बुधवार, 5 नवंबर 2008

पृथ्वी की तरह थरथराते हुए... प्रेम करते हुए...



जिन दिनों ,

अंधेरे आकाश से लड्ते हुए।

बादलों को चीर कर कभी कभार ,

दिख जाता था,एक टुकडा चाँद,

तुमने मेरे मन को,

पोथी की तरह बांच डाला था,

पृथ्वी की तरह थरथराते हुए,

तुमने किया था स्पर्श ,

कई बार जब तुम्हे प्यार करते हुए,

मुझे याद आया हमारा युद्धरत देश,

तुमने गुलाबी होंटों को,

मेरे माथे पर धर कर अभिषेक किया,

जबकि बेहद आक्रोश था मन मैं,

तुमने फूल सा हाथ,

मेरे कन्धों पे रखते हुए,

मुझे और तपने दिया।


यह खूबसूरत प्रेम-कविता सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के पौत्र - 'विवेक निराला' की है। जिसे अपनी डायरी से ...


6 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत आभार विवेक निराला जी की कविता पढ़वाने के लिए.

अमिताभ मीत ने कहा…

आभार ये सुंदर कविता पढ़वाने के लिए.

बेनामी ने कहा…

sach man ko chu gayi bahut sundar

डॉ .अनुराग ने कहा…

क्या बात है.........विवेक में पूरे गुण है उसी परम्परा के ......बेहतरीन रचना ......हमारी बधाई उन्हें दे...आपका शुक्रिया ...उम्मीद है आगे भी कुछ उनका लिखा बांटेगी

जितेन्द़ भगत ने कहा…

वि‍वेक नि‍राला जी की कवि‍ता पढ़ लगा कि‍ ये भी साहि‍त्‍य सेवी हैं, अच्‍छी कवि‍ता लि‍खते हैं और यह खुशी की बात है।

विधुल्लता ने कहा…

shukriya,shukriya.aap sabhi kaa