गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

किसी मुकम्मल स्पर्श से जीवित होती देह --फिर छूट जाने से डरती है तेज गले से रुलाई का भरभराना रोने से बदत्तर --कितना दम घुटता है कोई माप नहीं, एक तपिश देह में उतरती है --

दो आवाजों को अलगाना मुश्किल हो जाता है जब एक ही समय में एक ही सुर में वो सुनाई दे ---ठीक वैसे ही भीतर के दृश्य धूप  से छनकर बाहर की ओर एक बड़े से सेमल के पेड़ की झुकी हुई शाखाओं को भेद जमीन पर आते हैं, उनका दिखना ही अद्भुत है --सेमल की बड़ी बड़ी हरी गदबदी नरम रूई वाली कच्ची फलियों में अब दरारें पढ़ना ही चाहती हैं --इन्तजार तो धूप  को भी है, फलियों की छोटी बड़ी परछाइयाँ हवा संग संग जमीन पर पड़े आड़े तिरछे दृश्यों को दुलराती हुई अलसाई दिखलाई पड़ती है धूप  लम्बी शाखों पे चढ़ते -उतराते एक पतली कांच की लकीर की मानिंद लचीली डोलती है ---हतवाक'' समय में सब कुछ साफ होता है कुछ आवाजें भी, में तो कहीं गया ही नहीं था सच कहीं जाने के लिए ---तुम्ही बताओ तथागत  ऐसा कैसे चलेगा --एक सिरे पर आवाज कंपकपाती तो दूसरे सिरे पर स्थिर हो रह जाती है कबूतर का एक जोड़ा भरी दोपहर क्लॉक वाइज़ ,एंटी क्लॉकवाइज घूमता हुआ सोच को फिर वहीँ लौटाता  हुआ चकित करता है --कुछ चीजें जीते जी अश्मीभूत होती जाती हैं तो दूसरी तरफ फूलों की शिराओं में प्रतिध्वनियों की शक्ल में जी उठती है --सन्नाटे वाली दोपहर में दबी दबी हंसी वाली धूप थोड़ा आगे सरकती है ,बीतती  है आहिस्ता -पहुँचती है शाम तक सुस्त चाल से --लेकिन शाम देर नहीं करती  चुस्त चाल से लम्बूतरी हो पहुँच ही जाती है अँधेरे के निकट --अँधेरे में सुझाई नहीं देता कहाँ सुख है और कहाँ पीड़ा --
कोई उदासी कोई ,कोई कुंठा ,कोई याद कोई मोह ,कोई मुक्ति -और ऐसा ही कोई निश्छल दिन कोई रात में गड़मड़ होता है कोई ठौर नहीं ,बेस्वाद और तूरा सा  दिन दूर से नजदीक की चीजों को देखता हुआ ख़त्म होता है और रात पास आकर दूर सोचती है --हरमोड़ पर भटकाव --हर भटकाव में ढेर से रास्ते --ठिठक जाओ या एक चुन लो या लौट जाओ सब कुछ आपकी सोच पर निर्भर करेगा ---लौटो तो दस पांच खिड़कियों वाला घर भी अंदर से रोशन नहीं करता, लेकिन  क्या जरूरी है हर खिड़की से रौशनी भीतर आये --लेकिन इन्ही में से किसी दिन या रात तयशुदा मृत्यु  जरूर आएगी --मृत्यु  का भय घेरता है ---'कौन हो तुम ''पूछते ही वह धूप की परछाई में गुम  होता है किसी मुकम्मल स्पर्श से जीवित होती देह --फिर छूट जाने से डरती है तेज गले से रुलाई का भरभराना रोने से बदत्तर --कितना  दम घुटता  है कोई माप नहीं, एक तपिश देह में उतरती है --जल में उँगलियाँ डूबा देना एक सुकून एक ठंडक एक राहत --लेकिन कब तक ?  एक चुप्प सी रात भी बीत जाती है -बहुत उदास किया एक उदास दिन -रात ने जो बीत गया अभी अभी, डब डब  सी आवाज़ करता पानी में--
उसे डूबते देखना भी कितना अजीब है चलो रास्ता दिखाओ कोई आदेश सर माथे चढ़कर देता है -कहीं जाने के लिए नहीं -बस ज़रा टहलते हैं -वो रात ख़त्म होती है जिसका कोई जायज अंत नहीं होता 
कोई तो है, कोई सपर्श अब भी बचा है, कोई प्रेम में पगा बैठा है- कैसा दुःख -अँधेरा या डर ये एक आश्चर्य समय होता है जिसमें रहने का सुख -दुःख सपर्श राग विराग --सारे कुछ को मुठ्ठी में दबाये रहना और इसी सच बीच जीना --पंख ऊग आये तो कौन ना चाहेगा  उड़ना उसे तो वैसे भी पसंद नहीं, ठहर जाना गति से बचकर --अपनी ही इक्षाओं की नजर कैद से स्वाभाविक मुक्ति खुश भी तो करती है --कब लौटोगे ? लौटोगे तो जरूर --सवाल के जवाब का इन्तजार कौन करे --तुम्ही बताओ हे तथागत उस उजल और साफ दिन में जैसा आज यहाँ है ये दिन तब जब एक समरस समय में तालाब जल बीच में एक सौ आठ रक्त-चम्पा के फूलों से शिव का अभिषेक करुँगी --''एका दिवशी ये होणार'' --एक दिन ये होगा जरूर 
[समय और धीरे चलो --बुझ गई राह से छाँव --दूर है पि का गाँव --धीरे चलो ]

कोई टिप्पणी नहीं: