सोमवार, 24 नवंबर 2008

तुम भीतर के फरिश्ते को नए पंख देते हो ,

सभी कुछ तो है तर्क से परे,
तुम्हारा आना-तुम्हारा जाना
कहीं दूर ओट मैं खुलना -खिलखिलाना,
यका-यक गुमसुम हो जाना,
तुम्हारी प्यार की अनबुझी प्यास,
और हर एक पर गहरा अविश्वास ,
इतना खुलापन ,इतनी घबराहट ,
भीतर की उदास इतनी मिठास ,
मैं हार मान लेता हूँ,
मेरी बुद्धि से परे है।
पर मेरी बुद्धि को बार -बार तोड़कर
मुझसे तुम परे नही होते
ऐसा क्यों?
क्यो ऐसा होता है की
तुम भीतर के फरिश्ते को नए पंख देते हो
कैसी विडंबना है ,की तन-मन को उत्तेजनाये तोड़ती है
सपने सहलातें हैं,मेरा वो तन-मन मेरा नही रहता
तुम्हारे होने का सवाल नही उठता ,
पर वो ,पराया होकर भी ,
पराया नही।
अपनी डायरी से,...विद्या निवास मिश्र की प्रेम कविता से ,ये अंश सरल शब्दों किंतु कठिन भावों की बानगी मैं इतने सहज हैं की प्रेमी के सोंधे तर्कों को ,हर अगली पंक्ति पे, खुबसूरत मोड़ पे छोड़ देतें हैं.

7 टिप्‍पणियां:

पारुल "पुखराज" ने कहा…

यका-यक गुमसुम हो जाना,
तुम्हारी प्यार की अनबुझी प्यास,
और हर एक पर गहरा अविश्वास ,
इतना खुलापन ,इतनी घबराहट ,
भीतर की उदास इतनी मिठास ,
मैं हार मान लेता हूँ,
मेरी बुद्धि से परे है।..shukriyaa aapkaa

नीरज गोस्वामी ने कहा…

कहीं दूर ओट मैं खुलना -खिलखिलाना,
यका-यक गुमसुम हो जाना,
तुम्हारी प्यार की अनबुझी प्यास,
और हर एक पर गहरा अविश्वास ,
बेजोड़ रचना...क्या कहूँ...ऐसी रचना के लिए कुछ कहा नहीं जा सकता सिर्फ़ आँख बंद कर लिखने वाले को धन्यवाद ही दिया जा सकता है...
नीरज

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत ही सुंदर भाव.
धन्यवाद

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

पर मेरी बुद्धि को बार -बार तोड़कर
मुझसे तुम परे नही होते
ऐसा क्यों?


नायाब रचना ! बहुत शुभकामनाएं !

makrand ने कहा…

ऐसा क्यों?
क्यो ऐसा होता है की
तुम भीतर के फरिश्ते को नए पंख देते हो

bahut sunder

मुंहफट ने कहा…

सभी कुछ तो है तर्क से परे,
तुम्हारा आना-तुम्हारा जाना
....वाकई वाह... विधु जी....बधाई.

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह ने कहा…

beautiful poem expresses the real sense of the soul. congrats.very touchy indeed.