मंगलवार, 14 अगस्त 2012

..सब कुछ उंचाई से नीचे की ओर धंसता ही जाता है ,९० डिग्री के कोण से नीचे देखना देह को थरथरा जाता है हवा के साथ बजते हुए कुछ शब्द दिल में घुसपैठ करते हेँ, बुध्धम शरणम गच्छामि

  • देर रात की अंतिम सौ  ख़बरों की आखरी खबर में मौसम विशेषज्ञों ने फिर तेज बारिश ओर तूफान की घोषणा की थी -हालाँकि झूटा निकला मौसम विभाग का अनुमान ,पिछले महीने ओर हफ्ते भर से मूसलाधार बारिश की वजह से अब कोई फर्क नहीं पड रहा था इस तरह के वेदर फॉर कास्ट से ..ओर मौसम की मासूमियत में घुली थी हर चीज रेशा-रेशा ,उसे मानों पता ही नहीं था की कितनी तबाही ओर तूफान आकर चले गये थे इस बीच ..फिर धूप भी निकली बड़ी मिन्नतों ओर मन्नतों के बाद, साथ ही उमीदों की खुली खिड़कियाँ से  सोच का गुब्बार बह निकला बाहर के मटमैले पानी संग ओर अन्दर सब कुछ पारदर्शी हो गया ..ऐसे में आसमान खुलता है पर लगता है ये सब थोड़े समय के लिए ही है ..ओर फिर एक मनमौजी बादल के साथ सफर की शुरुआत ,ख़ुश हो जाओ ..आश्वस्त करना अपने को ...जहाँ हम हेँ वहाँ से रौशनी कुछ ऐसे ही आएगी लगता है पीछे एक गरीब सूनापन ,पसरी हुई जड़ता एक बेगानापन अपने से निजात पाना चाहता है मुक्त होने का सवाल ही नहीं ,कोई दुःख है जो छीजता ही जाता है तुम्ही  बताओ? नहीं तो लिखो एक कागज़ पर लार्ज साइज़ में उसकी नाव बनाओ ओर छोड़ दो पानी की तरलता में कोई ठौर तो लगेगी, ना हो तो रफ्ता-रफ्ता गलते दुःख शायद राहत दे ...बस सोच ही काफी है, बेचैनियों की तरल छूअन उसे छू कर लौट आती है तब तक अस्सी करोड़ से ज्यादा बार उसे सोचा जा सकता है ..बहुत कुछ ऐसा था जिसे नहीं समझा जा सका ,कितनी आहटें ओर दस्तकें थी पर वही नहीं था, जो उसके लिए था किसी ओर के लिए संभव ही नहीं था एक ऐसा सच जो पानी में घुल मिल गये की तरह था ,इस बार भी लगा वह लौट आयेगा कई बार की तरह...बीते सालों में उसका इन्तजार मौसमों की तरह ही तो किया था  ओर सोचा  जियेगा बीते कल को फिर से ..एक छोटे से जीवन में नामालूम से रंग भी बुरे मौसम की आशंका से फीके हुए जाते हेँ एक धूसर दुःख चुप्पी साध लेता है जिसके पीछे का सुख एक धनात्मक उम्मीद जगाता है ..बेहद निस्संग ओर उदास शाम भी आखिर खींच-तान के, दिन के साथ बीत ही जाती है, इस बारिशी नमी में भी कुछ शब्दों को सुखा लेने का सुख अन्दर ही अन्दर शोर बरपाता है ,कतई नहीं हो सकता  --क्या? वो ,जो तुम सोचती हो, वैसा -हाँ क्यों नहीं ...अपने को भरमाने के अलावा हो ही क्या सकता है फिर भी सब कुछ उंचाई से नीचे की ओर धंसता ही जाता है ,९० डिग्री के कोण से नीचे देखना देह को थरथरा जाता है हवा के साथ  बजते हुए कुछ शब्द दिल में घुसपैठ करते हेँ, बुध्धम शरणम गच्छामि ...की आवाज..कानो से टकराकर लौटती है    शरीर  के साथ उंचाई से नीचे का डर,ओर डर के साथ धडाम से नीचे  गिर जाने  वाला डर होता है ,वरना तो ऐसा कुछ भी नहीं है ..ओर फिर आँखें मुंद जाती है,बजाय सामना करने का,  मुंदी आँखों से एक ठंडी साँस के साथ फिर से जीने की कोशिश --बस बचा लिया उसने वरना तो मर ही जाती --थैंक्स ,एक दिली थकान जुबां से बहार निकलती है उबड़-खाबड़ पहाड़ों से, दुःख से उबरना ,हमें लौटना होगा अपनी आबो- हवा में जहाँ हमारी चुप्पियाँ रहती हेँ जिनके बेहद करीब उसकी नर्म अँगुलियों ने खोज ली थी [लामायुरु]की सफेद पगडंडियाँ बस संग साथ की सोच से  उमीदों को  बल मिलता था,ओर कोशिशों से ,जहाँ अनाम  जंगली पेड़ों  की कंटीली गीली ओर चमकदार पत्तियों में धंसी धूप खिलखिल करती अचंभित करती है अब भी ...
  • लामायुरु लदाख की समृद्ध विरासत का सबसे प्राचीन ओर सर्वाधिक महत्वपूर्ण बौद्ध मठ....

9 टिप्‍पणियां:

Shanti Garg ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन और प्रभावपूर्ण रचना....
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग

जीवन विचार
पर आपका हार्दिक स्वागत है।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

एक शान्तिमय भव्य वातावरण रहता होगा वहाँ पर..

S.N SHUKLA ने कहा…

bahut sundar prastuti, badhai

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

आकर्षक प्रस्तुति
बहुत बढिया

Rakesh Kumar ने कहा…

बहुत अच्छे से लिखा है आपने.
आपके लेखन की शैली विशिष्ट है.

ashok andrey ने कहा…

bahut sundar likha hai aapne,badhai.

Sanju ने कहा…

nice presentation....
Aabhar!
Mere blog pr padhare.

विधुल्लता ने कहा…

Shanti Garg शालिनी कौशिक, प्रवीण पाण्डेय , S.N SHUKLA महेन्द्र श्रीवास्तव , Rakesh Kumar , ashok andrey, Sanju ji aap sabhi kaa dhanyvaad...

sanjay ने कहा…

बारिश के साथ इतना गहरा रिश्ता भी हो सकता है , मेरी कल्पना से बाहर था। आपने बहुत खूबसूरती से लिखा है विधु जी। धन्यवाद आपकी लेखनी को। क्लि