तुमने
एक बहुत उंचा-नीचा
उबड़-खाबड़,कंटीला-पथरीला
,पहाड़ गढा मेरे लिए
और कहा -जा रहो और
करो इन्तजार ताउम्र
ये आजमाने की कोशिश थी ,या
दूर बहुत दूर रहने की कवायद
नही जान पाई ...फिर एक पुल बुना मैंने ,
अपनी संवेदनाओं के छोटे बहुत छोटे टुकड़े जोड़कर,
ढलान से थोडा ऊपर ,
चट्टानी गहरी खाई के ठीक ऊपर ,
बना पुल तुम्हारे लिए था ...
जहाँ खुला आसमान था ,
और थी जंगली वन्स्पतियों की खुशबू
और एक अनगूंज ...लगातार,
तुम्हे अपना कह सकने के पहले और बाद में,
कोई नाम जैसे ....निर्विकार -नीलाभ
सूर्य ..संदल..शुभम ..या सनातन ,
आदि गौत्र सा बजता है आधी रात शिराओं में ..
.मन है की उदासी नही छोड़ता,
ना जोड़ता है ,ना जुड़ता है,कहीं ओर,
क्या कोई आंसू इस लिखे पर गिरे
ओर कोई शब्द ..वक्त की तरह
धुंदला जाए तभी यकीन करोगे.?
जबकि में
वक्त के पार -अव्यक्त .उस वक्त की तरह
इस समय के साथ
गुमशुदा देहरियाँ ..तलाशती ...
इस बारिशी मौसम के शोर में भी सुन सकती हूँ तुम्हे ,
शुक्रिया दोस्त ,
जिसकी चौखट पर हाथों से पकड़े गए ,संग सितारे ,
ओर आंखों से समेटे गये ..उजाले,
हथेलियों पर स्पर्शों में ..अब भी दर्ज है ,
जब हमारी असंभव इक्षाओं का सम्भव भविष्य लिखा गया
बेमानी सा ....
बाकी सब जो झूट है ....अपनी नई-पुरानी कविताओं के संग्रह से
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28 टिप्पणियां:
विधु जी नमस्कार,
अरसे बाद आपके ब्लॉग पे आना हुआ है ...अचंभित तो नहीं हूँ मगर हर्षित जरुर हूँ ... क्या खुबसूरत नज़्म पढने को मिली है वाह बहोत ही खुबसूरत.. कुछ एक जगह तो पढ़ते पढ़ते आवाज़ भरी भी हो गयी मगर वाह वाह ही दिल से निकल रहा था ... नज़्म की बड़ी खासियत होती है के उसके अंत को इस तरह से ख़त्म करी जाये की दिल से बस सवाल ही उठते रहे और आपके इस नज़्म ने क्या कमाल किया है वाह बहोत बहोत बधाई
अर्श
इस समय के साथ
गुमशुदा देहरियाँ ..तलाशती ...
इस बारिशी मौसम के शोर में भी सुन सकती हूँ तुम्हे
शुक्रिया दोस्त ,
शशक्त औए गहरी रचना................. कुछ कहती हुयी, कुछ दर्शाती हुयी............जज्बाती रिश्तों के ताने बाने में बुनी लाजवाब रचना
वाह बहुत गहरेभाव लिये है आप की यह रचना.
धन्यवाद
कौन कहता है कविताएं मृत हो रही है ...कुछ कविताएं गध से भी बेहतर बहुत कुछ कह जाती है....जैसे ये पंक्तिया ...
"इस समय के साथ
गुमशुदा देहरियाँ ..तलाशती ..."
नहीं जानता जब आपने ये कविता लिखनी शुरू की होगी आपके भीतर क्या उमडा होगा.....पर कभी कभी लिखने से पहले हमें उसके अंत की पक्तिया मिल जाती है मन में......ओर कभी कभी लिखते उसका अंत ओर मिल जाता है ....आपके भीतर इस कविता को लेकर क्या उमडा था ....बतायायेगा
इस बारिशी मौसम के शोर में भी सुन सकती हूँ तुम्हे ,
शुक्रिया दोस्त ,
जिसकी चौखट पर हाथों से पकड़े गए ,संग सितारे ,
ओर आंखों से समेटे गये ..उजाले,
हथेलियों पर स्पर्शों में ..अब भी दर्ज है ,
जब हमारी असंभव इक्षाओं का सम्भव भविष्य लिखा गया
बेमानी सा ....
umda rachna.
बस वाह वाह करने को दिल कर रहा है
कुछ रचनाओं की तासीर इतनी गहरी होती है कि दिल और दिमाग खामोश हो जाता है !
बस बधाई और शुभकामनाएं रखिये फिलहाल
आज की आवाज
विधु जी प्रणाम,
बहुत संवेदनशील रचना की है
---
चर्चा । Discuss INDIA
vidhu ji ,namaskar,
kishore ji ke blog pe is naam ko dekh itni prabhavit hui ki is blog ko padhane ki ichchha aap hi jaag uthi.jab kholi to gulzar ki line dekh man bahut hi khush hua jaise jaise aage badhi samna khoobsurati se hota raha .mere baare me jo likha hai wo bhi kam nahi .rachana ka bhi jawab nahi .har mod ne prabhivit kiya .bahut khoob .
अर्श जी ,दिगंबरजी,अनुराग जी,स्वपन जी,अनिल,प्रकाश जी नजर जी और ज्योति जी ..शुक्रिया आप सभी का,मैं तो आप सभी के स्नेह से ही अभिभूत हूँ कैसे लौटाया जाय अब तो ये फिक्र भी है ,अभी कुछ उलझने बाकी है,जल्दी ही अपना पोर्टल शुरू करने जा रही हूँ ...आप सभी की शुभकामना चाहिए
एक-एक पंक्ति लाजवाब और अंत तक आते - आते निशब्द!
vidhu bhabhi ji,
Bahut gahrai(deep)liye hue kavita likhi hai,vastav mein kavita kavi ke apne se apni baat hoti hai.
Best wishes for such a nice continuous hindi writing...
Abhilasha
आदरणीय लता भाभी जी,
कविता बहुत ही दिल को छू लेने वाली है,मेरा सोचना है की जब हम खुद से मन में बात करते हैं तो कविता स्वत ही लिख जाती है .
अच्छे लेखन की निरंतरता बनाये रखने के लिए बहुत-२ शुबकामनाएं
अभिलाषा
मर्मस्पर्शी है आपकी कविता। अगली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी।
बहुत खूब सूरत रचना
बहुत खूब सूरत रचना कभी समय निकल कर मेरे ब्लॉग पर दस्तक दें मोहब्बत रूहानीज़ज्बा और मिलने की प्यास रहने देमेरी ताज़ा रचनाये पढ़कर मुझे आशीर्वाद दें
"अपनी संवेदनाओं के छोटे बहुत छोटे टुकड़े जोड़कर,"
"मन है की उदासी नही छोड़ता,
ना जोड़ता है ,ना जुड़ता है,कहीं ओर..."
"जबकि में
वक्त के पार -अव्यक्त .उस वक्त की तरह
इस समय के साथ
गुमशुदा देहरियाँ ..तलाशती ...
इस बारिशी मौसम के शोर में भी सुन सकती हूँ तुम्हे....."
काव्य-विधा की हर कसौटी पर खरे utarte हुए आपके जज़्बात ....
और उनकी खूबसूरत अल्फाज़ में बढ़या अक्कासी ...
डॉ अनुराग की टिपण्णी बिलकुल सार्थक लग रही है
ऐसी अनूठी और नायाब रचना पर
ढेरों बधाई और अभिवादन स्वीकार करें .
---मुफलिस---
क्या कोई आंसू इस लिखे पर गिरे
ओर कोई शब्द ..वक्त की तरह
धुंदला जाए तभी यकीन करोगे.?
सोचने पर मजबूर करती एक सशक्त रचना ......!!
सभी महानुभवों को नमस्कार ,क्या कोई मुझे बताएगा ...पिछले एक माह से मुझे ब्लॉग मैं एरर की प्रॉब्लम आ रही है ....कई मित्र जो मुझसे ...गूगल फ्रेंड कनेक्ट ..के जरिये जुड़े हें ....उनके मेसेज मुझे कुछ इस तरह से मिलतें हें ...उदाहरण के लिए, जैसे अलका गोयल के २५ मेसेज मैं ...प्रब्लम फीड मेडिक अलर्ट अलका गोयल ..आगे लिखा होता है, मेसेज इज एरर ओन लाइन ...इस कारण ना तो मैं कमेंट्स कर पा रही हूँ ना पोस्ट पर काम जो मेरी मुश्किल हल कर देगा मैं बड़ा ही आभार मानूगी
vidhu ji
namaskar
aapki is kavita ko main bahut der se padh raha hoon .. aapne itni acchi kavita likhi hai ki main kya kahun,mere paas shabd hi nahi hai iski taareef ke liye , ye to bhaavnao ka sangam hai ji
antim panktiya to jaise dhadak rahi ho ..
naman aapki lekhni ko
aABHAR...
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
एक सुन्दर रचना.
सर्वप्रथम तो आपका बहुत-बहुत आभार, मेरे ब्लाग पर आपके प्रथम आगमन का, आपकी यह रचना बहुत ही सशक्त और सटीक खासतौर पर कुछ पंक्तियां
क्या कोई आंसू इस लिखे पर गिरे
ओर कोई शब्द ..वक्त की तरह
बहुत ही बेहतरीन ।
Bidhu ji, sabase pahale etani sundar kavita ke liye aapko badhi...aur mujhe aapki sab kavitaye bahut pasand hai... aur vah jo aapne father ke upar kavita likhi hai , its really superb...
Regards
DevSangeet
कवयित्री विधु लता की कविता ‘वक्त के पार- अव्यक्त.उस अव्यक्त की तरह’ समकालीन हिंदी कविता का वह दर्पण है जिसमें स्त्री-विमर्श की कवितायें अपना वर्तमान चेहरा बखूबी देख सकती है। यहाँ एक स्त्री के हृदय से उद्गत विकल भाव, रुखड़ी-कोमल भाषा और सलज्ज-हाहाकारती संवेदना ही नहीं सिर्फ़ पाठक को भीतर तक कुरेदते बल्कि अगर ध्यान से देखें तो कविता की संपूर्ण प्रकृति ही संश्लिष्ट और उस पुरुष-मन को तार-तार कर बेधने वाली है जो एक स्त्री के भावना-संसार से अब तक अछूता रहा है -
क्या कोई आंसू इस लिखे पर गिरे
ओर कोई शब्द ..वक्त की तरह
धुंदला जाए तभी यकीन करोगे.?
जबकि में
वक्त के पार -अव्यक्त .उस वक्त की तरह
इस समय के साथ
गुमशुदा देहरियाँ ..तलाशती ...
इस बारिशी मौसम के शोर में भी सुन सकती हूँ
कविता में कहने के ढंग यानी मुहाविरा भी नया और इतना अनगढ़ है कि आँख को नम और मन को उद्वेलित करता है।भाषिक संरचना में मुहविरा को प्रयोग हुआ है वह सामान्य से हटकर है-यथा; पहाड़ गढा मेरे लिए,बना पुल तुम्हारे लिए था ,गुमशुदा देहरियाँ ,असंभव इक्षाओं का सम्भव भविष्य इत्यादि कविता में रुचि जगाते हैं।मैं तो आपकी और भी कवितायें पढ़ना चाहूंगा। मैं अफ़सोस कर रहा हूँ कि आप की रचना पर विलम्ब से नज़र गयी।...खैर। हाँ, कहीं -कहीं वर्तनी की अशुद्धियाँ रह गयी हैं जिसे ठीक किया जाना चाहिये।- सुशील कुमार ( sk.dumka@gmail.com)
इस लिंक को भी क्लिक कर कृपया पढ़े-
काव्य-वर्जनाओं के विरूद्ध कविता के नये प्रतिमान
वक्त के पार -अव्यक्त .उस वक्त की तरह
इस समय के साथ
गुमशुदा देहरियाँ ..तलाशती ...
इस बारिशी मौसम के शोर में भी सुन सकती हूँ तुम्हे ,
शुक्रिया दोस्त ,
जिसकी चौखट पर हाथों से पकड़े गए ,संग सितारे ,
ओर आंखों से समेटे गये ..उजाले,
हथेलियों पर स्पर्शों में ..अब भी दर्ज है ,
निशब्द हूँ इस दिल को छू लेने वली अभिव्यक्ति के लिये
इस समय के साथगुमशुदा हैं देहरियां...शब्द चयन इतना नायाब है कि जिसने पढ़ा टिप्पणी के लिए बेचैन हो गया..जी हां मैं भी ....बहुत बधाई।
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