मंगलवार, 23 जून 2009

//बलात्कार एक स्त्री का अवमूल्यन है,उसके मौलिक अधिकारों का उलंघन,न्यायविदों के हाथ मैं सिर्फ कलम है, कोई मिसाल, नही कोई मशाल नही जिसे बतौर पथ प्रदर्शक


कुछ वर्ष पूर्व मुंबई की एक चलती ट्रेन मैं ,एक मासूम बच्ची के साथ बलात्कार हुआ ,उस कम्पार्टमेंट मैं करीब सात-आठ लोग थे जिनमे एक बडे अखबार का संवाददाता भी था ...उस वक्त टी वी चैनल्स ,अखबारों मैं ये ख़बर प्रमुखता से आई ,और चली गई ...बाद के वर्षों मैं भी देश भर मैं बलात्कार होते रहे ,खबरें बनती रही ,छपती रही और उन्हें टेलीविजन पर दिखाया जाता रहा ....हम आजाद हुए हें तब से अब तक ना जाने कितने बलात्कार के प्रकरण हुए होंगे इसका पूरा ब्योरा राष्ट्रीयअपराध ब्यूरो ही दे सकता है ...पिछले दिनों दिल्ली मैं चलती कार मैं गेंग रेप और फिर भोपाल मैं मुंबई की एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार ......

दरअसल बलात्कार को कानूनन गंभीर अपराध की श्रेणी मैं रखा गया है इंडियन पेनल कोड की धारा ४९८ ऐ मैं औरतों पर हो रहे उत्पीडन को रोकने मैं ये सहायक है ...इसमें अभियुक्त को जमानत पर छोड़ने का प्रावधान भी नही है ,इस सन्दर्भ मैं न्याय मूर्ति कृष्णन अय्यर के एक एतिहासिक फैसले मैं कहा गया था की बलात्कार की शिकार महिला का बयान अभियुक्त को सजा देने के लिए काफी होगा ...लेकिन मासूम -नाबालिग़ लड़कियों के मामलें मैं ये कैसे सम्भव होगा इस बारे मैं कुछ नही कहा गया .राष्ट्रीय रिकार्ड ब्यूरो के १९९० के अनुसार १९९६ तक ८६.७९१ब्लात्कार हुए जिनमे नाबालिग़ लड़कियों -१० वर्ष से कम उमर का प्रतिशत २० हजार ११४.[२३.३] प्रतिशत था और १० से १६ वर्ष की किशोरियों के साथ .४८.९१८[५६.७] प्रतिशत औए १६ से ३० वर्ष की महिलाओं के साथ १२५११[१४.५]प्रतिशत रहा ...,इसमें भी ३० तक की आयु की महिलाएं सर्वाधिक बलात्कार की शिकार हुई ,जबकि ८० प्रतिशत मामले मैं बच्चियों की उम्र १० वर्ष से कम हें एक अनुमान तो ये भी है की बच्चों के साथ किए गये १०० से अधिक यौन कुकर्म मैं से एकाध की ही सूचना या रिपोर्ट मिलती है और जो भी जानकारी सामने आती है वो दिलदहला देने के लिए काफी है अपराध रिकार्ड ब्यूरो भी आख़िर थानों न्यायलयों, एजेंसियों के आधार पर ही तो अपराध का डेटाऔर प्रतिशत निकालता है । सपना सा लगता है क्या हम आजाद देश मैं हैं ,और क्या येवही देश है जहाँ भगत सुखदेव,राजदेव जैसे क्रान्ति कारियों ने अपना बलिदान कर हमें आजाद कराया और उस आजादी का एसा हश्र ?असल मैं हम आत्मा और मन से इतने असुरक्षित और नपुंसक हो गये हैं की दूसरो के लिए कुछ करना ही नही चाहते ...हमने अपनी मान मर्यादा दूसरो के दुःख मैं दुखी होने वाले सहज गुणों को इतने ऊपर ताक पर रख दिया है कि वो अब हमारी अपनी ही पहुँच से दूर हो गएँ है ....ऐसे मैं ,एड्स अवेयरनेस प्रोग्राम, लिंग भेद समानता जैसे नारों-वादों घोषणाओं का कोई अर्थ नही रह जाता जब तक की हम उन तमाम ताकतों को चुनौती नही दे देते जिनकी वजह से औरतों की हैसियत कमतर होती है और उनकी मान-मर्यादा को ठेस लगती है ....यूँ संवेदन हीन होकर लिखने सोचने या कार्य की परिणिति तक पहुँचने से तात्कालिक लाभ चाहे हो जाए, लेकिन दूरगामी परिणाम शून्य होंगे ---और आजाद भारत मैं औरतों के जीवन यूँ ही स्याह अंधेरों मैं तब्दील होते रहेंगे ,---हमारी न्याय व्यवस्था लचर है ..क़ानून अंधा...न्यायविदों के हाथ मैं सिर्फ कलम है ....कोई मिसाल ऐसी नही ,...कोई मशाल ऐसी नही जिसे पथ प्रदर्शक बतौर [रिफरेन्स ]बताया जा सके ....हमारे देखने सोचने ,महसूस करने और फिर लिखने से कितना फर्क पड़ता है.समाज के प्रति विशेष कर औरतों के लिए हमारी नैतिक जिममेदारी की दावेदारी अन्तत ऐसे हादसों के बाद खोखली हो कर रह जाती है ।
किसी स्त्री को सतीत्व भंग की क्षति के साथ जिस गहन भावनात्मक दुःख भय मानसिक दवाब को जीवन पर्यंत तक सहना पड़ता होगा क्या पुलिस ,प्रशासन और अपराधी या सामान्यजन इसे समझ सकतें हैं ...ऐ आई आर १९८० सुप्रीम कोर्ट ५५९ ने कहा भी की स्त्री के लिए बलात्कार म्रत्यु जनक शर्म है ,और जब पीडिता न्याय के लिए गुहार लगाती है तो न्याय[परिणाम]भी उसके हक मैं अक्सर नही आते ---होता तो यही है की अक्सर समाज और परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए बलात्कार के मामले दबा दिए जाते हें चाहे न्याय व्यवस्था कितनीही कड़ी और सच्ची क्यों ना हो ,और बलात्कार होने से अधिक बलात्कार होने का अहसास, कोर्ट मैं विरोधी वकीलों का सामना उनके सवालों के जवाब अन्तत एक बलत्कृत महिला का मनोबल गिरा देतें हैं। १९८३ मैं हुए संशोधनों के बावजूद बलात्कार के संदर्भ मैं किय गये संशोधनों के अनुसार धारा ११४[ऐ ]की उपधारा ऐ बी सी डी औए जी के अंतर्गत बलात्कार के मामले में यदि महिला अदालत मैं ये कहती की उसकी सहमती नही थी तो अदालत को यह मानना पडेगा,लेकिन ये प्रावधान सिर्फ पुलिस,सार्वजनिक सेवा, मैं रत व्यक्ति जेल प्रबंधक डॉ द्वारा बलात्कार या सामूहिक बलात्कार या महिला के गर्भवती होने की स्थिति मैं हो तो प्रभावी माना जाएगा मगर इस हालत मैं भी मर्जी या सहमती के आधार पर अपराधी के बच निकलने के रास्ते मौजूद है।
बलात्कार एक सर्वाधिक घृणास्पद कार्य है--बलात्कार वास्तव मैं एक स्त्री का अवमूल्यन है इन मामलों मैं वैसे तो दिनाक २८ जनवरी २००० मैं सुप्रीम कोर्ट ने एक एतिहासिक निर्णय मैं कहा था की किसी भी स्त्री के साथ बलात्कार ,उसके मौलिक अधिकारों का उलंघन है,सरकारी कर्मचारियों द्वारा कए गए दुष्कर्म के लिए केन्द्र सरकार को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है विशेषकर हर्जाना अदा करने के लिए .भारतीय सविंधान के अनुछेद २१ के अंतर्गत भारतीय ही नही विदेशी नागरिकों को भी जीवन और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है ...अपराध ब्यूरो द्वारा प्राप्त आंकडों की सच्चाई पर भरोसा करना ही पड़ता है यौन हिंसा का आंकडा एक आइना है जिसमें हम औरतों की मुश्किलों को गहराई से देख सकते हैं....
फिर भी महिलाओं की अस्मिता उनके सुख चैन को छीनने वाली ताकतों के खिलाफ देश ही नही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला संगठनों ने अहम् भूमिका निभाई है ,तेजी से बढ़ते सामाजिक सरोकारों अंतर्विरोधों के कारण गरीब-अमीरशिक्षित -अशिक्षित ,ग्रामीण-शहरी,महिलाओं ने अपनी अस्मिता-अस्तित्व और अधिकार की लड़ाई लड़ी है और सफल भी हुई है,अंतत संयुक्त राष्ट्र संघ को ७० का दशक अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक के रूप मैं मनाना पढा था ,इसी के बाद महिला आन्दोलन जोर पकड़ते गये कहीं यौन हिंसा मुद्दा बनकर उभरा कही भ्रूण हत्या का विरोध हुआ कही दहेज़ प्रथा जैसी समस्या के लिए मोर्चा बंदी हुई कहीं कामगार की लड़ाई, कहीं स्त्री बिरादरी ने शराब बंद मुहीम छेडी... लेकिन वो बलात्कार के मामलों पर विवश हो कर रह गई है ....दरअसल बलात्कार जैसे अपराध की व्यापकता और उसकी भरपाई क्या इतनी ही है की पीडिता को पुनर्वास और हर्जाना मिले उसके छोभ ,ग्लानी ,उसकी मानसिक स्थिति और उसे तवरित न्याय मिले इसके लिए ---कुछ अन्य मुद्दे भी तय होने चाहिए ,लेकिन सबसे बड़ा सवाल बेमानी होकर रह जाता है की असुरक्षा का जो ये वातावरण है जिसमे औरत जी रहीहै ...उसे कैसे ख़तम किया जाय और वे कारक तत्व जो औरत के सम्मान को नीचा करते हें, जिनसे अपराध को बढावा मिलता है उन पर कैसे काबू पाया जाय .......
...इस लेख के लिए संदर्भ पुस्तक न्याय क्षेत्रे -अन्याय क्षेत्रे ...लेख अरविन्द जैन,एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट,मेरे प्रिय लेखक ..स्त्री के हक मैं उनकी -पुस्तक औरत होने की सजा -एक बेबाक पुस्तक है जिसे उन्होंने लिखा ही नही, महसूस भी किया है ....

रविवार, 14 जून 2009

इच्छाएं, सेकेण्ड की सुई की तरह अन्दर ही अन्दर एक ही वृत में गोल घूमती है... समुद्र किनारे फ़िर जंगल एक नए सिरे से जलता है, पीछे काली ज़मीन छोड़ता...

एक अशिष्ट बदलाव था अध् चटके फूल चटकीली धुप मैं खिले बिना ही सिरे से काले हो सूख कर झड़ रहे थे गर्म बजती हुई हवा सन्नाटे को चीरती, भरी दोपहरी अजीब तर्क जुटाती,...गले ना उतरने वाले ,एक पुर इत्मीनान समय का कोने मैं दुबके बैठे रहना ..किसी विस्मृत नाद का हवा मैं तैरना...कानो तक पहुंचना .किसी शहर मैं अपने को अधूरा छोड़ आना --जहाँ उसकी गिरफ्त से हाथ छूट गया एक निर्वासित नदी ने मूड कर पीछे देखा ,रास्ता बदल गया ..कोई अपना सलीब यू भी ढोताहै ..जैसे तुम?उसके सामने बहुत से सवाल ख़ुद अपने जवाब ढूँढ लेते मौन अनुभवों की अभिव्यक्ति और शब्दों की बेचारगी भी थी...तभी किसी फूल का नाम याद करना उसके रंग खुशबू से अपने को सराबोर करना और एक संभावना के बीच ना ख़त्म होने वाली भीतर की यात्रा करना .जिसका गंतव्य ना था ,कहाँ जीना-मरना होगा ये भी अनिश्चित था बहुत कुछ खोया हुआ छूटा हुआ पाने की भी जद्दो-जहद ना थी -बस बचे हुए हम मैं हमी ...मन की वृतियों और इच्छाओं से संचालित एक सुखद अभ्यास था,उनदिनो-हर दिन एक निर्णायक उतार -चढाव से भरा हुआ... बाद मैं कई दिन बीते -दिनों के भीतर बहुत भीतर उन दुखों के साथ जो सिर्फ अपने सहने और भोगने के लिए थे । ऐसे मैं हर दिन बेसब्र और झुंझलाए दिन की शुरुआत होती मन को भी आख़िर खुश रहने का कोई कारण तलाशना ही पड़ता ,मुख्य द्वार पर आकाश चमेली का पौधा एकदम से बड़ा दिखलाई पड़ता है पिछली बारिश मैं रौपा था--इस बारिश मैं फूल खिल उठे उसमें ..अद्भूत भीनी खुशबू वाले जिसकी लम्बी और नुकीली डंठल को क्रॉस स्टिच की तरह एक दुसरे पर रख कर वेणी गुंथी जा सके -बहुत कुछ बुना-गुना गया असीमित सोच के पार जो बस सोचा ही जा सकता था,सुबह के अखबार के साथ ताजा ठंडी हवा, चाय की केतली ,जामुनी रंगों के गुच्छे के गुच्छे खिले फूल कुछ अलग अंदाज से सम्मोहित करते ....फिर भी समय सोच और समझ के खुरदुरे तल पर बहुत सा काई सा फिसलन भरा जमा हो जाता है ...उचाट मन तिनका रेशा तक साफ कर देना चाहता है ताकि रचे गये सुख के साथ आने वाली सुबह नए दृश्य देखें जा सके ...लेकिन कल शाम मौसम की पहली बारिश मैं गर्मी के मारे झुलसे- मुरझाये पेड़ पत्तियों और सड़कों से धूल बहकर किनारे जा लगी सब कुछ साफ-चमकदार हो गया. रह गया हरियाली के बीच एक हैरान करता एक पत्ता ...जो कहने से बच गया याद रह गया एक तार वाली फेंस के पार से उसकी कविताओं के सन्दर्भ कभी रिक्त तो कभी तिक्त करते -तय से ठीक उलट -निपट अकेली मुफलिसी पर पर रुलाते ..हंसा भी तो नही जाता ..राग द्वेष से परे परमहंस सा जीना क्या सबके बूते की बात है ऐसा भी नही था समंदर भी तैरे थे,और परिंदों से ऊँची उड़ान भी, एक ही साँस मैं खो गया फिर भी जो सच में सच से ज्यादा था ...स्लेटी शाम मुँह ढँक कर सो जाती है -एक उदास जुगनू मुठ्ठी को उजाले से भर जाता है हाथ की नसों में रौशनी की लहर दौडती है मुठ्ठी खुलती है रौशनी आंखों की पकड़ से दूर भागती गायब होती जाती है ...अंधेर भरी टोने-टोटके सी रात डराती है कहीं दूर एक आत्मीयता ढाढस बंधाती है डर नही भागता ...बहुत कुछ स्वीकार ,बहुत कुछ के साथ डूबता है ,डूबने की अपनी दुश्वारियों के साथ डूबने के अपने अंदाज और आवाज के साथ-आपकी काबलियत यही तो नही ना की कब तक बगैर साँस के जी सकते हो ..सतह पर लौटे बिना और लौटना पड़ता है दुबई में होटल अल-कसर और सामने समुद्र... पैरों के नीचे धंसती रेत के साथ हवा में घुलता कोई सपना लहरों के साथ अपने में समेट लेने को बेकाबू उसकी तरफ़ तेज़ी से आता है...वो पीछे पलटती है,एक मात्र बचाने लायक सच बच जाता है... इच्छाएं, सेकेण्ड की सुई की तरह अन्दर ही अन्दर एक ही वृत में गोल घूमती है... समुद्र किनारे फ़िर जंगल एक नए सिरे से जलता है, पीछे काली ज़मीन छोड़ता...एक पत्ते का अरण्यरोदन नहीं रुकता।
"बचना था तुम्हे सपनो से/प्रेम से, एकांत से / तुममे जो एक झरना छिपा था/बचना था उसके शोर से/बचना थे आषाढ़, फाल्गुन और आश्विन से..." (मेरे प्रिय कवि *अलोक श्रीवास्तव* की कविता का अंश)

बुधवार, 20 मई 2009

एक चौकन्नी चिडिया की तरह मन आसन्न खतरे को भांप लेता है ओर एक खीज भरे रास्ते से गुजर जाता है... क्या मांगू उससे वो सब कुछ दे सकता है.

वो जितना आगे बढ़ी थी ,उतना ही पीछे लौटना था ..उस मुकाम से जहाँ वो थी आदेश पहले था और नियति बाद मैं ..गिने चुने क़दमों के साथ बिल्कुल आगे देखते हुए ..लौटना पीछे की ओर नियत दूरी को पैरों से साधते हुए .बचपन मैं ये खेल भाई-बहन दोस्तों के साथ खेलते हुए वो हर दम हार जाती आगे बढ़ना तो ठीक था लेकिन लौटना क्या इतना आसन था,एक बार जीत की आशा औरजोश मैं वो पाँच छह कदम पीछे लौटी और चकरा -कर गिर गई ..मामूली चोटें आई भाई ने डांटा आँखे क्यों मूँद लेती हो ..बस यही गलती है ..बाद मैं उसने गौर किया खुली आंखों चीजें देखने महसूस करने से उसे मुश्किल होती सुख-दुःख दोनों मैं सामान्यत वो खेल फिर ता- बचपन उसके लिए मुश्किल ही बना रहा जिसमें वो फिर कभी शामिल ना हो सकी बुद्धि सुलगती है,और सारे जतन हत बुद्धि होकर बैठ जाते हैं ऐसे मौकों पर अपने को निरीह लगना-सोचना भी तो ठीक नही था कुछ नया था जो जिन्दगी मैं घट रहा था ,कुछ भुला कर -कुछ ओर याद रखना अपने मैं समेटे रहना -अतल मैं उमड़ता -घुमड़ता चंदन जल सुगंधी ..फिर भी रंग-बिरंगे मोतियों की माला टूटती है धागा गलता जाता है बिखरे मोती हाथ नही आते ओर एक चौकन्नी चिडिया की तरह मन आसन्न खतरे को भांप लेता है ओर एक खीज भरे रास्ते से गुजर जाता है पुराना सम्मोहन आत्मा को जकड़ता है एक घबराहट मैं मुंदी आंखों पीछे लौटना जरूरी हो जाता है ... क्या मांगू उससे वो सब कुछ दे सकता है ..फिर भी मेरे लेने की सीमाएं हैं ओर उसका गुमान असीम उसकी अनिश्चितता एकदम से उसे हमसफर-ओर अजनबी बना जाती, एक चाबुक सा दिमाग को थरथराता है वो समेटना चाहती है ..सब कुछ बिखरा हुआ .गली गलियारों से लौटते ताजगी-खुशबू भरे दिन एक-एक शब्द सेमल के फूलों की तरह सुर्ख-सुंदर दिल-दिमाग पर टंगते जातें हैं समुद्र की लहरें उसे तेजी से भिगोतीं हैं अपनी ही देह मैं दुःख की आद्रता उसके शब्द सुनते बेआवाज ..वो बस सोच ही तो सकती है क्या वो दोस्ती किसी चुक गए रिश्ते की असफलता की भरपाई थी या कुछ ओर ,या ये, या वो, बस-बस बहस ना करने का इरादा टोकता है .पिघला हुआ सब कुछ पहले सा आकार ना ले पायें लेकिन पहले से बेहतर तो हो ही सकता है बिना कष्ट के लौटना उन रास्तों पर जिन्हें विश्वास के साथ अपनाया था जिसे एक ईमान दारी ओर सम्मान के साथ पाया जा सके बस यही तो इक्छा थी लेकिन उमीदों का बदरंग होना बचे-खुचे रंगों का अन्दर से झांकना -निरर्थक -अर्थों मैं कुछ खोजने जैसा ..जो की एक तरफा बेवकूफी भरी खोज थी बीच उनके ..एक ऐसे सच की तरह जिसके आगे सब कुछ झूटा ओर बौना हो गया था .बस मन के पीछे मन को धकेल कर बैठा जा सकता था ..जो हो ना सका, अँधेरा गाढा था -इधर ओर उसकी गिरफ्त मैं इक्छाओं का कतारबध्ध होकर रह जाना ...कोई चाहता तो हाथ खींच कर रौशनी मैं शामिल कर सकता था अपनी रौशनी मैं ..आसमान अब भी खुला था समुद्र नीला ओर धरती हरी ...पर स्म्रतियों का विसर्जन कर देने पर जिन्दगी राजी खुशी बीत जायेगी क्या ...किसी के हिस्से के दुःख.अपने हिस्से के सुख स्थांतरण कर दिए जाएँ तब भी क्या ...निष्ठा भी क्या लौटाने की चीज है ...जोड़ी घटाई गई इक्छायें ..अपना ही पोस्ट मार्टेम ओर कुछ हांसिल ना होना अपने को मरते -जीते देखना ..आधे चाँद का साक्षी होना ..किसी बियाँबान से गुजर कर हजारों बार पूरी रात का असुविधा जनक सफर ...एक सिरे से शुरूआत अंत के पहले बीच मैं अंत. एक आद्रता मन मैं फैलती है आंखों की कोरों मैं उलझ जाती है चांदी सा झिलमिलाता कोई आंसुओं मैं घुलता जाता है गलती कहाँ हुई ...मुश्किलें शब्दों से हल हो जाएँ जरूरी तो नही ....
जैसे की समय को मेरी याद आई हो ऐसे बेवक्त ,जब कोई मुझे याद आता है भूले हुए समय मैं से, मैं आ जाता हूँ उसकी समुद्रों ओर पहाडों से घिरी हुई हथेली पर ,कभी-कभी,ओर कभी कभी अपनी आंखों के पलकों जितने करीब ओर अपने लिए अद्रश्य हो जाता हूँ (मेरे प्रिय कवि लीलाधर जगूडी की कविता का अंश )

शनिवार, 9 मई 2009

// लाल कृष्ण आडवाणी के सितारें गर्दिश मैं...हार की संभावना ..सुनिश्चित

लगभग साढे पन्द्रह लाख आबादी वाले अहमदाबाद की गांधी नगर संसदीय सीट पर इस बार लालकृष्ण आडवाणी का मुकाबला कांग्रेस के सुरेश पटेल से है...भा.जा .पा के घोषित प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार आडवाणी जी ने इस क्षेत्र मैं १५ सालों से लगातार जीत हांसिल की है .और हर चुनावी - जीत के बाद उनके दो -ढाई लाख वोट बढ़ जाते हें.गांधी नगर सीट का इतिहास गवाह हे की उनके सामने अच्छे और बढे ,नामी-गिरामी दिग्ज्जों की भी बुरी हार हुई है ...गाँधी नगर क्रीम एरिया है ,यहाँ अधिकाँश पढेलिखे और लब्ध-प्रतिष्ठीत लोगों की आबादी है और वे जानतें हैं की उन्हें क्या करना होगा -किसे चुनना होगा ...की जो उनके हित मैं होगा. इस बार आडवाणी के भाग्य का फैसला वे कर चुके हें,अन्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ज्योतिषों की गणना -भविष्यवाणी और जनता ने भी अपने नेता का चुनाव कर लिया है ...और अब मुश्किल से सात दिन मैं चुनाव परिणाम आ भी जायेंगे ...इस बार आडवाणी जी की हार सुनिक्षित है यदि जीत जातें हैं तो भी प्रधान मंत्री बन ने के कोई आसार नही . ..उनके सितारें गर्दिश मैं हैं भले ही वो अपने को देश भर मैं एक उदारवादी नेता के रूप मैं पेश कर रहें हों ...बतौर युवाओं का नेता भी---बतलाने-जतलाने मैं कोई कोर-कसरनही छोड़ रहें हों ...अब इस बात से कोई फर्क नही पड़ता की उन्होंने देश के लिए कुछ किया या नही ..फिलवक्त वे २१ वीं शाताब्दी को भारत की शताब्दी बनाने,गरीबों को कंप्यूटर शिक्षा देने,लड़कियों को अनिवार्य शिक्षा...और शिक्षा के समुचित अवसर देने का वादा कर चुकें हें ......तो क्या भारत को आडवाणी जैसे बूढे बनाम युवा या युवा बनाम बूढे प्रधान मंत्री की जरूरत होगी चुनाव बाद निशिचित ही कुछ और मुद्दे उठेंगे ...इस नए अवतार [एक बड़ी राजनैतिक पत्रिका मैं अति रंजना शब्द शैली मैं उनका व्यख्यान किया गया है ]को परिणाम के बाद संन्यास लेते .हताश होते हुए भी देखा जा सकेगा ...मराठी मैं एक कहावत है ..दिसतो तसा नसतो...जैसा दिखाई देता है वैसा नही होता ..तो क्या आडवाणी के सन्दर्भ मैं कहा जा सकता है की वो जितना और जैसा जाने जाते हैं क्या उतने और वैसे हें जितना की उन्हें पेश्तर किया जारहा है, ---या नही ..चुनाव परिणाम के बाद ज्यादा ठीक से समझे जा सकेंगे ....फिलहाल उनका सामना कर रहें सुरेश पटेल ..कलोल तालुका के दस साल से एम् एल ऐ हें उनकी छवि साफ-सुथरी है इस क्षेत्र मैं तीन लाख लोग पाटीदार समाज के हें और इस वक्त वे सभी आडवाणी के विरोध मैं हें यदि सुरेश पटेल जीततें हें तो इस अमूल्य जीत के बाद उनका कद तो बढेगा ही साथ ही वो पार्टी मैं सिरमौर की हेसियत वाले नेता भी बन जायेंगें ...जीत के बाद सुरेश पटेल की प्राथमिकताओं मैं अहमदाबाद को जोड़ने वाले सभी गावों मैं सड़क -पानी प्राथमिक शिक्षा ,स्कूलों मैं सुधार की रहेगी.. जैसा उन्होंने बताया ....इस समाज के वर्तमान मैं तीन लाख परिवार अमेरिका मैं हैं, चुनाव प्रचार अभियान के दौरान १०० से ज्यादा लोगों ने भारत आकर सुरेश पटेल का होंसला आफजाई की थी...पटेल समाज के अध्यक्ष और जबरदस्त राजनैतिक हस्तक्षेप रखने वाले स्थानीय रहवासी डॉ। मफत लाल पटेल ने बताया ...दर- असल अधिकाँश लोगों की नापसंदगी लालकृष्ण आडवाणी के लिए क्यों है ?...पहली तो बीते पन्द्रह वर्षों मैं आडवाणी अपने क्षेत्र मैं ना तो कभी आए ना अपने क्षेत्र के लिए कुछ उल्लेखनिय किया --ना अपने क्षेत्र की जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतरे ...दूसरे गुजरात मैं हुए अन्याय के खिलाफ लोकसभा सदस्य होने के नाते ना तो कुछ कहा -ना किया ....तीसरे हाल ही मैं आशाराम बापू के आश्रम मैं दो बालकों की ह्त्या के मामले मैं [तंत्र-मन्त्र हेतु ]उनके प्रति मिली भगत होने का संदेह ....जो भी हो इन चुनावों मैं जो भी तस्वीर उभरे लेकिन ...देश भर के पत्र-पत्रिकाओं मैं जो उनकी तस्वीरें प्रकाशित हुई हें वो एक हताशा और उत्साह के अतिरेक भरा ..मिला -जुला चेहरा है ...आत्म विशवास की झलक वहां हल्की है अन्यथा सन्यासी क्या यूँ ही कोई हो जाना चाहेगा .....
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ज्योतिष जगदीश मोदी,डॉ मफत लाल पटेल स्थानीय रहवासी यों से बात चीत के आधार पर ....अहमदाबाद से लौटकर

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

कुछ आहटें बाहर है ,कुछ दस्तकें भीतर,समय के सबसे विध्वंसक क्षणों मेंअपनी गहरी प्रार्थनाओं मैं ....,

अब भी कुछ टूट रहा है धरती मैं,
और छूट रहा है ,आकाश मैं ,
थोडा सा झांकते हुए ,चट्टानों से,
कुछ भीग रहा है पहाडों के पार,
कुछ आहटें बाहर है ,
कुछ दस्तकें भीतर,
समय के सबसे विध्वंसक क्षणों मैं,
अपनी गहरी प्रार्थनाओं मैं
किस तरह पवित्र और सुरक्षित रखा है मैंने
दुनिया भर के लेखे-जोखे .से अलग ...
अलग वर्ण -शब्दों मैं
अभिनव रंगों मैं ,
सबसे बचाकर,अनहद मैं लीन-तुम्हे।
जब सपना भी नही देखा जा सका
और रात बीत गई,
कोई क्यों रोना चाहता है
तुम्हारे साथ -हँसते हुए ...अकेले मैं ,
अनंत गूंज मैं, ये भी नही जान पाये...
उससे मीलों दूर ..वसंत पास ही है ,यकीन है
जबकि बीता है वो,पिछली रात की तरह,
अभी-अभी,
पीली धूप मैं खिले ,सफेद फूलों की मानिंद,
और मैं तैयार हूँ ,तुम्हारा हाथ थाम लेने को ,
इसी क्षण ,धैर्य और उत्ताप के संयुक्त क्षणों मैं
ये कौनसा मुकाम है ,फलक नही ,जमी नही ,के शब् नही,सहर नही, के गम नही,खुशी नही ,कहाँ पे लेके आ गई ..हवा तेरे दयार की .... (फोटो शिलांग घाटी से)

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

मेरे पास ना कोई सबूत है,ना दलील मैं सिर्फ उसकी कहानी छाप सकती हूँ ...चार कहार मिले डोलिया उठाय -अपना बेगाना छूटो ही जाय .

मध्यप्रदेश में मुंगावली खुली जेल के लिए प्रसिद्ध रहा है हालांकि अब वहां जेल नही ,बस्ती के गरीब-बेसहारा लोगो ने कच्ची-पक्की दीवारें उठाकर वैध-अवैध सर छुपा सकने लायक घर बना लिये है ,लगभग चार साल पहले मेरा वहां जाना हुआ था, कुछ पत्रकार साथी और एक महिला संगठन के साथ ..मुंगावली में गणेश शंकर विद्यार्थीकी मूर्ति को एक चौराहे पर लगानेके लिए स्थानीय लोग विरोधकर रहे थे और हमें एक जुट होकर समर्थन में वहां एक कार्यक्रम में भाग लेना था... भोपाल से हम शाम ७बजे वाया रोड निकले और करीब १२ बजे रात मुंगावली पहुंचे ,सभीको तेज भूख लग आई थी हम लोगों ने एक ढाबेनुमा होटल को खुलवाकर भोजन बनवाया और खाया..तब तक डेढ़ बज चुका था मार्च का पहला सप्ताह था ,गर्मी कम और अभी ठंडा मौसम शेष था -रात गहराने के साथ सभी को नींद आ रही थी ..मुंगावली एक छोटे शहर की शक्ल में रात में ऊँघता नजर आ रहा था.. बीच से उसे पार करते दुसरे छोर पर जो सर्किट हाउस था वहान्हामारे ठहरने का इंतजाम था ..तब रात के लगभग २बज चुके थे हमारी अगुवाई करने वाले जो की एक बुजुर्ग थे उन्होंने चौकीदार के साथ सारे कमरों का मुआयना किया चौकीदार ने बताया चार कमरे बड़े और एक छोटा है ,सभी में तीन-तीन लोग आराम से सो सकतें है ,उन्होंने एक से चार तक के कमरों में ग्रुप बनाकर अपने हिसाब से जाकर सोने के निर्देश दिए ..अन्तिम पाँच नंबर के कमरे में मुझे अपना बेग रखने को कहा ...मेरे बगल वाले चार नंबर में महिला संगठन के सदस्यों ने अपना सामान रख दिया, मेरे पीछे-पीछे चौकीदार एक बड़ी सी मोमबत्ती ,माचिस ,मच्छरों की टिकिया ,बेद शीट्स वगेरहा लेकर आ गया ..उसने मुझे बतया बाथरूम में पानी शीशा ,साबून बकेट सभी कुछ है ,कोई काम हो तो बेल बजा देना में आपके कमरे के ठीक बाहर बरामदे में सो रहा हूँ वो शायद गहरी नींद का मारा था लेकिन अपनी नौकरी केप्रति प्रतिबद्ध एक बूढा और इमानदार नौकर....मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना वो कमरे से बाहर जाते-जाते हिदायत भी देता गया की दरवाजा अन्दर से ठीक से बंद कर लें ...


उस रात अँधेरा था पावर भी कम था बल्ब ६० वाह्ट से ज्यादाके ना होंगे एक ही बरामदे के इस छोर से उस छोर तक एक लाइन में बने उन कमरों के सामने ठीक बीच में चार-पाँच सीढियां उतर कर छोटा सा एक उजाड़ मैदान था जिसमें टूटी-फूटी कांटो की तार वाली एक फेंस लगी हुई थी, जिसके बीच में एक घना बरगद का पेड़ ...अंग्रेजों के समय का बना हुआ यह सर्किट हाउस सरकार की लापरवाही का जीता .जागता नमूना ही था हालांकि उज्जैन -के देवास रोड और इंदौर के रेसीडेंसी एरिया के न्यू रेस्ट हाउस भी कोई बहुत अच्छी स्थिति में नही ...भुतहा से ये बंगलेजाने कब से अधिकारियों के आराम के नही अय्याशी के अड्डे बन कर रह गये हैं ...चौकीदार के जाते ही मैंने बाथरूम में जाकर सफर के कपड़े चेंज किए वहां वाश बेसिन पर एक तिड़का हुआ आइना लगा हुआ था जिस पर ट्रेपेजियम शेप की मरून-रेड तीन बिंदी डिसआर्डर में चिपकी हुई थी ,जरूरत से ज्यादा ऊंचाई पर बने वेंटिलेशन पर एक जंगली चिडिया का घोंसला था जिसे बनाने की कवायद में ढेर से तिनके टॉयलेट की शीट पर बिखरे हुए थे ..फर्श जगह-जगह से उधडी हुई थी ,कभी सफेद झक्क रही होगी टाइल्स पीली पड़ चुकी थी ..लंबे-और बड़े से रूम के बराबर उस बाथरूम के एक कोने पर एक दरवाजा स्थाई तौर पर जंग लगे ताले के साथ बंद पडा हुआ था दरवाजे के ठीक नीचे एक हरे कांच की कड़े नुमा लहरिया चूड़ी का टुकडा इन्द्रधनुष की तरह तना हुआ अटका पडा था स्मृति चक्करघिन्नी खा रही थी ...,शायद वहाँ से पीछे कोई मैदान हो, मैंने अंदाज लगया...जैसी की मेरी आदत है नई जगहों पर रूकने -ठहरने से पहले अक्सर ही में दीवारों दरारों .खिड़की यों उनके पल्लों कांचों किनारों को सरसरी तौर पर जरूर देख लेती हूँ ....ये उपरो तौर पर अपने को निडर घोषित करने जैसा होता है जो स्वतः उसको अंदरूनी डरपोक साबित कर जाता ...बाथरूम से लौटकर मैंने दरवाजा मजबूती से बंद कर लिया मेरे ख्याल से उस समय रात के ३ बज चुके थे डर की कोई बात नही थी लाईट को जलता छोड़कर में पलंग पर लेट गई कोहनी से हाथों को मोड़कर मैंने आंखों पर रख लिया रौशनी से बचने के लिए...दूसरे हाथ से सिरहाने रखे पर्स में मैंने अपने अभिमंत्रित गणेश की मूर्ति को टटोला वो सुरक्षित थी ..वो अमूमन मेरे हर सफर में साथ होती है इस भरोसे को साथ लिए की कुछ अनिष्ट नही होगा ...मुझे समझ आ गया था की अब सुबह तक नींद नही आएगी ,एक बारगी अपने साथ आए लोगों में से किसी को फ़ोन करने का मन हुआ -लेकिन तत्काल ही लगा एक तो ये ठीक नही होगा दूसरे वे अबतक सो चुके होंगे ये ख्याल कर में सुबह होने का इन्तजार करने लगी ..मैदान के दूसरी तरफ हाईवे पर लगातार ट्रकों की आवा-जाहीके साथ बाहर सूखे पत्तों की खडखडाहट की आवाज के अलावा सब ओर सूनसान था हलाँकि चौकीदार की खाट बरामदे में लगी थी ओर उसने कहा भी था की वो जाग रहा हैपर उसके खर्राटे की आवाज उस निस्तब्ध रात में भी एक होंसले कीतरह -एक सहारे की तरह ..जागते रहो की गूँज की तरह मुझे लग रही थी ....इन सारी बातों का मतलब ही यही था की मुझ पर एक अज्ञात भय हावी हो चुका था समझ नही आया की मुझे डर क्यों लगा .....जैसे-तैसे सुबह हुई सुबह की हलकी रौशनी में भी रेस्ट हाउस उतना ही उजाड़ था जितना रात के अंधेरे में बरगद के चारों ओर फर्शी लगी हुई थी ,जिसके बगल में एक हेंडपंप था आस-पास की औरतें जिस से पानी निकाल रही थी में वही ठंडी हवा में बैठीं रही ..ओर सबके उठने का इन्तजार करने लगी...ये किस्सा यू ही ख़त्म नही हुआ शाम तक सभी कार्यक्रम समाप्त होने के बाद देर रात तक हम लोग भोपाल लौट आए इसका जिक्र मैंने घर में नही किया और एक हफ्ता गुजर गया ।

एक दिन जब मुझे मंत्रालय जाना था में सम्बंधित अधिकारी का नाम डायरी में खोज रही थी तभी 'एस 'के पेज पर मेरी एक दोस्त का नाम सामने आ गया ..वो मंत्रालय में पिछले आठ सालों से पदस्थ थी मेरी उससे मुलाक़ात दो तीन माह के अन्तराल पर हो जाती थी उन दिनों एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में मेरा वहां आना जाना लगा हुआ था मंत्रालय के काम तो अपनी गति से ही होतें हैं वहां चमत्कार की कोई गुंजाइश नही होती ...ओर में जल्दी -जल्दी उससे मिलने लगी मुझे ख़ुद नही मालुम कब कैसे वो मेरी अन्तरंग हो गई वो थोडा घरेलू किस्म की आय ऐ एस अधिकारी थी रंग गोरा बाल भूरे-कर्ली ,चेहरा आम भारतीय स्त्री की तरह गोला कार जो की हर औरत को उसकी उमर से थोडा बडा ही दर्शाता है ..थोडा पद ओर काम की गंभीरता, परिवार के प्रति निष्ठा जिम्मेदारी ने भी उसे बढाकर दिया था वो चुस्त थी फिर भी शरीर थोडा थुलथुला हो चुका था ...वो एक पारदर्शी महिला थी पर ज्यादा नफासत पसंद नही,जल्दी ही उसने एक अधिकारी का लबादा उतार फेंका ओर मेरे साथ सहज हो गई ..वो कोई भी बेढंगे रंग-प्रिंट की साड़ी पहने होती ओर मुझसे पूछती बताओ कैसी लग रही हूँ में मुस्करा देती ...फिर कई मुलाकातें लेकिन उसने आगे होकर कभी कॉल नही किया ..जब मिलती तो कहती अरे कल ही तो याद कर रही थी देखो आज तुम आ गई हो ,क्या कहूं मीटिंग्स, टूर इन सारे कामों से उऊब चुकी हूँ ...शादी कर लो बिना किसी भूमिका के मुझे कहना पड़ा ....वो मुझमे एक अच्छी दोस्त तलाश रही थी ..में उसे पसंद भी करती थी ..किंतु जैसी मेरी आदत भी है जो लोग मुझे पसंद होतें हैं में उनसे एक निश्चित दूरी बनाकर रखती हूँ उसके साथ भी वैसा ही कुछ इरादा था मेरा ...उसे इस तरह के उत्तर की उम्मीद नही थी...जिसे पसंद करती हो या जिसने तुम्हे पसंद किया हो ..वो मुस्कराई एक तत्वज्ञानी की तरह .मानो वो इसी बिन्दु का इन्तजार कर रही हो कोई पूछे ओर वो बताये.....लेकिन वो एक विधुर है ...बच्चे स्टेब्लिश है बड़ी बेटी अपोज कर रही है ...ये उसका कहना है ...इन बातों के अब कोई मायने नही वो चाहेगा तो सब कुछ हो सकता है मेरा कहना था ...लंच हो चुका था काफी ओर सेंडविच के साथ बातें आगे बढती रही कुछ था उसके अन्दर जो घुल रहा था वो बताना चाह रही थी मेरी कोई विशेष रूचि नही थी उसे सुनने में इसके पहले भी वो प्यार मर्द बच्चों रिश्तों पर गहराई से बात कर चुकी थी उसका पूरा परिवार यू पी में कहीं था ,मुझे लगा ऐसे ही कामकरते साथ उठते बैठते प्रेम व्रेम के चक्कर में पड़ गई होगी ...उसने जो नाम बताया वो उस महकमे में खासा बदनाम था ...जानती हो ? नही, में तपाक से झूट बोली, नाम जरूर सुना है ...वो दोनों अक्सर दौरे पर साथ होते काम के सिलसिले में कभी यहाँ वहां रुकना मिलना होता रहता था ..ओर भी बहुत सी बातें जो एक शादी-शुदा औरत ही कर सकती थी मुझे समझ नही आया कया कहूं ,वो बहुत तनाव में थी उस दिन ...अपने हाथ में पहनी चूड़ी को दूसरे हाथ से गोल-गोल घुमाती जारही थी ,वो बड़ी सी बिंदी भी लगाती थी ...वो दूसरी अधिकारी महिलाओं से अलग थी ...वो मेरी बैचनी को समझ रही थी मुझे घर लौटने की जल्दी थी ,उसने पहली बार कहा इस रविवार घर आओ तुम्हे अपना बगीचा दिखाना है अपनी कढाई का हुनर ..साथ ही दूसरी रुचियों के बारें में ..बात करेंगे ..उसने ड्रावर से एक छोटी डायरी निकाली उसमें अपना पता नंबर दर्ज कर दिया जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है ...वो मुझे जितना अपना समझ रही थी में नही,वो रविवार बीत गया में उससे मिलने नही जासकी जान बुझकर ...फिर तकरीबन छे माह तक कोई मुलाक़ात नही ..जब में मुंगावली गई ओर लौटी उसके सात दिन बाद मंत्रालय गई ...मुझे अपनी फाइल की प्रोग्रेस मालुम करनी थी ..सविता वहां नही थी ...उसके पी ऐ ने बताया ...शी इज नो मोर ....अपने दौरे के समय वो नींद की गोलियाँ खाकर मर चुकी थी ....जिसके लिए मेंबहुत कुछ कर सकती थी ...नही कर पाई ...मन ही मन उससे माफी मांग ली मैंने ...खिन्न मन से ...बाद में मैंने पता लगाया चौकीदार वो रूम जिसमे में रुकी थी पहले खोलने से इनकार कर चुका था ...कभी ना कभी में उस अधिकारी से जरूर मिलूंगी मेरे अलावा उस धोखे बाज, लम्पट उसके अय्याश प्रेमी को कोई नही जानता मौका मिला तो थप्पड़ भी मारूंगी ये भी जानती हूँ क़ानून कोई सहायता नही कर पायेगा सविता के पक्ष में मेरे पास ना कोई सबूत है,ना दलील लेकिन अब उसके बारें में इससे ज्यादा कुछ लिखना भी नही चाहती ..उस रात सविता की बिंदी ओर चूडियों का वो टुकडा मुझे कुछ बताने के लिए हीनियति का साथ दे कर क्या उस रेस्ट हाउस में ले गये ...आज भी याद करती हूँ तो रीढ़ की हड्डी में सिहरन सी दौड़ जाती है ,में उस रविवार मिल लेती उससे तो वो शायद कोई एसा कदम नही उठाती ..लेकिन मेरा विशवास है जीवन में हुए बहुत से अन्यायों में प्रतिकार के लिए इश्वर को नियुक्त कर देना चाहिए ...सविता को न्याय जरूर मिलेगा ...तब में उसके उस निकृष्ट प्रेमी पर एक पोस्ट जरूर लिखूंगी....
चाँद से मांद सितारों ने कहा आखिर शब् ,कौन करता है वफा अहदे वफा आखिरशब्, ....फैज

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

आवाजें स्थिति सापेक्ष हो मौन हो जाती है,नियति एक नही कई शब्द, कई अर्थ जुडाती है --भावों को ताड़ती है कुछ भारी भरकम सा दिल-दिमाग पर शायद कोई बादल या पत

यूँ कहें कि जब कुछ घट रहा होता है तो वो सच होता है ,लेकिन कितना ..उस घटने के बाद ही पता चलता है चीजें और वक्त अपनी अर्थवत्ता साबित करती हें,और कभी कभी दलीलें कारगर नही होती ...उसने कैसे -कैसे बहाने किए अपने आप से ..तब एक अलग ढंग से पसरे सन्नाटे ने धूल और उमस भरी दोपहरी में उसकी आत्म तल्लीनता को ओर गहरा कर दिया,...बीच- बची उष्मा से तिक्त आवेग आनंद के साथ कौतुहल से लबालब क्षणों में ...फिर कहीं कोई हलचल नही ,फुरसत में ,जिसमें किसी ग़लत या तंग सीवन को उधेड़ना और उसी कवायद में किनारों का कुछ और फटना -छितरा जाना बस ऐसे कि दुबारा जोड़ने कि गुंजाइश ही ना रहे...
दर्ष्टि बाहर नही भीतर देखती है ..वही सब कुछ- वही दुहराव वही द्रश्य ऊपर से ढलान की और जहाँ धूप के साथ बारिश भी मौजूद होती है ..वो द्रश्य-समय थोडा हतप्रभ करता है ,चिडियांये बेखौफ पंख फड फडआती हुई नहाती हैं ,ना जान सको ऐसी खुशी में मौसम में बदलाव की महक महसूस होती है...कपास के कच्चे पीले फूलों से निकली अनन्य स्निग्ध रूई के गोलों को हवाओं में गूंथना और एक गोला बनाकर नील आकाश के माथे पर पोंछ देना ..मानो कोई स्लेट साफ की हो ,उसे तसल्ली मिलती,आकाश की नमी उसकी अँगुलियों को थाम लेती ,पेडों की नुकीली लम्बी टहनियों की बारीक पत्तियों की हरियल प्रतिध्वनियाँ वहां होती रहती...है जिन्हें सुना तो जा सकता था लेकिन रोका नही,सूने- चौडे आकाश में कोई कपाट नही था .कुछ रिस रहा था अन्दर ही अन्दर ...साथ ही भराव के संसाधन भी मौजूद थे वक्त न्युसप्रीन की तरह छिडकाव करता है ..सब कुछ ठीक हो जायेगा, लेकिन कब तक नही मालूम, निश्चित नही ....दुखों की वैतरणी में धक्का देकर गिराने वाला ही किनारे खडा रहकर प्रार्थना करता है ...ऐसा भी होता है ,उसे मुस्कराना चाहिए-या- नही आवाजें भीतर कुछ टटोलती है.उलाहना भी देती है ..हमने तो कहा था ? कब कहा ,तुम इश्वर नही ..यूँ माफ कर देना भी तो आसान नही ...था आवाजें स्थिति सापेक्ष हो मौन हो जाती है,नियति एक नही कई शब्द, कई अर्थ जुडाती है --भावों को ताड़ती है कुछ भारी भरकम सा दिल-दिमाग पर शायद कोई बादल या पत्थर ----उसके बाएँ हाथों में तीव्र असहनीय दर्द क्रेपबेंडेज, पेन किलर ..कोई फायदा नही वेलियम टेन एम् जी के बाद नींद बेअसर -दर्द बेशर्मी के हद से बाहर हो जाता है वो धीरे से कोहनी को मोड़कर आंखों पर रख आहिस्ता से लेटना चाहती है ..कमरे की हलकी रौशनी -भारी भरकम कत्थई परदों की दरारों से शाम के जाते चटक उजाले के साथ मिल जाती है ...अब इस रंग का कुछ नाम नही हो सकता एक ही वृत में उसे बुलाना ,उसे भुलाना,सब कुछ नाकाम हो जाता है .इतनी बैचेनी वो कमरे के भीतर मिश्रित रंग को अलग करना चाहती है..खिड़की से परदों को सरका देती ही ....शीशे में अपना चेहरा देखती है और देखते-देखते आईने वाला चेहरा सजीव चेहरे को सोख लेता है जो चेहरा नही मन की बात जानता है कोई पीठ थपथपा कर आश्वस्त करता है ...सांवली ही तो हो तुम्हारे जैसा मन भी भी किसी को मिलता है ..सच मन ना भये दस बीस ..अब ये सच भी आईने के पास है ..शाम गहराने से पहले आधा घंटा टहल कर लौटना है,वो खूबसूरत धाकाई जामदानी के पल्लू को कमर के गिर्द लपेटती गर्दन तक ले आती है .कंधे से थोडा ऊपर तक दायीं तरफ नन्हा तिल ..पहले तो नही था उसे आश्चर्य होता है ..इसकी उपस्थिति आत्मा की गंध पहचानती है जैसे उस समय पर गेरू पुते स्वास्तिक सी इकछाओं का आलोप हो जाना किसी के बिछुड़ने पर किया जाने वाला सवाल -लेकिन ना कोई सवाल था ना कोई जवाब मिला प्रेम सौन्दर्य और आस्था के चरम के साथ जिए सच को अस्वीकार कर जीना क्या इतना आसान है...फिर भी एक निर्गुणी भाव अनायास पनप उठता है ...उसके लिय मन में एक करूणा उपजती है...कोई दोषी हो तो माफ किया जाय ...निशब्द भीड़ को ठेलते ...पहाड़ से ऊँचे ,दरख्तों से हरे,शाम से गहरे ,आकाश से नीले, धरती से असीम वक्त को चलते हुए देखती हूँ ..सिर्फ उसकी तरफ जाते हुए ..जहाँ आकर्षण -विकर्षण वासना- कामना बे मायने हें
जज्ब कर लिए हें मैंने अपने भीतर,अपने आंसू और मुझे मालूम नही ,मैं तेरा हूँ रेतीले विस्तार में और मुझे मालूम नही ,तुम्हे भुलाने की कोशिश में इन दिनों,में लगभग भूल ही गया हूँ तुमको ,और मुझे मालूम नही ....स्व.हरीन्द्र दवे की ये कविता ...अपनी डायरी से

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

पिता...तुम हो आस-पास हमारे....


पिता...तुम हो हमारे आस-पास
महाबोधि वृक्ष थे तुम
जिसकी छाया में पनपी ये साधारण काया
हमारी हथेलियों की रेखाओं में बसी है ,
तुम्हारी कर्मठ ऊर्जा की गर्माहट,
महकता है तुम्हारा चेहरा अब भी
केया गंध सा हमारे बचपन की सौंधी शरारतों में
मीठी मुस्कराहटों में..अनगिन सच-झूट में
ताउम्र उगते रहे जो सूरज तुम्हारी आंखों में
हमें रौशनी देने की खातिर,रौशनी के उस मुकाम में
हमारी छोटी उपलब्धियों पर चकित होने वाले ,
तुम्हारे वैभव शाली लाड-दुलार में,डांट-फटकार,निषेध आज्ञाओं में ,
सख्ती-नरमी और तुम्हारे निश्चल प्रेम की सौगातों में ,
कठिन लक्ष्यों के प्रति ,धैर्य से साधे गए संधानो की सीख में ,
पिता शब्द की सनातन अनगूंज में,
शिराओं में घुले रक्त के प्रवाह में ,
स्तब्ध सन्नाटे के खिलाफ बन आवाज में
कठिनाई में सचेत हो दौड़ पड़ने वाले आत्मबल में,
हमारी अबोध चाहतों के विस्तार में
बचपन से युवा होते समय के अनंत में ,
तुम्हारे पसंदीदा महकते चम्पा के फूलों में ,
माँ के प्रति सदैव तुम्हारी अछूती ताजगी भरी धडकनों में
हमारे बच्चों और उनकी संतानोकी किलकारियों और पवित्र स्पर्शों में ,
आगत उत्सवों के नाद में,और रक्त से रक्त संबंधों के बनते पर्व में,
अप्रत्याशित बिछोह के दुःख में ,शिव की शक्ति में,
इस ब्रह्मांड-जड़ चेतन में चिरंतन दर्ज तुम्हारी उपस्थितियों में,
तुम्हारे लिए फिर भी बहुत कुछ ना कर पाने के स्वीकार में ,
हमारी अगाध,असीम ,अनंत भावनाओं के अभिमंत्रित अर्ध्य में ,
अंजुरी से बहते जल में ,गति शील कर्तव्यों की सक्रियता में ,
हमारी भूलों और तुम्हारी भोली क्षमा में ,
निशेष सपनो,हँसी आंसुओं,के साथ उस रिश्ते में ,
जो मिटटी ,पानी, आकाश, हवा और आग संग गुंथा है ,
वही तुम्हारे होते रहने की मूर्तता है ..तुम हो आस-पास हमारे .....
पिता की एक उजली छवि अब तक मन में है....जिन्होंने ना कभी डांटा,ना कान उमेठे..बिना कहे हमारी मुश्किलों को समझने वाले.....कहते थे जमीन पर पड़ी कोई चीज कभी नही उठाना...सितारें तोड़ने का होंसला हमेशा दिल में बनाय रखना...

मंगलवार, 31 मार्च 2009

यूँ किसी को हाथ पकड़ कर इस दुनिया के कबाड़ से अलग किसी ऊंचाई पर बैठा देना.....और एक मुकम्मल सच में बासी होते दिन... उससे ना पूछिए...

क्या अपने तर्कों से दूसरो के दुखों की शिनाख्त की जा सकती है नए होने के लिए प्रतिपल मरना जरूरी था .और अपने दुःख को रूक कर देखना भी इसलिए अनिवार्य हो गया ..तर्क के नियमों का अतिक्रमण किए बगैर ,औरकुछ ऐसा जानना -खोजना भीतर से बाहर की तरफ जो उसके सुख का कारण होता अपनी सामर्थ्य पर उसे भरोसा था ,ये एक तर्क ही था अपने आप से....आखी र नए मौसमों की खुमारी भी तो उतरती ,वो खुश थी या नही ये ठीक से जान पाना मुश्किल था ,लम्बी यात्राओं पर जाने और लौटने के बाद ताजगी के साथ शामिल दुखों का नए सिरे से खुल जाना ....सावधान आगे खतरनाक मोड़ है.के हर आधा किलोमीटर की दूरी पर लिखे बोर्ड को पढ़ते-डरते पोर्ट पर पहुँच ही गई ...मौसम की खराबी की वजह से फ्लाईट चार घंटे लेट थी ...मुश्किल यही की पिछली मुश्किलों और स्म्रतियों मैं जाने का मतलब ...आसान नही था बाद मैं लौटना .....कई दिनों तक दुनिया दारी के बीच इंटेंसिव केयर से उबर पाया मन ,तब घर के पेड़ पौधों के पत्तों पर खिली धुप मैं धूल की पर्त थी बोनसाई की जड़ें हद से बाहर जारही थी ,छंटाई की जरूरत थी ,नए सिरे से घर की सफाई की भी, -किताबों को करीने से रखना विषय नुसार रखना, टेग लगाना,चलता रहा फिश टैंक में मछलियां लगातार मर रही थी हर दिन एक मरी मछली को किसी पेड़ की जड़ में रखना और उनकी चमकीली देह को चींटियों को खाते हुए देखना बर्दाश्त के बाहर हो चला था ,एक पसंदीदा ब्लेक फिश बची थी ...जल्द ही और रंगीन मछलियाँ खरीदना तय था ,वार्ड रौब मैं सब कुछ उलट-पुलट था काटन -सिल्क साडियां बेतरतीब तरीके से मिक्स हो चुकी थी उन्हें छांटना ड्राई क्लीन को देना -किचिन मैं इकठ्ठा हुए डिब्बे बोतलें, जार, रद्दी को फेकना ,परदों को बदलना सब कुछ चलता रहा ....उसके बाद कुछ दिन सूकून रहा ग्रीन टी वाली खुशबु ...से दिल दिमाग तरोताजा रहा ,लेकिन एक स्थाई अंतरा मन में खुश मिजाज होने का ढोंग रचता रहा ....ये भी जल्दी ही समझ आ गया, सर्दियों के दिनों में ढेरों मौलश्री के फूल बटोरना फिर उन्हें हथेलियों में भर जोरों से साँस लेना ...छोटे और तेज खुशबू वाले मौलश्री एक अज्ञात खुशी में भीग जाने वाले अहसास को लिए होते थे,एक नर्म आहट ,चाशनी जल में भीगती आवाजें ..तो क्या सब कुछ झूट था वो मैत्री वात्सल्य ,वो यूँ किसीका हाथ पकड़ कर इस दुनिया के कबाड़ से अलग -थलग किसी ऊंचाई पर बैठा देना ...कुछ गुमने-पाने का अहसास स्थिर हो जाए ....ऊंचाई से उसका डर ही शायद उसे किसी गहरी खाई मैं फ़ेंक गया, शिलोंग की सबसे ऊँची पहाडी से नीचे अतल में अपने को देखना जिन्दगी खुश है आग से भरी नदी को पार कर लेना बिना झुलसे ...और फिर ठेल दिया जाना की देखें फिर झुलसती हो या नही वो आँखे बंद कर लेती है ...होल्ड मी टाईट...उसी गर्माहट में ..देखते -देखते चटख -पलाश खिलने का मौसम आपहुंचा .धीरे-धीरे पलाश भी मुरझा गए --रंग उड़ गया उनका तेज धूप में, पेड़ों के नीचेबिखर कर, मौसम की क्रूरता बे आवाज़ ...एक्सक्लूसिव होकर रह गई.....उसने एक लय ईजाद कर कर ली थी इस बीच ,एक चक्कर घिन्नी में इक्च्छा,इर्द-गिर्द सपनों के, जिनका कोई सिरा नही था ,और सारी गड्ड-मड्ड यहीं से शुरू होती थी ,अपने को लानत भेजने के अलावा कोई चारा नही बचता ..एक मुकम्मल सच में बासी होते दिन, फिर भी उन दिनों की ताजगी में लौटना -मायूस होना जरूरी हो जाता उससे शिकायत थी, लंबे अरसे से ख़त ना लिखने की -यूँ ख़त तो उसने कभी लिखा भी नही जो कहा वो ही बस ख़त की शक्ल में अमिट-अक्षय था ..सीने में, करिश्मे के इन्तजार में उम्र का बीतना इलियट की कोफी के चमच्चों के साथ वो सोचती रह गई जो झूट था.. सामने था, सच था तिलस्मी ...घर दूर बहुत पीछे छूट गया ,बातें टल गई,ख़त्म नही हुई ...उसकी हथेलियों में सौ प्रतिशत सन्यासी हो जाने के चांस थे...जब पूछा तो यही कहा सच कोई हाथ-वाथ देखना नही आता ,अंक ज्योतिष पर तो भरोसा है लेकिन लकीरों का फरेब....एक हँसी ...आंखों मैं मुक्ति की पीडा के साथ छटपटाहट ,रुलाई ना फूटे और रोना आए तो... साथ चलते ना कोई काँटा गडा ना तो..कोई तिनका आँख तले अडा..ना कोई चोट लगी ना ठोकर ..हर चीज को शब्द दे देने में माहिर जल में घुलते हुए शब्द ...डूबते हुए ,उससे ना पूछिये अपने साहिल की दूरियां ....बुद्ध के शब्द... एक साँस ,एक शब्द ,एक वाक्य ,के बाद हम वो नही हो सकते जो उसके पहले थे,हर क्षण अलग....कोई हाथ हिला कर बिदा देता है...खीचकर माथा चूम लेता है आंखों की नमी माथे पर देर तक ठंडक देती ,असुआई आंखों से पीछे, सब कुछ धुंधला जाता है ..उसकी फलाईट का नंबर अनाउंस होता है... ।
कैसे-कैसे मरहले सर तेरी खातिर से किए ,कैसे-कैसे लोग तेरे नाम पर अच्छे लगे...शैदा रोमानी .चित्र एलिफेंट फाल्स ..शिलोंग,

शनिवार, 21 मार्च 2009

मणिपुर-इम्फाल मैं मानव अधिकारों के हनन का सिलसिला कई सालों से लगातार,कई संगठनों ने आवाज़ बुलंद की है


होली के दुसरे दिन इम्फाल -मणिपुर -मेघालय से लौटना करीब १० दिनी यात्रा के बाद....इ मेल बॉक्स मैं ढेरों होली की शभ कामनाएं ,शुभकामनाएं स्वीकार करने और देने का कोई ओचित्य नजर नही आता ,यकीं माने रंग और खुशियाँ बेमानी लगतेंहैं जब हमारे ही देश के किसी दूसरे राज्य मैं हर दिन दो पॉँच लोग खून के रंग से रंग दिए जातें हैं तो रंगों का ये त्यौहार एक अपराध बोध की तरह दिल-दिमाग को परेशान और दुखी करता है .मणिपुर के बीते और वर्तमान हाल को हर आदमी को उतने ही गहरे से सुनने ,समझने और चिंतन करने की जरूरत है जितना की वो अपनी व्यक्तिगत मुश्किलों से निजात पाने की कोशिश करता है ....हम अपने आप से सवाल करें ...क्या हमें अपने राज्य मैं अपने ढंग से शान्ति पूर्वक जीने -रहने का हक है या नही? क्या समान कानून का प्रावधान हमारे लिए है या नही ,साथही क्या हमारा सविधान हमें जीने का मौलिक अधिकार देता है या नही ---ये सवाल इस लिए भी की बेहद खूबसूरत घाटियों -वादियों से घिरा फूलों से खिला हुआ ,सुंदर और कर्मठ लोगों की आबादी वाला मणिपुर -जहाँ की संस्कृति ,परम्परा वेशभूषा- खान पान हमें लुभाता है,क्या वहां के लोग ,हम आप कीतरह सामान्य जीवन जी पा रहें हैं ,उनके मानवीय और मौलिक अधिकारों का हनन क्यों और किस बिना पर क्या जा रहा है,इस संदर्भ मैं सरकार के अपने तर्क होंगे/हो सकतें हैं,मणिपुर की जनसंख्या इस वक्त लगभग २३ लाख है ,जब हम आप अपने राज्य मैं चैन की नींद स्वतंत्रता पूर्वक सोते हैं ,तभी मणिपुर की घाटियों मैं कोई ना कोई निर्दोष मार दिया जाता है ...दर असल कई सालों से यहाँ हिंसा क्रूरता भ्रष्टाचार और बलात्कार का जो तांडव चल रहा है,उसके लिए [ऐ ऍफ़ एस पी ऐ ]आर्म्स फोर्स स्पेशल पावर एक्ट -१९५८ को जिमेदार ठहराया गया है.और इस एक्ट के विरोध मैं यहाँ के स्थानीय पीड़ित व्यक्ति -संगठनों,ने अब एक जुटहोकर रिअपिल की मांग की है चूँकि [ऐ एफएस पी ऐ ]कश्मीर और नॉर्थ-ईस्ट के अनेक राज्यों मैं कई सालों से लागू है, ये एक्ट इंडियन मिलेट्री और पैरा मिलेट्री फोर्सेस को ये अधिकार और शक्ति प्रदान करता है की ,जिसके तहत वो किसी को भी शूट करसकता है या गिरफ्तार या बिना वारंट के सर्च या किसी भी ढांचे को ख़तम कर सकता है या शक के बिना पर मारने का उसे अधिकार है ..जोकि आपराधिक श्रेणी मैं नही आता ...जब ऐ ऍफ़ एसपी ऐ के लिए रिअपील के समर्थन मैं अधिका धिक् मांग उठने लगी तबभारत सरकार ने एक कमेटी का गठन इस पुनर्विचार हेतु किया, जिसमे कमेटी के प्रमुख के रूप मैं रिटायर्ड सुप्रीम कौर्ट के जज और फार्मर चेयर ऑफ़ दा ला कमीशन जीवन रेड्डी को परिक्षण हेतु निउक्त किया इसी के चलते २००५ मैं जो रिपोर्ट पेश की गई ...उसमे आर्म्स फोर्स और अलग-अलग लोगों के नजरिये को युक्ति-युक्त तरीके से समझना था ...जो आधिकारिक रूप से तो पेश नही की जा सकी लेकिन नेशनल डेली हिंदू के जरिये सामने जरूर आई ..रिपोर्ट ने ऐ ऍफ़ एस पी ऐ के सन्दर्भ में रिअपील का समर्थन किया ..जो की अमल मैं नही लाइ जा सकी , फल स्वरुप मणिपुर और घाटियों में साथ आस-पास के जन जीवन मैं मानव अधिकारों का हनन तेजी से और भी बढ़ता गया ,,जिसमें शक के आधार पर निर्दोषों के मार डालने , औरतों के साथ बद सलूकी और बलात्कार जैसी अमानवीय घटनाएं शामिल होती रही,मणिपुर नॉर्थ ईस्ट मैं भारतकी सीमा मायंमार से जुदा है यहाँ की साम्राज्य का इतिहास परम्परा और समृद्ध है ,१९४९ से १९५० मैं मणिपुर मैं प्रथक नागा संगठन का विद्रोह सामने आया और साथ ही कई मिलते जुलते संगठन मणिपुर मैं बने ,क्योकि तब उनके राज्य को इंडियन यूनियन से जोड़ा गया ..ऐ ऍफ़ एस पी ऐ के लागू होते ही वहां की औरतों की जिन्दगी पर बुरा असर पड़ने लगा अपनी शक्ति और विशेष ताकत के बल पर उन्हें उत्पीडित करना, मार डालना जैसी घटनाएं रोजमर्रा की जिन्दगी मैं आम हो गई है ..मणिपुर मात्रसत्तात्मक समाज की अगुआई करता है अपने आर्थिक जीवन यापन के लिए अधिकाँश औरतें जंगलों में कठिन परिस्थितियों में इंधन-पानीके लिए घूमते ..घाटियों में ऐ ऍफ़ एस पी ऐ के हाथों हिंसा का शिकार हो जाती हैं ,हाल ही मैं जन - फर मैं ९० लोगों को मार डाला गया ...और ये अमानवीय व्यवहार घाटी में आज भी बदस्तूर जारी है ...जो बेहद शर्मनाक भी है ,एक अनुमान के अनुसार इन्ही कारणों के चलते यहाँ यु जी स अंडर ग्राउंड ग्रुप्स] का दबदबा बढ़ता ही जा रहा है ,एक अनुमान के अनुसार घाटी मैं फिलवक्त ३० युइ जी स सक्रीय हैं और ५५हजार सिकुरिटीफोर्स ढाई करोर जनसंख्या के ऊपर है मणिपुर के लोगों के लिए यह एक चुनौती है जिसमे पहाडियों पर रहने वाला जनसमुदाय का एक बहुत बढ़ा हिस्सा फँस गया है ...इसी कारण मानवीय अधिकारों के लिए जागरूक और सक्रीय संगठन बढ़ते ही जा रहे हैं,इस वक्त वहां महिलाओं के पक्ष में पारम्परिक और जमीनी नेट वर्क है मायरापेबी...इस संगठन में माइतीऔरतें हैं जो गावों -शहरों और मणिपुर की घाटियों में कार्यरत हैं ये लोग शाराब -ड्रग्स और हर तरह के अन्याय के खिलाफ रैली यां निकाल्तें हैं और अपने तरीकें से लड़तें हैं ,इनके साथ ही नागा वूमेन यूनियन मणिपुर[एन डब्लू यु एम् ]एक एसा संगठन है जो वहां की १६ जनजातियों को मिला कर बनाया गया ये पहाडी जिलों मैं अथक-और सतत काम कर रहा है इनका विरोध भी ऐ ऍफ़ एस पी ऐ के खिलाफ है
इस पूरी कहानी मणिपुर की स्त्रियों का एक पक्ष यह भी है की वह किस तरह लाम बध्द होकर अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है,बतौर उदाहरण ...एक युवा लड़की थंगजम मनोरम को ११जुलै २००४ को उसके घर से रात के वक्त उठा लिया गया बाद मैं बलात्कार एवं प्रताड़ना के बाद आसाम राइफल्स द्वारा मार दिया गया,परिणाम स्वरूप मायरापेबी की १२ औरतों -युवा इमा [माताओं]ने आसाम राइफल्स हेड क्वाटर्स -इम्फाल के एतिहासिक कांगला फौर्ट पर नग्न परेडनिकाली उनके हाथों पर बैनर्स पर लिखा था ..इंडियन आर्मी रेप अस ...ये एतिहासिक कदम शायद दुनिया मैं पहला एसा कदम था जिस के लिए एक होंसले के साथ ही अपनी बिरादरी के लिए कुछ करने का जज्बा उन औरतों मैं था, और आज भी है उस वक्त जो संगठन वहां अपने हक के लिए लड़ रहे थे वो भी सकते मैं आगये...तब से अबतक वालीवाल मेच के दौरान १४ मार्च १९८४ को सी आर पी ऍफ़ की फायरिंग से १४ लोगों की मौत ,१० जुलाई १९८७ को ओपरेशन ब्लू बर्ड के समय,१४ सिविलियंस को मारना,२५ मार्च १९९३ को तेरा बाजार कैल्थल -इम्फाल मैं ७ लोगों की ह्त्या, ७जुलाइ १९९५ मैं इंफालमेडिकल कालेज मैं ९ स्टूडेंट्स का खून करना,२ नवम्बर २००० को मालोम मैं १० लोगों के साथ एक बूढे आदमी की हत्या, -[जहाँ से शर्मिला नामक ३८ वर्षीय युवती ने हंगर स्ट्राइक शुरू की ,इसकी कहानी अगली पोस्ट मैं ]उपरोक्त विवरण के अनुसार थांग-जम मनोरम की कस्टोडियल मौत....जिसके परिणाम मैं कांगला फौर्ट पर नग्न प्रदर्शन ]ये उदाहरण एक इसे सच से रूबरू करातें हैं की सोचने पर मजबूर होना पड़ता है की क्या हम आजाद हिन्दुस्तान मैं रह रहें है,या बर्बर युग मैं...देश भर की महिला पत्रकारों का एक बड़ा दल देश के भिन्न भागों से ,मार्च के पहले हफ्ते मणिपुर मैं मौजूद था ...और भी कई कारक तत्व इस वक्त इंफाल मैं काम कर रहें की वहां के लोग सामान्य जीवन भी नही जी पा रहें हैं ...मणिपुर के लोगों के मुश्किल हालातों और जन जीवन मैं आए इस बिखराव-तनाव ..के कारण सबसे अधिक मुश्किलों का सामना महिलाओं को करना पड़ रहा है ,लेकिन हालत मैं बदलाव आयेगा जरूर ...सरकार को समझना होगा,सुनना होगा, और तुंरत उचित कारर्वाई भी करनी होगी,...मणिपुर की हमारी साथी पत्रकार अंजुलिका थिन्गम जिसके भाई को ३माह पूर्व आसाम राइफल्स वालों ने गोली मार कर हत्या कर दी थी ,ने जब मुझे एयर पोर्ट छोड़ते वक्त कहादेश मैं कहीं भी कोई छोटी सी घटना होती ही छोटे-बड़े अखबारों मैं छपता है ...यहाँ जीवन कीडे-मकोडों के समान है हर दिन लोग मारे जा रहें है औरतें विधवा जीवन जी रही हैं ...उनके घर बर्बाद होगये हैं ...कहीं कोई हलचल नही होती,ये अन्याय नही है क्या?मेरा संदेश हिन्दी पाठको तक पहुंचे ..हमारे दुःख को वो भी समझेगे मुझे यकीन है पिछले कई दिनों से ये पोस्ट चित्रों के कारण पोस्ट नही हो पाई है...फोटो अपलोड होने मैं मुश्किल आरही है इसलिए फिलहाल सिर्फ रिपोर्ट...अगली पोस्ट मैं दूसरे चित्र भी ...होंगे.आमीन,

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

पतझर मैं बारिश- हालाँकि मौसम के टूटकर गिरते पत्तों में पुरानी उदासियाँ जज्ब है... प्रेम करते हुए चुप रहने की तरह...


कोई भीड़ मैं आसानी से कैसे गुम हो सकता है ,वो भी तब-जब प्रेम एक जरूरी ताक़त की तरह मौजूदा चीजों को नए सिरे से देख रहा हो चाहे ये रह रहकर खो जाना या मिलना कितना ही मुश्किल या आसन हो और,साथ ही अच्छी पुरानी से शुरुआत करना ,ये वक्त खुश होने के निर्णय लिए जाने की ही तरह था... अपनी नाव तूफान से बचा कर ले आने की मानिंद,और निराशा- उदासियों की तह लगा कर गठरी बनाकर सिरहाने रख दिए जाने की कठिन मेहनत...फिर भी रात गहराते जाने के साथ गठाने खुलती जाती है ,जाने कितने वसंत-पतझर झरते ही जाते है, एकाध सूखे पत्ते का नुकीला रेशा-तिनका आंखों मैं कुडमुडाता है ---तुम रो रही हो ,नही तो ,रोया तो अकेले मैं जाता है --वो गीला पन सूखे-पीले और कुछ-कुछ लाल ताम्बई रंग में पड़ गए पत्तों की खडखडाहट के साथ अनन्त मैं उड़ता ही जाता है, कोई कितना और कहाँ तक समेटे,-कोई पता -घर-ठिकाना तो मिले---रास्ते भी तो निरापद हो जातें हैं अक्सर जिन पर चलते-चलते सुनाई देते शब्द -दिल के जाने किस हिस्से में दब जातें हैं -दरारें भरने लगती हैं ,लेकिन एक बारिश होते ही उनसे फिर नई कोंपलें उमीदों से झाँकने लगती हैं ...वो मोड़ आज भी हर शाम मिल ही जाता है ,जब ऐसे ही किसी मौसम में उसके शहर में बारिश हुई थी मोबाइल पर गुनगुनी आवाज़ लहराई...जानती हो आज मेरे शहर में बारिश हुई,अभी भी हो रही है बारिश में भीगी खुशी...बारिश और खुशी दोनों उसकी आवाज़ में किस्से की तरह थी,उसके बाद सांवली मिटटी की सौंधी खुशबू सा ही घुलने-मिलने वाला असीम, कभी ना ख़त्म होने वाला आकाश था---एक वक्त होता है जब अपने में बदलाव की सारी गुंजाइशें ख़त्म हो जाती है चेहरे पर एक अचाही बेचारगी और एक लंबा फासला साफ दिखाई पड़ जाता है ,कभी उसी चेहरे पर नीला बादल शिद्दत से उतर आता था,साधारण और विशिष्ट को मजबूती से थाम लेने वाली आँखें ---दिमाग के दायरे से एक लम्बी सुरंग गुजरती है,अन्धेरें में इत्मीनान से पडा इन्तजार रौशनी की पतली लकीर सा झांकता है ।यूँ तो सारी चीजें अपनी जगह ठिकाने पर रहती थी॥फिर भी जाने कैसे ठोकर लगी और जरूरी चीजें बेठिकाने होकर रह गई जो कुछ बीच राह मिला --बीच राह इधर-उधर हो गया आई .एस आई मार्का रिश्ते भी प्रमाणित होने की सूचि की प्रतीक्षा में दर्ज हो कर रह गए ...अपने ही निंदक और प्रशंसक होते-होते एक असंगत समय की और लौटा ले चलने की कोशिश कभी सफल तो कभी असफल हो जाती है ,दिकत्त यही नही -उसके ना होने पर भी होने की है और जाने क्या हुआ ,कितने बादल गरजे ,कितनी बिजली चमकी ,कितनी बे मौसमी बारिश हुई ,नाजाने कितने नदी -ताल भर गएँ होंगे उस साल नही पता ,सारे सूखे पत्ते गीले होकर ,सिमट कर ,टूटकर ,तार-तार बह गए ...क्या ये याद दिलाना होगा अब ,अपने आप को कभी -कभी सहूलियत भी देना होता है ,जो आसान नहीहोता चीजों के प्रति आस्थाओं को पैना करना,मन ही मन तकलीफों और उमीदों को जहाँ जैसा हो वहीँ छोड़ना -पकड़ना... ये वसंत भी फीका ही गुजरेगा मान लेती हूँ ,कुछ सूखे पत्ते जिन्दगी में दर्ज हो-हर्ज ही क्या है ...जिन्दगी चाहे जितनी हरी हो,हालांकि मौसम के टूटकर गिरते पत्तों में पुरानी उदासियाँ जज्ब है प्रेम करते हुए चुप रहने की तरह जो हर शाम जरूरत -बेजरूरत गमकती ख़स की खुशबु के साथ तनी चली आती है,एक नीली उदासी सिरहाने फिर भी बची रहती है, उसकी गठान नही खुलती शायद किसी और जनम में खुले..मियाँ मल्लहार में निबद्ध बेगम अख्तर की पुरअसर आवाज़ मन ही मन सीमेंट गारे रेत की ईंट दर ईंट जमाती है ....छत से दिखलाई पड़ते पार्क में खडा सिंदूरी फूलों से टंका अलग -थलग नुकीला सेमल का पेड़ -पेड़ के तने पर नाखूनों से लिखा जाने किसका नाम ...सपर्श की बुनावट में हरा ही रहता है,क्रिकेट खेलते बच्चों की गेंद उपरी शाखाओं से टकरा कर नीचे आती है पेड़ की इक्का -दुक्का बची-खुची पत्तियां झडती हुई जमीन पर बिछती जाती है ,शायद अब- अभी इन पर कोई आहट हो उसके आने की .....
जो नही है उसके इन्तजार की तरह /जो नही/होगा उसकी /उमीदों की तरह........मंगलेश डबराल

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

मर्दों की इस तानाशाह दुनिया मैं,


मर्दों की इस तानाशाह दुनिया मैं
मर्दों की इस तानाशाह दुनिया मैं,
दरवाजे खोलो और
दूर तक देखो खुली हवा मैं ,औरतें
जहाँ भी हैं ,जैसी भी हैं
पुरी शिद्दत के साथ मौजूद हैं
-वे हमारे बीच अन्धेरें मैं रौशनी की तरह हैं
औरतें हंसती हैं खिलखिलाती हैं
खुशियाँ बरसाती .....छोटे-छोटे उत्सव बन जाती हैं औरतें
औरतें रोती हैं सिसक-सिसक कर जब कभी,
अज्ञात दारुण दुःख मैं भीग जाती है ये धरती,
औरतें हमारा सुख है-औरतें हमारा दुःख हैं
हमारे दुःख-सुख की गहरी अनुभूति हैं
ये औरतें,जड़ से फल तक,
-डाल से छाल तक
वृक्षों -सी परमार्थ मैं लगी हैं -ये औरतें,
युगों से कूटी,पीसी,छीली-सूखी और सहेजी जा रही हैं
असाध्य रोगों की दवाओं की तरह
सौ-सौ खटरागों मैं खटती हुई,
रसोईघरों की हदों मैं
औरतें गम गमाती हैं मीट-मसलों -की तरह
सिलबत्तों पर खुशी-खुशी पोदीना प्याज सी
पिस जाती है औरतें
चूल्हे पर रोटी होती है औरतें
यह क्या कम बड़ी बात है
लाखों-करोड़ों की भूख-प्यास हैं औरतें
प्रथ्वी सी बिछी हैं औरतें
आकाश सी तनी हैं औरतें,
जरूरी चिठियों की तरह रोज पढ़ी जाती हैं औरतें,
तार मैं पिरो दी जाती हैं आज भी औरतें,
वक्त जरूरत इस तरह,बहुत काम आती हैं औरतें,
शोर होता हैं जब
औरतें चुपचाप सहती हैं ताप को
औरतें चिल्लातीं हैं जब कभी
बहुत कुछ कहती हैं आपको,
औरतों को समझने के लिए ताना शाहों
पहले दरवाजें खोलों
और दूर तक देखो खुली हवा मैं,
.अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर ....थोडा देर से ...किंतु शुभकामनाओं के साथ...भाई अजामिल की कविता ...जो बानगी की सरलता के कारण मेरी पसंदीदा है ....इम्फाल- शिलोंग से लौटकर....

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

वसंत के इन दिनों मैं,


वसंत के इन दिनों में

कभी तो मिलो ,कहीं तो मिलो /कुछ बातें हों गिले शिकवें दूर हों /तुम्हे भी तो पता लगे /कितना अच्छा होता है /कभी-कभी पुल पार करना.....

अपनी डायरी से ----कवि अनाम

रविवार, 25 जनवरी 2009

गुमी हुई चीजें मिल जाती हैं, कभी नही ,और कभी अप्रत्याशित खुशियों की तरह सामने आ जाती है..



अक्सर ही हम अपनी जिन्दगी मैं चीजें खो देतें हैं ,.कभी लापरवाही से और कभी भाग्य से वो हमारी हो करभी.... नही होती,कभी चोरी तो कभी नष्ट हो जाती है लेकिन हम उन्हें वहीँ तलाश नही करते जहाँ मिलने की उम्मीद होती है ,वरन एक सीमा तक हमारा मन चीजों की तलाश उन ठिकानो पर भी करता रहता है ,जहाँ से लौटने की उनकी कोई गुंजाइश नही होती... फिर भी चीजें कभी लौटती है और कभी स्मर्तियाँ ...और कभी ता उम्र नही ,पिंजरे से उड़ गए पाखी की तरह...गये हुए माता-पिता,भाई-बहन या किसी प्रिय की मानिंद.चाहे जितनी सतर्कताएँ हम बरतें निष्कपट सत्य यही है एक अजब संत्रास मैं कभी लिखकर,गा कर ,सुनकर,अन्य की कविता मैं खोजकर,कभी अपने ही आंसुओं मैं भीग कर ,तो भी....और हम वहीँ बाजी हार जातें हैं जहाँ हमारा सब कुछ दावं पर ,लगा होता है चीजें....भ्रामक सिद्ध होजाती है ..एक अचाहा नर्कभोगने की मजबूरी होती है ..खोई चीजों को चाहे ,पूरीनिष्ठा ,पूरीइमानदारी,,पूरे,विश्वाश के साथआव्हान किया गया हो तोभी क्या कोई लौटेगा ...कुछ वाकये हमारी जिन्दगी से ताल मेल बैठा लेतें हैं उनकी नियति बस हमारी ही होती है...बेटी के ६-७ वर्ष की उमर होने तक करीब ६०७० पुस्तकें इकठा हो गई थी जो उसे उपहार मैं मिलती रही थी...बचपन से ही किताबें पढने का उसे शौक भी था,सीलन से बचानेकी खातिर मैंने उन्हें एक दिन छत पर धूप मैं फैला दिया शाम उन्हें समेटने के वक्त देखा तो वो चोरी हो गई थी ...शायद कोई रद्दी -बेचने खरीदने वाला उन्हें ले गया था ,बेटी का रो,रो कर बुरा हाल हो गया,मैंने भरसक उन जगहों पर उन्हें तलाशा जहाँ वो मिल सकती थी ..कोई सुराग नही ,किताबें गुमने का दुःख एक सदमे की तरह था ..और उबरना मुश्किल ,जिन किताबों के नाम हमें याद थे और जो-जो मिल पाई हमने खरीद ली कुछ यहाँ वहाँ से इकठा की लेकिन बेटी संतुस्ट नही हुईउसकी अपनी किताबों से कुछ अलग तरह की आत्मीयता थी ..समय बीता और इस बात को तेरह साल हो गए,....अभी हाल ही मैं भोपाल पुस्तक मेला लगा था बेटी की जिद्द थी कुछ किताबें खरीदी जाएँ, उसके अपनी बचत के दो हजार रुपयों से ...हालांकि किताबों को देख कर जो एक लालच हावी हो जाता है दिल-दिमाग पर उस पर भी काबू पाना था ..सोचा शुरुआत पुरानी किताबों की किसी स्टाल से की,जाए ...एक जगह बेटी अपनी पसंद की किताबें उलट-पुलट कर उनके इंट्रो दक्शन पढ़कर और उनकी कीमत देख कर सलेक्ट कर थी ..अचानक एक पुस्तक पर मेरी नजर पढ़ गई मैंने कहा ये तो तुम बचपन मैं पढ़ चुकी हो,तुम्हारे पास थी यकायक हम दोनों के दिमाग मैं गुमी हुई किताबों के ढेर का ख्याल तेजी से एक साथ कौंधा किताब का नाम था ,स्वीट वैली ट्विन्स ..उसने किताब का फ्रंट पेज खोला,बचपन की स्म्रतियों के साथ ..इनर पेज पर नजर पढ़ते ही वो चीख पड़ीj यह किताब मेरी ही है,उसकी आँखेंअचरज और खुशी से फैल गई थी ये उसी की लिखावट थी जिस पर

पेंसिल से टेढे -मेढ़े तरिके से हैवन लिखा हुआ था यकीनन ये उसी की हेंड लिखावट थी .जिसमे लिखे स्वर्ग शब्द के लिए उसे बचपन मैं एक झापड़ पडा था ,क्योंकि उसे बताया गया था की किताबें स्वर्ग का रास्ता होती है ,,,उसे गंदा नही करना चाहिए,उसने किताब को सीने मैं भींच लिया क्या यह कोई इंसिडेंट था? क्या चीजें लौटती हैं? सालों बाद भी?कभी शक्ल बदल कर लेकिन लौटतीहै , मुझे तो कम स कम यही अनुभव हुआ है ,अभी इसी मकर संक्रांत पर माँ की दी हुई साड़ी पहनने का मन हुआ ..तह खोली तो २१०० रूपये फर्श पर गिर पड़े उन्होंने साड़ी के साथ दिए थे रख कर भूल गई थी ..समझ नही आया रो पडूं या आंसू जब्त कर लूँ माँ के बिना बेरौनक और फीके पड़ते जाते त्यौहार ...लगा माँ लौट आई है, उन्हें मैंने खोते हुए देखा ,म्रत्यु के १० घंटे पहले तक ..तीन साल पहले ..विष्णु सहस्त्र नाम ,महा म्रत्युन्जय का पाठ,गणपति अथर्व शीर्ष का पाठ सतत सुनते चली गई ..कहा करती थी वो...सूर्य मन्त्र का पाठ प्रति दिन किया करो ..किसी दिन सूरज नही निकले तो क्या करोगे ?.मोगरे के फूलों की खुशबू मे,उनकी सुगंध,किसी पुस्तक की पंक्तियों में उनकी जीवन द्रष्टि का साम्य जिन्दगी की जीत-हार में आशीर्वाद और आश्वाशन की तरह वो अक्सर दिखाई देती है बस मुश्किलों से यूही पार पा जाती हूँ जब जब आस-पास बनावटीपन में सधी हुई बेईमानियाँ और षड्यंत्री चुप्पियाँ पाती हूँ तब -तब...मीठी घाटी में बेटी की खोई किताब कीतरह.....

माँ मिल ही जाती है अप्रत्याशित खुशियों कीतरह...

बुधवार, 21 जनवरी 2009

शब्द- अर्थों मैं बदले ,या अर्थों के पहाड़ बने,

शब्द अर्थों में बदले या अर्थों के पहाड़ बने ,
फर्क नही पड़ता,
कभी - कभी शब्दों अर्थों की बात,
फिजूल लगती है
शिखर पर नही जाना मुझे....
आओ ढूँढ निकालें महा समुद्र,
सीपियों,शंखों सुनहरी मछलियों,मोतियों वाला...
(उस दिन कितने पत्ते झड़े थे, जब जाते हुए देखा था -तुम्हे मैंने मोड़ से मुड़ते हुए ...
अपनी ही कविता का एक अंश)

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

कुछ ईमानदारियां दिलों मैं सुरक्षित रहती है,वक्त-जरूरत दुनिया के नियम कायदों से अलग भी निभाना होता है



उसके हाथों से तेजी से साबुन, पीठ से होते हुए फिसला और नाजाने किस कोने मैं चला गया ,टब में गरम पानी की वजह से पूरे बाथरूम मैं भाप थी उसने सर उठा कर तौलिये के साथ लिपटा अपना चेहरा आईने मैं देखा -चेहरा नदारत था,आइना भाप से ढँक चुका था और शकल दिखाने से भी इनकार करचुका था अब वो क्या करे?उसने एक अंगुली से पूरेआईने में आडी-तिरछी लकीरें खीँच दी ,वैसे ही जैसे कोई छोटा बच्चा कोरे कागज़ या स्लेट पर अनगढ़ हाथोंसे पेन-पेंसिल चलाता है,लकीरों से बची असंतुलित जगह मैं उसको अब अपना चेहरा विभक्त नजर आया ,क्या वो हमेशा से ऐसा ही था ये प्रशन अपने आप से था जवाब भी ठीक-ठाक नही मिला शायद हाँ -शायद ना,ये थोडा डिप्लोमेटिक लगा उसे -मन उसे खुश करना चाहता था,उसने अपनी मुग्धा आँखे सिर्फ अपने पर टिका दी उसकी आँखे सुंदर है सच --विचारों के एक नही कई सैलाब गरम पानी मैं बह गए जब दिन की शुरुआत ऐसे हादसों से होतो उसे घबराहट होती है ,जहाँ साबुन फिसल जाए,दूध उफन जाए,मोबाइल बेडरूम मैं रह जाए,आप जबतक उठाएं बंद होजाए ,ऊपर से वो नम्बर आपकी कोंटेक्ट लिस्ट मैं ही ना हो ,काम ख़त्म किए बगैर बिजली कटौती का काम शुरू हो जाए ,बेमौसमी बारिश हो,प्याज के आंसू अंगुली काटने का सबब बन जाए ,कहीं पहुँचने की जल्दी मैं कार के दरवाजे मैं हाथ दब जाए,चप्पलों के कारण साड़ी फाल अटक कर उधड जाए और किसी सुबह अपनी बोनसाई मैं शिद्दत से खिला कोई फल-फूल टूट कर मुरझाया पडा मिले ----तो भी वक्त तो सरकता है आगे,आप चाहे रुके रहें ...वो उसे समझाना चाहती थी कि हमारे पास पहलेसे ही बहुत से भय थे उनसे मुक्त होकर ही तो जीने कि कामना थी-साथ- झूट से भरी इस दुनिया में सच..की दरकार कि तरह-उसकी मारक उत्तेजना ,उसकी भी आँखे,और त्वचा पवित्र और पार दर्शी थी कोई शर्तनही थी उनके साथ होने की ...लेकिन उसकी शुमारी- बेशुमार रही उसकी भटकनों में ..फिर कुछ ईमानदारियां दिलों में सुरक्षित रहती हैं जिन्हें वक्त जरूरत दुनिया के नियम कायदों से अलग भी निभाना होता है,बाद में वो यही मनाती रही ..काश वो झूट होता तो जिन्दगी आसान हो जाती ,लेकिन वो सच था सब कुछ ...उसे अपने इश्वर को मनाना पड़ता अन्दर की गठान को ढील देना होता चीजों को थोडा विस्तार भी,शायद ये या वो ,और कोई क्रूरता आत्मा को आहात भी नही करती रात अध् बीचकोई ना जाने कितने सिल सीने पर रखे बादलों की तरह गहरा गई आवाज में कह बैठे भुला दो सब कुछ..आधी रात तो सितारे भी नही टूटते -गर टूटे तो झोली या आंखों में समेट लेना पड़ता है और एक खुश फहमी के साथउदास, खुशबुएँ अपनी आखरी हांफती साँसों के साथ एक सून -सान कों मुक्कमिल बनाने दौड़ लगाती है और अपने लिए जगह बनाकर ही साँस लेती है,ना भूलने वाली बांसुरी की तान सर उठाती है, आवर ग्लास मैं कैद रेत समय की गिरफ्त मैं आजाती है जिसे मन मुताबिक उलटा-पुल्टा कर इन्तजार किया जा सके -अँधेरा घना था उन दिनों भी ''प्लीज फॉर गोड सेक, खुश करने की मन की पहल कारगार होती है ,उसे तेज भूख लग आती है ..फ्रिज खोला मनपसंद कुछ दिखाई नही दिया सिवाय एक डिब्बे के जिसमें गाजर का हलवा था बहुत दिनों से मीठा बंद कर रखा था उसने थोडा सा एक बॉअल मैं डाला और ओवन मैं रीहीट कर पुश किया-वेट लिया और स्टार्ट कर दिया ९०० डिग्री सेल्शियश अन्दरतक धंसा होकोई उसके होने का मतलब..बस २० सेकंड एक सौंधी सुगंध किचिन मैं फैल गई ,उसने ओवन आफ किया बिना गलब्स पहने बॉअल बाहर निकाला जिसका ताप उसके हाथ बर्दाश्त कर रहे थे ,उसकी हथेलियाँ भीग रही थी एक दर्ज नाम के साथ .
उमर भर का किया जो मीजान मैंने जब ,वज़न खुशियों का मिरे गम के बराबर निकला, तालिब जैदी

सोमवार, 12 जनवरी 2009

भोपाल ताल कोहरे मैं ...जिन्दगी क्या है हमसे मिलकर देखो...कहते हुए...इस पोस्ट पर आए सभी मेहरबान मित्रों से मुखातिब


सभी का धन्यवाद ...सबसे पहले स्वप्न जी ने कहा मनमोहक उन्हें बधाई की उन्होंने भोपाल ताल का लुत्फ उठाया पारुल ने भी इस सुंदर शाम को आंखों से दिल मैं सहेजा ताऊ जी ने मौके के हिसाब से खींचे गए चित्रों की तारीफ की ..कल की शाम वाकई खुबसूरत थी ..दिन भर कम्बल मैं दुबके रहने एक घंटा एक नावल को ख़त्म करने,दो घंटे गहरी नींद ले लेने के बाद जाकर कहीं दिन ख़त्म हुआ,...पति ने कहा चलो थोडा घूम आयें बस और कोई दिन होता तो ना भी जाती ...अपना डिजिटिल रखा ,मूंग दाल के मंगोडे ,हरे धनिये की चटनी का स्वाद लेते हुए ये भोपाल की खुबसूरत श्यामला हिल्स से लिए गए चित्र हैं,,,यहीं होटल अशोक [अशोक ग्रुप]का पीछे का हिस्सा है, आगे की तरफ एक रास्ता सी एम् हाउस और दूसरा होटल अशोक से आगे होटल जहाँ नुमा नवाबी शासन काल का एक बेजोड़ होटल है जिससे थोडा आगे चलकर अंसल हाऊसिंग सोसायटी के बहुमंजिला और सिंगल बंगलों की शानदार श्रंखला है इन्ही मैं जया भादुडी की मां का भी एक फलेट है और पतिदेव का ऑफिस भी ...यहाँ शाम रूमानी होती है बच्चे -बड़े पतंग उडाते और तालाब की सतह से लगी चट्टानों मैं फिशिंग करते और कारों मैं /झाडियों मैं चोरी छिपे युगल ...किस्सिंग करते हुए भी दिखाई पड़ जातें हैं इसे मौसम की मेहरबानी कहें या अपनी नजरों का बड़प्पन कहें आपकी मर्जी...मेरे ब्लॉग हेड पर एक बड़ा सा बड नुमा पेड़ है जो दुबई से करीब ६०-७० मील दूर प्रसिद्ध फुजैरा नामक स्थान का है ..यहाँ समुद्र मैं तेल शोधक कारखाने लगये गएँ हैं ..वहीँ ये पिक्चर ली थी, मेरी पत्रिका के ८५ वें अंक के लोकार्परण के समय मेरा दुबई जुलाइ मैं जाना हुआ था दुबई के कई संस्मरण फिर कभी ...विनय जी ने चित को शांत कर देने वाले ,मनोरम ...और वाकई भोपाल अपने आप मैं नायाब है ...नवाबी विरासत को सहेजने सरकार और पुरातत्व वालों ने मशकत्त तो की है, मुझे ताजुब्ब होता है भोपाल छोड़ चुके मेरे कई परिचित कैसे भूल पायें होंगे इन द्रश्यों को,अनिल कान्त जी आपका विशेष आभार और बहादुर पटेल जी आप का भी आप लोग एक बार भोपाल अवश्य आयें ...आशीष जी ने कहा खूबसूरत और यही झील आज पानी के लिए प्यासी है...बिल्कुल सही.आशीष हम लोग इसे बचाने का प्रयास तो कर रहें हैं ...मुझे अभी कल ही नगर-निगम भोपाल द्वारा बड़े तालाब का गहरीकरण एवं साफ सफाई अभियान के सम्बन्ध मैं १४ जन को एक बैठकमैं उपस्थित रहने हेतु कलेक्ट्रेट सभाग्रह मैं आयुक्त भोपाल संभाग ने पत्र ...भेजा है ..देखतें हैं सरकार की क्या मंशा है ...अंत मैं मुकेश तिवारी और रंजना जी काभी आभार , वास्तव मैं भोपाल इन तालाबों की वजह से ही भोपाल है लेकिन यहाँ के बाशिंदे जानते हैं फिलवक्त तालाब के चारों और फैली गंदगी पोलीथिन कचरा ,किनारों पर अतिक्रमण जैसी समस्या के कारण इस खूबसूरती मैं कमी आई है ,कुछ दिन पहले ही प्रदेश के मुख्य मंत्री महोदय ने श्रम दान करके इसके सौन्दर्यकरण की दिशा मैं पहला कदम उठाया है ...इस पोस्ट पर राज भाटिया जी समीर जी और भाई अनुराग जी की उपस्थिति भी मैं मानकर चल रही हूँ..... आमीन

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

समुद्र पकड़ना चाहना और मुठियों मैं रेत भर जाए...प्रार्थनाएं बचा लेती हैं ,क्या ग्यानी हो जाने से संताप मिट जाता है ?


मौसम मैं तेज नमी के बावजूद गर्मी थी,उमस भरी अलसुबह मैं धीरे-धीरे धरती से ऊपर उठता हुआ प्लेन ..और दूर तक एक अंधड़ चक्रावात की तरह कागज़ तिनके रंग-बिरंगी पालीथिन,रेशे-धागे,एक जगह सिमटकर ऊपर की और बढ़ते उसके साथ,ये एक गुबार होता है जो हर यात्रा मैं उसके साथ आ जाता है, जिसमे एक चेहरा कई-कई संबंधों को अन्दर समेटे ...तोल्स्तोय याद आतें हैं,वे कहतें हैं जब हम किसी सुदूर यात्रा पर जातें है आधी यात्रा पर पीछे छूटगए शहर की स्मर्तियाँ मंडराती है केवल आधा फासला पार करने के बाद ही हम उस स्थान के बारें मैं सोच पातें हैं ...जहाँ हम जा रहें होतें है ---बिल्कुल सच ऐसा ही होता है हर बार ,अतीत का कोई टुकडा ललचाता है ,और तुंरत यादों के दायरे मैं आ जाता है,सम्बन्धों की उष्मा -गहराई को जानने के बाद भी अमानवीय हुआ जा सकता है ,मन नही मानता आत्मीयता कोई सूत्र जोड़ती है ,उसकी बातों और यादों से बनी और बसी दुनिया मैं,.....समुद्र की फेनिली लहरें सागर से टकरा कर लौटती हैं, संवेदनाओं के घनीभूत क्षण मैं थोडा नीला-हरा रंग मोहता है, फिर भी इक्चाओं के साथ कितना कुछ ख़त्म हो गया,नही लड़ा गया युद्ध, पार नही किया गया पहाड़ ,कुछ चीजें कितने काम की होती हैं जैसे रुमाल ,खिड़कियाँ,बतियाँ बंद करके या जरूरत मुताबिक,कितने आराम से कुछ भी सोचा जा सके ..उसकी बाजू वाली सीट पर नानवेज बर्गर खाता युवक ,उसने रुमाल की तह खोली और विंडो साइड चेहरा करके नाक पर फेला ली, हम शारजहाँ पहुँच ही रहे थे ....बडा सा बंजरी मैदान बस मेरा और dपीछे छूट गया हरा भरा खेत उसका मीलों दूर तक ...बस वक्त वहीँ से ओझल होता जाता है ...सीट बेल्ट बाँधने का आदेश,जिस दिन नागपुर से दुबई के लिए उसकी फ्लाईट थी उसी दिन एक मेसेज उसने कर दिया था की वो अब बारह दिनों तक अरब कंट्री मैं होगी ,ये बात अलग थी की उसके यहाँ रहने ना रहने से कोई फर्क नही पड़ने वाला था और ये महज इतेफाक ही था की वो मेसेज फेल होकर लौट आया था, सारी चीजें उसकी जिन्दगी मैं सही चलते-चलते किसी वक्त विशेष पर ही जाकर ना जाने क्यों इतनी दुसाह्सी हो जाती हैं की हेल्पलेस होकर बैठने के अलावा कुछ नही किया जा सकता ...कौडियों के मोल का प्रेम...पैसा हाथ का मेल तो कतई नही होता...जिन्दगी की, जीवन की, सलामती की ग्यारंटी जरूर है..एक फीकी मुस्कान आकर लुप्त होजाती है,समुद्र पकड़ना चाहना और मुठियों मैं रेत भर जाए यत्न से सहेजी यादें और जतन से सिरहाने रखा अकेलापन चाहे जितना अच्छा लगे ---आत्मा छीजती है ..तार-तार अर्थ कई अर्थ मैं खो जातें हैं ,इतने दबाव के बावजूद प्रार्थनाएं बचा लेती है जैसे सब उसमें जाकर सच मैं बदलता है ---क्या ग्यानी हो जाने से संताप मिट जाता है ,नदिया ,बियाबान,पहाडों कछारों आकाश मैं उड़ते बादलों ,हवा धुप का शुक्रगुजार होना होता है और मुस्तफा का भी, एक दूसरी धरती तक लेजाने वाला ...एक स्मार्ट पायलेट जिसके चेहरे पर चस्पां था एक मौसम ..हुबहू वही सर से पाँव तक छेह माह बाद भी कोई याद आ जाए तो, .आज कडाके की ठण्ड है ...उसे मौसम विभाग की चेतावनी पर भरोसा नही ,किसी बूढे से पूछना होगा पिछली बार इतनी तेज ठण्ड कब पड़ी थी ...वो अपनी ब्लेक पश्मीना शाल को इर्द-गिर्द कस कर लपेटती है,जिसमें उसके कई उजले दिन बुने हुए थे ....
"एक ही शख्स था एहसास के आइने में, कभी शबनम; कभी खुशबु... कभी पत्थर निकला...-नजीर अहमद "

बुधवार, 31 दिसंबर 2008

गहराती जाती शाम ,कांपते रंगों के बीच से गुजर जाती है,तमाम चीजों,लोगों,रिश्तों,प्रेम की तरह बिछुड़ ता है फिर एक साल

वो दो सीढियां नीचे उतरी पानी ठंडा,शांत,और ठहरा हुआ था पार दर्शी पानी की सतह पर दो-तीन सीढियां और दिखाई दे रही थी ,उसका जी चाहा थोडा और नीचे उतरा जाए,उसने पैरों को मजबूती से चौथी सीढ़ी की टोह लेते हुए जमा दिया जहाँ हरी काई भरी फिसलन थी,एक हाथ से पहनी हुई पैरट ग्रीन -पर्पल कलर की ढाकाई जाम दानी साढी की चुन्नटों को समेटते हुए,और थोडा झुकते हुए घुटनों से थोडा नीचे तक उठा लिया, पानी के नीचे छोटी-छोटी मछलियां आवा-जाही कर रही थी ,उसके पैरों मैं गुदगुदी सी करती,उसे अच्छा लगा भीतर कुछ ठंडा ,साड़ी किनारों से ऊपर तक भीग गई थी ,बीच दोपहर का समय था,और सूरज की रौशनी से छन्नकर साड़ी का हरा -जामुनी रंग पानी की सतह पर बिखर गया था वो फिर झुकी ,पीठ मैं दर्दके बावजूद,साड़ी को दोनों हाथों से निचोडा और हलके से छितरा कर फैला दिया और संभल कर तालाब किनारे बैठ गई, जाने कितने रंग थे ना जाने कितने सुख थे जो संग-साथ हाथों से बटोरने थे उन आंखों से देखने थे ...दूर तक फैला तालाब आनंद से हिलोरें ले रहा था,,चीजें देर से मिले और जल्दी खो जाएँ कुछ पल भीग जाएँ ,कुछ सूख जाएँ कई बेश्किमती पल चोरी हो जाएँ कहीं कोई सुनवाई ना हो ,एक असहाय वक्त मैं ...क्या यहाँ आकर यही सोचना था ,सोचती है, सर्च लाईट सी रौशनी दिमाग मैं जलती बुझती है,एक जिन्दगी यू ही ख़त्म हो जाती है क्या? साल पर साल बीत जातें हैं ...कल किसी का डिनर आज कहीं लंच क्या और कौन सी साड़ी पहनी जाए,बेटी के प्रीबोर्ड ,बोनसाई की मिटटी बदलनी है, मटर की कचोरियाँ ,अहमदाबादी पुलाव भी बना पाओ तो ,,,पति की आवाज उभरती है ,एक दो ट्रेडिशनल डिश,चटनियाँ सिल पर पिसवा लेना--रूक कर --शोभा से,एकाध स्वीट डिश मार्केट से ,--बना सको तो थोडा बहुत आज कल खाता ही कौन है सभी लोग तो हेल्थ कांशस है, फिर भी घर की बनी हो तो, अरे हाँ तुम्हारी वो दोस्त डाक्टर है ,ठीक से चेकप क्यों नही करवाती ,शायद केल्शियम दिफिशिंसी ही हो ,मन ही मन सोचती है,किसी कडुवे केप्सूल कोई इंजेक्शन या पेन रिलीफ ट्यूब से थोडी देर को राहत ,आदत मैं शुमार ,,दूसरे दिन दिल- दिमाग शरीर के किस हिस्से मैं दर्द शुरू हो जायेगा इसका इन्तजार करना होता है परिवर्तन के बिना ,पानी मैं पैर सिकुड़ने लगतें हैं भीतर कोई भीत राग बजने लगता है, जैसे अन्दर कोई रिमोट लेकर बैठ गया हो बार- बार वही सुनाता है ॥राग पुरिया धना श्री सबसे पसंदीदा राग ..थोडा बचना होता है आत्मा से मुल्ल्में उतरने जैसा कुछ,एक खरे अहसास के लिए जगह बनाना होती है ,किनारे बने शिवालय पर चढे मुरझाये फूल पानी मैं बहते हैं ,मछलियां उन्हें कुतरती,एक पल मैं गहरे चली जाती है शिवालय सीढियां ,सर्द मौसम, अनुभूति ,मछलियां निशब्द देखतें हैं ,उस यात्रा मैं उस गंतव्य तक पहुंचना जहाँ कभी जाना ही नही था ।कितनी शेष चीजों के साथ वहीँ रह गई जहाँ उन्हें देखा था,स्तब्ध हवाओं के साथ गीली देह को सुखाते कोई घुलता है उकेरे हुए नाम के साथ अन्दर, हर पल ..यकीन करना,फूलों को अलसाने से बचाना , पत्तों की हरियाली बनाय रखना ,एक आदिम स्मरती को अपनी दिव्यता मैं संजोय रखना,मछुआरे लौट रहें है खुले बदन,डोंगियों मैं मरी हुई मछलियां लिए,गहराती जाती शाम कांप तें रंगों के बीच से गुजर जाती है,तमाम,चीजों, लोगों, रिश्तों, प्रेम कीतरह बिछुड़ ता है फिर एक साल।
"और कुछ देर न गुजरें; शबे फुर्खत से कहो... दिल भी कम दुखता है; वो याद भी कम आते हैं..." - फैज़।
नव वर्ष की शुभकामनाएं ...!

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

मेरे कुरते का टूटा बटन...खोजती अपनी अँगुलियों के साथ ..

मेरे कुरते का टूटा बटन ... नरेन्द्र गौड़,की ये कविता मेरी डायरी मैं सुरक्षित रही जो अपनी बानगी,सम्प्रेश्निय्ता मैं इतनी सरल और अद्भुत है की अभिव्यक्ति के अर्थों मैं भी द्रवित करती है और एक भाव कवि के दुःख मैं आपको साझा करता है ये दुःख आपको जिलाता है जिसके सुख से भी आप रोमांचित हुए बिना नही रह पायेंगे...ये भोपाल से प्रकाशित साक्षात्कार पत्रिका के फरवरी ९७ अंक में प्रकाशित हुई थी,इसी क्रम मैं एक और सुंदर कविता है ...जिसे फिर कभी......

मेरे कुरते का,टूटा बटन

टांकने के लिए आख़िर उसे

सुई धागा नही मिला

समय नही ठहरा,कुरते के टूटे बटन के लिए

अपनी जगह रही मेरी तसल्ली,

सुई धागा,तलाशती वह,

गहरे संताप मैं वहीँ छूट गई,

बिना बटन के ही

वो कुर्ता पहना, पहना इतना,

आगे पहनने लायक नही रहा

मेरे पास वोही एक कुर्ता था,

जिसकी जेब मैं तमाम दुनिया को रखे घूमता था,

रात को मेरे सीने पर वह,

सर टिकाये रहती है,

टूटा बटन खोजती,अपनी अँगुलियों के साथ,

वो शाम के रंगों की तरह था,आया और चला गया,किसको अँधेरा खोजता ,आया और चला गया,[शरद रंजन ]

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

जंगल की याद मैं,चट्टानों के प्रेम मैं ..जहाँ से लौटकर गैर मामूली इच्छाएं विस्मित करती है एक रिपोतार्ज यात्रा चित्र..

उस मोड़ पर आकर /खुलता है रास्ता/जहाँ से आगे सारे रास्ते/बीहड़ जंगलों की ओर लौट तें हैं/भीम बेठिका मैं/जिसकी पगडण्डी बनी है /पथरीली चट्टानों के बीच से /जहाँ पहुंचकर फिर कई छोटे रास्ते मिलते हैं /भीम बैठिका कोई मिथ है /या कोई सूत्र जरूर है /कहा भी ओर माना भी जाता है/वीतरागी भीम ने यहाँ तपस्या की थी /जिसकी अनिवार्य उपस्थिति यहाँ दर्ज ओर चिन्हित है/छोटे-छोटे रास्ते धीरे-धीरे ऊपर उठते है/आकाश की ऊंचाई मैं बाहें फेलाए /आतुर/ऊंचाई पर जाकरएक तरफ/ज्यादा हरा थोडा कम सूखा/समतल मैदान मिलता है /पहाडियों के नीचे आराम से पसरा-फैला /दूर तक /जिसके सामने हैं/नुकीली-दरकी हुई ठोस चट्टाने/जिन्हें छूकर लौट तें हैं बार-बार/महुए ओर शाल वृक्ष के तार-तार हुए पत्तों की /जंगली हवाओं की कसैली गंध/जिनके साथ-समग्र-सघन/कहीं दूर अधूरे सपने कौंध जाते हैं/ बिछुडी स्म्रतियों मैं /चट्टानों के शिखर पर /भीम काय तपस्वी भीम कदाचित आपको रोमांचित करे/पौराणिक कथा नायिका द्रोपदी-पांचाली/चट्टानों के पीछे से /झांकती/इतिहास पलटती /पत्तों के मौन मैं /कभी खड़ ख्डातीतो कभी सुबकती है /दो ऊँची चट्टानों के बीच /झांकते नीले आकाश से/लौटती एक जंगली कबूतरी/चट्टानों के खोह से /अपने नन्हे बच्चों के साथ /दुःख-सुख भोर-अन्धकार के सच मैं/ एक विषम मैं /समय करवटें बदलता है/जहाँ से लौटकर गैर मामूली इच्छाएं विस्मित करती हैं/चट्टानों का बेबाक खरापन भी अभिभूत करता है /पलाश के गठीले खुरदरे तने वालें पेडों पर/ठहरे हुए मौसम /टेसू चटकने का अनंत से बाट जोह्ते/आंखों मैं भरता समूचा जंगल/जंगली फलों से लदे पेड़/बारम्बार/खामोशी से खड़े हो जातें हैं/संवेदनाये बदलती हैं/आकारों मैं/शेल चित्रों से बाहर निकल /यात्राओं के अंत ओर मोडों वाले रास्तों पर/कोई तो है /जो मुनादी करता है/सुनो- रुको,रुको-सुनो/चट्टानों के सीने से लिपटे पेड़/बेशक सघन एकांत मैं/प्रेम की तल्लीनता मैं /थोडा सकुचाते-शर्माते हुए /बेमानी लगती है /जाने क्यों सारी दुनिया /चट्टान के आखरी सिरे पर बिना मिटटी के पनपा पेड़/ सच कितना द्रवित किया होगा/इन पत्थरों को /सोचती हूँ/रास्ते लौटा तें हैं /सार्थक उदासी मैं /घर की तरफ/धानी दुपट्टे के कोने मैं लिपटा चला आता है/ कोई जंगली फूल/आत्मा उड़ान भरती है/पहुँचती है/जहाँ दुबके बैठे है /पंखों के नीचे /कबूतरी के बच्चे /सुखद गर्माहट मैं/
श्री वाकणकर प्रसिद्ध पुरात्तव वेत्ता की याद मैं ..जिन्होंने भीम बैठिका के दुर्लभ शेल चित्रों की खोज की ...भोपाल से ४० किलोमीटर की दूरी पर स्थित ,वर्ल्ड हेरिटेज दर्जा प्राप्त भीम बैठिका से लौट कर....

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

देला वाढी के जंगलों से गुजरते हुए और जंगल बेखबर....


देला वाढी के जंगलों से गुजरते हुए देखती हूँ
घुमाव दार सड़कें ,बेनाम पेड़ ,
जंगली हवा तिलिस्मी धूप... ,
मुरझाये बूढे सूखे,लाल और पीले पत्ते ,
कांपती जुबाने लिए बतियाते,इन जंगलों मैं
अट जातें हैं ,किसी जादुई गिरफ्त से
आते-जाते आंखों मैं ,ओझल होता है ,
शाम का सूरज ,पहाडियों के पार,
इन जंगलों से शायद कल फिर गुजरना पड़े ,
तो भी रहेंगे जंगल बेखबर,

दुनिया कहेगी मुझे उजालों का देवता,मैं उस मुकाम पर हूँ जहाँ रौशनी सी है जफर सिरोंजवी
भोपाल से ६५ किलोमीटर दूर एक पिकनिक स्पॉट ,देला वाढी से लौटकर..

रविवार, 14 दिसंबर 2008

रस्टीशील्ड-गोल्डन पीला गुलमोहर... एक शुरुआत, स्मृति के सुख-दुःख से परे...

अनुभूतियों और शब्दों के बीच खोजते हुए वह अपने को उस शाम करीब छ माह बाद उसी सड़क पर लौटा लाई जो उसकी पसंदीदा भी थी और गवाह भी.सड़क दूर तक खुदी हुई थी ,उसके किनारे ढेरों कंकरीली काली मिटटी पड़ी हुई थी.ना वहां रस्टी शील्ड -पीला गुलमोहर था और ना ही दुरान्ता रिपेन्स की हरे पीले पत्तों की झाडियाँ मौजूद थी जिसमे सितम्बर से दिसम्बर तक भर पूर पीले फूल आतें हैं,धीरे-धीरे पुरानी पत्तियां झडती रहती है नई चमकीली पत्तियां आने तक . और मार्च तक हरी भूरी फलियों से पेड़ लद जाता है जो बाद मैं पेड़ के नीचे बिछ जाती है जिन्हें चुनना अच्छा लगता है ,उस निरापद और निष्टुर रास्ते पर चलते-सुनते शब्द चीत्कारों से अब लगातार मर रहे थे ,पलट कर देखने का मोह छोडा भी तो नही जाता पिछले सब का जायजा लेने का एक मौका ही तो था ,निपट अकेले मैं खासे भरे-पेडों की शाखाओं से गिरते पीले मुरझाये पत्ते हवा के साथ बजते हुए सुनने का,परन्तु पत्ते उतरे,पेडों की नुकीली शाखाएँ बेतरतीब सी आकाश की छाती पर चुभती सी दिखलाई पड़ती ,बस इसीलिए उसे दिसम्बर नही भाता ,रस रूप ,गंध,शब्द और स्पर्श से बंधा मंगल मुहूर्त और उस चेहरे का वैभव जिसके सहारे कोई अँधेरा दरअँधेरा पार करता ,वो ट्रांसपेरेंट हो गया सब कुछ की जिसके पार सेकडों मील दूर तक भी बहुत कुछ देखा जा सकता था,फिर कौन परवाह करता किसी के जीने मरने की ...उसने तो वायदा किया था जो कुछ पाउँगा उसे अकेले नही देखूंगा ,हाथ पकड़ कर तुम्हे भी दिखाउंगा ,किसी तकलीफ से गुजरना -ताकि जिन्दगी को करीब से देखा जाय ,ताकि अपने करीबी लोगों को और अधिक प्यार किया जा सके, कला का सार तत्व उसका निचोड़ जानने ,जीने की एक अच्छी कोशिश,लिखने की शुरुआत ,दुनिया के आम सुख -दुःख से ऊपर उठने को वो सप्रयास सीखने लगे ....उसने फिर भी एक जोरों से साँस ली और भीतर ही भीतर उसकी अद्रश्य पीठ पर सर टिका दिया ..और एक अंगुली से लिखा दुनिया के सबसे गहरे अर्थों वाला शब्द---स्लेटी रंग से उसे चिड थी पर उस सिलेटी शाम का क्या करे,देर रात तक उस खुले अंत का, उसने फिर भी सपना देखा गुलमोहर खिल उठा है जिसके तले वो अपने सेल पर कविता के कुछ शब्दों को सुनते...
"कहानियाँ उस वक्त पैदा होती हैं जब वक्त गुज़र जाता है, लोग जुदा हो जाते हैं, इन्सान बूढा हो जाता है "- पीटर बख्सल - जर्मनी कथाकार।

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

एक ख़त बेनामी भाई के नाम...कल एक पोस्ट ..फिर सत्ता मैं शिव सरकार,जिस बेनामी से सम्बंधित हो उसके लिए...


भाई बेनामी जी ...मैं चाहती तो इस बेनामी ऑप्शन या टिपण्णी को हटा सकती थी पर कोई फायदा नही होता,...जवाब सुने, यदि एक लेख लिखने से पाँच -दस साल का बंदोबस्त हो जाता है तो बेरोजगारी के इस युग मैं बड़ी बात है ,तो कयोना दस-बीस लेख लिख लिये जाएँ पूरे कुनबे का जिन्दगी भर की दूध-मलाई का इंतजाम हो जायेगा,...अफसोस आपके -पीछे -पीछे बिना पढ़े दो नामी भाई और आगये ...जवाब देने का मन तो नही था,लेकिन आज फिर आपने किसी ब्लॉग पर टिपण्णी की ये दुघ मलाई वाली कुठा क्यों है आपको किसी के बारे मैं विचार बनाने और उस पर लिखने से पहले उसे जानना होता है आप लिखिए ना ,,,भला -बुरा,मख्खन मलाई, गुड -इमली ,...अंगूर खट्टे हों खम्बा उंचा हो तो सर नोचने से कोई फायदा?स्याही को नसीब बना लेंगेतो आगे की जिन्दगी का क्या होगा,लड़ना पेशा नही, मेरा लिखना है ,मेरी समझ नही आता मौसम बदलते ही कुछ लोगों को बुखार क्यों आजाता है छींके क्यों आने लगती है ,हर जगह वो अपशुकन करने लगते हैं,थोडा भी बर्दास्त नही करते, क्या औरतें बस उलुल-जुलूल कविता-कहानी प्रेम पर ही लिखती रहें राजनेतिक सामजिक सरोकारों पर उनकी दखल से आपके अहं को चोट पहुँचती है और वह आपकी ,हाँ मैं हाँ मिलाती जिधर हांक दे चली जाएँ नकवी की भाषा मैं लिपस्टिक दूध-मलाई आयं-बायं जो मन आए कह जाए ...आप जैसे लोग ही स्त्री-पुरूष समानता मैं एक पहाड़ हैं .आपको उन गरीबों पर ज़रा भी दया नही आती जिनकी मुश्किलें दूर करने मैं पहली बार ये सरकार कामयाब रही है ..खासकर स्त्री के चेहरे पर एक मुस्कान तो आई है ,थोडा अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर सोचें अपने मैं तबदीली लायें भरम और झूट से बचें,जिन्दगी मैं कामयाब लोगों से कामयाबी के गुर सीखें सब्र करना और आत्मविश्लेषण करना भी ...१३ को शिव सरकार शपथ लेगी तब भी एक पोस्ट लिखूंगी ,,,इमानदारी से नामी-गिरामी होकर टिपण्णी देन,ताकि शुभकामनाओं के साथ कटोरा भर दूध-मलाई भी पोस्ट की जा सके.

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार फ़िर सत्ता में... आत्मविश्वास, चुनौतियाँ और शिद्धत्त से किए काम जीत का सेहरा बने...

मध्यप्रदेश के इन चुनावों मैं भा पा ने ना केवल एतिहासिक जीत दर्ज की है वरन सम्मान जनक स्थिति भी हांसिल कर ली है खूबी यही है के टिकिट वितरण से लेकर चुनाव प्रचार ,प्रत्याशियों का मनोबल बढ़ाना,पत्रकारों से तालमेल बैठाना,अपोजिशन को फेस करना-जवाब देना और अपने आत्म विशवास को बनाय रखना,जेसे कारक तत्वों के चलते एक साफ चेहरे वाला व्यक्ति ,और उसकी कोशिशें अन्तत लक्ष्य पूर्ति मैं सफल रही ,जिस इमानदारी,सादगी और कर्मठता से गरीब की रोटी-पानी की चिंता शिवराज सिंह चौहान ने की ....ये जीत का सेहरा उसी का परिणाम है,कुछ वर्षों पूर्व देनिकभासकर के लिए जब मैंने शिवराज सिंह जी का इंटर व्यू किया था तब पाटी मैं उनकी कोई ख़ास पहचान नही थी ,तब भी वो चमक-धमक से दूर सादगी से नाता जोड़े हुए पैदल या सायकिल से घूम-घूम कर कार्य करते थे ,..तब ना उनके पास भीड़ थी ना पत्रकारों का हुजूम ,उसके बाद जब उन्होंने सत्ता संभाली तब भी वे सादगी से भरे हुए थे ,चुनौतियां भी थी ,तब इस कम अनुभवी किंतु आम आदमी से जुड़े नेता ने जल्द ही गरीबों की समस्याओं से साक्षात्कार कर उनकी मुश्किलों का तुंरत निदान और उपेक्षित वर्ग को आत्म विशवास दिलाने मैं जो दिलचस्पी और सच्चाई बरती,साथ ही शासन और आम जन के बीच सेतु बनकर काम करने के अपने अंदाज को जिस तरह बखूबी अमली जामा पहनाया काबिले तारीफ है,हर जागरूक आदमी जो अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर सोचता है उनकी जीत के प्रति आश्वस्त था,आंकडों पर ना जाएँ कुछ मुद्दे छोड़ भी दे तो पिछले तीन सालों मैं विशेषकर महिलाओं को संबल देने हेतु जो व्यवहारिक काम किए वो देश भर मैं किसी राज्य के खातें मैं नही होंगे, ३० जुलाइ २००२ को मुख्यमंत्री निवास पर महिला पंचायत और फिर समाज के कमजोर दलित तबके के लिए पंचायतों का सिलसिला,उनके प्रकरण ,समस्या, निदान ,सरक्षण, कानून ,उनकी मुश्किलों को सुनना ,जानना,ये सब किर्यान्वित होता रहा परिणाम सामने है लोगों ने उन्हें चुना,लाडली लक्ष्मी जैसी अनूठी योजना,ने गरीब स्त्री मैं एक ऊर्जा और आत्म विशवास का संचार किया,ये योजना थी भी इसलिए ,ताकि स्त्री के चेहरे पर गरीबी ना दिखे महिला सशक्तिकरण ,गुणात्मक स्वास्थ्य सेवायें,क्षमता भर विकास,रोजगार एवं आय बढाने के अवसर बढाना,जेंडर आधारित बजट व्यवस्था ,श्रमिक महिलाओं के हितों का संरक्षण यौन प्रतारणा की रोकथाम ,वन जल पर्यावरण, इनमें भागीदारी को ख़ास अहमियत दी गई एवं कठिन स्थिति वाली महिलाओं को सुविधाऔर उनके लिए संसाधन मुह्हिया करना ,सुचना संसार मैं तकनिकी भागीदारी,नीतिगत प्रावधानों की मोनिटरिंग मूल्यांकन प्रतिवेदन महिला निति के लिए कार्ययोजना मैं विभागों की जिम्मेदारी को शामिल किया गया, साथ ही कई पुरुस्कारों कोदेने के साथ आदिवासी निशाक्त्जानो मेधावी छात्रों ,किसान महापंचायतों के माध्यम किसानो को बिजली माफीदेश मैं पहला मत्स्य निति बनाने वाला राज्य बनाकर शिव सरकार ने मध्यप्रदेश की राजनीति मैं एक एतिहासिक मोड़ दिया है ,लेकिन अपने घोषणा पत्र मैं सरकार ने जो कहा है ..पानी बिजली जैसे मुद्दे उन्हें पूरा करने के लिए अब सरकार को जी-जान से जुटना होगा ,जहाँ -जहाँ असंतोष है वहां चौकसी के साथ काम करना होगा,सरकार से अब उम्मीदें और बढ़ जायेंगी लेकिन अब उनके पास मौका भी है, और समय भी ,यही नही ये चुनाव एतिहासिक ही नही आगामी लोकसभा चुनावों के लिए निर्णायक भी सिद्ध होंगे कबीर द्वारा परिभाषित जोगी ,[सब सिद्ध्ही सहज पाइये ,जो मन जोगी होई ]शिव राज सिंह को फिर भी याद रखना होगा सच्चाई से की अन्तिम आदमी कोयाद रखना अपने अन्दर के विचार को और अपनी मनुष्यता को बचा कर रखना है नही तो सत्ता मैं रह करभ्रष्ट तो होना ही होता है सता की अपनी मजबूरियाँ होती है और मतदाता की भी ,....आमीन ,जिसको चाहे शोहरत दे ये करम उसी का है

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

प्रेम में दर्ज चीजें अनुपस्थिति मैं,उपस्थित प्रवासी परिंदों की उड़ान के साथ जब वो एक तंग गली से गुजर रही थी


एक थरथराती गंध के साथ हथेलियों से आंखों तक फैली हेरानी,उतेजनाओं के साथ वो मुलाक़ात पहली ,फिर तो मुलाकातों के कई शेड्स....नई आस्थाओं के साथ पुराने लड़े गए युद्ध ,मुक्ति की प्रार्थना तक,इतिहास मैं शामिल होने को तैयार उन क्षणों पर आत्म मुग्ध..दग्ध..हताश होने के अलावा कुछ हो ही नही सकता था उसकी निश्छल साफगोई का कायल होना जरूरी हो गया था ,लेकिन चीजों को तह करना उसे खूब आता था,एक ऊंचाई पर जाकर अपने को नीचे गिरते हुए देखना वहम ही होगा, लेकिन लाइलाज ,जैसे लिफ्ट मैं अकेले होना लन्दन आय मैं बेठना ..हो या हंस प्लाजा की अठाहरवीं फ्लोर पर होना, एक मूर्खता भरी सोच देहली की उस बे मौसमी बारिश मैं किसी का याद आना,उसकी मुश्किलों से बेखबर ,उसकी रूममेट का ही प्रस्ताव था रूफ टॉप पर जाकर टहला जाए ,एक वर्कशॉप अटेंड करने एक ही शहर से दोनों साथ थी जहाँ उनके साथ हमपेशा कई विदेशी महिलायें भी थी प्रोग्राम कोआर्दिनेटर ने वैसे तो डिनर प्रगति मैदान के होटल बलूची मैं रखा था,लौटते वक्त भी हलकी बारिश थी सड़कें गीली और नम थी ,थोडी ठंडक भी थी ,,,उस सनातन मूर्खता भरे प्रेम का कोई सिरा क्या अब खोजने पर भी मिलेगा ?उसे काल करना ,उत्तर मिला निस्संग व्यस्त हूँ कई क्षण आए किसी की जिन्दगी मैं बिना दखल दिए उसे लगा उसकी हेसियत सिफर है ....बाद मैं कई तार्किक शिकायतों का रिजल्ट भी सिफर ही रहा ,एक भरथरी गायकी का विलाप अन्दर ही अन्दर गूंजता रहा ..देर रात शौक से पहनी पोचमपल्ली सिल्क की गहरी नीली कथई हरे ,काले और मस्टर्ड ,मिक्स रंगों वाली वो खुबसूरत साड़ी सलवटों भरी उस शाम के बाद फिर ना पहनी जा सकी ,एहसास की गहराई का इतना उथला होना बुलंद सोच का भरभरा कर गिरना और मुग्धा होने के कारण ...केया गंध मैं गुथा हुआ साथ जरूर था जाने क्या हुआ , उन दिनों ....कई दफे सोच और समय समाप्त हो जाता है फिर भी रास्ते बाकी रहतें हैं, एक चुप्पी के साथ उदासी वहीँ आकर ठहर जाती है ,निशब्द चीजें इतनी तरतीबी से कैसे रह सकती है , जी सकती हैं बावजूद अपमानित -आहात होने के इतने कारण उसके हिस्से ही क्यों आए ?कोई निहत्था हो तो भीतरी आस्था ही तो बचेगी दूसरी लडाइयों के लिए, दर्ज चीजे अनुपस्थिति मैं उपस्थित ,किनारों से पानी सूखने की कगार के साथ मौसम बदलने और प्रवासी परिंदों की उड़ान के साथ भी एक इनटूशं न रहा होगा जब वो एक तंग गली से गुज़र रही थी...

उन्होंने चिंदी -चिंदी किया प्रेम ,ताकि सुख से नफरत कर सके उन्होंने धज्जियाँ उडाई जीवन की ताकि सुख से मर सके

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

मेरे शहर मैं २ दिसम्बर १९८४,सूरज पे हमें विशवास है


बोलों पे जड़ दिए ताले
सूरज कैद कर लिया था किसीने
सन्नाटा था ,हवाए नाराज ,पेड़ उदास ,
मेरे शहर मैं ख़ास अर्थ होता है
धूपऔर हवा के निकलने बिखरने का
सिमट गए थे , तालाब,समीक्षित हो गया आकाश,
बदल गई थी जिंदगियां हिरोशिमा और नागासाकी के ढेर मैं
बीत गए साल दर साल,
बदलने- सँवारने-निखारने की तयारियों मैं ,
परछाइयां पकडती व्यवस्था घटा टौप अंधेरों मैं
रचती हर दिन एक नया षड़यंत्र ......
उन दिनों ,मेरे दोस्त
सुबह का इन्तजार बेहद जरूरी था
और मैं अपने शहर के तालाब पर फैली
सिर्फ स्याह काई देखती रही
सोचती रही
अपनी गोद से उछाल देगा आकाश
यकायक पीला सुनहरा सूरज
सूरज पे हमें विशवास है

गैस त्रासदी पे लिखने के लिए जो शब्द हो ,मेरे पास नही ,ये उसी वक्त लिखी और प्रकाशित एक लम्बी कविता थी जो थोड़े से बदलाव के साथ है...

रविवार, 30 नवंबर 2008

खिलेंगे फूल उस जगह की तू जहाँ शहीद हो ,...वतन की राह ....

ये गीत बचपन मैं बहुत सुना करते थे ,..और उसदिन भी खूब खूब याद आया,जिस दिन नाटकीय ढंग से डूबा सूरज ,और वे हमारे सामने से दूर जाते -जाते ,अंधेरों का हिस्सा बन गए लेकिन अपने दिव्य अन्धकार मैं भी चमकते सितारों की तरह हमारे उजालों की खातिर,...और हम बता सकें आसमान की और इंगित कर,देखो वो कितनी ऊंचाई पर हैं जिनकी स्मृति से मन पवित्र और सुगन्धित रहेगा ,किसने सोचा था,उनकी कर्मठ पवित्रता पे इश्वर भी मुग्ध हो जायेगा,इतना स्वार्थी बन जायेगा ,...अपनों से बिछुड़ अकेलापन स्वीकार कर चुकाई गई अमन और शांति की भारी कीमत, पिछले दो दिनों से शहीदों के लिए जयघोष ,एक ग्लानी ,छोब से बोझिल है समूचा देश ,स्तब्ध मन को समझाना पढता है ,शरीर दुखों का घर है ,और बचपन मैं बतौर समझाई गई बातें इश्वर जिन्हें प्यार करता है उन्हें अपने पास बुला लेता है ,यकीन करना पढ़ता है हलाँकि यकीन करना मुश्कील है ,उन्हें शताधिक नमन ,.....बस इतना ही की खिलेंगे फूल उस जगह के तू जहाँ शहीद हो ,...देश प्रेम का सबसे जीवंत गीत ,रफी जी की गहरी संवेदनाओं के साथ बेशकीमती शब्द रचना ,ज्यादातर इसे सुना गया होगा ,इसे दुबारा सुने, ,सर्च करने पर भी नही मिला शायद आनंदमठ या शहीद भगतसिंग दिलीप कुमार की पिक्चर से है मिले तो देखे /सुनवाएं
लो ये स्मृति /यह श्रध्धा /ये हँसी/ये आहूत स्पर्श -पूत भाव /यह मैं यह तुम /यह खिलना/यह ज्वार ,यह प्लवन /यह प्यार /यह अडूब उमड़ना/ सब तुम्हे दिया/यह सब-सब तुम्हे दिया .....अजेय