हो मुझे देख ही नहीं रही हो --वो-रुआंसी सी-- थी मुझे यहाँ ऊपर से डर लग रहा है मम्मी  मैंने उसे आहिस्ता से ऊपर से नीचे की ओर फिसलने में मदद की --वाकई में,मैं उस दिन बेहद  शर्मिंदा थी --फिर मैंने कभी उसकी तरफ से इस जिंदगी में कभी  गफलत नहीं की ---सोचकर ही डर  जाती हूँ की ऊपर से वो गिर जाती तो ---?आज वो करोड़ों मील मुझसे दूर है लेकिन उसे मेरी ऐसी ही अब भी मानसिक सम्बल की जरूरत वक़्त -बेवक़्त पढ़ जाती है  समझती हूँ वो कहती नहीं लेकिन में जानती हूँ --उस वाक्यात के बाद  फिर मैंने कभी आज तक उसमें गिर जाने का भय तक पैदा नहीं होने दिया ना ही कहीं गिरने दिया ना डरने दिया वक़्त जरूरत जहाँ जरूरत हुई उसके लिए न्यायोचित लड़ाई भी लड़ी उसे बुलंद होना उसकी प्रिंसपल के सामने बोलना, सच और झूट में फर्क करना सिखाया दूसरों को अपनी मदद से ऊपर उठाना भी --हर हाल में जीना लेकिन मजबूर होकर नहीं थोड़ी मुश्किलें तो अब भी आती हैं लेकिन  वो खुश है और में भी
वाहट्स एप्प पर जो चार - पांच दिन पहले उसका[बुलबुल] जो मैसेज था वो ही बचपन वाली आवाज में, वो इस लिए की उस दिन सुबह से उसके कई मेसैजेस थे ,दो चार मिस्ड काल भी,, अमूमन मोबाईल मेरे आस पास ही रहता है लेकिन उसी दिन बैटरी डाउन थी चार्जर पर लगा कर में बाई के साथ घर की साप्ताहिक सफाई में लग गई --दोपहर में जब देखा तो वही मम्मी वाली लम्बी टोन में लिखा -हुआ --में परेशान हो गई कई फोन और मैसेजेस दिए लेकिन कुछ उत्तर नहीं मिला आखिरकार रात उसने फोन किया -बोली एग्जाम था ,आपकी याद आ रही थी सोचा आपसे बात कर लूँ -  लेकिन आप का तो फुरसत ही नहीं,मुझे उसका बचपन याद आया, ना बचपन के डर हमेशा कमजोर नहीं होने देते समय के साथ वो आपके व्यक्तित्व को जिम्मेदार और मजबूत बनाते [मेरी बेटी बुलबुल इस वक़्त कोलोराडो यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग के फोर्थ सेमेस्टर की पढाई कर रही है  और मुझे आज उसकी जोरदार याद आ रही है ]

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

उसका एक अव्यक्त दुःख , एक आर्तनाद रोजाना मुझे सुनाई देता है --मुझे रूकना पड़ता है उसके पास,सांत्वना देती हूँ - कहती हूँ कब तक ठूँठ रहोगे एक दिन यहीं से कोंपले फूटेंगी तब तुम चारों तरफ से लहराती शाखाओं वाले सुन्दर वृक्ष बन जाओगे --तब देखना किसी को भी याद ना रहेगा की तुम कभी इतने निरीह रहे होगे



  1. हमारी कालोनी के पार्क में  एक पलाश के पेड़  ने ,आज फिर दिल दुखाया पार्क के एक सिरे से, थोड़े पहले ये  टेसू का पेड़ अपने  सहोदरों से बिछड़ा महसूस होता है मेरे ख्याल से --न्यू भोपाल की बस्ती बनने के क्रम  में छोटे जंगलों को काटा छांटा  गया होगा --कुछ पेड़ काटे गए होंगे --कुछ को जड़ से उखाड़ा गया होगा, पता नहीं ये किस  कर्मचारी की दयालुता की वजह से बच गया  या अपनी  कमसिन फूलों की खिली हुई  डालियों की वजह से, ये तो पता नहीं ,किन्तु ये पार्क की हद में है लेकिन इसका आधा तना सड़क के बहार तक फैला  हुआ है जो बाउंड्री वाल के सहारे बहार की ओर सड़क तक अपनी शाखाओं के साथ फूलों से लदे - फदे  होने के बावजूद ,उदास नजर आता है 
  2. इसके  ढेरों पत्तों और उनकी उपयोगिता को भी आज भुला दिया गया है कभी जन्म मरण आयोजनो कथा पाठ तो प्रसाद में इसके बने दोनों पत्तलों के बिना काम ही नहीं चलता था और आज किसी को जरूरत ही नहीं ,मनुष्य ने सभ्य होकर हर चीज का विक्लप ढूंढ लिया है हाँ बस कहावतों में याद रखा है --फिर वही  ढाक के तीन पात ---
  3. --जमीन से थोड़ा  ऊपर ही इसकी  दो विभाजित भुजाओं में से किसी ने एक भुजा को काट दिया है लगता है जैसे कोई हादसा हुआ है --पलाश वहीँ से ठूँठ नजर आता है --विकलांग भी दुःख होता है उसे यूं देख कर , नजदीक जाने पर --लगता है इस हादसे के जिमेदार लोगों की शिकायत करना चाहता है -लेकिन  कोई सुने तब ना -किसे फुरसत क्षण भर रुके उसके पास। -अपनी एक ही भुजा से ऊपर की और जाता हुआ ये टेसू मुझे निरीह युवा पुत्र  की तरह दिखाई पड़ता है ---
  4. उसका एक अव्यक्त दुःख , एक आर्तनाद रोजाना मुझे सुनाई देता है --मुझे रूकना पड़ता है उसके पास,सांत्वना देती हूँ -  कहती हूँ कब तक ठूँठ रहोगे एक दिन यहीं से कोंपले फूटेंगी तब तुम चारों तरफ से लहराती शाखाओं वाले सुन्दर वृक्ष बन जाओगे --तब देखना किसी को भी याद ना रहेगा की तुम कभी इतने निरीह रहे होगे बस खुश् रहा  करो और इन्तजार करो उस दिन का जब लोग ठिठक कर तुम्हारे पास रूकेंगे तुम्हे निहारेंगे तब तुम अपनी डाल  पर खिले सैकड़ों फूलों संग दुलार प्यार में ही व्यस्त होगे 
  5. टेसू  के खुरदुरे तने पर काली चीटियों की कतार ऊपर तक जाती दिखाई पड़ती है जो फूलों के गुच्छों के पास जाकर खो जाती है ---चीटियों की मीठी प्यास बुझाता --खुद टेसू कितना प्यासा है, कौन जनता है --उदासी में भी मुस्कुराता हुआ , इसके ठीक सामने --डा मित्रा का बँगला  है जो आजकल अपनी चमचमाती बड़ी सी  सफेद गाडी  को इसकी शाखाओं के नीचे  खड़ा कर देते हैं --सुबह देखो तो लगता है किसी युवती के सफेद दुपट्टे पर रेशमी  सिंदूरी टेसू फूल कढ़े  हो --यहाँ वहां ये एक अद्भुत नजारा होता है --लेकिन कारवाश वाला बड़ी बेरहमी से उन्हें बुहारता हुआ यहाँ  वहां बिखेर देता है --फूल गिरते हुए टायरों के नीचे  बिखरते -कुचलने को अभिशप्त होते जाते हैं, डा मित्राका  परिवार शायद ही कभी इसको अपनी प्यार दुलार भरी नजरों से देख पाया हो ---काश ये मेरे घर के सामने होता  --इसके दहकते फूलों में कितनी ऊर्जा है इसके रंगों में कितनी प्रियता है वो समझ पाते --जिंदगी में वो सब आपके पास नहीं होता जिसकी आपको दरकार होती है ---देवताओं  के प्यार से अभिशप्त टेसू के फूलों को इन दिनों मंदिर में देवी देवताओं की मूर्ति पर भी अर्पित कर आती हूँ शायद कभीये शाप मुक्त हों और इन्हे भी चौतीस करोड़ देवी देवताओं का पवित्र और असीम दुलार -प्रेम मिल सके अन्य फूलों की तरह और इसके पेड़ को भी वो ही मान्यता मिले जो बरगद और नीम पीपल की है --कोशिष्टो कर ही सकती हूँ 

  6. [व्यक्ति एवं अन्य द्वारा निर्मित ऐसी कई स्थितियों के अलावा भी संसार में बहुत कुछ है जिनके अस्तित्व से  जुड़कर हमारे विचार नवीन ऊर्जा से भर जाते हैं --जैसे वृक्ष नदी पर्वत पहाड़ पशु पक्षी --जो जीवन की गहरी जड़ों तक ले जाते हैं हमारी स्मृतियाँ ताज़ी करते हैं  और सबसे ज्यादा आसानी से याद रखने वाली बात को याद रखने और भूल जाने वाली बात को भूल जाने में सहायक बनते हैं --मेरा अनुभव तो यही है ---]

शनिवार, 7 मार्च 2015

सोचते ही पहुँच जाना भीतरी हदों तक --बेछोर आसमान में ,बियाबान जंगलों में पुराने अस्त्रों से बार बार मुश्किलों को, काट छांट कर पहुंचना तुम तक, एक राग, एक प्रियता का बुलाना।

जब तुम्हारी लय टूटती है,असंगत होती जाती है -अच्छा नहीं लगता एक छोटी सी जगह में छोटे-छोटे शब्द अनुत्तरित हो घायल कबूतरों की तरह लौटते हैं,--सुरमई शाम में, अपने मौन में अपनी यात्रा से ऊबा हुआ  थोड़ा- थका सा ,दिन डूब ही जाता है ,तारीखें बदलती जाती हैं लेकिन कुछ चिन्हित पल रूक रूक दस्तक देते ही जाते हैं उस तरफ से कोई आहट  ही नहीं जैसे कोई बीहड़ शुरू हो -दूर तक- देखो तो कुछ सुझाई नहीं देता -किसी पल को तो सन्नाटा अपनी जद  में लेने की जिद्द भी करता है निजी वजहों से बिछुड़ते पल धूसर हो रह जाते हैं यकीन जानो दिल भी दुखता है बेहद तकलीफ भी होती है ये टोकरी भर लोग मेरे तुम्हारे बीच मन भर पहाड़ कैसे बन जाते हैं, नहीं जान पाती --ये तो मानोगे मुझे सब रंग अच्छे लगते हैं --बस यही धूसर रंग नहीं, सन्नाटे का चुप्पी का ये रंग, हद दर्जे तक इससे मुझे नफ़रत है --बाकी सब रंग मुझे लुभाते हैं-अपने खुश रंग में --फिर भी रंगो से मुझे डर  लगता है--तुम भी जानते हो -सफेद सुबह जीवन से भरा और शाम काला श्याम सा बस ये दो रंग ही अपनी सपाट बयानी में ज्यादा आकर्षित करते हैं-हालाँकि रंगो को ढोंगी होना नहीं आता,तुम्हारी कविताओं के रंगों को तो बिलकुल भी नहीं, कितनी सरलता से लिपट जाते हैं मुझसे-फिर दिनों हफ़्तों महीनो लिपटे लिपटे ही मुझमें समा जाते हैं।   लेकिन पिछले कई सालों से जबसे तुम्हे जाना है --कच्चे पीले फूलों से लदा -फदा एक प्रौढ़ टेबुआइन मेरे सिरहाने वाली खिड़की की चौखट  तक आकर अपनी भव्यता के साथ खिल-खिल करता,खुश करता है उसके रूई जैसे नर्म गोलगोल फूल  हवा चलते ही अंदर सिरहाने तक फैल  जाते हैं 

 सिरहाने खुशियां हो तो भरपूर नींद का आना लाज़िमी है--किन्तु  हर दिन तो ऐसा नहीं होता -खुशियों और उदासियों के सामानांतर स्मृतियाँ चलती है मन को मथती  हुई. उस दिन तुम्हारी हथेलियों में कच्चे आम्रबौर की खुशबू थी वो हथेलियाँ मेरे हाथों में थी और उड़ती ख़ुश्बू आँखों से भर एक दूसरे पर उलीचते हुए हम दोनों -तुम्हे जाना था,मैंने बस जाते हुए महसूस किया तुम्हे,देखा नहीं,देख ही नहीं सकती थी दर्द आँखों में घुलता है बहता नहीं - उस शाम के बाद देर तक रात भी जागी रही संग-घर से लगे उजाड़ पार्क को नगर निगम वाले देर रात तक रेट गिट्टी, मिटटी से-पूरते रहे स्मृतियों की आवाजें भी आती रही --भरती  रही सुबह तक , कहते हैं, जिस साल आम्र ज्यादा फलता है , वो साल शुभ शुभ होता है एक हठ भरी कोशिश --अब ना छूटेगी ना घटेगी वो शुभ महक ,दिन बढ़ते हैं तपे हुए दिनों के साथ  धत्त'' हठात ये सोचना की ऐसा भी होता है --और सोचते ही पहुँच जाना भीतरी हदों तक --बेछोर आसमान में ,बियाबान जंगलों में पुराने अस्त्रों से बार बार मुश्किलों को, काट छांट कर पहुंचना तुम तक, एक राग, एक प्रियता का बुलाना। सजीव स्मृतियों का चलना कोई समृति भूलती नहीं कोई सपर्श छूटता नहीं ---बिना सलवटों वाला शांत समुद्री हरा हरा रंग - मन को सजल बनाय रखता है --लेकिन सृष्टि का क्रम टूटता है एक दुनियादार औरत अंदर बैठी डराती है अपनी जिरह मुश्किल में डालती है सच और सच के सिवा कुछ नहीं वर्जित क्षेत्र में अपनी पहचान मत खोना ?--उसकी बातों से दूर निर्भीक बन सोचती हूँ तुम्हे, बस तुम्हे सोचना ही तो जिलाता है भीतरी कोई अभाव, जिसे लबालब भरता है अपने एकांत और बाहरी शोर से उपजी एक तरंग एक घटना जिसके तारतम्य में विनिर्माण को गूंथना और फिर देखना देर तक उजालों में दर्ज होती तुम्हारी उपस्थिति --एक नैतिक अन्वेषण की मानिंद जिसे में आखिर खोज ही लेती हूँ अपनी पनीली खोजी आँखों से एक कच्ची महक बजती है --डूब जाने को आतुर 
 
[तनहा उसे अपने दिले तंग में पहचान हर बाग़ में हर दश्त में हर संग  में पहचान 
हर आन में हर बात में हर डग में पहचान,आशिक़ है तो दिलबर को हर रंग में पहचान ]


[नज़ीर]  

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

-देह अद्भुत शान्ति की खोज में अपने से ही नितांत अलग थलग चल पड़ती है ---चरम उपलब्धि से कुछ कदम पीछे ही, राग -विराग ,आसक्ति -अनासक्ति ,मिलन--बिछोह और समय की क्रूरताओं में हमारी समिल्लित अनुभूतियों के बीच आकार लेता

में कहना चाहती थी,और नहीं कह पाई,उस दिन --उसका मिलना मतलब अक्सर कुछ ना कुछ छूट जाना--और चले जाने के बाद सैकड़ों बातों से मन भर लेना --येभी- वोभी जाने क्या क्या कहना, रह जाना   
दो चीजें ही हमें एक जुट,जुड़े हुए और एक रखती है --तुम्हारा शिद्दत से लौटना और मेरा इन्तजार --भीतरी  और बाहरी-और फिर लौटकर --मेरा पुकारा गया नाम, जब --आवाज फकत आवाज नहीं होती है उस वक्त वो --एक आख्यान होता है - 
समय के  अजनबी रंगो ,रोशनियों  शब्दों की बाढ़ में --बहुत भटकन और अंतराल के बाद मिलने वाला चेहरा सचमुच अपना है, संशय से मन कुलबुलाता है ---तुम्हारे चेहरे पर टिकी मेरी आँखें बस मूंद सकती है ----उधेड़बुन में भटकते शब्द कुछ अर्थ बुन पाते तभी ये सोच कि - जानती हूँ भटकाव जिंदगी को गहराई देते हैं -कितना अच्छा होता --आदमी किताब की तरह खुल  तो  पाता। 
अक्सर  दुःख निराशाओं के मायने ढूँढ़ते हैं --मेरे प्रयत्नो में मुक्ति की कामना नहीं होती वहां -कारण और परिणामों का विश्लेषण भी नहीं होता --इसलिए दुःख भी नहीं , 

जानते हो- जिस समय में तुम नहीं होते, भीतरी अनुभव संसार खाली सा अपने अधूरे आपे के साथ विकलांग हो कर रह जाता है --एक बेसुरी चुप्पी -जिसमें -फरियाद की कोई लय  नहीं रूखा सूखा सा-- 
एक ध्यानाकर्षण की सूचना की तरह --दूसरे छोर के शोर गुल में अनसुनी -गुम हो रह जाती है --क्या कहूँ बस अपना वास्ता ही दे सकती हूँ कितनी जकड़न -सिहरन एक रात बिन सोये बीतने की थकान -भरम हो जाता है --इस सत्य के साथ की में बस वो हिस्सा हूँ --जहां  भय और इक्षा का एक सा चेहरा है, जिसे तुम्हारी भीतर वाली आवाज पहचानती है ये --सोच कि  -तुम्हारे लिए इस कदर जरूरी क्यों है  दुःख का अपने साथ बनाय रखना  ? दूर दराज के ठिकानो में ढूंढ  आना फिर  बेहाल होना ---और नहीं मिलना खोई हुई चीजों की तरह एक बैचैनी --थोड़े संदेह की तरह की, मिलोगे भी या नहीं शंका-कुशंका के कुहासे में चीजें साफ नहीं होती एक अहसास की, इतनी आवाजों में से कौनसी पद चाप देर तक सुनाई देती रहेगी ,सुख तो सापेक्ष है --वसंत आते आते रूक जाता है एक हद के बाद -
-देह अद्भुत शान्ति की खोज में अपने से ही नितांत अलग थलग चल पड़ती है ---चरम उपलब्धि से कुछ कदम पीछे ही, राग -विराग ,आसक्ति -अनासक्ति ,मिलन--बिछोह और समय की क्रूरताओं में हमारी समिल्लित अनुभूतियों के बीच आकार लेता --हमारा बचा हुआ प्रेम,इसी उम्मीद पर तो बाढ़ को तैर कर --तूफान को पार कर --इस दुनिया को तुम्हारी ही आँखों से देखते हुए,कोई अगर बची हो उन अधूरी इक्षाओं को पूरा करना, जीना चाहती हूँ, असंभव में कुछ संभव जोड़ते हुए -उन -सारे सपर्शों को गंध में लपेट--झिलमिलाते हुए 
अधीर दिन की तरह,  दो शब्दों में बोला गया एक शब्द, शहद में गूंथा हुआ नाम , देह की परिचित भाषा में - दिनों हफ़्तों महीनो सालों जिसमें तुम उजाले की शक्ल में दिखाई देते रहते हो हरदम , अपने लिए, तुम्हारे लिए बचाये गए जीवन में, अपने वासन्ती आँचल के बालूचरि ताने- बाने में,एक भरा पूरा सच, जिसे  इस जीवन में  तुम्हारे सिवा कोई कुछ नहीं जानता
 [''एक संभव दिन'' ---अपनी एक लम्बी कहानी का अंश ]

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

शब्द उसे ढाढ़स बांधते हैं ---वो उस आवाज की धुंध से बहार आती है -चुनी हुई नियति को तो एकबारगी स्वीकार किया जा सकता है थोंपी हुई को नहीं

कभी  तो क्या, अक्सर ही- निचाट दुपहरी को --खुमरी --की तरह सर पर ओढ़ लेना मजबूरी हो जाती  है 
अच्छा भी लगता है लेकिन बोझ भी लगता है ऐसी बिन बुलाई बरसात में चौक चौरस्ते लहराती गीली हवा से शहर को भिगोते हुए दौड़ लगाते हैं--तेज आंधी कड़क बिजली कलेजा फटता तो नहीं डर  से बैठ  जरूर जाता है इस लम्बे चौड़े जीवन में कई शब्द सीखें --कई बिना अर्थ के शब्द, खिलौने की तरह खूब जुटाए --मुझे प्यार आता है ऐसी ही निचाट दुपहरी में जब बारिश गुजर जाती है और हर तरफ वनस्पतियों --वाली खुशबू के साथ यही गीली हवा थोड़ा थोड़ा रूक रूक कर ठिठुरती है --याद आती है वो शाम --जायज अंत था उसदिन की उस  शाम का शब्द मोहताज थे जिसे जहाँ तर्कों और इक्षाओं के बल पर नहीं परम्पराओं और संस्कारों  के बल पर सोचा गया था, समय की किल्लत थी ---ना ट्रेन के लिए कोई अनाउसमेंट  था की फलाँ अपने निर्धारित समय से दो घंटा विलम्ब से पहुंचेगी या पहुँच रही है ,अक्सर तो मुठ्ठी भर सपने भी मुठ्ठी में ही चकना चूर हो जाते हैं ----कई सवालों से खीज़ पैदा होती है कई के जवाबों से सुकून मिलता है मगर वो अधूरे रह जाते हैं ---कॉफी की  गर्म भाप में सपनीली आँखों का विस्तार रेतीला हो रह जाता है ----उसका उठना गहरी आँखों से झांकना बिछी हुई बिसात पर सधे  क़दमों से चलते हुए चले जाना ---कल्पना से बाहर  हो,छूट  जाता है समीकरण ना गड़बड़ायें -चलो फिर मिलते हैं ---शब्द उसे ढाढ़स बांधते हैं ---वो उस आवाज की धुंध से बहार आती है -चुनी हुई नियति को तो एकबारगी स्वीकार किया जा सकता है थोंपी हुई को नहीं --वक़्त नहीं रूकता कई बातों  चीजों से ---सोच का सिरा फिर रेंगता सा आगे दिशा में बढ़ जाता है ---और बहुत कुछ आँखों में उतरता है ,भरम नहीं मुझे साथ का विश्वास चाहिए वसंत चाहिए -आँखें फिर मूँदती है थक कर एक दुपहरी सन्नाटा पेड़ों पर लटका आँखों के अंधेरों में अटक जाता है ---ज़रा सब्र करो --अपने को समझाती  हूँ --वो पुराना शहर तुम्हारे सपनो में आएगा ---तुम ये सोच के तिल से --ताड़-पहाड़ क्यों बना डालती हो ---ऐसा कुछ नहीं होगा अपने से आश्वस्त होना सबसे अच्छी स्थिति है --अक्सर उसके लिए सर झटक कर कई दृश्यों को विछिन्न कर देना   भी उसी के बूते की बात है वरना तो 
कल परसों और आज जो अच्छी खासी बारिश हुई --शाम इंद्रधनुष निकल आया, रंगो संग विशवास के शब्दों ,रिश्तों और जीवन साथ उसकी दैनिक कार्यसूची में शामिल था उसे सोचना --देर रात सितारों की बातें सुनना  अंतरिक्ष में विचरना --वो तो रास्तों की निश्चिंतता रहती है --कभी कभार हताश  खाली हाथ भी घर वापसी होती है --देर रात नींद नहीं आती --आती है तो --आँखे  जागी रहती है --अपनी ही धड़कन प्रत्यारोपित दिल सी अजनबी सी --एक धुकधुकी अक्सर कलेजें में --हथेलियाँ थाम  लेती है --नाप लेती है धड़कनो में बसी आवाजों को ---नदियों बियाबानो पहाड़ों  कचरों में घूम घूम कर अपने अर्थ खोजो तो अर्थ भरे रंग मिल ही जाते हैं ----जी लेते हैं --अपनी मिटटी अपनी वनस्पति से भर लेते हैं खुद को, शुक्रगुजार हो जाती हूँ तुम्हारे साथ जाने किस किस की, धूप  हवा पानी आकाश इस उदासी इस प्रेम की भी ऐसे जीना कि  दिन महीना साल दर साल प्रेम की अबोध प्रार्थनाओं  में --बीत जाना फिर याद आता है छीजना भी --अपना आप ---जैसे कोई   पोखर गर्मियां आते आते कैसे छीजता  जाता है 
 किनारों की मिटटी से सूखता दरकता वैसे ही --और वहीँ किनारे पीले पड़ते पत्तों  से लदे  अमरक के
पेड़ों से  कुछ पत्ते गिरते सूखी जमीन की दरारों में धंसते  ही जाते हैं  आगे आकर चीजें पीछे रहती हैं --पीछा नहीं छोड़ती---बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है अपनी उपस्थिति दर्ज करने से बाज नहीं आती  टूटकर गिरते पत्तों की उदासी में से एक पल ख़ुशी  का जब एक नाम उभरता हैमोबाईल की  नियॉन लाइट में ,एक साधारण से दिन और  निरुपाय दिन में, खोई ख़ुशी  मिलने की ख़ुशी शामिल हो जाती है 

  •    उम्रे     --रफ़्त --पे  अश्कबार     न  हो 
  • अह्दे -गम  की हिकायतें मत पूछ [फ़ैज़ ]            

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014



एक बूढ़े 'टेबुआइन 'का आर्तनाद -----

एक बूढा टेबुआइन  जो रोजाना मेरी राह तकता है --घर के नजदीक बने जंगलनुमा पार्क में ---वक़्त ने उसकी कमर झुका दी   वरना वो भी कभी अपनी  सीधी -ऊँची पूरी लम्बाई पर इतराता फिरता था तेज बारिश हो ,सर्द शामे हों या गर्मियों की झूमती पुरवाई पिछले आठ सालों से उसे वहीँ पार्क के एक कोने में पाती हूँ ---जहाँ उसे हर दिन छोड़कर आती हूँ ---लेकिन पिछले  एक हफ्ते से वो ज्यादा बूढा दिखाई  देने लगा है -----वैसे तो उस पर से कई मौसम गुजरते ---वो फिर भी बड़ी हिम्मत से खड़ा दिखाई देता और गर्मियां आते ना आते उसकी मुस्कराहट चौगुनी हो झरझराती --फिर सैकड़ों पीले गुच्छों में खिलना ---उन्हें खिले हुए कई कई दिनों तक अपनी जीवटता में बचाये रखना -उसका  पहला काम होता -फिर एक दिन वो भी आता जब उसके सारे  फूल एक एक कर जमीन पर झड़ते चले जाते --वो अपनी छरहरी गर्दन को थोड़ा मोड़कर असहाय हो नीचे  देखता, मानो  उसी के पैरों तले  किसी ने पीला दुशाला बिछा दिया हो 
इन दिनों उसकी नम  आँखे --आद्र पुकार मुझे खूब सुनाई -दिखाई देती है ---इसी बारिशमें अंधड़ और   तेजमार को वो सह नहीं पाया और पार्क के अंदर ही रेलिंग्स में जा धंसा ---धड़ पार्क के भीतर --और -ऊपरी सिरा सामने वाले घर की सड़क पर, उसकी ऊपरी मजबूत शाखाओं -बाहों को  नगर निगम वालों ने काट डाला कई दिनों तक शालभंजिका  की तरह वो पड़े रहने पर मजबूर रहा ---में तब भी उसके आस-पास टहलती रही -उसके हाल चाल पूछती रही फिर  कुछ दिनों बाद --उसकी कटी फटी बाहों के सिरे पर कुछ नई  कोंपल फूटी ---थोड़ा आश्वस्ति भाव -आया -सोचा जी जाएगा ---लेकिन वो तो अंदर से टूट रहा था ---देर बाद समझ आया ---बारिश बीत गई ---अब मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट खेलते ,उसकी झुकी कमर पर आसानी से चढ़ बैठते ----दिन में पचासों बार टेबुआइन दूर से आती गेंद की मार को महसूस करते  --हुए अपनी आँख को मिचमिचाता ---अंतत पीठ पर एक जोरदार मार सहता ----रोजाना की इस कवायद में उसकी पीठ सतह से किंचित चिकनी हो गई है -अपनी लम्बी सख्त यूकेलिप्टस सी नुकीली पत्तियों पर उसे गर्व है जो जायज भी है ----दो पल  उसके पास रूकती हूँ उसकी पीठ को  सहलाना सांत्वना देना --उससे सहोदरों से बिछड़ने का दुःख सुनना, दिन भर में किस गिलहरी ने उसकी लम्बी पीठ पर लहराते दौड़ते उसे कुतरा कितनी चींटियों ने जड़ तले राशन पानी इकठ्ठा किया ,किन दो औरतों ने अपने घर की दुःख- सुख को उसके नजदीक बतियाया, कितने झरते पत्तों ने उसकी दोपहर की नींद में खलल डाला-उसे सुन लेना जरूरी हो जाता है जो -बस सुबह की सैर में शामिल है 
 नगर निगम की मंजूरी के बाद -नए डेव्लपमेंट में कौन जाने ये भी कितना बच पायेगा लेकिन टेबुआइन मेरी स्मृति में हमेशा खिलता -खिलखिलाता रहेगा ---आमीन 
दुःख से भरपूर दिन तमाम हुए ---और कल की खबर किसे मालूम [फैज़ ]

गुरुवार, 5 जून 2014

मौसम के चेहरे पर इन दिनों तांबई ताप है ,एक खनक बावजूद भीतरी द्वन्द को ठेलती है विपरीत दिशाओं में इधर-उधर ,बल्कि उधर ज्यादा जहाँ कुछ छूट जाता है --चीजें इससे ज्यादा विस्तारित नहीं होती

क्या अब भी लौटा जा सकता है ,आज ये प्र्शन अपने आप  से नहीं ----अँधेरे में वो एक पसंदीदा जगह गढ़ लेती है ---कभी कभी जब सब कुछ ठोस हो जाता है ---तो किसी से सवाल करने  का मन करता है ---सवालों के टोहने से भी नहीं पिघलता --स्मृतियाँ भी तुम कौन हो कह आलोप हो जाती है और भीतर ही भीतर कोई बेखटके आवाज़ लगाता है --कोई कैसे देखे एक निर्णय अनिर्णय बैचैन करता जाता है हर  अगला क्षण मुल्तवी होता जाता है --नहीं लौटा जा सकता ,प्रश्न किसी और से  और उत्तर अपने आप को देना,आगत वक़्त की इक्षाएं धुंधलाती है --इसमें एक हैरानी है इक्षाओं के द्वीप पर अथाह रेतीला  चमकीला विस्तार गुंजाइशों  को बेठौर करता, भागती हुई लालसाओं को भारी हुई सांसों के साथ फेफड़ों को थका देता है --जो नया नहीं है ---कोई पूछे उससे --अनुपस्थित होकर उपस्थित होना क्या होता है --कई मोड़,वो छूटना वो जुड़ना वो टूटना सागौन वन में उसके पत्तों सा   खड़खड़ होना ---स्थिर पैरों से मन की परिक्रमा चकराती  है ,एक चट्टान को सीने  पे रक्खे  गोल घूमते हुए देखते रहना तकलीफ़देह है ----मौसम के चेहरे पर इन दिनों तांबई ताप  है ,एक खनक बावजूद भीतरी द्वन्द को ठेलती है विपरीत दिशाओं में इधर-उधर ,बल्कि उधर ज्यादा जहाँ कुछ छूट जाता है --चीजें इससे ज्यादा विस्तारित नहीं होती ,एक बिंदु पर जाकर सिकुड़ने लगती है तमाम प्रयास बेअसर होते हैं ---इसे किस्मत की सितमगिरी ही कहेंगे ----एक अन एक्सेप्टेड सिचुएशन को नरमी से कबूल करना --एक जादु असर  सर चढ़ बैठता है -----ये क्या तभी एक शाख से बिछुड़ा लंबा नुकीला हरा कंच पत्ता अपना हरापन खोता तेजी से सिकुड़ता जाता है बकौल खलील जिब्रान द्वन्द के उस पार होगा मन -मन के उस पार होंगे आत्मा के जगमगाते शिखर ---------कोई अपूर्व  निजता मन को घेरती है ,एक अलभ्य मुस्कान --इतनी निष्ठुरता बरतना जरूरी है दरअसल वहीँ प्रारब्ध है जहाँ- जहाँ जब-जब छूट जाते हैं वो ,एक निनाद प्रभुजी तुम चन्दन ---तर करता है तभी एक खानाबदोश हवा तेजी से गालों  को सहलाती निकल जाती  है थोड़ी सी खुमारी थोड़ी सी राहत ---फिर सोचना आखिर बेतरतीब चीजों रंगो को समेटने के लिए भी तो वक़्त और साथ की परसुकून दरकार है,-------उस दिन शाम ज्यादा ही  सर्द थी और उसकी आवाज़ भी  इत्तिफ़ाक़न दोनों के बीच शब्द भी  ना सुनाई देने वाली बिलख की तरह थे ---वो जगह ,वो सपने वो घुमड़ वो सन्देश --स्मृति घर के किसी ईशान कोण में बेहद-मूलयवान  खजाने की तरह रख देने का मन था,समय कम  था इक्षाएं मनभर अफ़सोस कितनी बातें/ चीजें छूट गई ----शहर  में पहला कदम --और बारिश ने स्वागत किया --शाम सारे ओफिशियलि---काम ख़त्म करके जनपथ से  उसने एक ट्रांसपेरेंट चाटा खरीदा ताकि बदल और बारिश एक साथ देखी  जा सके ,---लेकिन पता नहीं कैसे घंटा भर मार्किट में घूमने के बाद पसंद-आया छाता टेक्सी की सीट पर ही रह गया --दूसरे दिन विक्टोरिया  सिक्रेट का  परफ्यूम और सफेद फूलों का रजनीगंधा का गुच्छा --सरदार जी की गाडी में -और पहले दिन ही रूम के शीशों से छन कर  आती रौशनी से बचने की खातिर -अमेरिकन डायमंड वाले  हेयर क्लच को उसने सी ग्रीन पर्दों को समेट कर उसमें लगा दिया था ---अब सोचो तो हसी आती है बाकी चीजों का क्या हुआ नहीं मालूम लेकिन वो किलिप तो कूड़े के ढेर में जरूर बदस्तूर जंग खा रहा होगा ---यूं  अजीब है अपने को कभी-कभार बदत्तर और नकारात्मक सोचना जो ज्यादा देर नहीं ठहरता फिर लौटना यहीं -लौटकर हलकी आहट  के साथ नरम रौशनी में जमुनी फूलों का आँगन में निरंतर झड़ना अद्भुत दिखाई देता है जिसे अपनी आँखों से उन आँखों को दिखाना -चाहना इत्मीनान से भरी-सुलगती  - आँखों को ---फिर-सोचना-उस-आकाश-चमेली-के लम्बे  पेड़ को  जो झुका हुआ अपनी ही परछाई देखने में गुम रहता है ,सोचना ये भी की भूल जाना कितना अच्छा होता होगा एक दिन वो होगा-जब  वो सब जो सोचा है --भूल जानाहोगा  सब कुछ हमेशा के लिए अपनी चेतना में इस सोचे को सुनना और धूप छाहीं   हरियाली को आँखों में भर एक दूसरे पे उलीच देना उस दिन लगा जिंदगी इसी क्षण में सिमट गई है हम अगले क्षणों में साथ होंगे या सैकड़ों मील दूर दोनों को पता नहीं उस दिन शाम देर से आई और जल्दी लौट गई ---जैसे वो भी नाराज हो --कहना तो चाहती थी जिंदगी के सवालों का सामना करो --पर कहना आसान नहीं था ---


बीते तीन  दिनों से सूरज अपने पूरे तेवर के साथ तप रहा है जाने किसे जला-झुलसा देने की मंशा है कनेर के बोनसाई में पीले फूल शाखों पे खिलने के पहले ही   किनारों से स्याह हो झड़े जा रहे हैं --इक्षाएं उधर्वगति हो आकाश में घुल जाना चाहती है डूबता सूरज शाखों के बीच विरक्त भाव से डूबता ही जाता है --डूबता सूरज नहीं देखना चाहिए --अपनों से बिछुड़ना होता है थोड़ी देर में गाढ़े अँधेरे में पत्तों पर अभ्रक धातु सा कोई किस्सा चमकता रोशन होता जाता है दुनिया भर के शोर से अपने को बचने की खातिर एक छोटी कोशिश में एक हलकी मुस्कान चेहरे पर झुकती सी कांपती  हुई तेज दौड़ लगा जाती है एक केरेबियन गीत जोर से कानो में थर्राता है ---पता नहीं थोड़ी ही दूरी से ---उसकी धुन  शब्द अर्थ कुछ भी समझ नहीं आता -----
अब के गर तू मिले तो हम तुझसे ऐसे लिपटें तेरी काबा हो जाएँ [अहमद फ़राज़                   

बुधवार, 22 जनवरी 2014

मखमली ठंडक को छूते ही उदासी अक्सर पूछ लेती है ये क्या हाल बना लिया है तुमने अपना --मुझे आजाद करो तुम्हारे साथ सब कुछ अजनबी है ----खैर तसल्ली यही है दृश्यों में पहले सा सन्नाटा नहीं है


उसका चेहरा यकायक अब याद नहीं आता ना वो ना उसकी वो बातें और आता भी  है तो कहीं भी कभी भी फिर चाहे तालाब पर  फैलती सिकुड़ती रौशनी की  परछाई ही क्यों ना हो --उनमें भी --बस इस सोच के साथ एक अजब भाव उस पर तारी हो जाता  है  ---एक लम्बी सांस के साथ रूकना पड़ता है और देखना  तालाब की शेडेड रोशनियां कुछ नीली काली सी -- उसके ड्राइंग रूम के पर्दों की  तरह -जिन्हे रस्सी की  तरह बल देकर कभी पकडे पकडे वो उस तरफ देखती है-- कालबेल पर रखा  उसका हाथ -याद आता है  तो  लगता है कुछ था जो रोशनियों से भरा था  लेकिन क्या --सोचना पड़ता है और देर तक सुझाई नहीं देता --बल खाया पर्दा जोर से छोड़ देना पड़ता है जो खिड़की के एक हिस्से के टूटे कांच की  तिरछी दरार नुमा लकीर से होकर बेतरतीब हो फैल जाता है और पल भर को शीशों से छन कर अंदर आती रौशनी उसके चेहरे पर लहराती हुई जमीन पर फैल जाती है   अंदर की भटकन भी एक झटके के साथ कोने में जा सहम बैठ जाती है  ---मिल जाए वो शायद --सब कुछ नहीं बस उतना ही जो उसके हिस्से का था, एक निर्जन सपने में निमग्न होना और हर रात ये प्रार्थना करते हुए सो जाना हे ईश्वर आज कोई सपना मत भेजना ऐसा दुःसह --जैसा कोई नहीं एक सचेतन पूर्व ज्ञान समय की  गर्द - गुबार हटाकर स्पंदित होता है बहुत कुछ किसी रंग में ,किसी शब्द में ,किसी वक़्त में किसी मिलती जुलती शक्ल में और कभी तिनके-रेशे भर की  समानता में भी--- उसकी निगहबानी चाहे-अचाहे होती ही जाती है फैली हुई हवा 
की  शक्ल का बनना टूट जाता है -डूबते को तिनके-रेशे का सहारा वाली तरतीब भी साथ नहीं देती --एक मारक अहसास चाबूक की  तरह बे आवाज़ कुछ घटित करता है कोई ऐसा  दुःख जो ना घटता है ना हटता  है सिर्फ-एक निशान बनाता  है ----उसे एक सीधे रस्ते की दरकार थी, एक साफ उत्तर ----जहाँ कोई उलझन ना हो ----सोच की  एक लहर दिल दिमाग पर चढ़ने लगती है ----स्मृतियों का दरवाजा  बेवक़्त खुल ही जाता है एक कोलाज रास्ता रोकता है --जो मेरा था वो वक़्त दूर जाकर चिढ़ाता सा दिखाई पड़ता है तेज गति वाली किसी ट्रेन की  खिड़की से हिलते हाथ में रुमाल का धब्बे की  शक्ल में होते-होते आलोप हो जाना  ---एक क्षण के जादू का ताउम्र उसकी गिरफ्त में जीना ---देर रात तक कई बार नींद नहीं आती ---कांपती ठण्ड में नीले मखमली  कम्बल में  कुड़मुड़ाते बस पड़े रहो उस  मखमली ठंडक को छूते ही उदासी अक्सर पूछ लेती है ये क्या हाल बना लिया है तुमने अपना --मुझे आजाद करो तुम्हारे साथ सब कुछ अजनबी है ----खैर तसल्ली यही है दृश्यों में पहले सा सन्नाटा नहीं है बेडरूम से सटा हुआ बड़े बड़े भूरे लाल पत्तों वाला पेड़ खड़खड़ करता ---जागते रहो की  गुहार लगाता चेताता  रहता है, क्यों छूटता चला गया सब कुछ एक अव्यक्त भीतर ही भीतर बदलता है --अजब भाव से उन- इन चीजों को देखना अपनी पीड़ा में दूसरे की  पीड़ा को देखना उसकी --अपनी समझ की समय सीमा तय कर-लेना की  बस इससे आगे ना जानना ना समझना ---फिर भी भीतर का अकेलापन लहलहाता ही जाता  है कहीं भी जाओ ---हर कहीं साथ ----डोलता सा पीछे पीछे 
इस साल मौसम सर्द है अप्रत्याशित रूप से ज्यादा --इतने सर्द की  आदत ना हो तो क्या कीजिये ---नीले नीले अनमने दिनों में बजती हुई हवाओं के साथ पतझड़ का इन्तजार ---दुःख देता है और इन दिनों को हर साल ऐसे ही मुड़ते हुए देखना भी दुखी कर जाता  है --मन की  बैचेनी बारिश के बाद खिल आये जामुन- अमरुद के ताजे पत्तियों की  खुशबू में घुमड़ती ही जाती है तंग दिनों की  शुरुआत ---अब राहत देती है ---देखो अब हम कितना बदल गए हें --रोते नहीं--एक दूसरे तरह का हुनर अपने में विकसित कर लेना -- एक पेड़ का निर्लिप्त भाव स्मृतियों की  निरंतरता को बरकरार रखता है  अँधेरे में खड़ा अपने धड़ से कटा  पेड़ अपनी दो टहनियों के साथ विपरीत दिशाओं में फैला  एक काले  बिजूके की तरह  ठहाका लगता है --इतनी लाचारी इतनी असहायता एक प्र्शन खड़ा करती है-- लेकिन उस वक़्त वो बात ख़ास थी ---बिना तय किये ही तय की  जा चुकी शर्तें टूटती हें इतनी छोटी दुनिया में बहुत कुछ छूट जाता है स्मृतियाँ भी --अक्सर वो जुदा --दुनिया खफा --तुमने कुछ कहा शायद--मैंने कुछ सुना   हमारे अच्छे -सच्चे दिनों--का लौटना मुमकिन होगा-- कभी सोच में कभी सपनो में उम्मीद से अधिक उम्मीद आखिर क्यों --सड़क, दुकाने, आवाजें ,शहर --किसी शहर के  खूबसूरत नाम वाला वो मार्ग एक गंध कि तरह व्यक्त होता है --क्या सचमुच कोई उधर इन्तजार कर रहा है छूटा हुआ कुछ मिल जायेगा ये भी तय नहीं है बाहर कोहरा है बेहद ठण्ड है --हर वक़्त स्मृतियों की  यात्राएं बेठौर कर देती है कोई ठिकाना नहीं बचता ---एक घर बनता है जरूर लेकिन तुरंत धवस्त भी हो जाता  है और लौटना उसी टूटे फूटे में नियति बन जाती है --और  हर यात्रा को पीछे मुड़कर देखना अजीब है एक सीझा हुआ  सा  दिन, उन दिनों के पतझड़ के लिए प्रेम करने और भुलाने के लिए.मजबूर करता है  जीने के लिए आप कौन सी प्रक्रिया अपनाते हें आप पर निर्भर है और मुक्ति सम्पूर्ण जीने में शायद हो --वो जी कर ही अनुभूत की  जा सकती है ---हमारा समय कहाँ दर्ज है जिसमें किसी पत्ती  तक के गिरने की आहट  नहीं है ---तुम्हारा चेहरा कुछ कुछ याद आ चला है-तुमने फिर अपना कहा अच्छा लगा एक नदी -पहाड़ों के नीचे कछारों में - बहती हुई बढ़ती है ,गीले तिनको घास कागज सीपी शंख को ठेलते हुए उस तक, इस साल बारिश भी
ज्यादा हुई और इस मौसम में भी लगातार बारिश हो रही है --नदियों के उफान पर आने के साथ ही ----ये भी बीत जायेगा ---लेकिन कितना बचा रहेगा ये कौन जानता है -
--[होना है मेरा क़त्ल ये मालूम है मुझे --लेकिन खबर नहीं कि में किसकी नजर में हूँ ]

बुधवार, 24 जुलाई 2013

चंपा -----अपने सलोनेपन के साथ अपनी खुशबू बिखेरने और संजोये रखने में माहिर--

उस मोड़ पर जाकर छोड़ दो --मरे जिए की गाथा ---एक दोहराव,एक तिहराव में सिमटता है और उस मोड़ से आगे मूडकर दस कदम की दूरी पर चलकर एक छोटी सी पुलिया के किनारे आलीशान बने घर के रोड साइड बनी बाउंड्रीवाल में लहराता लाल चंपा का अधेड़ सा पेड़ --देखकर लगता तो है घर मालिक से उपेक्षित है ,टहनियां दिवार से टकरा कर जमीन की ओर बेतरतीब सी फैली दिखाई देती है --लगभग हर दिन सुबह -सुबह गुजरना होता है चंपा के उस पेड़ के करीब से ---बीच बीच में समय के अंतराल को भेदकर ढेर सी हंसी लाल चंपा के हर शाखा पर अलग-अलग गुच्छों में खिले फूलों पर हरदम खिलखिलाती सी नजर आती है ---रात में झड चुके जमीन पर पसरे फूलों को  चुनना और सुबह को खिले ताजे फूलों की डालियों को- आहिस्ता से अपनी और झुकाना फिर  पैरों को  थोडा ऊपर की और उठाकर हाथों से उन्हें तोड़ना,तभी चम्पा के नन्हे फूल शरारत से बेतहाशा खिलखिलाते अपनी पंखुड़ियों की सतह पर ठहरी ढेर सी ओस की बूंदों को चेहरे पर बिखेर देते हें वो ठंडक एक सुकून देती है उन्हें यू तोड़ना --दुःख तो होता है लेकिन फिर भी जमीन पर गिर कर मिटटी में मिल जाने से बेहतर है की वो मेरे साथ रहें और इस तरह उन्हें चुनकर साथ घर ले आना सुबह की सैर से लौटने के क्रम में निश्चित है 
हर दिन वो साथ आते हें --ड्राइंगरूम में चीनी मिटटी के गुलदान में उन्हें बड़ी तरतीब से सहेज लेना फिर दिन भर आते जाते उन्हें निहारते -उनकी खुशबू को आत्मसात कर लेना भी जीवन क्रम में शामिल  है ड्राइंगरूम की खिडकियों के शीशों पर काईरंग [बाटल ग्रीन ] के पर्दों से इस बारिशी मौसम में भी छानकर आती धूप में चंपा के फूल उन्मत्त हो उठते हें ---साल भर उदास रहने वाले चम्पा फूल बारिश में जीवंत हो उठते हें ,एक मौसम घर में पसर जाता है मानो --सुरमई पहाड़ों से उतरती -इतराती शाम हलकी धुप संग घर लौटने की ख़ुशी में हो ---पर शाश्वत का सुख कुछ  नहीं और अनंत भी कहाँ?---लौट जाओ उस तक --जिद्द ना करो प्रतीक्षारत हो जो तुम्हारे लिए --उसका प्रेम बनाएगा तुम्हे एक पूरा मनुष्य ---और लौटना ही होता है उस तक 
चम्पा कान में गुनगुनाती है मेरा भरोसा हांसिल करो और देखो मेरी और बेहद निस्संग और उदास दिनों को छोड़ दो पीछे ---जैसे फ़ेंक देते हो तुम सूखे मुरझाये चंपा के फूलों को बागीचे के किसी गमले में या कचरे के ढेर पर -और देखते हो उसमें अपना कल ---उम्मीद से ज्यादा उम्मीद सच बुरी आदत है ---चंपा के ढेर से फूल सन्नाटे के स्वर में घुलते हें एक बंसी की टेर में वो ---लेकिन वो चीजों को समझता ही नहीं ---मुखातिब हो जाती हूँ अक्सर यू ही चंपा से --तुम समझ जाओ शायद जुड़ाव का धागा बीच-बीच में टूटता है फिर जुड़ता है --पूर्णता के पहले टूटे हुए आलाप की तरह --देखो ना सुबह तक तुम्हारा साथ भी छूट जाएगा अब कोई एस मुकाम नहीं जहाँ तसल्ली मिले --बोलो क्या एक कतरा सुख हांसिल करना इस ब्रह्मांड में इतना मुश्किल है ----कैसे इतना खिलखिलाते हो चम्पा ---थोडा रुकना होता है शायद जवाब मिले ---जाओ सफेद चम्पा के पास तुम्हे वहां चम्पई शांति मिलेगी और संतोष भी --एक मन्त्र मुग्ध स्थिति और आँखें मूँद जाती है ....इस खालीपन में कितनी कोमल प्रतिध्वनित है तुम्हारी खुशबू 
उसे याद आता है एकांत पार्क में खडा एक कम शाखा वाला लोहे की बेंच के पीछे खडा इतराता सा  सफेद चम्पा --नानी के रसोई के बाड़े में खडा अनगढ़ चम्पा ,एक छोटे बोनसाईं पॉट में मजबूती से खडा मेरा पंद्रह साला सुगठित चम्पा,डा सुनीता शर्मा के लान में उदास खडा चम्पा --मां के कमरे की खिड़की से लगा खुशनुमा चम्पा -यूनीसेफ़ की कार  पार्किंग में खडा बूढा -छोटे छोटे फूलों वाला चंपा पेड़ ---अपने सलोनेपन के साथ अपनी खुशबू बिखेरने और संजोये रखने में माहिर --लेकिन पिता के हाथों सौ बिलपत्र के साथ शिवलिंग पर रखा  हायब्रीड चम्पा का वो दुधिया फूल आंखों में टंका  रह जाता है कहीं खुश तो कहीं उदास अपनी अपनी नियति में --एक तटस्थ भाव लिए गहरे हरे और लम्बे नुकीले चुस्त-दुरुस्त पत्तों में अन्दर के रिश्तों को बखूबी जीवित रखे हुए हें एक निरपेक्ष भाव से स्थितियों में सापेक्ष हो चम्पा खिलता ही रहता है ---भूल जाना और याद रखना अलस्सुबह लाल -सफेद चम्पा के फूलों को समेटना और नए दिन की शुरूआत  करना कितना सुखद है ---और अपनी अंश भर डाली से पुन एक भरा पूरा वृक्ष बन जाना --अपने जीवट लेक्टोजन [दूध ]से किसी भी मिटटी में आसानी से पनप जाना --जहाँ से टूटना [ कट जाना ] वहीं से फिर जीवन शुरू कर पाना बस तुम्हारे ही बस की बात है यूं अपनी खासियत की वजह से तुम ख़ास हो मेरे पसंदीदा भी ---तुम्हे गूगल सर्च करके तुम्हारे नामों और किस्मों के बारे में तो जाना जा सकता है पर तुम्हारी आत्मा और तासीर [प्रवृत्ति ] तक पहुंचना कठीन  है ---सिर्फ प्यार और नेक नियति से तय किया  जा सकता है कि चम्पा आखिर तुम कैसे हो --------

प्यार करते हुए
अपनी आत्मा को गवाह बनाना
और याद रखना
उगती पत्ती तुम्हें और झरती
तुम्हारे प्यार को बना रही है[अज्ञात]