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वो जितना आगे बढ़ी थी ,उतना ही पीछे लौटना था ..उस मुकाम से जहाँ वो थी आदेश पहले था और नियति बाद मैं ..गिने चुने क़दमों के साथ बिल्कुल आगे देखते हुए ..लौटना पीछे की ओर नियत दूरी को पैरों से साधते हुए .बचपन मैं ये खेल भाई-बहन दोस्तों के साथ खेलते हुए वो हर दम हार जाती आगे बढ़ना तो ठीक था लेकिन लौटना क्या इतना आसन था,एक बार जीत की आशा औरजोश मैं वो पाँच छह कदम पीछे लौटी और चकरा -कर गिर गई ..मामूली चोटें आई भाई ने डांटा आँखे क्यों मूँद लेती हो ..बस यही गलती है ..बाद मैं उसने गौर किया खुली आंखों चीजें देखने महसूस करने से उसे मुश्किल होती सुख-दुःख दोनों मैं सामान्यत वो खेल फिर ता- बचपन उसके लिए मुश्किल ही बना रहा जिसमें वो फिर कभी शामिल ना हो सकी बुद्धि सुलगती है,और सारे जतन हत बुद्धि होकर बैठ जाते हैं ऐसे मौकों पर अपने को निरीह लगना-सोचना भी तो ठीक नही था कुछ नया था जो जिन्दगी मैं घट रहा था ,कुछ भुला कर -कुछ ओर याद रखना अपने मैं समेटे रहना -अतल मैं उमड़ता -घुमड़ता चंदन जल सुगंधी ..फिर भी रंग-बिरंगे मोतियों की माला टूटती है धागा गलता जाता है बिखरे मोती हाथ नही आते ओर एक चौकन्नी चिडिया की तरह मन आसन्न खतरे को भांप लेता है ओर एक खीज भरे रास्ते से गुजर जाता है पुराना सम्मोहन आत्मा को जकड़ता है एक घबराहट मैं मुंदी आंखों पीछे लौटना जरूरी हो जाता है ... क्या मांगू उससे वो सब कुछ दे सकता है ..फिर भी मेरे लेने की सीमाएं हैं ओर उसका गुमान असीम उसकी अनिश्चितता एकदम से उसे हमसफर-ओर अजनबी बना जाती, एक चाबुक सा दिमाग को थरथराता है वो समेटना चाहती है ..सब कुछ बिखरा हुआ .गली गलियारों से लौटते ताजगी-खुशबू भरे दिन एक-एक शब्द सेमल के फूलों की तरह सुर्ख-सुंदर दिल-दिमाग पर टंगते जातें हैं समुद्र की लहरें उसे तेजी से भिगोतीं हैं अपनी ही देह मैं दुःख की आद्रता उसके शब्द सुनते बेआवाज ..वो बस सोच ही तो सकती है क्या वो दोस्ती किसी चुक गए रिश्ते की असफलता की भरपाई थी या कुछ ओर ,या ये, या वो, बस-बस बहस ना करने का इरादा टोकता है .पिघला हुआ सब कुछ पहले सा आकार ना ले पायें लेकिन पहले से बेहतर तो हो ही सकता है बिना कष्ट के लौटना उन रास्तों पर जिन्हें विश्वास के साथ अपनाया था जिसे एक ईमान दारी ओर सम्मान के साथ पाया जा सके बस यही तो इक्छा थी लेकिन उमीदों का बदरंग होना बचे-खुचे रंगों का अन्दर से झांकना -निरर्थक -अर्थों मैं कुछ खोजने जैसा ..जो की एक तरफा बेवकूफी भरी खोज थी बीच उनके ..एक ऐसे सच की तरह जिसके आगे सब कुछ झूटा ओर बौना हो गया था .बस मन के पीछे मन को धकेल कर बैठा जा सकता था ..जो हो ना सका, अँधेरा गाढा था -इधर ओर उसकी गिरफ्त मैं इक्छाओं का कतारबध्ध होकर रह जाना ...कोई चाहता तो हाथ खींच कर रौशनी मैं शामिल कर सकता था अपनी रौशनी मैं ..आसमान अब भी खुला था समुद्र नीला ओर धरती हरी ...पर स्म्रतियों का विसर्जन कर देने पर जिन्दगी राजी खुशी बीत जायेगी क्या ...किसी के हिस्से के दुःख.अपने हिस्से के सुख स्थांतरण कर दिए जाएँ तब भी क्या ...निष्ठा भी क्या लौटाने की चीज है ...जोड़ी घटाई गई इक्छायें ..अपना ही पोस्ट मार्टेम ओर कुछ हांसिल ना होना अपने को मरते -जीते देखना ..आधे चाँद का साक्षी होना ..किसी बियाँबान से गुजर कर हजारों बार पूरी रात का असुविधा जनक सफर ...एक सिरे से शुरूआत अंत के पहले बीच मैं अंत. एक आद्रता मन मैं फैलती है आंखों की कोरों मैं उलझ जाती है चांदी सा झिलमिलाता कोई आंसुओं मैं घुलता जाता है गलती कहाँ हुई ...मुश्किलें शब्दों से हल हो जाएँ जरूरी तो नही ....
जैसे की समय को मेरी याद आई हो ऐसे बेवक्त ,जब कोई मुझे याद आता है भूले हुए समय मैं से, मैं आ जाता हूँ उसकी समुद्रों ओर पहाडों से घिरी हुई हथेली पर ,कभी-कभी,ओर कभी कभी अपनी आंखों के पलकों जितने करीब ओर अपने लिए अद्रश्य हो जाता हूँ (मेरे प्रिय कवि लीलाधर जगूडी की कविता का अंश )
9 टिप्पणियां:
अक्सर दिमाग चौकन्ना होकर भी आने वाले खतरे को बदल नहीं पाता .....सिर्फ मन को अचानक मिले आघात से बचाता भर है ..अपनी मर्जी से अगर सुख ओर दुःख बांटे जाते .तो ये दुनिया आज किसी ओर दिशा में झुकी मिलती.....पर कभी कभी कुछ अहसास जब मिलते है ..जब वे अपना अर्थ खो चुके होते है ....ओर सिवाय पोस्टमार्टम के ....अपने दुखो को खंगालने के अलावा कुछ हासिल नहीं होता
शायद कभी कभी ऐसा ही लगता है
मुश्किलें शब्दों से हल हो जायें जरूरी तो नहीं
"बस मन के पीछे मन को धकेल कर बैठा जा सकता था" ,सुन्दर आलेख. आभार.
लीलाधर जी की कविता के अंश पसंद आये..क्या कहा जाये!! एक बेहतरीन आलेख.
aapki lekhani ka jaadoo sar chaDhh ke bolataa hai
" मुश्किलें शब्दों से हल हो जाएँ जरूरी तो नही .... "
बढ़िया !
शुभकामनायें !
अनुराग जी ,अनिल कान्त सुब्रमन्यम जी समीर जी एवं भाई विनय और अली जी आप सभी का बहुत बहुत शुक्रया ...पिछले कई दिनों से चुनावी हल चल और राजनेतिक उठा-पठक के बाद अब राहतहै.सभी की पिछली कोई पोस्ट नही देख पाई इस हफ्ते बस पढ़ना और कमेंट्स यही एक काम है ...शुभकामनाएं
गली गलियारों से लौटते ताजगी-खुशबू भरे दिन एक-एक शब्द सेमल के फूलों की तरह सुर्ख-सुंदर दिल-दिमाग पर टंगते जातें हैं.... काव्यात्मक तरलता से परिपूर्ण अभिव्यक्ति .
...मुश्किलें शब्दों से हल हो जाएँ जरूरी तो नही ....
मुश्किलें कभी-कभी सांसों के बारीक़ kolahl से भी asan होती hae
आपकी भाषा चमत्कृत करती है!!
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