मंगलवार, 4 नवंबर 2008

बांधो ना नाव इस ठौर बन्धु...


कई बार मुश्किलों से बचने की कवायद में, मन ही मन टोह लेना पड़ता है की सामने वाला क्या सुनना चाह रहा है। सारी सतर्कताओं के साथ कुछ कदम नियत से आगे भी देखना होता है। जब मैं जॉन स्टुअर्ट को पढ़ती हूँ "स्त्रियों की पराधीनता" पुस्तक में, और वे कहते हैं, "पुरूष केवल महिलाओं की पूरी-पूरी आज्ञाकारिता ही नहीं चाहते, वे उनकी भावनाएं भी चाहते हैं... सभी पुरूष अपनी निकटतम सबंधी महिला में एक जबरन बनाये गए दास की ही नहीं बल्कि स्वेच्छा से बने दास की इच्छा रखते हैं अतः उन्होंने महिलाओं के मस्तिष्क को दास बनाने के लिए हर चीज का इस्तेमाल किया। तो मुझे लगता है जैसा की पिछला तमाम अनुभव भी बताता है की ज़िन्दगी एक ही ढर्रे पर नहीं जी जा सकती, अनुभव हमेशा विशिष्ट होता है। ख़ुद के पक्ष और पक्षकारों के तर्कों के सहारे, समय और इतिहास से परे सोचना, बतलाना, जतलाना एक किस्म की सस्ती-बेवकूफी हो सकती है। मैं महान नहीं, ना तपस्वी फ़िर भी सचमुच कितनी तपस्या करनी होती है कुछ जोड़ने-सहेजने के लिए। इंच भर की कमी कभी-कभार मन मुताबिक ना हो तो रिश्ते पानी की लहरों की तरह इधर-उधर हो जाते हैं, क्या हमारा संघर्ष हमारे संस्कारों का ही हिस्सा नहीं बन जाते? सच मानियेगा, ज़िन्दगी जितनी बड़ी लगती है; उतनी है नहीं। अब देखिये ना, समय नहीं ठहेरता किसी के लिए। झूठ है, कहते हैं, इन्द्रधनुषी समय में रुके हुए पल, ज़िन्दगी अकस्मात एक बहुत बड़ा कैनवास बन जाती है जिसमे अधिकांश नाराज़ लोगों के चेहरे उभर आते हैं। समझ नहीं आता, समझ तो यह भी नहीं आता क्यों लोग अपने जीने, रहने और सोचने के तरीकों को अपने इष्टमित्रों पर लाद देते हैं, उसे सही साबित करना भी। पर हमेशा ऐसा नहीं होता ना? जो कहीं सही होता है, वही कहीं-कभी ग़लत भी हो जाता है, और हम उसी में से अपना सही-ग़लत चुन लेते हैं। किसी भी रिश्ते के चरम का अंदाजा लगाये बिना, एक-दुसरे की पीड़ा जाने बगैर, लौट आना वहीं जहाँ से चले थे। बीते सुखों को गोल चाँद के पीछे धकेल कर... बहुत सी हिदायतें, ये करो; वैसा करो; पुख्ता करो... हमेशा कोई कैसे सही हो सकता है? मानसिक चौकसी पाबन्दी यंत्र की तरह कैसे सम्भव है?... जब बोनसाई की देखभाल करती हूँ रसोई में दूध उफान जाता है, मनपसंद गीत-ग़ज़ल सुनते मोबाइल या फ़ोन सुनाई ही नहीं देता, जल्दबाजी में ठोकर भी लग जाती है... आप बताएं क्या में अपने बेहतरीन समय की अमुल्यता को इसी हिसाब-किताब लगाने में ख़त्म कर दूँ - की किस काम से कितना नफा नुक्सान होगा? मुझे रूककर, पीछे पलटकर या आगे बहुत दूर तक नहीं देखना चाहिए की आख़िर मैं कहाँ तक पहुँची और मुझे कहाँ तक जाना है

हमारी यादों में बचपन के भय मौजूद रहते हैं, ज़िन्दगी उदास घाटी में बेकाबू हो जाती है। पहाडों के पार से गूंजती आवाजें इस कलिकाल में किसी अपने-अपनों के अंतस में उतर जाने की आकांछा दम तोड़ देती है। रिश्ते टूटने, खोने और उन्हें बचाने की कशमकश में कुछ नायाब इच्छाएं बीच-बीच में सर उठती है। दूसरो की खुशी में अपनी खुशी हांसिल होना , पाना और हर कहे को सर- माथे पर रखना हमेशा तो नहीं हो सकता ना? फ़िर कभी ना मीठे में तब्दील होने वाली कड़वाहट! क्योंकि मैं स्त्री हूँ, क्यों नहीं मान लेते आप- मेरा स्त्री होना एक जैविक बोध ही नहीं बल्कि सामाजिक बोध भी है और मनुष्य होने के नाते, मैं भी वो सब कर सकती हूँ जो आप सब कह/कर पातें हैं...

2 टिप्‍पणियां:

डॉ .अनुराग ने कहा…

हमारी यादों में बचपन के भय मौजूद रहते हैं, ज़िन्दगी उदास घाटी में बेकाबू हो जाती है। पहाडों के पार से गूंजती आवाजें इस कलिकाल में किसी अपने-अपनों के अंतस में उतर जाने की आकांछा दम तोड़ देती है। रिश्ते टूटने, खोने और उन्हें बचाने की कशमकश में कुछ नायाब इच्छाएं बीच-बीच में सर उठती है। दूसरो की खुशी में अपनी खुशी हांसिल होना , पाना और हर कहे को सर- माथे पर रखना हमेशा तो नहीं हो सकता ना? फ़िर कभी ना मीठे में तब्दील होने वाली कड़वाहट! क्योंकि मैं स्त्री हूँ, क्यों नहीं मान लेते आप- मेरा स्त्री होना एक जैविक बोध ही नहीं बल्कि सामाजिक बोध भी है और मनुष्य होने के नाते, मैं भी वो सब कर सकती हूँ जो आप सब कह/कर पातें हैं...



शब्द की लय....जैसे बहुत कुछ कह जाती है....

ravindra vyas ने कहा…

एक विचारोत्तेजक पोस्ट। आईने के सामने आईना रखती हुई...