मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

अजरा तुम जहाँ हो...

समकालीनता के साथ-साथ परम्परा से भी लगातार रूबरू होना ज़रूरी होता है, परम्परा मैं बहुत सी धाराएं एक साथ चलती हैं जिनसे जरुरी नहीं सभी सहमत हो। लेकिन उनकी मौजूदगी से इंकार एक तरह की हटधर्मिता ही मानी जायेगी। चीजें, व्यक्ति और व्यवस्था एक खुली बहस और वैचारिक संघर्ष से ही आकर ग्रहण करती है।


अजरा... (ख़त एक) -


अपनी पहली पोस्ट मैं अपनी बचपन की मित्र अजरा के लिए लिख रही हूँ... ये ख़त बरसो से दिल-दिमाग में था। ज़िन्दगी के कई ज़रूरी और गैर-ज़रूरी कम करते वक्त बीतता रहा... अजरा तुम कहाँ हो? कल जबकि १४ अक्टूबर को तुम्हारा जन्मदिन भी है, सुबह की ताजा और कच्ची धुप मैं तुम्हे एक बड़ा सा ख़त लिखूंगी।


प्रिय अजरा,


कई दफा हमे अपनी एकांगी सोच से बचना होता है, तुम भी मुझे जहाँ हो याद ज़रूर करती होगी। लेकिन कितनी हैरानी की बात है की सुचना के इस संपन्न- संभ्रांत युग में मेरे पास न तुम्हार टेलीफोन नम्बर है,न सेल और ना ही आई-डी। जब हम आठवी कक्षा में थे तब हमारी पहचान हुई, बरसों पहले से ही, शायद जन्म से ही तुम परम्परावादी धर्म की रस्सियाँ तोड़कर उससे आगे जाना चाहती थी और फ़िर लौटने के बाद सारे रास्ते बंद! आज तुम बहुत याद आ रही हो, तुम्हारी बातें उस वक्त कोई मुल्ला-मौलवी सुन लेता तो उस कुफ्र के लिए तुम्हे उसी वक्त इस्लाम से निकाल खदेड़ देता, तुम्हारे बहुत से सवालों के जवाब उस वक्त मेरे पास नहीं थे सिवाय अपनी अबोध समझाइश के जो तुम्हारे धर्म के बारे में मुझे मालुम थी। अब सोचती हूँ वाकई इस्लाम की बुनियादी अवधारणा पर ही शक करने वाली अजरा तुम्हारा परिवार में रहना उस वक्त कितना मुश्किल रहा होगा।अब ये मेरी ज्यादा समझ मैं आता है. तुम मेरी गहरी दोस्त थी, दिमागी तौर पर तुम जितनी ऊँचाई पर थी उतनी ही शारीरिक तौर पर भी... एक पठानी मुस्लिम लड़की जो औसतन अपनी उम्र से करीब सात -आठ साल बड़ी लगने वाली, बात-बात पर खिलखिलाने वाली। तुम आती और हम बरामदे के बड़े से झूले पर दिनभर बतियाते , तुम्हारा होटों को थोड़ा तिरछा कर हंसने पर मुह के दायें दातों पर अर्धविकसित दांत का चढा होना दीखते ही... आह! कितनी खूबसूरत लगती थी तुम, बस तुम्हारा रंग आम मुस्लिम लड़कियों से अलग था... ना गोरा , ना काला औरत्वचा एकदम चमकीली , उन्ही दिनों हमने आज के गुज़रे ज़माने की अभिनेत्री - मौसमी चेत्तेर्जी , जो हुबहू तुम्हारी शक्ल मिलती थी की एक फ़िल्म कृष्णा टाकिज में देखी थी। आज वहां एक बड़ा शौपिंग मॉल बन गया है, खुदा जाने , तुम्हे याद है की नहीं जहाँ बैठकर हमने पूरी दुनिया को भुलाकर 'मंजिल' का शो देखा था, शो ख़त्म होने के बाद बारिश हो रही थी, और तीन किलोमीटर का रास्ता घर तक हमने पैदल ही तय किया था... तुम अपना बुरखा पहन कर लौट गई थी।अजरा बस कल शाम कुछ मेहमान आए देखा कांच के ग्लास ज़यादातर मेरे घर में बेजोड़ हो चुके हैं, पति की तमतमाई आँखें देखी, हालाँकि अब कई बातें बेअसर होने लगी हैं। वैसे अजरा १७-१८ साल की गृहस्ती मैं कोई औरत हमेशा चीजों की देखभाल कैसे करती रह सकती है? यूँ तो मैं आम औरतों की तुलना मैं अपने घर की सार-संभार थोडी अच्छी तरह स करती हूँ और अपने को १०० में स ७५ नम्बर देती हूँ इसीलिए मैंने सोचा कुछ अच्छे ग्लासों की खरीदारी कर लूँ वैसे मैं यहाँ हजारों बार आई हूँ लेकिन तुम इतनी शिद्धत स जेहन में कभी नहीं उभरी। कांच की चीजों स मुझे वैसे भी हमदर्दी कभी नहीं रही उन्हें काम वाली बाई तोडे या मेहमान या वो अपने हाथ से छूटकर 'चन् से ' टूट जाए अथवा गैर-जिम्मेदार बातूनी माँओं के बच्चे उन्हें खिलौना समझकर फर्श पर पटक दे। मुझे कभी दुःख नहीं होता यकीन मानो सिर्फ़ कांच की किरचों को उठाते मैं बेहाल हो जाती हूँ... घर लौटी तो...

1 टिप्पणी:

सुजाता ने कहा…

सिर्फ़ कांच की किरचों को उठाते मैं बेहाल हो जाती हूँ...
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कांच की खूबसूरती और चमक के परे ये किरचें किस कदर हैरान परेशान रखती हैं ,कईं कईं दिन बाद तक कोई न कोई महीन कांच कभी किसी कुर्सी या तख्त के पाये के पीछे से घर को बुहारते हुए निकल आता है और चुभ जाए तो ...