बुधवार, 7 नवंबर 2012

बहुत कुछ छूट जाता हैअक्सर,जैसे कुछ भले लोग, और बेरहमी से छूट जाता है बरसों का साथ


बहुत कुछ छूट जाता हैअक्सर  
जैसे बचपन ,जैसे जवानी ,जैसे कुछ भले लोग,
और बेरहमी से छूट जाता है बरसों का साथ 
वक्त से पहलेटूटकर गिर जाती है हंसी 
सन्दर्भों के बदलते ही प्राथमिकताओं की सूचि में कहाँ से कहाँ पहुंचा दिए जाते हें लोग 
कुछ लोगों से अपने गाँव की मिटटी छूट जाती है 
छूट जाते हें खेत खलिहान अमराई कुआं बावड़ी 
हाथों से हाथ ,नाते रिश्तेदार ,यात्रा के बीच पेड़ फूल पहाड़ 
बहुत से लोग जाते हें यात्राओं पर सभी कहाँ पहुँच पाते  हें
कुछ बीच में ही हो जाते हें दुर्घटना ग्रस्त 
तमाम शुभकामनाओं के बावजूद .
.कुछ चीजें छूट जाती अकस्मात और कुछ आहिस्ता आहिस्ता
 कुछ पहले और कुछ बाद में 
एक दिन खुद से ही छूट जाती अपनी मिटटी सी देह 
और अपनी ही आँखों में भरे जल को देखना
 अपनी ही आँखों से देखना भी नहीं रहता शेष
 लेकिन इससे पहले कभी कभी या अक्सर
 ये  छूटना अखरता है बेहद ...
लेकिन जो छूटता है वो छूटता तो है ही  


आज पहली दफे महसूस हुआ शब्दों के पार जाने मे सहायक होते हें शब्द ही  [ कैलाश पचौरी ] 

3 टिप्‍पणियां:

सदा ने कहा…

कुछ छूटते हुए को पकड़ने का क्रम
चलता रहता है निरन्‍तर
सब इसी फेर में हैं
कुछ छूटने ना पाये पर
फिर भी छूटता जा रहा है
कहीं छूटते हैं अंजाने ही
अपनों से अपने
कहीं छूट जाता है
हाथों से हाथ
....

रंजू भाटिया ने कहा…

एक दिन खुद से ही छूट जाती अपनी मिटटी सी देह ..यही शास्वत सच है ....बाकी फिर बचा क्या ?

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

स्मृतियों के तन्तु टूटते,
सहते वर्तमान, जूझते।