शनिवार, 30 अप्रैल 2022

संघ का एजेंडा, मध्यप्रदेश सरकार के लिए

 *सरकार और संगठन के काम से नाखुश संघ, MP BJP को दी चेतावनी, गलतियां नहीं सुधारी तो सत्ता से हाथ धोना पड़ सकता है*


भोपाल। भाजपा के साथ आरएसएस भी चुनावी मोड में आ गया है. मिशन 2023 की रणनीति को लेकर मप्र की भाजपा सरकार से संघ ने दो टूक कह दिया है कि नहीं सुधरे तो सत्ता से हाथ धो दोगे. संघ ने यह चेतावनी सरकार और संगठन के काम से नाखुश होकर दी है. संघ ने कहा है कि गलतियां नहीं सुधारी तो हाल 2018 की तरह हो सकता है. 


संघ की बैठक में निकला निचोड़ : संघ की नजर में एमपी में फिलहाल प्रभावी ट्राइबल नेतृत्व की कमी है. खिसकते जनाधार का यह एक प्रमुख कारण माना गया है. जिस पर चिंता भी जताई गई है आदिवासियों को लुभाने की योजना के क्रियान्वयन का खाका सरकार ने संघ को दिया, लेकिन संघ की रिपोर्ट में देखा गया कि सरकार की योजनाएं सिर्फ कागजों तक ही सीमित हैं. संगठन के मुताबिक आदिवासी बाहुल्य इलाके में नेता रुचि नहीं दिखा रहे हैं. इसे देखते हुए संघ ने साफ कहा है कि बीजेपी के नेता 2018 जैसी गलतियां फिर न दोहराएं. 


सीएम शिवराज और वीडी शर्मा ने पेश किया था रिपोर्ट कार्ड: 


दिल्ली में हुई बैठक में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने सत्ता-संगठन का रिपोर्ट कार्ड पेश किया. प्रेजेंटेशन के बाद संघ ने यह भी प्लान मांगा कि सरकार आने वाले दिनों क्या करने जा रही है. इसके अलावा संगठन से भी उसकी तैयारियों को लेकर पूछताछ की गई.


संघ ने बताया अपना एजेंडा: संघ ने सरकार को एजेंडा बताकर काम पर फोकस करने की सलाह दी है. संघ ने प्रदेश के नेताओं को युवाओं पर फोकस करने के लिए कहा है. संघ के मुताबिक ढाई करोड़ युवाओं पर फोकस करने के साथ सोशल मीडिया और आईटी का काम सुधारने की भी बात कही है. संघ कि चिंता इस बात को लेकर भी है कि सत्ता और संगठन के बीच समन्वय की कमी है. जिस तरह से मंत्रियों की आपसी खींचतान और मुख्यमंत्री के साथ कई मंत्रियों का आपसी मनमुटाव की बातें सीधे तौर पर जनता के बीच जा रही हैं, विपक्ष इसका फायदा उठा सकता है

सोमवार, 8 जून 2020

पहले से अधिक संपन्नता से छिपते हैं तुम्हारे मौन के शब्द


#पहले से अधिक शब्दों के बीच,
   संपन्नता से छुपते हैं ,
  केसरिया धब्बों की तरह तुम्हारे मौन के शब्द
  मेरे मौन में--लेकिन
  देर तक रहते हैं देह में,देह की धमनियों में बजते से
  देर से अँधेरा है,यहाँ 
  दूर तक बिजली/रौशनी नही
  जिसने यकायक पहुंचा दिया है,
 इस गोपन आत्मा को, तुम तक 
 और मैंने अभी अभी रोना स्थगित कर 
दौड़ के अंतिम लक्ष्य तक,
बूँद भर से राफ्फू गिराई की महा समुद्र की
मुठ्ठी में भर   लिया ब्रह्मांड,को
सोचा --
 कब से मिलना नही हुआ तुमसे,
 कितने लंबे समय से,नही देखा तुम्हे
 इस लेखे को भी फाड़ दिया आज रत्ती रत्ती,
 बहुत तपने के बाद हुई आज बारिश में
मौलश्री के  वृक्षों का रंग गहरा हरा है आज 
 सड़के काली नदी सी, जिन पर
 मेरी राह ठुमकती है ,तुम तक आने को
 रक रसता की ऊब से उठकर
 एक मौलश्री का पेड़ उग आता है मेरी नाभि तक
कालसर्प योग से छीजती देह में -
 एक फूल धंसता है नाभि तक 
और सारी देह आहिस्ता से मौलश्री के गोल छोटे तेज फूलों की खुशबू से भर उठती है
 जानते हो बिछुड़ कर जीने का संघर्ष कैसा होता है
इसे लिखकर नही बताया जा  सकता
बस दौड़कर आतुरता में 
जीती हूँ ,ठहरकर
खुश्बू से तरबतर,तुम्हारे लिए
सोचने से ना बचते हुए
अनंत तक ,इस अँधेरे में रात -बिरात
जानते हो ना मौलश्री का एक बोन्साई भी तो है मेरे पास

 इस बार सहेज लूंगी कुछ फूल तुम्हारे लिए
( बुकुल की याद में *बकुल मौलश्री के फूल का नाम )

शुक्रवार, 15 जून 2018

,हर स्त्री के भीतर उपजा एक नायक होता है ,मन का साथी,वो आपकी काबलियत और इच्छानुसार ही व्यवहार करता है मेरा सनातन अमर नायक है ,मेरे ब्लॉग की हर पोस्ट का जो मुझे अज्ञात सुख देता है और इस भौतिक दुनिया का कोई सशरीर मनुष्य किसी स्त्री के मन का साथी नही हो सकता ,शरीर से एक स्त्री को गुलाम बना लेने वाला नायक कैसे हो सकता है, में स्वप्नजीवी हूँ और मेरी खुशी इस दुनियावी लोगों से बिलकुल अलग है ,तुम ध्यान से पढ़ोगी तो पहाड़ से मेरा नाता प्रेम का है --आत्मिक प्रेम दैहिक से कितना अलग है, जिसमे इस दुनिया का कोई प्रपंच नही, जब करोगी तो जानोगी, बाकि सब झूट है ---तो पुरूष पति किस चिड़िया का नाम है,तुम्हे इस प्रेम में पति /साथी का ना होना अखर रहा है ,तो जान लो पति को दोस्त बना लेना आसान नहीं है ,और हद्द दर्ज़े तक में ऐसा कर भी पाई हूँ फिर भी मेरे सपनो से छेड़ छाड़ का अधिकार मैंने नहीं दिया उन्हें --मेरा अपना स्पेस है स्त्री होने के नाते ,मुझे पत्नी या जीवन साथी की फ्रेम से बाहर निकाल कर देखो --तुम कहती हो तुमने प्रेम किया ,इस दुनिया में एकाध ही अभागा मनुष्य हुआ होगा जिसे प्रेम नहीं मिला होगा मानती हूँ पर प्रेम को आत्मिक और मानसिक स्तर जीना ये ताक़त सबको नहीं मिलती -मेरे घर में हम दो स्वतंत्र प्राणी है में पति को अपने दोस्तों पर नहीं लादती ना वो ऐसा करते हैं समय समय पर परिवार के फोटो शेयर करना अच्छा होता है ,हाँ में स्वतंत्र हूँ अपनी बात अपनी फोटो शेयर करने को ---और कौनसा पति होगा जो हफ्ते भर जब बाहर आफिस बाजार को निकलो तो बड़े प्यार से पत्नी की फोटो खींच दे --वरना कितनी सेल्फियों वाली दोस्त हैं यहाँ -मेरे तो पासवर्ड भी साझा हैं --सही पत्नी के क्या मायने --मेरा ए टी एम् हसबेंड के पास है --मुझे कभी किसी चीज के लिए मन नहीं मारना पड़ता जब जो चाहिए मिल जाता है और ये स्वतंत्रता मैंने कमाई है --स्वतंत्रता कामना हंसी खेल नहीं है कोई किसी को चाहे --और पति प्राणी के लिए कितने रात और दिन उसके परिवार के लिए तन मन से झोंके होंगे तुम जान नहीं सकती -गृहस्थी का पहाड़ अटल रखते हुए --तो अब आकर इस मुकाम पर हूँ जिंदगी क्या इतने लेखक लेखिकाएं हैं जिनके दर्ज़नो उपन्यास कहानियां होती हैं सबके वो नायक नायिका होते हैं ,अजब है तुम्हारी बात में फिर कहती हूँ किसी स्त्री का पति उसके भीतर का नायक नहीं हो सकता जो ऐसा कहती हैं वो झूटी हैं --हाँ साथी आपकी प्रेरणा हो सकता है मेरे ब्लॉग में ,ज़ेब्रा क्रॉसिंग ,एक लम्बी कहानी है 5 किश्तों में--उसका नायक सनातन दुनियावी प्रेमी है ---मेरी जन्म कुंडली में लिखा है एक दिन में सन्यासिनी हो जाउंगी ---शायद पहाड़ की ये दूसरी यात्रा ,पहली उत्तराखंड की थी --तीसरी बार उस संन्यास की शायद लौ जग जाए मेरे प्रिय लेखक नरेश मेहता कहते हैं --मनुष्य भोगता व्यक्ति की भांति है मगर अभिव्यक्ति कलाकार की भांति करता है , और लेखक को हर हाल अपने इसी अच्युत पद की रक्षा करना पढ़ता है, मुझे नही समझ आता , पति को कैसे अपने लेखन में ले आऊं प्रेम और कर्तव्य एक ही मुहाने पर है जिसे लिखती हूँ उसे जीती हूँ, और जिसे नही लिखती उसके लिए दिन रात बरस दर बरस जिए हैं ,वो तो भीतर है उसके लिए भीतर क्या है ये बताना लिखना छिछलापन है ,उसके दुख सुख के लिए भीतर माँ बहन बेटी दोस्त प्रेमिका एक साथ है, और मेरे ड्रीम नायक सनातन के लिए में अकेली पिछले साल पति को डेथ बेड से बचा लाई जब डॉ जवाब दे चुके थे तब मेरे भीतर के सनातन ने ही मुझे स्ट्रेंथ दी --मैंने उससे कहाथा क्या ईश्वर मुझसे मेरे साथी को छीन कर मुझे भिखारी बना देगा --तब सनातन ने ही कहा नहीं, मेरे पेड़ पौधों ने कहा नहीं -दिल ने कहा नहीं और आज में धनवान हूँ - तो डियर असल जिंदगी से अलग स्वप्न सनातन है ,कहीं ज़िंदा भी तो क्या में उससे मिल पाऊँगी नहीं जानती अगर मिली तो मेरा प्रेम दुगुना ही होगा जानती हूँ इस भीतरी प्रेम के बदौलत ही मेरे साथ ,मेरे आस पास इतनी ख़ूबसूरती है ,एक इनर ताक़त है जो मुझे झूट बोलने से हमेशा रोकती रही है --तो मेरा प्रेम गलत दिशा में कहाँ ---में रास्ते चलते जमीन पर पड़े पत्ते में भी ख़ूबसूरती देख लेती हूँ --लोग भोपाल आते हैं मुझसे मिलना चाहते हैं --जो मिलकर गए उनसे पूछो -मैंने कभी नहीं कहा मेरे पास समय नहीं --मुझे जो ईश्वर ने दिया है ,मुझे गर्व है और माँ की कुछ सीखें सौगाते हैं क्या में खूबसूरत हूँ नहीं ,बहुत नहीं साधारण स्त्री हूँ लेकिन में खूबसूरत होने के मायने जानती हूँ -ख़ूबसूरती से जीती हूँ मेरा मूलस्वर प्रेम है जिसके भीतर दुःख है और दुःख ही मेरी दूसरी ताक़त है जिससे में इस फरेबी दुनिया को जान पाती हूँ -उनसे निबटने उपाय जानती हूँ -किसी का मोहताज़ नहीं रक्खा मुझे ईश्वर ने -मेरी हर बात हर दुआ कबूल की लेकिन उसके पहले मेरी परीक्षा भी ली --क्या में कम उम्र युवती हूँ ,जो छल कपट नहीं जानती होंगी --पर बात यही है कि पास आकर झूट कपट भी मुझसे दूर भाग जाते हैं। तो शुक्रगुजार हूँ नेचर की जो मुझे बुरे लोगों से बचाय रखता है -मेरी दिशा को प्रेम की और बढ़ाये रखता है जब में दुबई गई थी तो जो पॉयलट उड़ाकर कर ले गया था उसका नाम मुस्तफा था , मैंने उस पर एक पोस्ट लिखी थी जिससे में ना तब ना आज तक मिली, तब भी वो मेरा नायक था, भीतर बुद्धत्व का उपजना क्या होता है नही जानती मगर अभिनेता गुरुदत्त मेरे ड्रीम नायक हैं ,तो जंगल भी तो पहाड़ भी तो--- पत्रकारिता में संघर्ष गृहस्थी बच्ची लेखन परिवार माँ पिता के बिना का जीवन क्या आसान होगा - स्त्री का व्यवहार ही उसका हथियार होता है --जिस आधार पर वो जीतती या हारती है --- ये लिखना क्या यूं ही है , मेरे पति की क्वालिटी 10 %पुरुष में भी ना होगी, और उन जैसी जिद्द भी नही ,एक जिंदगी बतौर मेरे मानवीय मनुष्य होने के नाते इन सबसे परे हैं ----मेरा स्त्री होना ही शुभ है सार्थक है --हर नजरिये से ,समझती हूँ --जिनमें अधिसंख्य पुरुष मित्र पति और मेरे साझे हैं जिन्होंने हमेशा मुझे आदर सम्मान प्रेम दिया --- मेरे प्रेम को में खिचड़ी बनाने से परहेज रखती हूं ,और उसकी नजर उतारती हूँ इतवार की शुभकामनाएं तुम्हे इस पोस्ट पर हार्दिक स्वागत है उन पुरुष स्त्री मित्रों का जो मेरी बात से सहमत भी हैं और उसे विस्तार भी दे सकें

 ,हर स्त्री के भीतर उपजा एक  नायक होता है ,मन का साथी,वो आपकी काबलियत और इच्छानुसार ही व्यवहार करता है मेरा  सनातन अमर नायक है ,मेरे ब्लॉग की  हर पोस्ट का  जो मुझे अज्ञात सुख देता है और इस भौतिक दुनिया का कोई सशरीर मनुष्य किसी स्त्री के मन का साथी नही हो सकता ,शरीर से एक स्त्री को गुलाम बना लेने वाला नायक कैसे हो सकता है, में स्वप्नजीवी हूँ और मेरी खुशी इस दुनियावी लोगों से बिलकुल अलग है ,तुम ध्यान से पढ़ोगी तो पहाड़ से मेरा नाता प्रेम का है --आत्मिक प्रेम दैहिक से कितना अलग है, जिसमे इस दुनिया का कोई प्रपंच नही, जब करोगी तो जानोगी, बाकि सब झूट है ---तो पुरूष पति किस चिड़िया का नाम है,तुम्हे  इस प्रेम में पति /साथी का ना होना अखर रहा है ,तो जान लो पति को दोस्त बना लेना आसान नहीं है ,और हद्द दर्ज़े तक में ऐसा कर  भी पाई हूँ फिर भी मेरे सपनो से छेड़  छाड़ का अधिकार मैंने नहीं दिया उन्हें --मेरा अपना स्पेस है स्त्री होने के नाते ,मुझे पत्नी या जीवन साथी की फ्रेम से बाहर निकाल कर देखो --तुम कहती हो तुमने प्रेम किया ,इस दुनिया में एकाध ही अभागा मनुष्य हुआ होगा जिसे प्रेम नहीं मिला होगा मानती हूँ पर प्रेम को आत्मिक और मानसिक स्तर  जीना ये ताक़त सबको नहीं मिलती   -मेरे घर में हम दो स्वतंत्र प्राणी है में पति को अपने दोस्तों पर नहीं लादती ना वो ऐसा करते हैं समय समय पर परिवार के फोटो शेयर करना अच्छा होता है ,हाँ में स्वतंत्र हूँ अपनी बात अपनी फोटो शेयर करने को ---और कौनसा पति  होगा जो हफ्ते भर जब बाहर आफिस बाजार को निकलो तो बड़े प्यार से पत्नी की फोटो खींच दे --वरना  कितनी सेल्फियों वाली दोस्त हैं यहाँ -मेरे तो पासवर्ड भी  साझा हैं --सही पत्नी के क्या मायने --मेरा  ए टी एम् हसबेंड  के पास है --मुझे कभी किसी चीज के लिए मन नहीं मारना पड़ता जब जो चाहिए मिल जाता है और ये स्वतंत्रता मैंने कमाई है --स्वतंत्रता कामना हंसी खेल नहीं है कोई किसी को चाहे --और पति प्राणी के लिए कितने रात और दिन उसके परिवार के लिए तन मन से झोंके होंगे तुम  जान नहीं सकती -गृहस्थी का पहाड़ अटल रखते हुए --तो अब आकर इस मुकाम पर हूँ जिंदगी क्या इतने लेखक लेखिकाएं हैं जिनके दर्ज़नो उपन्यास कहानियां होती हैं सबके वो नायक नायिका होते हैं ,अजब है तुम्हारी बात में फिर कहती हूँ किसी स्त्री का पति उसके भीतर का नायक नहीं हो सकता जो  ऐसा कहती हैं वो झूटी हैं --हाँ साथी आपकी प्रेरणा हो सकता है मेरे ब्लॉग में ,ज़ेब्रा क्रॉसिंग ,एक लम्बी कहानी है 5  किश्तों में--उसका नायक सनातन दुनियावी प्रेमी है ---मेरी जन्म कुंडली में लिखा है एक दिन में सन्यासिनी हो जाउंगी ---शायद पहाड़ की ये दूसरी यात्रा ,पहली उत्तराखंड की थी --तीसरी बार  उस संन्यास की शायद लौ जग जाए 
मेरे प्रिय लेखक नरेश मेहता कहते हैं --मनुष्य भोगता व्यक्ति की भांति है मगर अभिव्यक्ति कलाकार की भांति करता है , और लेखक को हर हाल अपने इसी अच्युत पद की रक्षा करना पढ़ता है,
मुझे नही समझ आता , पति को कैसे अपने लेखन में ले आऊं प्रेम और कर्तव्य एक ही मुहाने पर है जिसे लिखती हूँ उसे जीती हूँ, और जिसे नही लिखती उसके लिए दिन रात बरस दर बरस जिए हैं ,वो तो भीतर है उसके लिए भीतर क्या है ये बताना लिखना छिछलापन है ,उसके दुख सुख के लिए भीतर माँ बहन बेटी दोस्त प्रेमिका एक साथ है, 
और मेरे ड्रीम नायक सनातन के लिए में अकेली पिछले साल पति  को डेथ बेड  से बचा लाई जब डॉ जवाब दे चुके थे तब मेरे भीतर के सनातन ने ही मुझे स्ट्रेंथ दी --मैंने उससे कहाथा क्या ईश्वर मुझसे मेरे साथी को छीन कर मुझे भिखारी बना देगा --तब सनातन ने ही कहा नहीं, मेरे पेड़ पौधों ने कहा नहीं -दिल ने कहा नहीं और आज में धनवान हूँ -
तो डियर असल जिंदगी से अलग स्वप्न सनातन है ,कहीं ज़िंदा भी तो क्या में उससे मिल पाऊँगी नहीं जानती अगर मिली तो मेरा प्रेम दुगुना ही होगा जानती हूँ  इस भीतरी प्रेम के बदौलत ही मेरे साथ  ,मेरे आस पास इतनी ख़ूबसूरती है ,एक इनर  ताक़त है जो मुझे झूट बोलने से हमेशा  रोकती रही है --तो  मेरा प्रेम गलत दिशा में कहाँ ---में रास्ते चलते जमीन पर पड़े पत्ते में भी ख़ूबसूरती देख लेती हूँ --लोग भोपाल आते हैं मुझसे मिलना चाहते हैं --जो मिलकर गए उनसे पूछो -मैंने  कभी नहीं कहा मेरे पास समय नहीं --मुझे जो ईश्वर ने दिया है ,मुझे गर्व है और माँ की कुछ सीखें सौगाते हैं क्या में खूबसूरत हूँ नहीं ,बहुत नहीं साधारण स्त्री हूँ लेकिन में खूबसूरत होने के मायने जानती हूँ -ख़ूबसूरती से जीती हूँ मेरा मूलस्वर प्रेम है जिसके भीतर दुःख है और दुःख ही मेरी दूसरी ताक़त है जिससे में इस फरेबी दुनिया को जान पाती हूँ -उनसे  निबटने  उपाय जानती हूँ    -किसी का मोहताज़ नहीं रक्खा मुझे ईश्वर ने -मेरी हर बात हर दुआ कबूल की लेकिन उसके पहले मेरी परीक्षा भी ली --क्या में कम उम्र युवती हूँ ,जो छल कपट नहीं जानती  होंगी --पर बात यही है कि  पास आकर झूट कपट भी मुझसे दूर भाग जाते हैं। तो शुक्रगुजार हूँ नेचर की जो मुझे बुरे लोगों से बचाय रखता है -मेरी दिशा  को प्रेम की और बढ़ाये रखता है 
जब में दुबई गई थी तो जो पॉयलट  उड़ाकर कर ले गया था उसका नाम मुस्तफा था , मैंने उस पर एक पोस्ट लिखी थी जिससे में ना तब ना आज तक मिली, तब भी वो मेरा नायक था, भीतर बुद्धत्व का उपजना क्या होता है नही जानती मगर अभिनेता गुरुदत्त मेरे ड्रीम नायक हैं ,तो जंगल भी तो पहाड़ भी तो---
पत्रकारिता में संघर्ष  गृहस्थी बच्ची  लेखन परिवार माँ पिता के बिना का जीवन क्या आसान होगा - स्त्री का व्यवहार ही उसका हथियार होता है --जिस  आधार पर वो जीतती या हारती है ---
ये लिखना क्या यूं ही है , मेरे पति की क्वालिटी 10 %पुरुष में भी ना होगी, और उन जैसी जिद्द भी नही ,एक जिंदगी बतौर मेरे मानवीय मनुष्य होने के नाते इन सबसे परे हैं ----मेरा स्त्री होना ही शुभ है सार्थक है --हर नजरिये से ,समझती हूँ --जिनमें अधिसंख्य पुरुष मित्र पति और मेरे साझे हैं जिन्होंने हमेशा मुझे आदर सम्मान  प्रेम दिया ---
मेरे प्रेम को में खिचड़ी बनाने से परहेज रखती हूं ,और उसकी नजर उतारती हूँ 
इतवार की शुभकामनाएं तुम्हे
   इस पोस्ट पर हार्दिक स्वागत है उन पुरुष स्त्री मित्रों का जो मेरी बात से सहमत भी हैं और उसे विस्तार भी दे सकें  

शनिवार, 9 जून 2018

इस अभेद में भेद को जान लेना तुम, पहाड़ों पर बारिशों के बाद जब कांस के फूल खिलेंगे तुम खुश होना-

मैंने तय किये थे रास्ते और उन रास्तों पर सोचा था  तुम्हे ,जिनसे होकर तुम गुजरे होंगे ,सोचती हूँ तय तो  था तुमसे बिछुड़ना भी बिना मिले ही ---उन घुमाव दार सड़कों की  स्मृतियों में ,उनके हर मोड़ पर ठन्डे पहाड़ों की निर्मल गुनगुन थी कौन सुनता होगा जिन्हे पहाड़ सुनना/सुनाना  चाहे उसे ही ना ?जो सुनना चाहे --तब लौटना, लौटना नहीं था लेकिन पीछे मुड़कर देखना सच था पहाड़ मुस्कुराते हुए बिना चले ही साथ चल पड़े थे दूर तक ,बिदा देते से -समूचे पहाड़ आँखों में भर लाई  हूँ ---अब लौटी हूँ तो रोना चाहती हूँ ,कितने शिकवे थे इस दुनियावी लोगों के ,--इस तपते शहर के सुर्खरू गुलमोहर मुँह चिढ़ाते हैं ,कहते हैं तुम लौट आई --रोका नहीं तुम्हे किसी ने तुमसे अनुनय नहीं की ?किसी ने ----क्या कहती इन सर चढ़े गुलमोहर से --सनातन जिंदगी कम मौके देती है मनमुताबिक जीने के, एक की लापरवाही दूसरे के दुःख का सबब  बन जाती है अनजाने ,तय था ये सब भी जिसे तय किया था किसी ओर  पल ने --उस शाम वेज लजीज मोमोज़ खाते बारिश हुई --और भीग गई उसी सड़क पर जिसका नाम मुझे बाद में पता चला ,तुम्हारी ताक़ीद को सुना था,जानते हो  सालों से एक सफ़ेद ट्रांसपेरेंट छाता  खरीदना तय था--हर बारिश में सफेद छाता ढूँढ़ते जाने कितने हरे नील पीले छाते इकठ्ठा होते गए नीली पीली स्मृतियों संग --सफेद छाता उस दिन भी नहीं मिला, मिलता तो बारिश बादल एक साथ देख लेती ऊपर सर उठाकर ---फिर एक बमुश्किल हरा छाता  पसंद आया --जो उस दिन जाने कितनी ह्री पहाड़ी  यादों संग बारिश से भर गया --सोचती तो हूँ सोचने से ही इच्छाएं पूरी हो जाती तो ?--पर नहीं जो इच्छाएं पूरी नहीं होती दुःख देती हैं ---जानते हो ना दुःख अलाव है हरदम जलाता है,जिस होटल में रुकी थी वहां विंडो कर्टेंस एकदम नीरस रूखे बूढ़े भूरे रंग के थे उन्हें देखना गवारा नहीं था क पल भी , तो बस जब तक वहाँ होती पीछे बालकनी से पहाड़ की ऊंचाई में बसी घनी हरियाली गर्म कॉफी की प्याली हाथ लिए निहारती रहती ,मेरा बस चलता   तो आकाश की नीलाई और पहाड़ों की हरियाली खींच लाती और पर्दों  पर स्प्रेड कर  देती --
ब लौटकर जब एक पूरा दिन बीत गया है तो दूर तक पसरी इच्छाएं पहाड़ों की शाममें टिमटिम जगमग हो उन जगहों पर  उदास मुस्कान लिए सामने आती है रुलाई आँखों में भरभराई हुई  है --पेड़ों के चेहरे साफ़ दिखलाई पड़ते हैं पत्ते अब भी उड़ते हुए दुपट्टे में पनाह लेते से हैं अनाम फूलों की खुशबू तरबतर करती है कुछ भी नहीं भूल पाती हूँ सनातन --जिंदगी अक्सर तेज़ चलने के बावजूद पीछे धकेलती है --आगे उनींदे दिन बीतेंगे जानती हूँ बेबसियों की उदासी भरी शामें आँखे नम करती रहेंगी --इस अभेद में भेद को जान लेना तुम, पहाड़ों पर बारिशों के बाद जब कांस के फूल खिलेंगे तुम खुश  होना-- इस बरस साल भर इकठ्ठा करुँगी आम नीम गुलमोहर,आकाश चमेली चम्पा  जामुन अमरुद के बीज और उन्हें बिखेर  दूँगी तुम्हारी मनपसंद  पहाड़ों की घाटियों में कुछ तो लगेंगे ,फलेंगे उम्मीद से ज्यादा उम्मीद रखती हूँ जीवन रहा तो देखूंगी कभी उन्हें बढ़ते खिलते फूलते संग संग तुम संग वो ख़ुशी कितनी मीठी होगी सनातन --कोई नहीं जान पायेगा इस गोपनीय ख़ुशी को --
-मन कसकता रहेगा फिर भी -- क्योंकि में बुरांश से भरी पहाड़ी देखना चाहती थी ,बुरांश के गहरे  लाल गुलाबी फूलों को बालों में सजाना चाहती थी -तुम्हारी आँखों में झांकते हुए-चेलिया गाँव के नुक्कड़ पर बनी  किसी गुमठी की  चाय पीना चाहती थी --पहाड़ी आलू का देशज परांठा खाना चाहती थी --और बुरांश की चाय पिलाने  का तो वादा है ही --भूल मत जाना --उस कच्ची पुलिया के कांधों पर गहरी आसक्ति में डूबे झुके उस अनाम पेड़ के कानो में तुम्हारा नाम --सनातन कह आई हूँ कभी गुजरो तो वो आवाज़ लगाएगा --सुन लेना जानते हो पेड़ बहुत जल्दी बुरा मान जाते हैं और फिर उदास भी  हो जाते हैं , बस पेड़ों की उदासी में बर्दाश्त नहीं कर पाती हूँ ,मेरी ख़ुशी इतनी ही है इसलिए  ख्याल ---रखना 
अपना भी 
-इसी बरस जब बुरांश के फूलों का मौसम आएगा और टोकरा भर बुरांश लिए तुम मेरा इन्तजार करोगे किसी बुरांश के पेड़ों और फूलों से लदी भरी पहाड़ी के किनारेअपनी  मनपसंद पुलिया   पर 
जल्दी ही -में उस पुलिया के[कि]नार मिलूंगी ----
# पहाड़ भर यादें --पहाड़ों की- 9 / 6/ 2018 
[पहाड़ों की यातनाएं हमारे पीछे हेँ ..मैदानों की यातनाएं हमारे आगे हेँ [ब्रेतोल्ट ब्रेख्त ].

शुक्रवार, 18 मई 2018

लौट कर 
एक ही समय में होना 
स्पर्श में ,स्मृति में ,बारिश में बादलों की तरह बरसना नादियों की तरह बहना,समुद्र में मिलना
प्रेम, जल,आग और रोशनी के दृश्य में 
रोशनी की तरह दौड़ना बार बार --और दौड़ जाना
फलांगते हुए सात समुद्र
उस उदासी की मौजुदगी मे जो
उम्र और रिश्तों के हिसाब में
अभिसार की रातों में
रूमानी सपनो में बसी थी ,
देह की अपरिचित भाषा में
बूढ़े पहाड़ों पर बजती गिटार की धुन में
पत्तों की खड़ खड में
रात के स्तब्ध सन्नाटे में ,होते हुए भी ,में थी

अपने ही आत्मघाती प्रेम में गलती -सुलगती
किसी प्रत्याशा में तमुलनाद सी
जहाँ नही थी, वहाँ मेरा सुख था
खुद को टोहता, अपने प्रेम में संक्षिप्त और सूचनात्मक
सावधान आगे अंधा मोड़ है 

और प्रेम जो अभी बाकि था/ है/रह
(पंछी लौटते हैं ,अपनी डायरी से 2010, 17 मई )

सोमवार, 12 मार्च 2018

देह अद्भुत शान्ति की खोज में अपने से ही नितांत अलग थलग चल पड़ती है ---चरम उपलब्धि से कुछ कदम पीछे ही,

सूरज को टोहता अन्धेरा आगे आगे चलता है अक्सर रात की अगुवाई  करता इन दिनों चीजें अपनी तरह से अलग और अलस ढंग से दूसरी तरह से पसरी हुई हैं एक आत्म निवेदन उनसे लगातार सुनाई देता है ,मुझे रहने दो ऐसे ही --पेड़ पत्ते कपड़ों के ढेर फ्रीज़ में सुस्तसी सब्जियां पेन कागज कांच में जमी धूल मिटटी के कटोरे में जमा खट्टा होता दही यहाँ तक की आंसू  भी छलके रहने के लिए बरबस 
 .सात्र का अस्तित्ववाद इसी सिद्धांत पर है कि जिन घटनाओं के लिए आप उत्तरदाई नहीं उनका बोझ भी आपके ही माथे पर है.फिर जिन्दगी का हिसाब -किताब कैसे करें कि सारे जोड़ सही हो जाए बिना किसी को घटाए ,उनके सुख चैन छीने बिना 
वो वक्त जिसे दुहाई देकर जिया उसके- अपने लिए वो बिछुड़ गया ..उसके बाद सारे स्पर्श खुरदुरे हो कर रह गये, कैसे भूलना होता है,-ना भूलने वाली बातें अस्वाभाविक था शब्दों का अर्थ बदलना उनका विपरित हो जाना .
..एक लम्बी यात्रा से ऊबा हुआ मन और  उसमे ना सुस्ताया हुआ दिन था वो ..बस हरा भरा मन हार गया था 
.ठंडक थोड़ा कम थी वहाँ...एक कम गहरी नदी पर पुल तैरते दिखलाई पड़ते हेँ ..डूब जाने के खतरों के साथ ..यात्राएं अधूरी और त्रस्त होकर रह जाती है ..किनारे खो जाते हेँ तिनके भी छूट जाते हेँ और दूर तक फैली धुध मानो सब कुछ निगल जाना,चुप्पी साधे हुए .कम में अतिरिक्त हांसिल कर लेना भी अपनी इमानदारी में अपने साथ किसी और को भी देखना ..एक हिचकी आ जाती है ..दो तीन चार और लगातार कौन याद करता है ..लेकिन कौन ?पानी गले को तर करता है फिर भी बेअसर ...उस दिन ऐसा ही लगा कहीं दूर भाग जाने का मन एक लम्बी उड़ान ..नीले आसमां में बस जाने का मन बस आसमान और मेरे बीच कोई ना हो ..एक असंभव इक्छा ..फिर लगा पलक झपकते ही ये शहर दूसरे शहर में तब्दील होजाए लेकिन वो भी हो ना सका,पूरे 48 घंटे थे सब कुछ छोड़ देने के लिए ..कोई पहाड़ काट लेता पर वो पल नहीं कटे 
एक खालीपन और एक निर्मम बेवकूफी के बीच अपने को मृत्त घोषित कर देने में ही सुकून मिलना था ...वो जिन्दगी की  सबसे खुशनुमा दोपहर थी तब लगा उड़ना सचमुच ऐसा ही होता होगा अपना ही वजूद ढूँढ पाना मुश्किल था ...संगमरमरी चट्टानों से सूरज ओट हो जाता है ...आँखों का मौन आँखों में ही रह जाता है पलकों से उठते गिरते पल-पल का हिसाब जरूर होगा वहाँ , दिन बीत जाता है रात भी, और बीतती है सुबह ..थक जाती हूँ बहुत दूर तक जाने पर पलटना फिर देखना घर पीछे छूट जाता है ..लौटती हूँ क्या मांगा था ,मुठ्ठी भर धूप ही तो, वो दोपहर दिल में उतरती है सांसों में रूकती है बीच राह कोई रोक लेता है चलते-चलते टोक देता है,आहिस्ता छू लेता है आँखे खुलती है फिर कोई पीछे छूट जाता है पकड़ से परे और वहीँ मरना होता है अचाहे दुःख घसीटते से पीछा करते हेँ और फिर एक जामुनी सफर शुरू होता है अपनी ढेर सी गलतियों का कन्फेस ..तलाश का अंत... ना बोले शब्दों की आंच झुलसा जाती है,एक अकथ पीड़ा बड़े-बड़े दावों -दलीलों बौने हो रह जाते हेँ ,और अब लौटती हूँ तो सब कुछ ठहर गया है शहर के तालाबों पर धुंद,पहाड़ों पर हवाएं पेड़ों पर पत्तियां और नीले बादल सिकुड़ कर आँखों में बस जाते हेँ ,जैसे कहीं कुछ बदला ही नहीं जैसा उन्हें छोड़ा था वैसा ही ,बरसों बाद आज देखा बादलों में उड़ता हुआ एरोप्लेन बचपन की खुशी की तरह बयान ना हो सके ऐसी गंध की छुवन अब भी बरकरार है खिड़की के शीशे से लिपटी धूल को हटाने पर अंगुली कसमसाती है एक शब्द लिखा नहीं जाता ..सीधी लकीर बीच में थोड़ी आड़ी फिर ऊपर की ओर सीधी ..उसके नाम का पहला अक्षर अंगुली की पोर में धंसा रह जाता है,पूरा नाम जैसे एक पूरी यात्रा कर ली हो...क्या वो दिन वो यात्रा वो समय,स्मृतियों में इतना ही ताजा रहेगा ..गहराती शाम में उदासी घूल जाती है सुख में दुखाती शाम पीड़ा की तरह घुलती जाती है ,कोई बात नहीं सपने रहेंगे तो जियेंगे -संग,पार्क की एक बेंच पर बैठे सोचा जाना सामने,एक सेमल का बूढा पेड़ है जिसके तने में गहरी खोह दिखाई दे रही है ...... नारंगी फूलों से भरा, कुछ फूल खोह में धंस जाते हैं कुछ क़दमों में.. ओर आस-पास बिखर जाते हेँ शाम टूटती सी बीतती है थोड़ा कुछ भुलाने की कोशिश में बहुत कुछ याद आता है ..गुजरता है मन से, अपने आस पास की दुनिया ओर वे तमाम लोग जो हमारे बीच हेँ उनसे लड़ने का कोई बहाना ढूँढू ..लगता है... कहानी का एक हिस्सा पूरा होता है ,कहानी नहीं ..जिन्दगी भी नहीं 
हवा के साथ  बजते हुए कुछ शब्द दिल में घुसपैठ करते हेँ, बुध्धम शरणम गच्छामि ...की आवाज..कानो से टकराकर लौटती है    शरीर  के साथ उंचाई से नीचे का डर,ओर डर के साथ धडाम से नीचे  गिर जाने  वाला डर होता है ,वरना तो ऐसा कुछ भी नहीं है ..ओर फिर आँखें मुंद जाती है,बजाय बस सोच ही काफी है, बेचैनियों की तरल छूअन उसे छू कर लौट आती है तब तक अस्सी करोड़ से ज्यादा बार उसे सोचा जा सकता है ..बहुत कुछ ऐसा था जिसे नहीं समझा जा सका ,कितनी आहटें ओर दस्तकें थी पर वही नहीं था, जो उसके लिए था किसी ओर के लिए संभव ही नहीं था एक ऐसा सच जो पानी में घुल मिल गये की तरह था ,इस बार भी लगा वह लौट आयेगा कई बार की तरह...बीते सालों में उसका इन्तजार मौसमों की तरह ही तो किया था  ओर सोचा  जियेगा बीते कल को फिर से ..एक छोटे से जीवन में नामालूम से रंग भी बुरे मौसम की आशंका से फीके हुए जाते हेँ एक धूसर दुःख चुप्पी साध लेता है जिसके पीछे का सुख एक धनात्मक उम्मीद जगाता है ..बेहद निस्संग ओर उदास शाम भी आखिर खींच-तान के, दिन के साथ बीत ही जाती है, इस बारिशी नमी में भी कुछ शब्दों को सुखा लेने का सुख अन्दर ही अन्दर शोर बरपाता है ,कतई नहीं हो सकता  --क्या? वो ,जो तुम सोचती हो, वैसा -हाँ क्यों नहीं ...अपने को भरमाने के अलावा हो ही क्या सकता है फिर भी सब कुछ उंचाई से नीचे की ओर धंसता ही जाता है ,९० डिग्री के कोण से नीचे देखना देह को थरथरा जाता हैसामना करने का,  मुंदी आँखों से एक ठंडी साँस के साथ फिर से जीने की कोशिश --बस बचा लिया उसने वरना तो मर ही जाती --थैंक्स ,एक दिली थकान जुबां से बहार निकलती है उबड़-खाबड़ पहाड़ों से, दुःख से उबरना ,हमें लौटना होगा अपनी आबो- हवा में जहाँ हमारी चुप्पियाँ रहती हेँ जिनके बेहद करीब उसकी नर्म अँगुलियों ने खोज ली थी [लामायुरु]की सफेद पगडंडियाँ बस संग साथ की सोच से  उमीदों को  बल मिलता था,ओर कोशिशों से ,जहाँ अनाम  जंगली पेड़ों  की कंटीली गीली ओर चमकदार पत्तियों में धंसी धूप खिलखिल करती अचंभित करती है अब भी ...
सच में बावजूद हंसना फिर भी स्थगित रहता है -विक्टोरियन उपन्यास की तर्ज पर कभी कभी अभिभूत होना ...सर्वेश्वर की कविता का याद आना उसकी सौ कविताओं के साथ  उनके बाद ....कितना चौड़ा पाट   नदी का कितनी गहरी शाम'' वसंत में शुरू और ख़त्म हुए किस्से का वजूद बचा रहता है सर्दियों की शामे और रातें तो वक्त ही नहीं देती यूं  आती हें यूं  जाती हें कि बस उनका मुड़कर ओझल होना ही याद भर रह जता है फिलहाल दिन बड़े हें और राहत है लेकिन ऐसे कैसे दिन आये भी नहीं ,बीते भी नहीं,भूले भी नहीं,और खो गए किसी अक्षांश -देशांतर में दिक्काल के किसी कोण पर ना मालूम कहाँ ...वसंत का आना सेमल का दहकना बर्फ में दबी कविताओं वाले दिनों का पिघलना टहनी से बिछड़ी पत्तियों का नवजीवन बनना फिर सेमल के फूलों से फलियाँ बनना फिर उनमे गद बदी  रुई का भरना .हवा में एक गंध का फैलना धुंद और धुप के बीच चिड़ियों की उड़ानों का स्थगित रहना शाम का जाना रात का आना ...और छोटे-छोटे  सफेद सेल्फ  प्रिंटेड फूलों की ए लाइनसफेद  नाईटी में बहुत दिनों बाद खुद को हल्का महसूस करना ..तारों भरे आसमान के नीचे  छत्त  पर सुकून में मोबाईल के मेसेजेबोक्स में झांकना ,डिलीट करना बकवास ख़बरें ..दुनिया से बेखबर एक कतरा सुख की खातिर  आखिर कोई नाम तो चमके उसकी खातिर .
देह अद्भुत शान्ति की खोज में अपने से ही नितांत अलग थलग चल पड़ती है ---चरम उपलब्धि से कुछ कदम पीछे ही, राग -विराग ,आसक्ति -अनासक्ति ,मिलन--बिछोह और समय की क्रूरताओं में हमारी समिल्लित अनुभूतियों के बीच आकार लेता --हमारा बचा हुआ प्रेम,इसी उम्मीद पर तो बाढ़ को तैर कर --तूफान को पार कर --इस दुनिया को तुम्हारी ही आँखों से देखते हुए,कोई अगर बची हो उन अधूरी इक्षाओं को पूरा करना, जीना चाहती हूँ, असंभव में कुछ संभव जोड़ते हुए -उन -सारे सपर्शों को गंध में लपेट--झिलमिलाते हुए अधीर दिन की तरह,  दो शब्दों में बोला गया एक शब्द, शहद में गूंथा हुआ नाम , देह की परिचित भाषा में - दिनों हफ़्तों महीनो सालों जिसमें तुम उजाले की शक्ल में दिखाई देते रहते हो हरदम , अपने लिए, तुम्हारे लिए बचाये गए जीवन में, अपने वासन्ती आँचल के बालूचरि ताने- बाने में,एक भरा पूरा सच, जिसे  इस जीवन में  तुम्हारे सिवा कोई कुछ नहीं जानता.
  एक चुप्प सी रात भी बीत जाती है -हरमोड़ पर भटकाव --हर भटकाव में ढेर से रास्ते --ठिठक जाओ या एक चुन लो या लौट जाओ सब कुछ आपकी सोच पर निर्भर करेगा ---लौटो तो दस पांच खिड़कियों वाला घर भी अंदर से रोशन नहीं करता, लेकिन  क्या जरूरी है हर खिड़की से रौशनी भीतर आये --लेकिन इन्ही में से किसी दिन या रात तयशुदा मृत्यु  जरूर आएगी --मृत्यु  का भय घेरता है ---'कौन हो तुम ''पूछते ही वह धूप की परछाई में गुम  होता है किसी मुकम्मल स्पर्श से जीवित होती देह --फिर छूट जाने से डरती है तेज गले से रुलाई का भरभराना रोने से बदत्तर --कितना  दम घुटता  है कोई माप नहीं, एक तपिश देह में उतरती है --जल में उँगलियाँ डूबा देना एक सुकून एक ठंडक एक राहत --लेकिन कब तक ?  एक चुप्प सी रात भी बीत जाती है -बहुत उदास किया एक उदास दिन -रात ने जो बीत गया अभी अभी, डब डब  सी आवाज़ करता पानी में

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

कलमकारी भारत की प्रमुख लोककलाओं में से एक है

कलमकारी भारत की प्रमुख लोककलाओं में से एक है
कपड़े पर जन जीवन ये कलमकारी कहलाती है,दक्षिण में ये कला खूब विकसित हुई ,ये कला एक श्रम साध्य कार्य है ,चित्र को वेजिटेबल डाय द्वारा चार पांच दिन में उकेरा जा कर तैयार किया जाता है , इसे इमली के बीज उसके पानी ,फिटकरी के घोल से बार बार निकाला जाता है ,इमली की लकड़ी के कोयले से ही आकृति उभारी जाती है,ये पूरी तरह से केमिकल रंगों से मुक्त होते है,इस कारण महंगे भी होते हैं , इस कला के कलाकारों को फिर भी ।उतना मेहनताना नहीं मिलता जिसके वो हक़दार हैं-महंगे और चमीकीले  बाजारों ने  इन बेहद कर्मठ कलाकारों के जीवन की रौशनी कम कर  दी है ,सरकारों द्वारा प्रायोजित बाजारों और हाट मेलों में इनके हुनर को सराहा तो बहुत जाता है लेकिन इन्हे अपने माल और मेहनताना के वाजिब मूल्य नहीं मिलते ,इससे भी बड़ी विडंबना यह है की वेजिटेबिल डाय वाले कपड़ों के मुकाबले में मार्केट में सिंथेटिक डाय वाले कपड़ों की नकल तेजी से आ जाती है ,और जानकारी के अभाव में ,लोग इन वेजेटेबिल्स डाय की असल कीमत देने को तैयार नहीं होते 
क़लमकारी एक हस्तकला का प्रकार है जिस में हाथ से सूती कपड़े पर रंगीन ब्लॉक से छाप बनाई जाती हैक़लमकारी शब्द का प्रयोग कला एवं निर्मित कपड़े दोनो के लिए किया जाता है मुख्य रूप से यह कला भारत एवं ईरान में प्रचलित है।
सर्वप्रथम वस्त्र को रात भर गाय के गोबर के घोल में डुबोकर रखा जाता है अगले दिन इसे धूप में सुखाकर दूध, माँड के घोल में डुबोया जाता है। बाद में अच्छी तरह से सुखाकर इसे नरम करने के लिए लकड़ी के दस्ते से कूटा जाता है। इस पर चित्रकारी करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक पौधों, पत्तियों, पेड़ों की छाल, तनों आदि का उपयोग किया जाता है।
भारत में क़लमकारी के दो रूप प्रधान रूप से विकसित हुए हैं एक  हैं मछिलिपट्नम क़लमकारी और दूसरा श्रीकलाहस्ति क़लमकारी।
मछिलिपट्नम क़लमकारी में मुख्य रूप से पादप रंगों का उपयोग लकड़ी के ब्लॉक के माध्यम से किया जाता है। इसके लिए जिस कपड़े का उपयोग होता है वह आंध्रप्रदेश के मछिलिपट्नम प्रांत में बनाया जाता है। इस शैली से बनाई गई हस्तशिल्प वस्तुओं को मुगल काल में दीवार पर सजावट के तौर पर लगाया जाता था,वर्तमान में ये साड़ियों बेडशीट दुपट्टे सूट्स रुमाल और घरेलू सजावटी वस्त्रों में भी बखूबी की जा रही है 
[चित्र में एक असल वेजिटेबल डाय वाला कलमकारी saari
 

खिलंदड़ी --गिलहरियां बहुत आसानी से पीछा करती हें --एक दूसरे का

खिलंदड़ी --गिलहरियां बहुत आसानी से 

पीछा करती हें --एक दूसरे का 

--वहाँ प्रतियोगिता नहीं है /उनकी बेहिसाब दौड़ती-फुदकती दुनिया में /-
-एक आरामदायक सुरक्षा है /उजली सुबहों में घास के बीज कुतरती गिलहरियां मुझे पसंद हें /-
-उतरती दोपहर और शुरू होती शामों से पहले वाले सन्नाटे में /--
पत्तों की  हरी रौशनी में झुरमुटों के बीच /उनका होना एक हलचल है /-
-पत्तों के गिरते रहने में भी /
--तब भी ,जब सुकमा की झीरम घाटी में विस्फोट होता है /
और पत्तों की  नमी यकायक सूख जाती है
/--भरभराकर टूटते शब्द बौने होते जाते हें /
तब कड़क और कलफदार चेहरों वाली इस दुनिया को /-
-अपनी गोल किन्तु छोटी और चमकदार आँखों से ,
चौकन्ने कानों से,  पंजो के बल /पेड़ के तने को नन्हे पंजों से थामे / -खड़ी  हो देखती है 
,झांकती ,सुनती है गिलहरियां- अगल बगल -
---मेरी समझ से---लचीली गिलहरियां दुःख ताप  ईर्ष्या  से परे
दुनियावी चीजों को एक सिरे से देखती मिलेंगी /-
-एक लम्बे विलाप को पूर्ण विराम देती सी /
-किसी लोकवाद्य यंत्र की  तरह बजती हुई  निष्कपट /
-बांस की  दो चिपटियों  के बीच दबकर निकलती सी उनकी आवाज़ की  मिठास /-
उस-- इस समय में /-जिनमे दर्ज है हमारा प्रेम /-
-प्रेम के उत्सव की  तरह ,मंगलगीत गाती बीतती  है /
--फिर आना तुम याद बहुत कहती--/

और तमाम तरक्कियों के बावजूद बदत्तर  होती जाती इस दुनिया में /
-बचे हुए खूबसूरत प्रेम की  मानिंद /
जो घास के एक  नन्हे तिनके के सहारे थाम लेती है, पूरा आकाश /-
उन्ही गिलहरियों से मुझे बेहद  प्रेम है 
---बेहद
गिलहरियां--[कविता ]
विधुल्लता 

शनिवार, 22 जुलाई 2017

# भारतीय खान पान ,परम्परा और हमारे व्यवहार और हमारी रेलवे

# भारतीय खान पान ,परम्परा और हमारे व्यवहार और हमारी रेलवे 
कल एक खबर देख रही थी ,भारतीय रेल विभाग में खान पान को लेकर कितनी गड़बड़ियां है ,हेल्थ को लेकर सरकार एक तरफ चौकन्ने होने का दावा करती है, दूसरी तरफ ,ऐसा खान -पान जो कई बीमारियों के साथ जान लेवा हो सकता है --तो कहाँ है हमारी गलती और कहाँ है सरकारी भूले ,
बचपन में रेल के सफर के दौरान हर स्टेशन पर हमें सीज़नल फल फ्रूट मिल जाते थे,करौंदे ,आम अमरूद, ककड़ी खीरा चिरोंजी ,शहतूत,फालसे,जामून और उबलासूखा हुआ चना मूमफली आदि, एक सुराही होती थी या छागल जिसमें पानी भर कर घर से ले आते थे ,खाने में अचार पूड़ियाँ पराठे आलू की सब्जी --और नमकीन --सोने के लिए एक मोटी से दरी होल्डाल एकाध एयर पिलो होता, सफर कितना ही लंबा होता मज़ा आता था,और आराम से कट जाता था 
धीरे धीरे सब बदल गया ,वातानुकूलित डिब्बे सफ़ेद झक चादरें कम्बल --और उसमें रेलवे की मन मर्ज़ी का खाना --रेलनीर --जिससे ना मन भरता है ना पेट --अब स्टेशन पर वो फल कटी हुई ककड़ी भुट्टे नहीं मिलते ,अब हम अंकल चिप्स हल्दीराम की भुजिया खाते हैं ,वो भी मनमाने दामों पर ,अब सफर पर चलने के दौरान औरते वो मशक्क्त नहीं करती जो हमारी माँ को हमने देखा --वो दो चार लोगों की अतिरिक्त खान सामग्री साथ रखती थी कि ,नामालूम कब ट्रैन लेट हो जाये कब कहाँ रुक जाना पड़ जाए, और ऐसा होता भी था ,तब माँ की चतुराई देखते ही बनती थी ,बचपन के ऐसे तमाम किस्से याद है जब हमने रातें वोटिंग हाल में गुजारी लेकिन खाना कम नहीं पड़ा बल्कि आस पास में बांटकर भी बच जाता था ---अब एक शब्द ' सुनती हूँ ज़हर खुरानी , ना किसी का खाना खाइये ना खिलाइये , चोरों और ठगों का बोल बाला है हमारी ये परम्परा है क्या सब कुछ अकेले अकेले खा जाएँ --सहयात्रियों को बांटे बिना --लेकिन सब कुछ बदलने के साथ मानवीय वृतियां भी ज्यादा बदली और ज्यादा ठगी होने लगी --सोचने की बात ये हैकि ऐसा क्यों हो रहा है --पूँजीवाद ने जो भी बदला है उससे भौतिक प्रगति के सूचकांक चाहे जितने ऊँचे हो ,लेकिन शनै शनै मानवीय वृतियों का ह्रास हुआ है और होता जा रहा है -
पिछले साल ही में तिरुपति से लौट रही थी सम्पर्क क्रांति [ए पी ] उसमें पेंट्री कार ही नहीं थी ये ट्रैन तिरुपति से सुबह 5 बजे निकलती है ,वो तो हमारी बर्थ के बगल में एक रेल अधिकारी थे उन्हें हैदराबाद उतरना था उन्होंने कहीं काल किया और इडली डो से का इंतजाम हुआ ,एसी 2 ,और ऐसी 1 में भी वही वेंडर आते हैं जो रेलवे से अथोराइज़्ड होते हैं और उनके पास भी वही होता है जिस खाने का हम या तो खा नही पाते या लम्बे सफर में उसे पचा नही पाते, इसका विकल्प नहीं होता ,जाते वक़्त तो हम दो दिन तक के सफर का भरपूर खाना साथ रखते हैं --लेकिन लौटते वक़्त क्या करें --आजकल यदि किसी रिश्तेदार का कोई स्टेशन बीच राह पड़ता भी है तो --कई बहाने है ,किसी का घर दूर है ,तो कोई बिज़ी है ,कोई आफिस में है ,कोई बीमार है ---तो कहने और सुनने के बीच स्वाभिमान आड़े आ जाता है --बचपन में हमारे शहर से किसी परिचित /रिश्तेदार /परिवार केगुजरने पर माँ खाना लेकर भेजती थी यथा संभव उनके पसंद का ,और अब सब कुछ रेलवे सडा गला खाना मैनेज करता है ---
शताब्दी से अपनी दो सालपहले की यात्रा के दौरान पड़ोस के एक बुजुर्ग दम्पत्ति जो जल्दबाजी में खाने का पैकेट घर भूल आये थे --मुश्किल में आ गए उन दोनों को शुगर थी जब नाश्ता ,खाना सर्व होता वो समेटकर रख देते या लौटा देते --मैंने पूछा तो पता चला डायबिटिक हैं ,और अब तक जितना खान पान सर्व हो रहा था उनके काम का ना था --मैंने अपने बेग से उन्हें चने और कुछ नमकीन दिया --वेंडर से दही मांगा तो नहीं था ना लस्सी थी और थी भी तो मीठी --रेलवे ने उस वक़्त कांट्रेक्ट आगरा केंट के किसी कांट्रेक्टर को दिया था --प्लेट में रखे पेपर नेपकिन पर उनका नाम फोन नंबर था काल किया और सजेशन दिया --एक माह बाद अखबार में छपा भी अब डायबिटिक लोगों के लिए शताब्दी में खाना अलग से दिया जाएगा --वो लागू हुआ या नहीं ,नहीं पता 
हम अपने बचपन से ही खान पान की बिगड़ी आदतों की वजह से बड़े होने तक मुश्किल में रहते हैं, हम सभी भाई बहन मूम्फ़ली ककड़ी चना बिस्कुट से पेट भर सकते हैं --देखती हूँ सफर के दौरान बच्चे तो बच्चे, माँ बाप भी कोल्डड्रिंक्स और जंकफूड डकारते हुए सफर पूरा करते हैं और साथ में रेलवे का कुभोजन भी ,
सोम नाथ एक्सप्रेस में सोमनाथ की यात्रा के दौरान चूहों की भरमार थी -सीट बर्थ में कुतरे हुए बिस्किट रोटियां --तो तमीज़ किसे सिखाएं रेलवे को या खुद को ---बिना धुली चादरें प्रेस करके फिर यात्रियों को दे देना --आप सजग नहीं तो भुगतो किसी इंफेक्शन को -मेरा चाहे जिस कैटेगरी में रिज़र्वेशन हो में अपनी बेडशीट ले जाना नहीं भूलती -भूल जाऊं तो दुपट्टे को ही उपयोग में लाती हूँ चादरों के नीचे --बाहरी खान पान -रहन सहन से एक अज्ञात डर सताता है और उसके सारे उपाय कर लेना जरूरी समझती हूँ 
फिर बेटी को बताया उसने कहा मॉ आगे से किसी जंक्शन का पता कर के वाहन से आन लाइन बुकिंग करो ब्रेकफास्ट लांच डिनर सब कुछ मिलेगा ,में कहती हूँ ये अमेरिका नहीं है बेटा ,ट्रैन अक्सर लेट होती है ,खाने की क्वालिटी खराब हो तो क्या ग्यारंटी पैसा वापिस होगा ,और होगा भी तो इतनी झंझट में कौन फंसे --तुम अमेरिका में हो हम इंडिया में --कुछ दिन पहले हमारे फेसबुक दोस्त आर एन शर्मा जी भोपाल से गुजरे तो मैंने उनसे कहा था, आप पहले बताते तो में खाना लेकर आती,उज्जैन से भोपाल की दूरी ट्रैन से 4 घंटे की है,लेकिन हमारी सास पूड़ी सब्जी अचार पैक करके रखती थी, जाने कब जरूरत पड़ जाए,और अक्सर मक्सी या काला पीपल पे ट्रैन 4 4 घंटे खड़ी रहती थी, तब ना कार थी ना बस रुट अच्छे थे ,आज भी कार के सफर के दौरान भी में खाना जरूर साथरखती हूँ वो उपयोग ना आये तो किसी जरूरत मंद को दे देती हूँ --एक बात सच है की हम दूसरे के लिए ऐसा नहीं करना चाहते इसके पीछे एक ही मकसद है ,की फिर हमे भी करना पडेगा ,अगर सभी इस भाव को दिल से निकाल दें वक़्त जरूरत अपने इष्ट मित्रों रिश्तेदारों को भोजन पैक कर देते रहें तो रेलवे की जरूरत ही नहीं होगी यथासंभव साथ घर का बना शुद्ध सात्विक भोजन साथ ले जाएँ 
और में सच कहूँ मुझे आज भी स्टेशन पर अपने परिचितों को खाना देकर आना अच्छा लगता है एक सुकून है किसी हमारे को, हमारे शहर से गुजरते देखना और उसे शुद्ध स्वादिष्ट घर का ,हाथ से बना भोजन खिलाकर तृप्त होना
सरकारें ना सुधरी है ना सुधरेंगी --आप हमको ही सुधरना होगा अपनी आदतों और बिगड़े चलन पर कंट्रोल करना होगा
[कल रात इंडियन रेलवे के बिगड़े खान पान पर रिपोट देख सुनकर ]
[इसे अपने ब्लॉग ,ताना बाना,के लिए लिखा है,सोचा यहाँ भी पेश कर दूँ ]

शुक्रवार, 19 मई 2017

इस वर्तमान को अतीत होने से फिलवक्त बचाना चाहती हूँ,बस इतना ही तो चाहती हूँ

स वर्तमान को अतीत होने से फिलवक्त बचाना चाहती हूँ,बस इतना ही तो चाहती हूँ 

## और में चल पड़ती हूँ ,जंगलों की तरफ -
जंगलों के अंतिम विनाश के खिलाफ़ --
अपनी आत्मा की समूल शुद्धि -के लिए -
तुम्हारी स्मृति के गाढ़े हरियल होने को
जंगल की सुवासित देह को,पेड़ों की सुगठित गठन ,चमकीले पत्तों ,अनाम फूलों की जंगली खुशबूओं को ,
भरे पूरे गर्भा गूलर को ,चट्टान के सीने से लिपटी प्रेम पगी लत्तरों को आत्मसात करने 
चलते चलते - 
 देखती हूँ शहर के तालाब का अंतिम छोर लांघते, मछुआरों को जाल डाले 
कच्चे तूरे हरे सिंघाड़ों से लदी नाव को किनारे लगते हुए आहिस्ता -
और में चलती रहती हूँ ,गहरी नदियों ऊँचे पहाड़ों की सीमांत तक ,
खुद को तुम्हारी और चलते देखना-मानो तुम वहां हो -
'भीम बैठिका, की अंतिम चोटी से मॉरीशस की 'मुड़िया' चोटी तक
पूरा शहर टिमटिम जुगनूओं सा ,

में चाहती हूँ तुम्हे दिखाना अपनी आँख से,
सांस लेते शाल वृक्ष,सागौन वन वृक्षों को -
उनसे बात करते,उनमें निमग्न होना,रोजगार और शोर से परे,
बस इतना ही चाहती हूँ -
ताकि सुन पाओ गुन पाओ मुझे भी,एक अनुष्ठान की तरह -समझ पाओ मेरी साधारणता को -
चहकती वनस्पतियों के दिन है ये और उनकी सुगंध से भर दूं हथेलियों से तुम्हारी देह,  -चाहती हूँ
वहीँ कहीं आस -पास --धुँआती लकड़ी पे बनती सौंधी चाय के अस्वाद संग -गीली आँखों से
एक मुस्कान का बाहर आना --दृश्य से  
--उस वक़्त 
एक जीवन का बीत जाना  हो -वहाँ
पहाड़ी सीने पर उड़ते धुएँ से बनते धूसर बरसाती रंग में-एक भूरी चिड़िया का तिनका बनता घोसला -देखना
चट्टान के सीने पर खड़े निड़र पेड़,पत्थरों पे उकेरी प्रेम की प्रतिध्वनियां -जंगल की अनगूंज सुनना
मेरे धानी दुपट्टे से छनकर आती जंगली मेहँदी की खुशबू,और प्रेम में लीन वो काला जंगली खरगोशों का जोड़ा
,देखना शाम की ठंडक में,तुम्हारी आँखों के जुगनुओं को समेट लेना तभी,फिर देखना जंगली झरना -पहाड़ी ऊंचाई पे,
काँधे पर तुम्हारे,अपनी साँसों का दुशाला -ओढ़े सो जाना
बीच आधी रात,पूरी रात में खिलने वाले फूलों को देखना,देखते हुए --
सोचती हूँ -सुनूंगी तुमसे एक कविता -तुम्हारी-अलौकिक इच्छाओं से भरी
फिर अपने नाम का- 
 जाप- उच्चारण बार बार 
इस ब्रह्मांड के जड़ चेतन से निर्विवाद अलग थलग,संशय रहित,आत्मिक और कायिक निकटता में 
बस इतना ही तो चाहती हूँ --
में इस वर्तमान को अतीत होने से फिलवक्त बचाना चाहती हूँ
जो तुम्हे दिखाना है,उसे आत्मसात कर 
एक मुकम्मल जंगल से गुजर जाना चाहती हूँ -यकीन करो में,अपनी गवाह बन -सरसराती जंगली हवा की तरह 
ना लौटकर आने के लिए -
लेकिन थोड़ा ज्यादा चाहती हूँ -
बस इतना ही ---

रविवार, 11 सितंबर 2016

## जेब्रा क्रॉसिंग -6,,बाहरी अँधेरे में एक सनातन भिक्षु मन की बंटी हुई दुनिया में डोलता है
आज खबर है इस शहर को स्मार्ट सिटी में तब्दील किया जाएगा तो निश्चित ही वो ज़ेब्रा क्रासिंग भी कई नए मोड़ के साथ अपनी नई शक्ल में सामने होगा,बैचैन हूँ इस खबर से - इस खबर के अलावा यहाँ सब कुछ ठीक ठाक है लेकिन सनातन बीते कई वर्षों में समय अपनी रफ़्तार से आहिस्ता घटती हुई घटनाओं और काल जिसमें हम तुम बीत रहे हैं चल रहा है -मेरा मन यकीन करों उसमें नही लगता जिंदगी में कितनी सारी बातें उल्ट हो जाती है --असावधानी से पीटे मोहरे और फिर भी खेल जारी रहे तो इसका मतलब हम हारना नही चाहते ---जीत की उम्मीद के बिना --और मुश्किल और दुःख यही ना की दूसरी बाजी खेलने नही मिलती 
उम्र दिन गिन रही है और मुझे याद आया अचानक वो दिन --लेकवयू से श्यामला हिल्स की पहाड़ियों तक जब हम जाने क्या सोच पांच किलोमीटर तक पैदल चलते रहे उस दिन हल्की ठंडक थी सड़कें दूर तक सूनसान ऊपर नील आकाश में चमकता नर्म पीला चाँद साथ चलता हुआ,तुम्हारा बात को बीच बीच में अधूरा छोड़ देना ''सुनो एक जरूरी बात -और तुमने मेरा हाथ हाथों से छोड़ दिया थोड़ी तपिश भरी हथेलियों में हल्की ठण्ड का टुकड़ा सिमट आया और बाहरी दुनिया से मन जुड़ गया --में देखती हूँ तुम्हारी आँखों में एक स्लेटी शाम का अन्धेरा -नही कुछ नहीं जाने क्या सोच बात अधूरी छोड़ दी तुमने ---आज इतने सालों बाद भी उस अधूरी बात को सुनना चाहती हूँ और एक पल में में उस ज़ेब्रा क्रॉसिंग को पार करती हूँ एक बिना भीड़ वाला दिन उस दिन भारत भवन से एक प्ले देख कर लौटे हुए मेरी पैरट ग्रीन जामवार साड़ी -के पल्लू पर पर्पल कलर के बने मोर पे कैसे मोहित हुए थे तुम --ज्यादा ही मूडी हो गए थे कहते कहते तुम मेरी मोरनी और में, ये मोर--उड़ने मत देना -में हंसी, मोर वैसे भी कहाँ उड़ पाते हैं -सहेज रखना तुमने कहा -
-आज वार्डरोब से कई साड़ियां निकाली कामवाली बाई से और वो चीख पड़ी दीदी ये तो में लूंगी आपको तो नहीं देखा पहने कभी आनन् फानन में उसने झट उसी पल्लू को सीने पे डाल कहा देखो तो कितनी अच्छी -साड़ी झपट कर मैंने उससे कहा ,,ना --ये नहीं इसके बदले दूसरी दोऔर ले लो पर ये नही दूँगी --क्या प्रेम और आस्था के जिए चरम क्षणों में हम जीवन की दूसरी यंत्रणाओं संग सहनीय नही बनाते --बनते --शायद हाँ 
- कोई उदासी कोई ,कोई कुंठा ,कोई याद कोई मोह ,-और ऐसा ही कोई रूखा सूखा दिन किसी रात में गड़मड़ होता है कोई ठौर नहीं ,बेस्वाद और तूरा सा दिन दूर से नजदीक की चीजों को देखता हुआ ख़त्म होता है और रात पास आकर दूर जा कर सोचती है --हर मोड़ पर भटकाव --हर जगह ढेर से रास्ते --ठिठक जाओ या एक चुन लो या लौट जाओ सब कुछ आपकी सोच पर निर्भर करेगा ---लौटो तो दस पांच खिड़कियों वाला घर भी अंदर से रोशन नहीं करता, लेकिन क्या जरूरी है हर खिड़की से रौशनी भीतर आये --क्या इन्ही में से किसी दिन या रात -- तयशुदा मृत्यु नही आएगी सवाल अपने आप से होता है --मृत्यु का भय घेरता है ---कई डर सताते हेँ एक साथ .दरवाजों पर नीले परदे कांपते हेँ सचमुच सच सा लगता था- वो साथ अब छूट जाता है ओर फिर --.
.इस घटाटोप में कोई हाथ थाम लेता है .कहने को बहुत कुछ था तब भी अब भी दरअसल एक पूरा भाषा विज्ञान था ओर कहने के खतरे भी नहीं थे, उँगलियों में गंध का टुकडा लिए, लेकिन हम सोचते रहे संबंधों की बड़ी डोर से धरती ओर आकाश को बाँध लेना, एक ही संवाद को दुहराते जाना ओर यह सोचते जाना की डूबने से पहले पानी के बीच किसी स्निग्ध फूल की तरह खिला था वो वक्त.
वक़्त को पलट कर देखना 'कौन हो तुम ''पूछते ही वह धूप की परछाई में गुम होता है किसी मुकम्मल स्पर्श से जीवित होती देह --फिर छूट जाने से डरती है तेज गले से रुलाई का भरभराना रोने से बदत्तर --कितना दम घुटता है कोई माप नहीं, एक तपिश देह में उतरती है --जल में उँगलियाँ डूबा देना एक सुकून एक ठंडक एक राहत --लेकिन कब तक ? एक चुप्प सी रात भी बीत जाती है -बहुत उदास किया एक उदास दिन -रात ने जो बीत गया अभी अभी, डब डब सी आवाज़ करता पानी में--
तुम्ही बताओ हे तथागत उस उजल और साफ दिन में जैसा आज यहाँ है उस दिन तब जब एक समरस समय में तालाब जल बीच में बने शिवमन्दिर भीतर एक सौ आठ रक्त-चम्पा के फूलों से में शिव का अभिषेक करुँगी -एक दिन ये होगा जरूर-- -सोचती ही रह जाती हूँ रात घिरती है-देर रात फ़रमाइशी गीतमाला में आशाजी का गीत बज उठता है 'समय और धीरे चलो --बुझ गई राह से छाँव --दूर है पी, का गाँव --धीरे चलो-साथ ही -पति की आवाज़ हेडफोन लगाकर क्यों नही सुनती हो उफ़ कितना शोर है--जेब्रा क्रॉसिंग की कालीपट्टियों पे चलता हुआ --बाहरी अँधेरे में एक सनातन भिक्षु मन की बंटी हुई दुनिया में डोलता है 
[जेब्रा क्रॉसिंग ,, अपनी लंबी कहानी का छटवां [6] भाग ]

सोमवार, 1 अगस्त 2016

#‪#‎जेब्रा‬ क्रॉसिंग -
#‪#‎उस‬ मोड़ पे मिलो तो-सोचूँ जहाँ से मुड़कर एक नदी बहती है -वहां पानी की नीली रौशनी की सतह पे ताजे बुरुंश के खिले फूलों को बहाया था मैंने कल,गहराती शाम से पहले हथेलियों के चप्पु से उस दिशा में --ताकि उन्हें समेट पाओ दूसरे किनारे से--तुम --
कहो तो चलना शरू करूँ, यहाँ से इस मोड़ से -तुम तक -अपनी नीली जरी के चौड़े पाट वाली गुलाबी साड़ी पहने -अपनी पदचाप में तुम्हे गुनते बुनते ---में ठीक हूँ ----बिलकुल ठीक हूँ
तुमने क्यों पूछा --

अच्छा लगा तुम्हारा पुकारना
उस जेब्रा क्रासिंग के पार रेलिंग के सहारे वो कोट की जेब में हाथ छुपाये खड़े रहना -याद है मुझे अब तक और भीड़ में दूर से मुझे पहचान लेना तुम्हारा --सालों बाद भी वो याद है क्या फिर कभी ये होगा जिंदगी कितना ही बीते को दोहराये जानते हो सन्दल" रंग और रूप वक़्त का वो नही होता --एक द्रश्य के सौ रूप और उनमें से एक तुम को ढूंढना --आज भी उस जेब्रा क्रासिंग पे रूक जाती हूँ ,अपने शहर में -देर तक कार पार्किंग की दिशा याद नही आती शॉपिंग का बोझा मन, भर का हो जाता है -पिछली बार तुमने पूछा था तब घुटनो में दर्द आ गया था, पैथॉलॉजी रिपोर्ट में केल्शियम डिफेंशियनशी --एक हद्द के बाद दर्द में जीना भी सरल हो जाता है--
जिस जेब्रा क्रॉसिंग को उड़ कर क्रास कर लेती थी -उस पार खड़े तुम पलक झपकाये बिना देखते रह जाते थे मुझे, क्या अब भी में तुम्हे वैसे ही दिखूं ,ना अब में 20 साल पहले वाली नही रही शायद तुम तैयार ना हो वो सब देखने के लिए
पर सच में बदल गई हूँ --क्या में बदल गई हूँ तुम देखोगे तो जानोगे ---लो में अपनी कार तक आ पहुंची --बगल की कार में एक ड्राइवर बैठा ऊँघ रहा है --गीत बज रहा है" जरा सा झूम लूँ में जरा सा घूम लूँ में -- में चली बन के हवा----
तुम याद आते हो इसी जेब्रा क्रॉसिंग पे
अक्सर संदल
जेब्रा क्रॉसिंग ## (दो) 
कभी कभी चुप्पियाँ निरर्थक साबित होती जाती है प्रार्थना के बाद भी -जब हम दुनिया के सही सलामत और साबूत बचे रहने की उम्मीद में आँख मूँद खड़े रहते हैं 
"जानते हो क्यों ?-इसलिए कि इसी दुनिया में तुम
हो -जब धरती हिली और 6.6 के रिएक्टर पर, तुम्हारे शहर में दहशत थी -समाचारों की धुकधुकी में में तुम्हे बार बार काल करती रही कोई उत्तर नही.कितनी धरती आकाश लांघ गई पल में कुछ याद नही -- देर बाद देखा एक डिजिट बीच में गलत डायल होता रहा उफ़ अपनी ही जल्दबाजी और बेवकूफी दोनों पर शर्मसार होना था, बहुत सी तबाही में सब ठीक था ""यही क्या कम था -फिर भी उस रात एक करवट की नींद के बाद सुबह कत्थई उजालों से भरी थी --बहुत कुछ छूट जाने की आशंका से बच जाना --लेकिन किसी अकस्मात से पहले मुठ्ठियों की ऊँगली से रेत के झर जाने के बावजूद स्मृतियों का हरा पहाड़ सांत्वना देता रहा दिल में एक ठंडी लौ जगाये हुए
संदल तुम जानते --मोहलत नही देती जिंदगी तेज चाल के बावजूद --उस जेब्रा क्रॉसिंग के बाद सड़क की रेलिंग्स पर रुक जाती हूँ हाथ टिकाये --सोचते हुए तुम्हे --हांफ भी उठती हूँ वहां तक आने के लिए कभी तो ऑटो को दूसरी तरफ छोड़ देती हूँ, कार से आऊं तो पार्किंग तक जाने में वो रेलिंग छूट जाता है वो बरसो पुराना हाथ भी जहाँ तुम हाथ टिकाये खड़े होते थे --बस एक अहसास है तो है
तुम्हे नही पता इतनी फुर्तीली में तुम्हारी अब कितनी गोलियां खाकर ज़िंदा हूँ थायराइड बी पी ये वो --हर सांस पे शक़ धक--
अभी लौटी हूँ ड्रायक्लिंर्स के यहाँ से उस गीले जेब्रा क्रॉसिंग से अहा बारिश में कितना चमकीला धुला धुला सा --जहाँ से एक बार तेज दौड़ते हुए हाथों को पकड़े हुए हमने सड़क क्रास की थी और देर रात तालाब 
के किनारे खड़े रहे
तुम भी जानते हो वो सड़क रक्त में कथाओं की तरह घुली है
ये तुम्हारा दुःख है तुम्हारी याद है जो बेअसर नही होने देती मुझे मेरे शहर में -
ज़ेब्रा क्रॉसिंग--3-- ## जब-जब लौटती हूँ, वहाँ से ,बातें ठीक से याद अाती हें,बहुत से शब्द अपने ढेर से अर्थ देर बाद खोलते हें-पुराने निशानों के सहारे चलते जाना ओर लौटना कभी धोखा भी हो जाता है -नगर निगम वालों ने पूरे शहर का नक्शा ही बदल दिया है -अक्सर भौच्चक उसी ज़ेब्रा क्रॉसिंग पे दाएं बायें देखती हूँ -ट्रेफिक सिग्नल की ग्रीन रेड लाइट मे गुम सी--अंधेरा अाजकल जल्दी घिर अाता है ,शाम से पहले शाम -रात से पहले रात -हैरानी होती है किसी का पुकारना एक अंतराल के बाद -कोई मुझे तलाशता है ,मे चकित हूँ ,-क्या मुझे अपने को संशोधित करने की जरूरत है इस अाशा निराशा राग द्वेष से परे -जानते हो संदल मे दुखों के टोहे जाने से डरती हूँ,फिर भी मऩ वहीं पहुंचता है --कहता भी है -तुम कहां हो ? जिस जगह हजार हरसिंगार झरते थे --अब तुम नही तो वह जगह अनायास अपरिचित. फीकी सी ,बेस्वाद लगने लगती है- ओर मे अपनी प्रार्थना कामना मे अनायास खाली हो जाती हूँ --ये एक प्रयास होता है सबसे जुदा तुम्हे सोचने का ---फिर तुम भीतर उतरते हो तो मे अासमान होती जाती हूँ -और उसी खालीपन से शुरू करती हूं नये सिरे से अपने को भरना---उड़ना ---
तुम होते तो देख पाते --तुम्हारे ना होनेे पर भी समय अपने पूरे अधूरेपन के साथ कैसे विस्तारित होता है
''तुम स्लीवलेस नही पहनती --ना' ओर तुम्हारी तर्जनी घुप्प से मेरी बाहं मे गड जाती है --अपनी बाहं को सहलाती हूँ --ओर लिपिस्टिक ''ना -क्यों ?-क्यों मतलब नही पसंद --क्यों पसंद नही --अब बातों को घसीटना जरूरी है --नही ---क्यों पूछा --मेरा पूछना -तुम चुप बस अांखों मे झांकते मुस्कुराते रह जाते हो---दो सेकंड बाद ही 
''ओर ये जो मऩ भर काजल भर लेती हो अांखों मे ठीक से देख पाती हो मुझे ? मे हंसी जोर से --हंसी इतना, अनन्त मे चांद की बिंदी मे-सितारों की खनक चमक मे अपने गजरे की महक मे-हंसी मे ,भीगी इतना कि हँसते हँसते रो पड़ी ---उपर सर उठाया तो बादलों के बीच से उड़ता झिलमिल प्लेन --अांखें उसका पीछा करती है -- कितना देर -- सब कुछ ओझल हो जाता है --जानते हो संदल जब सारी दुनिया ठसाठस भरी होती है --मे ज़ेब्रा क्रॉसिंग के पार उस छोटी सी सड़क के किनारे बने पार्क की रेलिंग्स वाला स्पेस तुम्हारे लिए बचा लेती हूँ ---जिसके सहारे, किनारे चलते हुए हम झील किनारे तक अहिस्ता अाते थे 
जानते हो जहां रंग बिरंगे फूलों को बेचने वाला वो गरीब लड़का कितनी हसरत से तुम्हे तकता था ---और तुम मुझे ---
अभी लौटी हूँ कुछ मेहमानों को शहर दिखाने के बाद --अब इस शहर मे ले दे के झील ही तो है --क्या दिखाया जाय - मेंने ,उनसे कहा चलिए पैदल ही चलते हें हालांकि पति महोदय को मेरा अायडिया जरा रास नही अाया --वो बोले मे उस तरफ मिलता हूँ --ओर ज़ेब्रा क्रॉसिंग की काली सफेद पट्टियों पे चलने का सुख उससे ज्यादा तुम्हे सोच लेने का सुख --पर संदल अब नही चल पाती हूँ सांसे तेज़ चलती है -तो झट्ट याद अाता है , बी पी की टेब खाई या नही -याददाश्त पे ज़ोर देती हूँ तो कुछ ओर याद अा जाता है --वो कोना जहां तेज बारिश होती है --मेरी गीली पीठ पे तुम्हारा हाथ --जान लो कुछ दिन बिजी रहूँगा --करीब दो माह --अपनी रिसर्च कंप्लीट कर लो --इस बीच ---बीच -तालाब के पानी पे एक नाविक जाल फैलाता है -अंधेरा अांखों को काटने लगता है किनारे लगे लैम्प जल उठते हें --उनकी रोशनी पानी की सतह पे गिरती है ओर वहाँ से प्रतिबिंबित होती हुई अांखों की पुतलियों मे चमक अाती है ----तुम देखते हो --समझते हो --मे तुम्हे ** सायमा झील के किनारे ले चलूँगा' नंदिनी '' कहते तुम्हारी झक्क सफेद कमीज़ भीग जाती है बारिश से बचने की कवायद मे---तुम्हारी बारिश भरी हथेलियाँ ---मेरी गीली हथेलियों को भर जाती है ---
# अाज तुम्हारी नंदिनी ने भीगा हुअा रजनीगंधा का एक बड़ा सा बंच लिया है----
*** सायमा झील 'फिनलैंड' की सबसे बीडी झील
जेब्रा क्रॉसिंग ## 4 -एक # इतनी बारिश जिसमें भीगने सांस लेने का मऩ --- जो --वहाँ सुन लिया गया जाने कैसे --शाम बीत रही थी -शाम का अखरी पल जैसे रुक गया ,पानी की सतह पे --हमारे देखते ही देखते धूप हिली और लचीली पतली लकीर सी हमारे एडियों से उपर तक पानी मे भीगे पैरों को छूती हुई बीच तालाब की तलछट पर पहुंच गई---झिलमिल सी --वो घाट ,वो किनारा ,वो नावों का झुरमुट उस पल मे सिमटा वो शाम रात का अंधेरा उजाला 
तुम्हे गुस्सा नही अाता --जवाब मे मुस्कुराना -मानो जवाब ही मुस्कुराना हो --अपने ही शब्द नजरा जाते है ----नाराज़ी ओर चुप्पी एक ही हाईट पे --अब क्या करो-जो महीनो नही टूटती- जो गलती ना करे और बात की पहल भी-- ना- तो ----
फिर उन दिनों का बीतना---जैसे समय ही खुराफात करता हो दोनो के बीच -- सुना है इस बार तुम्हारे शहर मे बर्फबारी हुई है --सर्दी तुम्हे जल्दी लग जाती है सोचते हुए तुम्हारी --सुकुड़ती नाक बजने लगती है --- ज़ेहन में
घर से निकली सोच कर कि पास के एक नये बने मॉल मे जरूरी शॉपिंग करुगी - बाहर एक लंबी रैली और भीढ़ दिखाई दी ,अब घूम कर जाओ तो उसी क्रॉसिंग पे--जानते हो सनातन एकांत मे एकांत अक्सर काटता है लेकिन भीढ़ मे अंजानेपन का एकांत ,अजनबी होने का सुख मुझे खूब भाता है --जब चाहे मन को टोह कर कहीं भी रुक जाना शॉप विंडों मेे झांक लेना --देर तक -- भी क्या खूब काम है पता चला, रोड ब्लॉक-रहेगा किसी स्थानिय नेता की सभा होना है - अब उस क्रॉसिंग से गुजरना मजबूरी है --कुछ पल को भी -सोच" टॉप गेयर पे दौड़े तो मुश्किल होती है-- 

''तुम इतना क्यों डरती '' रोड क्रॉस करने मे --वाकई तुम साथ हो तो --सोच रुकती है- तुम झुंझला गये --हाथ पकड़े पकड़े कहना- अराम से चलो ---सच सनातन अाज भी रोड क्रॉस करने से --डरती हूँ --एक कल्पना ,फिर देखना ट्रेफिक सिगनल को,काउंट डाउन करना 6,5 ,4 ,3 ,2 ,1 मे, अपने को बीच सड़क लहूलुहान पाती हूँ --बर्लिन की वो 22 वीं फ्लोर पे लिफ्ट मे अकेले एक अजनबी के सहारे ग्राउंड फ्लोर पे अाना ,सच कितनी शर्मिंदगी होतीअपनी ही बुजदिली से ,लेकिन डर नही जाता --अपने डरों के सच होने से डरती हूँ--तुम्हे खो देने का डर सच हुअा जब -तब से ओर ज्यादा,--बोटिंग करते हुए उस शाम जब बारिश शुरु हुई और नाविक ने जैसे ही हिचकोले खाती नाव को , तेजी से मोड़ा तो तुम्हारे तरफ झुकी नाव लगा अब डूब ही गई --मैने तुम्हे पीठ ओर बाजुओं से जोर से थाम लिया आँखें बंद कर ली-- तुम कहते रहे-तुम्हे मरने नही दूंगा नंदिनी ---अांखों की झिलमिल में तुम मुस्कुरा दिए --
खोया समय याद अाता है देर रात ,भाग कर जी लेने की अातुरता बेसब्र होती जाती है --
ये बालों को क्यों इतना कस लेती हो ''नंदिनी अांटी जी ''--हाथ से बालों मे लगे रबर बेंड को लूज़ कर देना ओर मेरा नंदी बन जाना ---देखो तो कितनी अच्छी लगती हो ''कैसे देखूं? ''मेरी अांखों मे उफ्फ ---
तुम्हारी यादों ओर बातों से बनी दुनिया करवट लेती है ---में ज़ेबरा क्रॉसिंग पार करती हूँ -
यही तो कहा था --एक पूरी रात बिना कामना के जागो मुझ संग ''फिर --फिर हम जुगनुओं को पकड़े -एक दूसरे की बंद -मुठ्ठियों को खोले -अांखों से एक दूजे के लिए सितारे पकड़े --तुम मे्रे लिए कोई कविता पढ़ दो --ना ' ये ना होगा मुझसे -
-अरे कोई किताब से पढ़ देना --एक शरारती सवाल- और क्या ? बस उस रात सूरज भी दोपहर दिन चढ़े तक मूह ढाँप सोता रहे -आइडिया अच्छा है 'जान '' और अनायास चेहरे को सिकोड कर होंटों को गोल घुमाकर सीटी मे तुम्हारा गा पड़ना 
''ना जाने कहां तुम थे ,ना जाने कहां हम थे जादू ये देखो हम तुम मिलें हें'' -------मन्ना डे की पुरसर अावाज़ मे ,मन्नाडे की आवाज़ पसंद है तुम्हे- तुम कहते हो तो बस फिर कुछ याद नही रहता--वो सिकुड़े हुए होंट वो घूमती अांखें जीरोक्स हो जाती है "जान" सुनते -ही
तुम्हारा खुश चेहरा द्रश्यों मे चमतकार पैदा करता है -तुम्हारा साथ चाहना अाज भी ---उस शाम कितनी बैचैनी थी तुमसे ना मिल् पाने की --अाज सोचती हूँ तो लगता है हम वाकई जिंदगी मे उतना ही पाते हें जितने के हकदार होते हें बाकी कोशिशें बेकार है सनातन---सच बताऊँ एक मुकाम एसा भी अाता है जब सारे सच के झूटे होने के अंदेशे मुझे बहलाते हें --पिछले हफ्ते से पीठ मे दर्द है--अब डॉक्टर के पास जाने से डरती हूँ सनातन जाने कोनसी पैथालॉजी रिपोर्ट से जाने कोन सा भूत निकल अाये --अभी शाम डूबना चाहती है --मे ज़ेब्रा क्रॉसिंग के पार उस रेलिंग्स से खड़े हो वहाँ से देखना चाहती हूँ खुद को चलते हुए तुम तक अाते हुए-फिर एक साथ हवा के गुब्रबार को देखना अासमान मे ,जहां ढेरों अबाबील पंख फैलाये उड़ती रहती है -लेकिन फिलवक़्त ये भी ना हो सकेगा रात कहीं डिनर है '`--तुम्हारी सोच को भी तह लगा छोड़ जाऊंगी -सिरहाने --फिर भी --खोलूंगी बीच रात संशय में---इतने बरस बरस बीते ऑर कल रात से बारीश भी बेइंतहा बरस रही है--
समय का कोई विश्वसनिय पाट है --हमारे बीच सनातन '' जो दिन ओर रात की काली सफेद पट्टियों से चल कर हमे एक दूसरे के भीतर पार उतारता है-- -+
मे समय को सांस लेने की मोहलत देती हूँ--
ताकि चलती रहे जिंदगी ---
## ज़ेब्रा- क्रॉसिंग ## 5 ## उसका चेहरा यकायक अब याद नहीं आता ना वो ना उसकी वो बातें और आता भी है तो कहीं भी कभी भी फिर चाहे तालाब पर फैलती सिकुड़ती रौशनी की परछाई ही क्यों ना हो --उनमें भी --बस इस सोच के साथ एक अजब भाव उस पर तारी हो जाता है ---एक लम्बी सांस के साथ रूकना पड़ता है और देखना तालाब की शेडेड रोशनियां कुछ नीली काली सी -- उसके ड्राइंग रूम के पर्दों की तरह -जिन्हे रस्सी की तरह बल देकर कभी पकडे पकडे वो उस तरफ देखती है-- कालबेल पर रखा उसका हाथ -याद आता है ये जो बार बार ज़ेब्रा क्रॉसिंग से लौटती हूँ ना सनातन , तो लगता है कुछ था जो रोशनियों से भरा था वहां से लौटना चाहे जितना तकलीफ देह हो पर ये पीड़ा उस सुख के सामने छोटी ही लगती है -
-''तुम पानी फुलकी खाओगी '' ना अरे पूरा बताया करो आखिर क्यों ना --तुम्हारा ये कहना और चिढ़ना और मुठ्ठियों का गोल करके होंटो और मुँह के पास लगा कर खांस उठना और साथ ही मेरे सफ़ेद कुर्ती पर लहराता 
सतरंगी लहरिया दुपट्ट्टे को मुठ्ठियों में भर लेना --याद आता है --सुन लेने की बेसब्री में --जानती हूँ- ,नहीं पसंद कह उठती हूँ फिर आँखों में कोशचन मार्क --ये खट्टी चीजों से मुझे कोई लगाव नहीं जिंदगी में --- ये क्या हुआ लड़कियों को तो बहुत पसंद होती है' नहीं मुझे नहीं पसंद में जोर देकर कहती हूँ -तुम औरों से बिलकुल अलग हो नंदिनी--और सच सनातन में औरों से कितनी अलग हूँ तुम्ही जानते हो --- 
लेकिन क्या कितना --सोचना पड़ता है और देर तक सुझाई नहीं देता --बल खाया पर्दा जोर से छोड़ देना पड़ता है जो खिड़की के एक हिस्से के टूटे कांच की तिरछी दरार नुमा लकीर से होकर बेतरतीब हो फैल जाता है और पल भर को शीशों से छन कर अंदर आती रौशनी उसके चेहरे पर लहराती हुई जमीन पर फैल जाती है अंदर की भटकन भी एक झटके के साथ कोने में जा सहम बैठ जाती है ---मिल जाए वो शायद --सब कुछ नहीं बस उतना ही जो उसके हिस्से का था, एक निर्जन सपने में निमग्न होना और हर रात ये प्रार्थना करते हुए सो जाना हे ईश्वर आज कोई सपना मत भेजना ऐसा दुःसह --जैसा कोई नहीं एक सचेतन पूर्व ज्ञान समय की गर्द - गुबार हटाकर स्पंदित होता है बहुत कुछ किसी रंग में ,किसी शब्द में ,किसी वक़्त में किसी मिलती जुलती शक्ल में और कभी तिनके-रेशे भर की समानता में भी--- उसकी निगहबानी चाहे-अचाहे होती ही जाती है फैली हुई हवा की शक्ल का बनना टूट जाता है -और ----स्मृतियों का दरवाजा बेवक़्त खुल ही जाता है एक कोलाज रास्ता रोकता है --जो मेरा था वो वक़्त दूर जाकर चिढ़ाता सा दिखाई पड़ता है तेज गति वाली किसी ट्रेन की खिड़की से हिलते हाथ में रुमाल का धब्बे की शक्ल में होते-होते आलोप हो जाना ---एक क्षण के जादू का ताउम्र उसकी गिरफ्त में जीना ---देर रात तक कई बार नींद नहीं आती ---कांपती ठण्ड में नीले मखमली कम्बल में कुड़मुड़ाते बस पड़े रहो --खैर तसल्ली यही है दृश्यों में पहले सा सन्नाटा नहीं है बेडरूम से सटा हुआ बड़े बड़े भूरे लाल पत्तों वाला पेड़ खड़खड़ करता ---जागते रहो की गुहार लगाता चेताता रहता है, 
-मन की बैचेनी बारिश के बाद खिल आये जामुन- अमरुद के ताजे पत्तियों की खुशबू में घुमड़ती ही जाती है तंग दिनों की शुरुआत ---अब राहत देती है ---देखो अब हम कितना बदल गए हें --रोते नहीं--एक दूसरे तरह का हुनर अपने में विकसित कर लेना -- एक पेड़ का निर्लिप्त भाव स्मृतियों की निरंतरता को बरकरार रखता है अँधेरे में खड़ा अपने धड़ से कटा पेड़ अपनी दो टहनियों के साथ विपरीत दिशाओं में फैला एक काले बिजूके की तरह ठहाका लगता है- --तुमने कुछ कहा शायद--मैंने कुछ सुना हमारे अच्छे -सच्चे दिनों--का लौटना मुमकिन होगा-- कभी सपनो में कभी सोच में कभी सच में उम्मीद से अधिक उम्मीद आखिर क्यों --सड़क, दुकाने, आवाजें ,शहर --किसी शहर के खूबसूरत नाम वाला वो मार्ग एक गंध कि तरह व्यक्त होता है --क्या सचमुच कोई उधर इन्तजार कर रहा है छूटा हुआ कुछ मिल जायेगा ये भी तय नहीं है बाहर कोहरा है बेहद ठण्ड है --हर वक़्त स्मृतियों की यात्राएं बेठौर कर देती है कोई ठिकाना नहीं बचता 

---और हर यात्रा को पीछे मुड़कर देखना अजीब है एक सीझा हुआ सा दिन, उन दिनों के पतझड़ के में प्रेम करने और भुलाने के लिए.मजबूर करता है ---हमारा समय कहाँ दर्ज है जिसमें किसी पत्ती तक के गिरने की आहट नहीं है लेकिन हर रात खड़ खड़ करती बड़ी पत्तियों वाला पेड़ जो आधी रात जगा देता है उसे सुबह देखो तो अजनबी लगता है ,हाँ आजकल घर के नजदीक ही जेब्रा क्रॉसिंग की तरह एकांत पार्क में एक पुलिया ढूंढ ली है बिलकुल वैसी ही बस फर्क इतना है में उससे चलकर अकेली आती हूँ दूर तक, कभी कभी तो तुम्हारा चेहरा सोच कर भी याद नही आता -लेकिन बहुत कोशिशों के बाद -तुम्हारा चेहरा कुछ कुछ याद आ चला है-तुमने फिर अपना कहा अच्छा लगा एक नदी -पहाड़ों के नीचे कछारों में - बहती हुई बढ़ती है ,गीले तिनको घास कागज सीपी शंख को ठेलते हुएआगे बढ़ती है इस साल बारिश भी 
ज्यादा हुई और इस मौसम में भी लगातार बारिश हो रही है --नदियों के उफान पर आने के साथ ही ----ये भी बीत जायेगा ---लेकिन हम कितना बचा रहेंगे एक दूसरे के लिए ये कौन जानता है -
##-ज़ेब्रा क्रासिंग अंतहीन सिलसिला है, कौन जाने इसका क्या अंत है- जब तक स्मृतियां रहेंगी ज़ेब्रा क्रॉसिंग लिखा जाता रहेगा ये, इसका 5 वां  भाग  है ]

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

सुनो प्रेम तुम भीतर उतरते हो तो में आसमान होती हूँ--वक़्त से पहले वक़्त की गुहार--हमेशा कारगर नहीं होती --तब समय रेंगता है जब उसे दौड़ना हो वो घिसटता है



  1. सुनो प्रेम तुम भीतर उतरते हो तो में आसमान होती हूँ ##  पुराने निशानों के सहारे चलते जाना -और एक निर्धारित जगह से लौटना कभी कभी धोखा दे जाते है, पुराने निशानों की याद के बावजूद आप रास्ते भूलते जाते हो और भौच्चक किसी चौराहे पे दायें बाएं ,नाक की सीध में या कि पीछे पलटे संशय होता है ,बहुत से निशाँ बरगलाते है --अन्धेरा आजकल जल्दी घिर आता है,शाम से पहले रात ,रात से पहले रात होती है, बस वही नही होता जिसे वक़्त से पहले होना चाहये-और वक़्त से  पहले वक़्त की गुहार--हमेशा कारगर नहीं होती --तब समय रेंगता है जब उसे दौड़ना हो वो घिसटता है और वो धीरे धीरे सरकते हुए -बाहर पसर जाता है यहां  वहां टुकड़ों में --शाम की हल्की ठंडक धड़कती नब्ज पर पलकों और हाथों पे महसूस होती है और आँखों में उस ठंडक का उतरना महसूस होना एक जरूरी सोच के साथ प्रकम्पित करता कुछ बातों वातों के साथ ठगता है, तभी उस यात्रा पर जाना ,जहां जाना अनेकों बार स्थगित हो चुका हो --एक लम्बे अंतराल के बाद कोई तलाशता है मुझे, में चकित  हूँ --मुझे अपने को संशोधित करने की जरूरत है --क्या ? देर तक सवाल का उत्तर नहीं मिलता -फूलों के -रंगो में ,तितलियों के पंखों में ,सौंदर्य के अर्थों में ,प्रेमियों के एकांत में ,ऊँची घास के मैदानों में ,जोर से कहना --सुनो प्रेम तुम भीतर उतरते हो तो में आसमान होती हूँ --एक जादू असर के साथ बातों का बेहिसाब होना --कहीं पहुँचने से बेखबर --   एक लॉन्ग ड्राइव पे निकल जाना ,दिल में हजार हजार ख्वाहिशों के दृश्य लिए-एक खनक -एक गमक ठुमकती है राग द्वेष  से परे --कभी कभी हम अपनी प्रार्थनाओं-कामनाओं में खाली हो जाते हैं --फिर से भर जाने को 

  1. --तभी चीजों को भीतर की तरफ देखना कारगार होता है --सूखे फूल एक विस्मृत गंध ,मुड़े हुए मोर पंख ,और पाजेब सी झंकृत होती स्मृतियाँ ----देर तक विस्मृति में रहने के बाद एक रास्ता जंगल नदी की और मुडत्ता है,घर लौटने से बेहतर , विभ्रम से दूर,नदी के उस छोर तक चलते जाना जहां से लौटने की कोई जल्दी नही होती सूखे पीले पत्तों कुछ जंगली फूलों सूखी टहनियों का, पारदर्शी नदी जल में बहना और उस ठंडे जल में अपना गीला चेहरा देखना आहा फिरअपने ही ,चेहरे का लहरों में गुम  हो जाना ---तुम कहां  हो ---पर जिस जगह तुम नही हो वो जगह अनायास अपरिचित और बेस्वाद लगने लगती है मुझे - लौटना होगा अपने को कहना --अपनी सीध से ठीक उल्ट ,और वो अपनी ब्लेक पश्मीना में कढ़े गुलाबी गुलाबों को बाहों में जकड़े लौटना चाहती है --जाने कितने तमाम सफर जाने कितने छूटे शहरों-जंगल को सोचती हुए  ये छूटना भी तय है --दोपहर की धूप में ,नदी जल में एक भीगी जंगली चिड़िया का सूखी टहनी पे बैठ पंख झाड़ना बार -बार काश तुम, मुझ संग देख पाते, नदी की रेतीली दोमट मिटटी वाले कच्चे रास्ते से लौटते हुए  अपने कानों पे हाथ रख जोर से कहना सुनो इस बार हम **'सायमा' झील के किनारे मिलेंगे सुना तुमने ----
  2.  [ एक रात की नींद ---बारह हजार दिन के सपने -- मन की रिपोतार्ज  कथा  ]
  3. [** सायमा झील --फिनलैंड की सबसे बड़ी सबसे सुंदर झील ]     

सोमवार, 21 सितंबर 2015

-किरदारों को मोड़ दे देने से क्या होगा -हड़बड़ी और नाउम्मीद सी इस दुनिया में रौशनी में झिलमिल उन दिनों में अपने लिए और वो खुश थी ,वो ऐसा ही सोचती थी उसने सोचा भी ---लेकिन सच सजगताएं आदमी को असहज और निकम्मा बना देती है

वैसे किरदारों को मोड़ दे देने से क्या होगा  - --बारिशों की उमस भरी सुबह जब रात तेज बारिश होकर गुजर जाए --जिसे बगैर कुछ याद किये गुजारने की कोशिश तो की ही जा सकती है --जिंदगी के अधकचरेपन को समझने में अपनी समझदारी  कितना काम आई,उस दिन को इस दिन के मत्थे मढ़   देना हालांकि समझदारी नहीं थी --फिर भी कई बेईमान दोस्त और कई कई तरीकों से सताने वाले लोगों और रिश्तों से छुटकारा पा लेना मुश्किल था पर उसने किया वो सब -
--हड़बड़ी और नाउम्मीद सी इस दुनिया में रौशनी में झिलमिल उन दिनों में अपने लिए और वो खुश थी ,वो ऐसा ही सोचती थी उसने सोचा भी ---लेकिन सच सजगताएं आदमी को असहज और निकम्मा बना देती है अनुभव तो यही है --फिर भी एक निरीह सपाट आतंक उसके दिल दिमाग पर छाता गया उसका यही भय उसके सामने कभी निराशा तो कभी अतिशय प्रेम और कभी विवशता की तरह सामने आने लगता --जिसका खामियाजा भी उसे  बेतरतीब तरीकों से भुगतान कर  करना पड़ता --आखिर खींचतान के बाद सलवटों भरा ही तो बचाया जा सकता था बाद में उन्ही सलवटों में खुद को समेट सिकोड़ लेना फिर वैसे ही रहना अनमने और कसैले से हिसाब लगाते रहना दोयम स्थिति से उबरने की कोशिशें, सस्ते और बेहूदा मोहों से बच निकलना -
निकलकर मुकम्मल उदासी और खालीपन से अपने को खूब खूब भर लेना उसे बखूबी आता है -फिर भटकना अज्ञात लोक नक्षत्रों में  ढून्ढ लेना कोई ठौर  हो जाना
निस्संग  आस-पास से --अरसे तक चलता, कई कहानियो उपन्यासों को बार बार पढ़ना --उनके अंत और घटना क्रम को मन मर्जी से बदल देना --और तसल्ली देना खुद को कोई भी उस जैसी मुश्किल में नहीं ये सोचना उसे खुश करता --आखिरकार अंत तो उसे अपना आप ही बनाना है --किरदारों को मोड़ दे देने से क्या होगा ---इस सब में अपने को जानबूझकर स्थितियों में तर रखना एक तरह की निर्ममता में जीवित रहना उसे रास आ जाता ---उसकी यादों बातों और वादों से ऊब की हद तक उक्ता जाना --ये सोचना किसी के लिए बेवकूफी में बिताये दिनों से फिर भी ये बेहतर है ---एक यही  सोच बस थोड़ी सोच की हद से उसे ऊपर ले जाती ----बावजूद कई चीजें और भी इतर चीजों से बड़ी थी जैसे परत उधेड़ती हवा का पीले पत्तों का लहराते  कुड़मुड़ाते हुए शाखों से नीचे गिरते देखना खूबसूरत था/, ख़ुशी  के खजाने की तरह कोई फूल खिला देखना भीगी चिड़िया का पंख झाड़ना बार बार आँख खुलते ही सिरहाने वाली  खिड़की की मुंडेर पर कबूतरों के जोड़े का गुटरगूं करना  बारिश में, नीली धूप  का निकलना छिपना देखना ---एक  द्वैत भाव ही तो था जो जिला देता था, बाकी दिनों में खुद को तटस्थ रख अपने लिए मृत्त घोषित हो जाना किसी परिणीति के बाद तलाश ख़त्म होगी भी या नहीं ---क्या चीजें छीन  लिए जाने के लिए नियति अक्सर चीजों को मिला देती है मिटटी सी चीजों को इतना प्यार करना भी तो ठीक नहीं हंसी आ जाती है एक बूँद आंसू भी --किसी ऐतिहासिक अद्भुत सीलन भरी गंध में सराबोर प्रेम अपनी जगह था जहाँ के तहाँ --इन्तजार एक हैरानी और मूर्खता से भरा पल ही है ,बीते पलों की मौजूदगी में आतुरता से स्पर्श में दर्ज ढाई आखर ---जैसे मधय सप्तक का निषाद स्वर एक ही सांस में मन्द्र  सप्तक के निषाद पर उत्तर आये --हैरानी यही थी इस साल वर्षा कम होने के बावजूद,शहर में हरियाली बहुत घनी थी  
]एक रात की नींद ---बारह हजार दिन के सपने --मन की आंशिक रिपोतार्ज ]