मंगलवार, 6 जनवरी 2009

समुद्र पकड़ना चाहना और मुठियों मैं रेत भर जाए...प्रार्थनाएं बचा लेती हैं ,क्या ग्यानी हो जाने से संताप मिट जाता है ?


मौसम मैं तेज नमी के बावजूद गर्मी थी,उमस भरी अलसुबह मैं धीरे-धीरे धरती से ऊपर उठता हुआ प्लेन ..और दूर तक एक अंधड़ चक्रावात की तरह कागज़ तिनके रंग-बिरंगी पालीथिन,रेशे-धागे,एक जगह सिमटकर ऊपर की और बढ़ते उसके साथ,ये एक गुबार होता है जो हर यात्रा मैं उसके साथ आ जाता है, जिसमे एक चेहरा कई-कई संबंधों को अन्दर समेटे ...तोल्स्तोय याद आतें हैं,वे कहतें हैं जब हम किसी सुदूर यात्रा पर जातें है आधी यात्रा पर पीछे छूटगए शहर की स्मर्तियाँ मंडराती है केवल आधा फासला पार करने के बाद ही हम उस स्थान के बारें मैं सोच पातें हैं ...जहाँ हम जा रहें होतें है ---बिल्कुल सच ऐसा ही होता है हर बार ,अतीत का कोई टुकडा ललचाता है ,और तुंरत यादों के दायरे मैं आ जाता है,सम्बन्धों की उष्मा -गहराई को जानने के बाद भी अमानवीय हुआ जा सकता है ,मन नही मानता आत्मीयता कोई सूत्र जोड़ती है ,उसकी बातों और यादों से बनी और बसी दुनिया मैं,.....समुद्र की फेनिली लहरें सागर से टकरा कर लौटती हैं, संवेदनाओं के घनीभूत क्षण मैं थोडा नीला-हरा रंग मोहता है, फिर भी इक्चाओं के साथ कितना कुछ ख़त्म हो गया,नही लड़ा गया युद्ध, पार नही किया गया पहाड़ ,कुछ चीजें कितने काम की होती हैं जैसे रुमाल ,खिड़कियाँ,बतियाँ बंद करके या जरूरत मुताबिक,कितने आराम से कुछ भी सोचा जा सके ..उसकी बाजू वाली सीट पर नानवेज बर्गर खाता युवक ,उसने रुमाल की तह खोली और विंडो साइड चेहरा करके नाक पर फेला ली, हम शारजहाँ पहुँच ही रहे थे ....बडा सा बंजरी मैदान बस मेरा और dपीछे छूट गया हरा भरा खेत उसका मीलों दूर तक ...बस वक्त वहीँ से ओझल होता जाता है ...सीट बेल्ट बाँधने का आदेश,जिस दिन नागपुर से दुबई के लिए उसकी फ्लाईट थी उसी दिन एक मेसेज उसने कर दिया था की वो अब बारह दिनों तक अरब कंट्री मैं होगी ,ये बात अलग थी की उसके यहाँ रहने ना रहने से कोई फर्क नही पड़ने वाला था और ये महज इतेफाक ही था की वो मेसेज फेल होकर लौट आया था, सारी चीजें उसकी जिन्दगी मैं सही चलते-चलते किसी वक्त विशेष पर ही जाकर ना जाने क्यों इतनी दुसाह्सी हो जाती हैं की हेल्पलेस होकर बैठने के अलावा कुछ नही किया जा सकता ...कौडियों के मोल का प्रेम...पैसा हाथ का मेल तो कतई नही होता...जिन्दगी की, जीवन की, सलामती की ग्यारंटी जरूर है..एक फीकी मुस्कान आकर लुप्त होजाती है,समुद्र पकड़ना चाहना और मुठियों मैं रेत भर जाए यत्न से सहेजी यादें और जतन से सिरहाने रखा अकेलापन चाहे जितना अच्छा लगे ---आत्मा छीजती है ..तार-तार अर्थ कई अर्थ मैं खो जातें हैं ,इतने दबाव के बावजूद प्रार्थनाएं बचा लेती है जैसे सब उसमें जाकर सच मैं बदलता है ---क्या ग्यानी हो जाने से संताप मिट जाता है ,नदिया ,बियाबान,पहाडों कछारों आकाश मैं उड़ते बादलों ,हवा धुप का शुक्रगुजार होना होता है और मुस्तफा का भी, एक दूसरी धरती तक लेजाने वाला ...एक स्मार्ट पायलेट जिसके चेहरे पर चस्पां था एक मौसम ..हुबहू वही सर से पाँव तक छेह माह बाद भी कोई याद आ जाए तो, .आज कडाके की ठण्ड है ...उसे मौसम विभाग की चेतावनी पर भरोसा नही ,किसी बूढे से पूछना होगा पिछली बार इतनी तेज ठण्ड कब पड़ी थी ...वो अपनी ब्लेक पश्मीना शाल को इर्द-गिर्द कस कर लपेटती है,जिसमें उसके कई उजले दिन बुने हुए थे ....
"एक ही शख्स था एहसास के आइने में, कभी शबनम; कभी खुशबु... कभी पत्थर निकला...-नजीर अहमद "

10 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

ये बात अलग थी की उसके यहाँ रहने ना रहने से कोई फर्क नही पड़ने वाला था, बिलकुल हमारी तरह से, हम सब विदेशो मै रहने वाले शायद ज्यादा ही सोचते है अपनो के लिये.... लेकिन...
बहुत सुंदर लेख पढवाने के लिये आप का धन्यवाद,

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सुन्दरता से मनोभावों को पिरोया है-उम्दा शब्द संचयन है.

मैं आ गया मे के बदले हर जगह-बस, ध्यान दिलाना चाहता था.

बहुत शुभकामनाऐं.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

बहुत ही गहरा लिखा आपने........इतना कि फिलवक्त कोई टिप्पणी भी जायज नहीं लगती....आपको सलाम.......!!...........पहली बार ही आया था...........अब तो बार-बार आना ही पड़ेगा......!!

hem pandey ने कहा…

सशक्त प्रस्तुतिकरण.

Vinay ने कहा…

बहुत सही क्या कहूँ सोचता हूँ कुछ शब्द आपके लेख के आगे छोटा न रह जाये!


---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

...Lajvab prastuti.

निर्मला कपिला ने कहा…

bahut sunder bhaavmay hai bdhaai

विधुल्लता ने कहा…

आदरणीय ,राज भाटिया जी, समीर भाई,हेम पाण्डेय जी, विनय, रश्मि सिंग,एवं निर्मला कपिला जी आप सभी का आभार ...ब्लॉग पर आने और भावों को समझने का शुक्रिया,

डा. अमर कुमार ने कहा…


अपनी टिप्पणी केवल एक शब्द में समेट दूँ ?
भई.. वाह !

समयचक्र ने कहा…

बहुत सुंदर गहरा लेख... धन्यवाद.